अनुनाद

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शुन्तारो तानीकावा की कविताएँ – अनुवाद : अशोक पांडे

( ऊपर कवि नीचे अनुवादक )

नए साल की क़समें

क़सम खाता हूं दारू और सिगरेट नहीं छोड़ूंगा
क़सम खाता हूं जिनसे मैं नफ़रत करता हूं उन्हें नहला दूंगा नीच शब्दों से
क़सम खाता हूं सुन्दर लड़कियों को ताका करूंगा
क़सम खाता हूं हंसने का जब भी उचित मौक़ा होगा
खूब खुले मुंह से हंसूगा
सूर्यास्त को देखूंगा खोया-खोया
फ़सादियों की भीड़ को नफ़रत से देखूंगा
क़सम खाता हूं
दिल को हिला देने वाली कहानियों पर रोते हुए भी संदेह करूंगा
दुनिया और देश के बारे में दिमाग़ी बहस नहीं करूंगा
बुरी कविताएं और अच्छी कविताएं लिखूंगा
क़सम खाता हूं समाचार-पत्र सम्पादक को नहीं बताऊंगा अपने विचार
क़सम खाता हूं
अंतरिक्ष-यान में चढ़ने की इच्छा नहीं करूंगा
क़सम खाता हूं क़सम तोड़ने का अफ़सोस नहीं करूंगा
-इसकी गवाही में हम दस्तखत करते हैं !
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काल्पनिक आंकड़े
टूटी शाखें : छियासी लाख बासठ हज़ार तीन
घायल तितलियां : पांच लाख तेरह हज़ार चार सौ इक्कीस
पैदाइशी जीनियस : माइनस तीन
जुड़े हुए आंसू : उनहत्तर हज़ार पांच सौ पंद्रह
बहे हुए आंसू : पांच अरब आठ करोड़ क्यूबिक मीटर
पवित्र मासूम पुरुष : शून्य
छींकें : गिनी नहीं जा सकतीं
धुंधले इंद्रधनुष : उतने जितने पुरुषों का विवाह हो गया
टूटे नगाड़े : चार
रूमानी प्यार : साढ़े आठ
अफ़सोस करने लायक स्थितियां : अनन्त
मैं : बस एक
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बारिश, गिरो ना !

गिरो ना बारिश
उन बिना प्यार की गई स्त्री पर
गिरो ना बारिश
अनबहे आंसुओं के बदले
गिरो ना बारिश गुपचुप

गिरो ना बारिश
दरके हुए खेतों पर
गिरो ना बारिश
सूखे कुंओं पर
गिरो ना बारिश जल्दी

गिरो ना बारिश
नापाम की लपटों पर
गिरो ना बारिश
जलते गांवों पर
गिरो ना बारिश भयंकर तरीके से

गिरो ना बारिश
अनंत रेगिस्तान के ऊपर
गिरो ना बारिश
छिपे हुए बीजों पर
गिरो ना बारिश हौले-हौले

गिरो ना बारिश
फिर से जीवित होते हरे पर
गिरो ना बारिश
चमकते हुए कल की खातिर
गिरो ना बारिश आज!
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एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष

छोटे-से ग्लोब में मानव सभ्यता
सोती है, जागती है और काम करती रहती है
कभी चाहती हुई मंगलग्रह के साथ दोस्ती करना

मंगलवासी छोटे-से ग्लोब में
और शायद कुछ करते हुए, पता नहीं क्या
(शायद सोना-सोते हुए, पहनना-पहनते हुए, हड़बड़ी-हड़बड़ाते हुए)
कभी चाहते हुए पृथ्वी के साथ दोस्ती करना
मैं निश्चित हूं उस तथ्य को लेकर

यह चीज़ जिसे हम कहते हैं सार्वत्रिक गुरुत्व
अकेलेपन की शक्ति है चीज़ों को इकट्ठा करती हुई

ब्रह्मांड की आकृति बिगड़ी हुई है
इसलिए सब जुड़ते हैं इच्छा में

ब्रह्मांड फैलता जाता है लगातार
इसलिए सारे महसूस करते हैं बेचैनी

बीस अरब प्रकाशवर्षों के अकेलेपन पर
बिना सोचते हुए, मैं छींका !
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माहवारी

1
उसके भीतर कोई तैयार करता है एक उत्सव भोज
उसके भीतर कोई तराशता है एक अनजाना बेटा
उसके भीतर कोई पड़ा है घायल

2
सृष्टि की रचना के समय
लापरवाही के कारण घायल हो गई ईश्वर की हथेली को
अब भी मुश्किल लगता है भुला पाना

3
इस विशुद्ध नियमितता के साथ सुसज्जित
अंतिम संस्कार होते हैं मेरे भीतर उत्सव के रंगों में
मनाया जाता है उनका शोक
वे जारी रहते हैं बिना घायल हुए और वे मर नहीं पाते
और वे शून्य में मिल पाते हैं मेरे बच्चे जो
ज़रूरत से ज्यादा छोटे हैं एक पका हुआ चांद
गिर रहा है उसे थामने वाला कोई नहीं
मैं इंतज़ार कर रही हूं एक ठंडी जगह पर
उकड़ूं बैठी मैं अकेली इंतज़ार कर रही हूं—
उसके लिए जो बोएगा चांद को
उसके लिए जो मुझे वंचित कर देगा इस चढ़ते ज्वार में —
एक घाव के साथ, जो खो चुका
हर किसी की
स्मृति में,
मेरे भीतर और जो परे है
किसी भी उपचार की पहुंच से

4
…. जो चाहते हैं जीवित रहना उन्हे बुलाता हुआ
किनारे की तरफ़ ज्वार बहता है भरपूर
उसके भीतर उसके भीतर एक समुंदर है
पुकारता हुआ चांद को और जैसे-जैसे चांद
घूमता जाता है उसके भीतर है
एक अनन्त कैलेंडर ….

____________________________________________________________________ ( शुन्तारो तानीकावा जापान की नई पीढी के कवियों में सर्वोपरि माने जाते हैं। अशोक पांडे द्वारा किए गए उनके अनुवाद संवाद प्रकाशन से ” एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष” नाम से छपे हैं, जो एक संग्रहणीय पुस्तक है।)

0 thoughts on “शुन्तारो तानीकावा की कविताएँ – अनुवाद : अशोक पांडे”

  1. वाह वाह आपने बहुत ही प्रभावशाली रचनाएं पढ़्वाई मज़ा आ गया किसी एक कविता और किसी एक पंक़्ति को ही प्रशंसा के लिए चुनना पूरी कविता के साथ बेइंसाफी होगी

  2. baarish,giro na…adbhut akulahat ki kavita hai…aur anuvaad(hamare saamne to yahi hai)to laajawab hai…dheron sadguvaad mitr…ummeed hai age bhi hame naye naye swad se parichit karate rahenge.

    yadvendra

  3. शुन्तारो के और उनसे ज्यादा शिरीष मौर्य व अशोक पांडे के आभारी, जिनकीबदौलत ये कविताएं पढ़ी जा सकीं।

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