
होली की मस्ती के तुरत बाद आइए अब जिन्दगी के कुछ अहम मरहलों पर चर्चा करते हैं। चर्चा का माध्यम होगी पाश की यह कविता। 9 सितम्बर 1950 को तलवंडी सलेम, पंजाब में जन्मे अवतार सिंह `संधू´ पाश आठवें-नवें दशक की पंजाबी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें हिंदी में भी वही स्थान और प्यार प्राप्त है, जो पंजाबी में। सैंतीस जैसी कम उम्र में वे खालिस्तानी उग्रवादियों के शिकार हो गए, जब उनके गांव में ही उनके अभिन्न मित्र हंसराज के साथ उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया। पाश का वामपंथी समर्पण आतंकवादियों को रास नहीं आया। बाकी बात उनकी कविता कहेगी ....
अब मैं विदा लेता हूं - पाश
अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना ना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सबकुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जजो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गुंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने व्यापारी बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना -
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना -
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना -
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना -
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं
तुम भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया
मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे सांचें में ढाला
तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवाय इसके,
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना !
________________________________________________
यह अद्भुत अनुवाद प्रो0 चमनलाल जी का किया हुआ है। मैंने अपने तईं कुछ क्रियाओं और शब्दों में परिवर्तन किया है ताकि वे हिंदी के ज्यादा क़रीब लगें। नीचे पाश पर अनुराग अन्वेषी का एक महत्वपूर्ण लेख भी दिया जा रहा है, अनुराग जी के प्रति आभार के साथ ....
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना ना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सबकुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जजो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गुंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने व्यापारी बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना -
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना -
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना -
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना -
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं
तुम भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया
मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे सांचें में ढाला
तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवाय इसके,
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना !
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यह अद्भुत अनुवाद प्रो0 चमनलाल जी का किया हुआ है। मैंने अपने तईं कुछ क्रियाओं और शब्दों में परिवर्तन किया है ताकि वे हिंदी के ज्यादा क़रीब लगें। नीचे पाश पर अनुराग अन्वेषी का एक महत्वपूर्ण लेख भी दिया जा रहा है, अनुराग जी के प्रति आभार के साथ ....
पाश को मारकर भी नहीं मार सके आतंकवादी -अनुराग अन्वेषी
यह हैं पाश। अवतार सिंह संधू 'पाश'। आज से बीस साल पहले (23 मार्च 1988 को) खालिस्तानी आतंकवादियों ने इनकी हत्या कर दी थी। इस पंजाबी कवि का अपराध (?) यही था कि यह इस जंगलतंत्र के जाल में फंसी सारी चिड़ियों को लू-शुन की तरह समझाना चाह रहे थे। चिड़ियों को भी इनकी बात समझ आने लगी थी। और वे एकजुट होकर बंदूकवाले हाथों पर हमला करने ही वाली थीं कि किसिम-किसिम के चिड़ियों का हितैषी मारा गया। उस वक्त पाश महज 37 बरस के थे।
वैसे, यह बेहद साफ़ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है, जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आता है। यानी, कोई भी हत्या डर का परिणाम है। पाश की क़लम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। पाश बेशक ज़िंदादिल इनसान थे। उनकी जिंदादिली की पहचान हैं उनकी बोलती-बतियाती कविताएं। पाश की कविताएं महज कविताएं नहीं हैं, बल्कि वे विचार हैं। उनका साहित्य पूरी दृष्टि है। ज़िंदगी को क़रीब से देखने का तरीका है। कुल मिलाकर वह ऐसी दूरबीन है जिससे आप दोस्तों की खाल में छुपे दुश्मनों को भी पहचान सकते हैं।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी। पर ख़ुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा। 1970 में वह जेल में थे और वहीं से उन्होंने कविता संकलन 'लौह कथा' छपने के लिए भेजा। इस संकलन में उनकी कुल 36 कविताएं थीं। इस संकलन के आने के साथ ही अवतार सिंह संधू 'पाश' पंजाबी कवियों में 'लाल तारा' बन गये। 1971 में पाश जेल से छूटे। इस बीच जेल में ही उन्होंने ढेर सारी कविताएं लिखीं और हस्तलिखित पत्रिका 'हाक' का संपादन किया। 1974 में पाश के 'उड्डदे बाजां मगर', 1978 में 'साडे समियां विच' और 1988 में 'लड़ांगे साथी' कविता संकलन छपकर आये। अपने 21 वर्षों की काव्य-यात्रा में पाश ने कविता के पुराने पड़ रहे कई प्रतिमानों को तोड़ा और अपने लिए एक नयी शैली तलाशी। संभवतः अपने इसी परंपराभंजक तेवर के कारण पाश ने लिखा है :
तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाये
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।
पाश की कविताओं में विषय-वैविध्य भरपूर है, किंतु उनके केंद्रीय भाव हमेशा एक हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि पाश ने जिंदगी को बहुत करीब से देखा। तहजीब की आड़ में छूरे के इस्तेमाल को उन्होंने हमेशा दुत्कारा, साथ ही मानवता और उसकी सच्चाई को उन्होंने गहरे आत्मसात किया। पाश के लिए ये पंक्तियां लिखते हुए उनकी कविता 'प्रतिबद्धता' याद आती है, जिसका करारा सच प्रतिबद्धता के नाम पर लिखी ढेर सारी कविताओं को मुंह चिढ़ाता है :
हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटिन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।
गुड़ की चाशनी, हुक्के की निकोटिन और महबूब के होठों की मलाई - ये बिंब पाश जैसे कवि को ही सूझ सकते हैं। यह अलग बात है कि कविता के नासमझ आलोचक इसे बेमेल बिंबों की अंतर्योजना कह कर खारिज करना चाहें। पाश ने खेतों-खलिहानों में दौड़ते-गाते, बोलते बतियाते हुए हाथों की भूमिका भी सीखी :
हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
'हीर' के हाथों से 'चूरी' पकड़ने के लिए ही नहीं होते
'सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
'कैदो' की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं।
इस अंदाज में अपनी बात वही कवि रख सकता है जिसे पता हो कि वह कहां खड़ा है और सामनेवाला कितने पानी में है :
जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है।
मनुष्य और उसके सपने, उसकी ज़िंदादिली और इन सबसे भी पहले अपने आसपास की चीजों के प्रति उसकी सजगता पाश को बहुत प्यारी थी :
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...।
पाश के लिए कविता प्रेम-पत्र नहीं है और जीवन का अर्थ शारीरिक और भौतिक सुख भर नहीं। बल्कि इन सबसे परे पाश की दृष्टि एक ऐसे कोने पर टिकती है, जिसे आज के भौतिकतावादी समाज ने नकारने की कोशिश की है - वह है उसकी आज़ादी के सपने। आज़ादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम नहीं और देश का मतलब भौगोलिक सीमाओं में बंधा क्षेत्र विशेष नहीं। आज़ादी शिद्दत से महसूसने की चीज़ है और देश, जिसकी नब्ज भूखी जनता है, उसके भीतर भी एक दिल धड़कता है। इसलिए पाश हमेशा इसी सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखते हैं।
वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं। विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है। पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी। पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है :
यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...
पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था - लौहकथा। इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा। कवि ने इस कविता में लोहे को इस क़दर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं। एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल। कुदाल लिये हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है। लेकिन इन दोनों में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।
पाश की कविताओं से गुज़रते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुज़रना पाठकों के लिए मुश्किल है। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुज़रते हैं और जहां कविता ख़त्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं। यानी, तमाम खिलाफ़ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है।
मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।
उन्होंने अपनी लंबी कविता 'पुलिस के सिपाही से' में स्पष्ट कहा है :
मैं जिस दिन रंग सातों जोड़कर
इंद्रधनुष बना
मेरा कोई भी वार दुश्मनों पर
कभी ख़ाली नहीं जाएगा।
तब फिर झंडीवाले कार के
बदबू भरे थूक के छींटे
मेरी ज़िंदगी के घाव भरे मुंह पर
न चमकेंगे...
और इसके लिए बेहद ज़रूरी है :
मैं उस रोशनी के बुर्जी तक
अकेला पहुंच नहीं सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हें भी वहां पहुंचना पड़ेगा...
1974 में प्रकाशित 'उड्डदे बाजां मगर' में पाश की निगाह बेहद पैनी हो गयी है और शब्द उतने ही मारक। इसी संकलन की कविता है - हम लड़ेंगे साथी ।
हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी ज़िंदगी के सपने
पाश ने देश के प्रति अपनी कोमल भावना का इज़हार पहले काव्य संग्रह की पहली कविता में किया है
भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...
पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते। वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है। और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं :
इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...
नवंबर '84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने 'बेदखली के लिए विनयपत्र' जैसी रचना भी की। इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी।
मैंने उम्रभर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफ़सोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें ...
... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।
पाश की हत्या ने उनकी एक कविता की तरफ लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। 'मैं अब विदा लेता हूं' शीर्षक इस कविता में पाश ने अपनी सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए मृत्यु से 10 साल पहले ही अपनी अंतिम परिणति का ज़िक्र किया था :
...तुम यह सब भूल जाना मेरे दोस्त
सिवाय इसके
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का भी जी लेना मेरे दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।
संभवतः यही एक ऐसी कविता थी, जिसमें पाश अपने व्यक्तिगत जीवन से संबोधित थे और अपने आसपास के निकटस्थों के लिए लिखा था। सचमुच, उनके भीतर जिंदगी को उसके गले तक जीने की बलवती इच्छा थी।
वैसे, यह बेहद साफ़ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है, जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आता है। यानी, कोई भी हत्या डर का परिणाम है। पाश की क़लम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। पाश बेशक ज़िंदादिल इनसान थे। उनकी जिंदादिली की पहचान हैं उनकी बोलती-बतियाती कविताएं। पाश की कविताएं महज कविताएं नहीं हैं, बल्कि वे विचार हैं। उनका साहित्य पूरी दृष्टि है। ज़िंदगी को क़रीब से देखने का तरीका है। कुल मिलाकर वह ऐसी दूरबीन है जिससे आप दोस्तों की खाल में छुपे दुश्मनों को भी पहचान सकते हैं।
पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी। पर ख़ुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा। 1970 में वह जेल में थे और वहीं से उन्होंने कविता संकलन 'लौह कथा' छपने के लिए भेजा। इस संकलन में उनकी कुल 36 कविताएं थीं। इस संकलन के आने के साथ ही अवतार सिंह संधू 'पाश' पंजाबी कवियों में 'लाल तारा' बन गये। 1971 में पाश जेल से छूटे। इस बीच जेल में ही उन्होंने ढेर सारी कविताएं लिखीं और हस्तलिखित पत्रिका 'हाक' का संपादन किया। 1974 में पाश के 'उड्डदे बाजां मगर', 1978 में 'साडे समियां विच' और 1988 में 'लड़ांगे साथी' कविता संकलन छपकर आये। अपने 21 वर्षों की काव्य-यात्रा में पाश ने कविता के पुराने पड़ रहे कई प्रतिमानों को तोड़ा और अपने लिए एक नयी शैली तलाशी। संभवतः अपने इसी परंपराभंजक तेवर के कारण पाश ने लिखा है :
तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाये
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।
पाश की कविताओं में विषय-वैविध्य भरपूर है, किंतु उनके केंद्रीय भाव हमेशा एक हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि पाश ने जिंदगी को बहुत करीब से देखा। तहजीब की आड़ में छूरे के इस्तेमाल को उन्होंने हमेशा दुत्कारा, साथ ही मानवता और उसकी सच्चाई को उन्होंने गहरे आत्मसात किया। पाश के लिए ये पंक्तियां लिखते हुए उनकी कविता 'प्रतिबद्धता' याद आती है, जिसका करारा सच प्रतिबद्धता के नाम पर लिखी ढेर सारी कविताओं को मुंह चिढ़ाता है :
हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटिन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।
गुड़ की चाशनी, हुक्के की निकोटिन और महबूब के होठों की मलाई - ये बिंब पाश जैसे कवि को ही सूझ सकते हैं। यह अलग बात है कि कविता के नासमझ आलोचक इसे बेमेल बिंबों की अंतर्योजना कह कर खारिज करना चाहें। पाश ने खेतों-खलिहानों में दौड़ते-गाते, बोलते बतियाते हुए हाथों की भूमिका भी सीखी :
हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
'हीर' के हाथों से 'चूरी' पकड़ने के लिए ही नहीं होते
'सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
'कैदो' की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं।
इस अंदाज में अपनी बात वही कवि रख सकता है जिसे पता हो कि वह कहां खड़ा है और सामनेवाला कितने पानी में है :
जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है।
मनुष्य और उसके सपने, उसकी ज़िंदादिली और इन सबसे भी पहले अपने आसपास की चीजों के प्रति उसकी सजगता पाश को बहुत प्यारी थी :
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...।
पाश के लिए कविता प्रेम-पत्र नहीं है और जीवन का अर्थ शारीरिक और भौतिक सुख भर नहीं। बल्कि इन सबसे परे पाश की दृष्टि एक ऐसे कोने पर टिकती है, जिसे आज के भौतिकतावादी समाज ने नकारने की कोशिश की है - वह है उसकी आज़ादी के सपने। आज़ादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम नहीं और देश का मतलब भौगोलिक सीमाओं में बंधा क्षेत्र विशेष नहीं। आज़ादी शिद्दत से महसूसने की चीज़ है और देश, जिसकी नब्ज भूखी जनता है, उसके भीतर भी एक दिल धड़कता है। इसलिए पाश हमेशा इसी सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखते हैं।
वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं। विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है। पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी। पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है :
यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...
पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था - लौहकथा। इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा। कवि ने इस कविता में लोहे को इस क़दर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं। एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल। कुदाल लिये हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है। लेकिन इन दोनों में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।
पाश की कविताओं से गुज़रते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुज़रना पाठकों के लिए मुश्किल है। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुज़रते हैं और जहां कविता ख़त्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं। यानी, तमाम खिलाफ़ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है।
मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।
उन्होंने अपनी लंबी कविता 'पुलिस के सिपाही से' में स्पष्ट कहा है :
मैं जिस दिन रंग सातों जोड़कर
इंद्रधनुष बना
मेरा कोई भी वार दुश्मनों पर
कभी ख़ाली नहीं जाएगा।
तब फिर झंडीवाले कार के
बदबू भरे थूक के छींटे
मेरी ज़िंदगी के घाव भरे मुंह पर
न चमकेंगे...
और इसके लिए बेहद ज़रूरी है :
मैं उस रोशनी के बुर्जी तक
अकेला पहुंच नहीं सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हें भी वहां पहुंचना पड़ेगा...
1974 में प्रकाशित 'उड्डदे बाजां मगर' में पाश की निगाह बेहद पैनी हो गयी है और शब्द उतने ही मारक। इसी संकलन की कविता है - हम लड़ेंगे साथी ।
हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी ज़िंदगी के सपने
पाश ने देश के प्रति अपनी कोमल भावना का इज़हार पहले काव्य संग्रह की पहली कविता में किया है
भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...
पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते। वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है। और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं :
इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...
नवंबर '84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने 'बेदखली के लिए विनयपत्र' जैसी रचना भी की। इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी।
मैंने उम्रभर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफ़सोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें ...
... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।
पाश की हत्या ने उनकी एक कविता की तरफ लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। 'मैं अब विदा लेता हूं' शीर्षक इस कविता में पाश ने अपनी सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए मृत्यु से 10 साल पहले ही अपनी अंतिम परिणति का ज़िक्र किया था :
...तुम यह सब भूल जाना मेरे दोस्त
सिवाय इसके
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का भी जी लेना मेरे दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।
संभवतः यही एक ऐसी कविता थी, जिसमें पाश अपने व्यक्तिगत जीवन से संबोधित थे और अपने आसपास के निकटस्थों के लिए लिखा था। सचमुच, उनके भीतर जिंदगी को उसके गले तक जीने की बलवती इच्छा थी।
एक बार फिर से यह रचना पढकर दिल खुश हो गया।
ReplyDeleteपाश ने इस कविता में भूल जाने की बात कहते हुए इस कविता के माध्यम से अमर हो गए। प्रो. चमनलाल जी को साधुवाद कि उन्होंने इतना सुंदर अनुवाद किया है। एक अच्छी कविता के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteबाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग ! ऐसे गूढ़ निहितार्थ वाली कविता पहली बार पढ़ी- इसमें प्रेम भी है और विद्रोह भी ! धन्यवाद!
ReplyDeleteपाश की कविताएं वाकई अद्भुत हैं। बढ़िया लगा उन्हें एक बार फिर पढ़ कर। लगभग साल भर पहले पाश पर एक टिप्पणी लिखी थी। देखना चाहें तो लिंक नीचे दे रहा हूं
ReplyDeletehttp://anuraganveshi.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html
पाश की यह बेहद महत्वपूर्ण कविताओं में से है...
ReplyDeleteअंत तक मैं यही सोच रहा था कि कविता अलग सी क्यों लग रही है... मैंने जो पढ़ी है उसका अनुवाद कुछ यूँ था...
"...तुम यह सब भूल जाना मेरी दोस्त,
सिवाय इसके,
कि मुझमे जीने की बहुत लोचा थी..."
कमाल ! शुक्रिया.
ReplyDeleteरुला देने वाली कवितायें !! आभार !!
ReplyDeleteसादर . . .
महेन्द्र ठीक कह रहे हैं। दरअसल पंजाबीभाषी व्यक्ति और खड़ी बोली क्षेत्र वाले व्यक्ति की हिंदी के डाइलेक्ट में थोड़ा फर्क स्वभाविक है। सुखद यह है कि पंजाबी का हिंदी में अनुवाद बेहद नजदीक और सहज है। गुरदयाल सिंह के उपन्यासों के अनुवाद जो उन्होंने खुद किए हैं, देख सकते हैं। (अब मेरी वोट्टी सुम्मी जो पंजाबी भाषी भी है, मुझे मारने के लिए तैयार बैठी है और उसने एक लाइन डिलीट भी करा दी है।)
ReplyDeleteSAB SE KHATARNAAAAK....!
ReplyDeleteAISE KAVIYON KO BAAR BAAR PRASTUT KAREN TAKI KAVITA KYA HOTI HAI YEH YAAD RAHE.....THANKS.
पाश को पढते हुए आँखे छलछला जाती हैं ...कितनी आग होगी उसके सीने में....?..ओह ...वह भी उम्र थी कोई विदा कहने की....?..हमें गर्व है कि तुम हमारे देश में पैदा हुए पाश .....अलबत्ता हमें शर्म भी है कि हम तुम्हारे देश में पैदा हुए पाश .....|...
ReplyDeleteसुन्दर कविता और सरस व सरल अनुवाद
ReplyDeleteधन्यवाद सर..paash is my favorite...
ReplyDeleteकबीर के दोहे Kabir Ke Dohe are simple but meaningful.