अनुनाद

अनुनाद

मनमोहन की कविताएँ



स्मृति में रहना



स्मृति में रहना
नींद में रहना हुआ
जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ

ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी
याद नहीं निमिष भर की रात थी
या कोई पूरा युग था

स्मृति थी
या स्पर्श में खोया हाथ था
किसी गुनगुने हाथ में

एक तकलीफ़ थी
जिसके भीतर चलता चला गया
जैसे किसी सुरंग में

अजीब ज़िद्दी धुन थी
कि हारता चला गया

दिन को खूँटी पर टांग दिया था
और उसके बाद कतई भूल गया था

सिर्फ़ बोलता रहा
या सिर्फ सुनता रहा
ठीक-ठीक याद नहीं

आग

आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई

सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में

आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग

आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है

लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है

चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है

गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)

मशालें…

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर

मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए

मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं

वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के…जैसे
हमारी भोर के होंगे

लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा…बरसता हुआ…

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)
– – – – – – – – –
धीरेश सैनी की ज़िद्दी धुन से साभार ….

0 thoughts on “मनमोहन की कविताएँ”

  1. धीरेश बार बार मनमोहन की कवितायेँ पढाता रहा है और हर कविता अच्छी लगती है.

  2. पहली कविता का सूफियाना रंग और उसका प्रवाह मुझे बहुत आकर्षित करता है। उसका शीर्षक कवि ने `याद नहीं’ दिया है और आपने `स्मृति में रहना’। इससे क्या फर्क पड़ता है। शायद कवि भी शीर्षक देने की मजबूरी की वजह से ही कोई शीर्षक देता हो…

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top