
आज शाम कई दिनों के बाद खेतों की तरफ टहलते हुए प्रकॄति के पॄष्ठ पर लिखी फसलों की कविता को निहारते - निहारते आज लिखी जा रही हिन्दी की युवा कविता को भी गुनता - बुनता रहा. मन प्रांतर में बहुत कुछ सिलसिलेवार - बेतरतीब उभरता - मिटता रहा. घर लौटकर उसे एक टिप्पणी की शक्ल देने की कोशिश- सा कर रहा हूँ . इस टिप्पणी में मैं जान बूझकर नाम नहीं गिना रहा रहा हूँ. ऐसा करने के पीछे कोई संकट नहीं है वरन इस टिप्पणी के बहाने मैं उस देश - काल की चर्चा करना चाहता हूँ जिसकी परिधि में युवा कविता की व्याप्ति है. विचार , भाव , भावाभियक्ति , भंगिमा और भाषा के सवाल पर भी फिर कभी. गाँव में मेरा जन्म हुआ , एक गाँवनुमा कस्बे में शिक्षा - दीक्षा हुई , अब भी गाँव में ही रहता हूँ. न तो जीवन में शहरी हो सका न कविता में अतएव इस टिप्पणी में भी वही सब उपादान - उपमान मौजूद हैं. कहा जाता है कि ईश्वर ने गाँव बनाए और मनुष्य ने शहर. मेरे हिसाब से इस संसार के कलित कोलाहल कलह में गँवईपन की तलाश करते हुए शब्दों की खेती करना ही कविकर्म है.आइए आज की युवा हिन्दी कविता और कवि कर्म पर कुछ यूँ ही - सी बात करते है -
* नये कवियों की एक बहुत बड़ी कतार हमारे समक्ष विद्यमान है. उनकी उपस्थिति के लिए पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं है. इधर हाल में कई नई पत्रिकायें निकली हैं जिन्होंने मंच दिया है साथ ही यह भी कहा जाना जरूरी है कि अखबारों से प्राय: साहित्य के पन्ने तिरोहित हुए हैं और एक लंबी व शानदार पारी खेल कर 'पहल' जैसी पत्रिका इतिहास के खाते में दर्ज हुई है. आज जिन कवियों को हिन्दी की युवा कविता का चेहरा कहा जा रहा है उनमें से अधिकांश की मुँहदिखाई 'पहल' ने ही की थी. नई पत्रिकाओं की निरन्तर आमद से प्रकाशन की प्रक्रिया तीव्र हुई है. स्थापित कहे जाने प्रकाशकों ने युवा कवियों के संग्रह छापने की कॄपणता में कमी की है. संचार के नये माध्यमों (वेब ,ब्लाग आदि) के जरिये भी कविता की आमद में इजाफा हुआ है. तकनीक की इस नई जुगत की जादूगरी ने जहाँ हिन्दी कविता को एक वैश्विक मंच दिया है वहीं दूसरी ओर वैश्विक कविता की सहज उपलब्धता का संकट भी इस तरकीब ने कमतर किया है. कुल मिलाकर कविता की भरपूर उपस्थिति है और वह देखी जा रही है ठीक वैसे ही जैसे कि फसल खेतों में खड़ी है और दूधिया दाने अन्न में रूपायित होने के काम में लगे हुए हैं
** इस बीच सुनने में आया है कि कविता की किताबों के संस्करण परिमाणात्मक रूप से छोटे होते जा रहे हैं वही दूसरी ओर यह भी देखने में आया है कि पत्रिकाओं व अन्य मंचों की प्रचुरता है , सो समीक्षायें भी प्रचुर हैं. छोटे -मँझोले शहरों तक में पुस्तक मेले अयोजित होने लगे हैं , सो कविता के चाहने वालों की कमी का रुदन भी तर्कसंगत नहीं लगता. उन्नीसवीं शताब्दी के कवि मंडलों का कुछ - कुछ आभास देते हुए नए- नए कविमंडल भी निर्मित - से हुए हैं. आज के युवा कवि अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के कवियों के प्रति आदर का भाव रखते हुए उन्हें न केवल सचमुच पढ़ रहे हैं अपितु वैयक्तिक जीवन में भी दोनो पीढ़ियाँ प्राय: निकट दिखाई दे रही हैं. मेरी जानकारी में यह पहले दुर्लभ था और यदि किंचित था भी तो उसमें भय-भक्ति भाव जैसा कुछ सतह पर दीखता था. अब तो स्थिति यह है दो अलग - अलग पीढ़ियों के कवि दो अलग - अलग पीढ़ियों के किसानों की तरह मिल जुलकर खेतीबाड़ी के काम में लगे हुए हैं. इस सहकारी खेती से न केवल रकबा बढ़ा है बल्कि प्रति बीघा उपज में बढ़ोत्तरी का अनुमान भी मूर्त होता दीख रहा है.
*** आज का युवा कवि न केवल कविता लिख रहा है बल्कि कविता पर लिखने का काम भी लगभग उसी के जिम्मे है.हिन्दी बिरादरी में लिखने - पढ़ने वालों की एक लम्बी जमात के बावजूद हमारे पास आलोचकों - समीक्षकों का अकाल तो है ही. आज का युवा कवि दुहरे मोर्चे पर जूझ रहा है. कविता की दुनिया और रोजमर्रा की दुनिया में तालमेल संभवत: कभी नहीं रहा है. एक तरह से इस तालमेल के अभाव को भरने का उपक्रम ही कविता - कर्म का उत्स है. कवि उस भाषा में भी बात नहीं करता है जो सामान्य भाषा है और न ही कविता की लड़ाई और उसके औजार वैसे ही होते हैं जैसे कि मोर्चे पर लड़ने वाले एक सैनिक के. अब तो लड़ाई के कारण और उसके कुचक्र इतने गझिन हैं कि भाषा भी गुंफित -सी हो चली है . पहले ही निवेदन कर चुका हूँ इस बाबत कभी अलग से. अभी तो बस हिन्दी की युवा कविता के ग्लोब पर मँडरा रहे 'ग्लोबल वार्मिंग' के धमक पर कुछ बातें जो एक कवि और कविता के ठीकठाक पाठक के रूप में मैं अनुभव करता रहा हूँ.
**** आज पुरस्कारों की कोई कमी नहीं है.यह भी सच है कि पुरस्कारों की साख घटी है. पुरस्कार और सम्मान एक दूसरे के पर्याय जैसे नहीं रह गए हैं. नए कवियों के पास प्रकाशित होने के जितने पर्याप्त अवसर हैं उससे कहीं अधिक अवसर चर्चित -पुरस्कॄत होने के हैं. यह भी सच है कि पुरस्कॄत -चर्चित होने के बाद अपने कवि रूप को बनाए - बचाए रखने के खतरे भी बढ़े हैं. प्रश्न है कि कवि रूप क्या है ? एक सामान्य युवा मनुष्य जो कि कवि भी है , के सामने कई तरह की चुनौतियाँ हैं जो पद, पुरस्कार, प्रकाशन, प्रतिष्ठा , नौकरी, स्थायित्व, सफलता जैसे नाना रूप धारण कर आए जा रही हैं. युवा कवि को इन्हीं के बीच समझदारी दिखाते हुए अपने लिए दाल रोटी के सवाल भी हल करने हैं और अंतर की अकुलाहट को अलग अंदाज में वाणी भी देनी है.यह ऐसा समय है जब सब कुछ औसत - सा दीखता है -विचार , विमर्श , व्यक्तित्व , आन्दोलन सब कुछ. फिर भी कविता का रचा जाना कम नहीं हुआ है; वह निरन्तर रची जाती रहेगी . जिस प्रकार उर्वरकों की खपत के बावजूद जमीन की अपनी उर्वरा छीज रही है, तमाम तरह के कीटनाशकों के छिड़काव के बाद भी न तो बीमारियाँ कम हुई हैं न खर पतवार और ऊपर से यह 'ग्लोबल वार्मिंग' जिसने बीजवपन से अन्न उपज की परंपरागत कालावधि को संकुचित करने का कुचक्र रचना शुरु कर दिया है फिर भी किसान खेती करना तो नहीं छोड़ देगा . जीवित रहने और स्वस्थ तरीके से जीवित रहने के लिए अन्न के दाने तो चाहिए ही. आखिरकार एक किसान किसके लिए खेती करता है ? दाने के लिए या कि भूसे के लिए ? किसान के पास हमेशा से इस प्रश्न का उत्तर मौजूद रहा है फिलहाल यह प्रश्न तो मैं आज के हिन्दी युवा कवियों से कर रहा हूँ.
एक जिद्दी धुन यानी धीरेश सैनी की प्रतिक्रिया
भूसे और गेहूं वाला सवाल महत्वपूर्ण है। अब यह बात युवा पीढ़ी को खुद सोचनी चाहिए। इन दिनों यह रोना है कि 80 के दशक वाले जगह नहीं छोड़ रहे हैं, बचकाना है। 80 के दशक में वाकई इस तरह छपना इतना आसान नहीं था और तब कई कवियों को तो न छपने की बीमारी भी थी और जो आज के हाल को देखकर बड़ी सम्मानीय लगती है। हां इन दिनों ये शिकायत सही है कि आलोचना ढंग से नहीं हो रही है। पर शिकायत करने वाले क्या वाकई आलोचना के पैरोकार हैं। पिछले दिनों विजय कुमार के लेख पर और मंगलेश डबराल की एक टिपण्णी पर क्या अश्लील आत्मप्रदर्शन किया गया था। दो पीढ़ियों का रिश्ता भी अब ऐसा ही है, वैसा नहीं जैसा कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि का अपनी बाद की पीढ़ी से था। हां एक अजीब सी चतुरता जरूर है जिसके तहत किसी एक को पीटने के लिए किसी एक की पीठ सहला दी जाती है। अब 80 के दशक के कई `हीरो' अपनी रेटिंग के लिए यही दंद-फंद करते हैं। ये `हीरो' आजकल के `हीरो' को भी साधे रखते हैं और दोनों टाइप वाले एक-दूसरे से ये सब कलाकारी सीखते रहते हैं। `महानता' की पदवी के लिए बरसों से संघर्षरत `कलित कोलाहल में गंवईपन की तलाश करने वाले`आधुनिक गुरूजी' भी राजधानी की यूनिवर्सिटी से यही खेल संचालित करते रहते हैं। अब यह वर्गीकरण उन्ही की देन है क्या कि रघुवीर सहाय शहरी कवि हैं। कुछ का कहना है कि वे यथास्थितिवादी हैं। ग्राम्यजीवन को अहा, वाह करते रहना और उसके गड्ढ़ों को नजरअंदाज करते रहना सिखाने वाले महान कवि और उनके सगे किस पृष्ठभूमि से आए हैं और वे इन गड्ढ़ों को दिखाने की कोशिश करने वाले ग्राम्य जीवन को चित्रित करने की कोशिश करने वालों को कलाहीन क्यों समझते हैं, यह भी देखना जरूरी है। पिछले दिनों यूटोपिया-वूटोपिया, वाम-अतिवाम के जुमले भी ब्लाग पर खास सुविधाजनक ढंग से उछाले गए। अब `कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सरत नज़र नहीं आती' कहना क्रांतिविरोधी है और लो आ गई क्रांति का गाल बजा देना क्रांतिवीरता है क्या? अब 80 के दशक के ही मनमोहन का कोई पुराना लेख था जिसमें एक बात कुछ इस तरह थी (ठीक-ठीक याद नहीं, सिर्फ भाव) कि एक मूर्ख उम्मीद होती है और एक एनलाइटन निराशा भी होती है।
kaee cheezo kee badee achchee panchmel khichDee pakaayee hai.
ReplyDeleteभूसे और गेहूं वाला सवाल महत्वपूर्ण है। अब यह बात युवा पीढ़ी को खुद सोचनी चाहिए। इन दिनों यह रोना है कि 80 के दशक वाले जगह नहीं छोड़ रहे हैं, बचकाना है। 80 के दशक में वाकई इस तरह छपना इतना आसान नहीं था और तब कई कवियों को तो न छपने की बीमारी भी थी और जो आज के हाल को देखकर बड़ी सम्मानीय लगती है। हां इन दिनों ये शिकायत सही है कि आलोचना ढंग से नहीं हो रही है। पर शिकायत करने वाले क्या वाकई आलोचना के पैरोकार हैं। पिछले दिनों विजय कुमार के लेख पर और मंगलेश डबराल की एक टिपण्णी पर क्या अश्लील आत्मप्रदर्शन किया गया था। दो पीढ़ियों का रिश्ता भी अब ऐसा ही है, वैसा नहीं जैसा कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि का अपनी बाद की पीढ़ी से था। हां एक अजीब सी चतुरता जरूर है जिसके तहत किसी एक को पीटने के लिए किसी एक की पीठ सहला दी जाती है। अब 80 के दशक के कई `हीरो' अपनी रेटिंग के लिए यही दंद-फंद करते हैं। ये `हीरो' आजकल के `हीरो' को भी साधे रखते हैं और दोनों टाइप वाले एक-दूसरे से ये सब कलाकारी सीखते रहते हैं। `महानता' की पदवी के लिए बरसों से संघर्षरत `कलित कोलाहल में गंवईपन की तलाश करने वाले`आधुनिक गुरूजी' भी राजधानी की यूनिवर्सिटी से यही खेल संचालित करते रहते हैं। अब यह वर्गीकरण उन्ही की देन है क्या कि रघुवीर सहाय शहरी कवि हैं। कुछ का कहना है कि वे यथास्थितिवादी हैं। ग्राम्यजीवन को अहा, वाह करते रहना और उसके गड्ढ़ों को नजरअंदाज करते रहना सिखाने वाले महान कवि और उनके सगे किस पृष्ठभूमि से आए हैं और वे इन गड्ढ़ों को दिखाने की कोशिश करने वाले ग्राम्य जीवन को चित्रित करने की कोशिश करने वालों को कलाहीन क्यों समझते हैं, यह भी देखना जरूरी है।
ReplyDeleteपिछले दिनों यूटोपिया-वूटोपिया, वाम-अतिवाम के जुमले भी ब्लाग पर खास सुविधाजनक ढंग से उछाले गए। अब `कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सरत नज़र नहीं आती' कहना क्रांतिविरोधी है और लो आ गई क्रांति का गाल बजा देना क्रांतिवीरता है क्या? अब 80 के दशक के ही मनमोहन का कोई पुराना लेख था जिसमें एक बात कुछ इस तरह थी (ठीक-ठीक याद नहीं, सिर्फ भाव) कि एक मूर्ख उम्मीद होती है और एक एनलाइटन निराशा भी होती है।
संवाद आग बढ़ रहा है .यह देख भला लगा.
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