(महामहिमों के स्वीकार में निहित तिरस्कार और आत्मा में निरंतर विकलता और क्षोभ की मौजूदगी - इन अभिशापों को विष्णु खरे को भोगना ही है। और यह एक तरह से ठीक ही है। विष्णु खरे जब तक अभिशप्त रहेंगे, तब तक हिंदी कविता उनकी साहसिक सर्जनात्मकता से समृद्ध होती रहेगी - कात्यायनी )

यहां न प्रकाश है न अंधकार है न धूप है न छांह है न कोहराम है न सन्नाटा
अंधी घाटी का तो कोई छोर भी नहीं
सयानों के बीच सूर्य के विषय में अनेक अफ़वाहें फैलती हैं
कुछ लोग कहते हैं कि आजकल वह नहीं उगता
पैरों में चिपटी हुई जोंकों को खींच फेंकने की अब हिम्मत नहीं है
कभी हमने कोशिश की थी लेकिन सिर्फ़ उनकी दुम टूट कर रह गई थी
रक्तवाहिनी शिराओं में उनके दांत ढूंढना बहुत मुश्किल है
और अब तो खास तकलीफ़ भी नहीं होती
अंधी घाटी में में इससे भी बड़े खतरे हैं
स्याह धुंधलके में मैंने नीले नाखून और बैंगनी मसूढ़े देखे हैं
और रेंगने की ध्वनि सुनी है
मेरे समीप से अभी कुछ सरका है
जिसकी बदबू भरी साँस मेरे पेट के गढ़े तक पहुँची है
हमें अब उबकाई तक नहीं आती
अंधी घाटी में किसी भी बात के आदी होने में वक्त नहीं लगता
हमें सुनाई देती हैं भयावह फुसफुसाहटें विक्षिप्त अट्टहास
और हजारों आदिम सरीसृपों के कीचड़ में खिसकते
पैरों की चिपचिपाहट
छंछूदरों की तरह
एक-दूसरे हाथों में हाथ दिए
(हाथ जो कोढ़ी हैं और हाथ जो अब सिर्फ़ डंठल रह गए हैं)
हम अंधी घाटी के तिलचट्टी फर्श पर घिसटते हैं
और जब थर्राते हुए पीछे देखते हैं
तो देखते हैं कि फिर एक साथी यकायक ग़ायब हो जाता है
सिर्फ एक गूंजती हुई बर्फीली चीख डूबती है
और भयावह फुसफुसाहटों विक्षिप्त अट्टहास
और खिसकते पैरों की चिपचिपाहट की ध्वनि
गहरी होती जाती है और कुछ देर बाद आती है
छीन झपट की आवाज़, तिकोने दांतों से तोड़ी जा रही
गोश्त और खून लगी हडि्डयों के तड़कने की आवाज़
हमारे दिलों पर मौत की दस्तक और धैर्यहीन हो जाती है
मुझे मालूम है अंधी घाटी का दस्तूर यही है कि रोया न जाए
लेकिन हम उस आखिरी चीख को सुनते हैं
और जोंक लगे भारी शोणितहीन क़दमों से भागने का यत्न करते हैं
खून चूसती हुई जोंकें यदि हंस सकतीं तो इस मूर्खता पर अवश्य हंसतीं
अंधी घाटी के अंतहीन अंधकार में कोई भागकर कहां जाए
सयानों ने कई रास्ते बताए थे
किंतु हर बार कुछ दूर जाने पर हमारी ठोकरों से कई कंकाल उखड़ आए
और हमें लौटना पड़ा
पहले कभी सयाने सूर्य का ज़िक्र करते थे
और हमारी मोतियाबंदी आंखों में कुछ चमक उठता था
हमारे हाथों में कोंपलें उगने लगती थीं
हम उसांसे भरते थे और ऊपर यूं देखते थे
कि यदि दृष्टि कगारों तक पहुंचे तो सूर्य को पीकर ही लौटे
जब वे सूर्य की बातें करते तो ऊपर उंगलियां उठाई जातीं
टोलिया बनती और दबे स्वरों में मंत्रणा होती
किंतु सयानों का रुख बदला
और अब वे कहते हैं कि अंधी घाटी ही हमारा प्रारब्ध है
उजियाला नामक कोई वस्तु ही नहीं है और यदि है भी
तो वह हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकती है
(वे शायद धीरे धीरे अंधे होते जा रहे हैं)
अंधी घाटी की पहाड़ियों के शिखरों पर बैठे पहरेदार गिद्ध
हम पर प्रतीक्षामयी ऊबी हुई दृष्टि डालते हैं
कंदराओं में सुनता हूं लाखों झिल्लीदार पंखों की फड़फड़ाहट
नुकीली चट्टानों के नीचे हरी आंखें चमकती हैं
तिलचट्टी फर्श पर क़दम महसूस करते हैं व्यस्त दीमकों की दिनचर्या
मृत्युहासी नरमुंडों से गिरे हुए केशों के आसपास उगी काई में
देखता हूं
रेंगते हुए बैंगनी और कत्थई चकत्ते
और अंधी घाटी की छत पर
पीली दृष्टि देखती हैं लाखों जाल
जिन पर हमारी सांसे धुंआ बनकर जम गई हैं
दैत्याकार मकड़ियों की पलकहीन पुतलियों में
हमारे दयनीय भयविक्षिप्त बौने अष्टावक्र प्रतिबिम्ब हमें तकते हैं
यहां
नीचे
सयानों ने नई अर्चना आरम्भ कर दी है
वे दैत्याकार मकड़ियों को अर्ध्य देते हैं
(जालों में झूलते हुए वे मक्खियों के अवशेष नहीं हैं)
और पहरेदार गिद्धों की छाया को चूमते हैं
वे स्वयं पीछे रहकर स्वत: को समर्पित करते हैं
और अंधी घाटी के देवताओं को जयकारते हुए
`कगारों के पार जीवन नहीं है´
कहकर मृत्यु को स्वीकारते हैं
और जो भृकुटियां तानते हैं, ऊपर इंगित करते हैं, टोलियां बनाते हैं
और दबे स्वरों में मंत्रणा करते हैं
उन्हें धिक्कारते हैं, उनके विषय में दारूण भविष्यवाणी करते हैं
अथवा शाप देते हैं
किंतु टोलियां बड़ी होती जाती हैं
दबे स्वर विस्तृत ध्वनि बनते जाते हैं
और जब हम पीछे देखते हैं तो देखते हैं
फिर कोई साथी यकायक ग़ायब हो जाता है
हम थर्राते हुए ठिठकते हैं
लेकिन वह चीख नहीं सुन पाते
न ही देवताओं के जयजयकार में उसका कंठ
शायद इसीलिए कुछ दिनों से धुंधली असूर्यम्पश्या आंखें देखती हैं
दैत्याकार मकड़ियों के जालों में हलचल
पहरेदार गिद्ध रोमहीन व्यग्र गरदनें झुकाकर नीचे कुछ खोजते हैं
लगता है
कोई वह जो सयानों में ईमान न ला सका
भाग निकला है शिखरों की ओर
सूर्य की टोह लेने!
***
( यह कविता परिकल्पना प्रकाशन (डी-68, निरालानगर, लखनउ-२२६००६, प्रकाशन वर्ष २००८, मूल्य : पेपरबैक -६०=००, सजिल्द १५०=०० ) से आई कवि की चुनी हुयी कविताओं के संग्रह " लालटेन जलाना" से साभार ली गई है। इसके प्रकाशन के बारे में यह बताना ज़रूरी है कि यह कविता ४५ वर्ष पुरानी है तथा किंचित भिन्नता के साथ क्रमश: आजकल (दिल्ली) एवं नई कविता (इलाहबाद) में १९६४ से १९६६ के बीच छपी। )
अद्भुत! 'भूल-ग़लती' की याद आ गयी.
ReplyDeleteलेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!
मैं अभी मुक्तिबोध को पढ़ना शुरू कर रही हूं - समझ में अधिक कुछ नहीं आ रहा पर इतना अहसास है कि ये कवि अलग है-महान है! खरे जी की ये कविता मुक्तिबोध की नकल जैसी लग रही है। मैं गलत हूं तो मुझे माफ कर देंगे।
ReplyDeleteरागिनी पहले मुक्तिबोध को समझो फिर आप विष्णु खरे को समझ पाओगी. जिसे आप नकल कह रही हो वो परंपरा का विस्तार है!
ReplyDeleteबहुत ही अद्भुत कविता, ये बात तो सच है की विष्णु जी हिंदी कविता के साहसिक अगुआ हैं और ये एक सभ्यता का विकास है जो मुक्तिबोध और विष्णु जी की रचनाओं में दिखता है. विष्णु जी अपनी कविताओं में शामिल तत्वों की पूरी परिभाषा देते और समझाते हैं जिसे समझ कर इस सभ्यता के विकास को समझा जा सकता है.
ReplyDeleteशिरीष जी दोपहर में एक दोस्त के लैपटाप पर खरे जी की कविता पढ़ी और तुरत टिप्पणी भी लगा दी। अभी देखा कि मेरे बीस मिनट बाद ही आपने मुझे समझाने की कोशिश की। आपके शब्द कठोर नहीं हैं - मैं अब दोनों कवियो को ध्यान से पढुंगी। किसी और ब्लाग पर कम ही जाती हूं - जाती भी हूं तो टिप्पणी नहीं करती। हिंदी कविता में बहुत रुचि है इसलिए अनुनाद प्रिय है। 200 वीं पोस्ट पर शुभकामनाएं! भूल-गलती माफ। ठीक है?
ReplyDeleteshirish ji,
ReplyDeleteaap hamesha raagini ji par firing kyon karte rahte hain, jisse koi apne dil ki sachchi baat bataane se bhi qhauf khaaye ! aap use aisa karne ke pahle hi daboch le ?
---pankaj chaturvedi
kanpur
शिरीष भैया वाकई आप हमेशा रागिनी को डांट देते हैं
ReplyDeleteकभी कभी साहित्य के प्रभामंडल से अपरिचित पाठक
निर्दोष मगर औचित्यपूर्ण टिप्पणियां करते हैं
उन्हें इस तरह हतोत्साहित नहीं करना चाहिए
मैं पंकज जी और विशाल भाई की बात से सहमत हूं…देखिये न भारत भाई ने भी क्या कहा…
ReplyDeleteहां कविता अद्भुत है…मैं इसे परंपरा का विस्तार कहुंगा
Kya h ye sab
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