Monday, March 30, 2009

अंधी घाटी - विष्णु खरे

(महामहिमों के स्वीकार में निहित तिरस्कार और आत्मा में निरंतर विकलता और क्षोभ की मौजूदगी - इन अभिशापों को विष्णु खरे को भोगना ही है। और यह एक तरह से ठीक ही है। विष्णु खरे जब तक अभिशप्त रहेंगे, तब तक हिंदी कविता उनकी साहसिक सर्जनात्मकता से समृद्ध होती रहेगी - कात्यायनी )

यहां न प्रकाश है न अंधकार है न धूप है न छांह है न कोहराम है न सन्नाटा
अंधी घाटी का तो कोई छोर भी नहीं
सयानों के बीच सूर्य के विषय में अनेक अफ़वाहें फैलती हैं
कुछ लोग कहते हैं कि आजकल वह नहीं उगता

पैरों में चिपटी हुई जोंकों को खींच फेंकने की अब हिम्मत नहीं है
कभी हमने कोशिश की थी लेकिन सिर्फ़ उनकी दुम टूट कर रह गई थी
रक्तवाहिनी शिराओं में उनके दांत ढूंढना बहुत मुश्किल है
और अब तो खास तकलीफ़ भी नहीं होती

अंधी घाटी में में इससे भी बड़े खतरे हैं
स्याह धुंधलके में मैंने नीले नाखून और बैंगनी मसूढ़े देखे हैं
और रेंगने की ध्वनि सुनी है
मेरे समीप से अभी कुछ सरका है
जिसकी बदबू भरी साँस मेरे पेट के गढ़े तक पहुँची है
हमें अब उबकाई तक नहीं आती
अंधी घाटी में किसी भी बात के आदी होने में वक्त नहीं लगता

हमें सुनाई देती हैं भयावह फुसफुसाहटें विक्षिप्त अट्टहास
और हजारों आदिम सरीसृपों के कीचड़ में खिसकते
पैरों की चिपचिपाहट
छंछूदरों की तरह
एक-दूसरे हाथों में हाथ दिए
(हाथ जो कोढ़ी हैं और हाथ जो अब सिर्फ़ डंठल रह गए हैं)
हम अंधी घाटी के तिलचट्टी फर्श पर घिसटते हैं
और जब थर्राते हुए पीछे देखते हैं
तो देखते हैं कि फिर एक साथी यकायक ग़ायब हो जाता है
सिर्फ एक गूंजती हुई बर्फीली चीख डूबती है
और भयावह फुसफुसाहटों विक्षिप्त अट्टहास
और खिसकते पैरों की चिपचिपाहट की ध्वनि
गहरी होती जाती है और कुछ देर बाद आती है
छीन झपट की आवाज़, तिकोने दांतों से तोड़ी जा रही
गोश्त और खून लगी हडि्डयों के तड़कने की आवाज़
हमारे दिलों पर मौत की दस्तक और धैर्यहीन हो जाती है

मुझे मालूम है अंधी घाटी का दस्तूर यही है कि रोया न जाए
लेकिन हम उस आखिरी चीख को सुनते हैं
और जोंक लगे भारी शोणितहीन क़दमों से भागने का यत्न करते हैं
खून चूसती हुई जोंकें यदि हंस सकतीं तो इस मूर्खता पर अवश्य हंसतीं
अंधी घाटी के अंतहीन अंधकार में कोई भागकर कहां जाए
सयानों ने कई रास्ते बताए थे
किंतु हर बार कुछ दूर जाने पर हमारी ठोकरों से कई कंकाल उखड़ आए
और हमें लौटना पड़ा

पहले कभी सयाने सूर्य का ज़िक्र करते थे
और हमारी मोतियाबंदी आंखों में कुछ चमक उठता था
हमारे हाथों में कोंपलें उगने लगती थीं
हम उसांसे भरते थे और ऊपर यूं देखते थे
कि यदि दृष्टि कगारों तक पहुंचे तो सूर्य को पीकर ही लौटे
जब वे सूर्य की बातें करते तो ऊपर उंगलियां उठाई जातीं
टोलिया बनती और दबे स्वरों में मंत्रणा होती
किंतु सयानों का रुख बदला
और अब वे कहते हैं कि अंधी घाटी ही हमारा प्रारब्ध है
उजियाला नामक कोई वस्तु ही नहीं है और यदि है भी
तो वह हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकती है
(वे शायद धीरे धीरे अंधे होते जा रहे हैं)
अंधी घाटी की पहाड़ियों के शिखरों पर बैठे पहरेदार गिद्ध
हम पर प्रतीक्षामयी ऊबी हुई दृष्टि डालते हैं
कंदराओं में सुनता हूं लाखों झिल्लीदार पंखों की फड़फड़ाहट
नुकीली चट्टानों के नीचे हरी आंखें चमकती हैं
तिलचट्टी फर्श पर क़दम महसूस करते हैं व्यस्त दीमकों की दिनचर्या
मृत्युहासी नरमुंडों से गिरे हुए केशों के आसपास उगी काई में
देखता हूं
रेंगते हुए बैंगनी और कत्थई चकत्ते
और अंधी घाटी की छत पर
पीली दृष्टि देखती हैं लाखों जाल
जिन पर हमारी सांसे धुंआ बनकर जम गई हैं
दैत्याकार मकड़ियों की पलकहीन पुतलियों में
हमारे दयनीय भयविक्षिप्त बौने अष्टावक्र प्रतिबिम्ब हमें तकते हैं

यहां
नीचे
सयानों ने नई अर्चना आरम्भ कर दी है
वे दैत्याकार मकड़ियों को अर्ध्य देते हैं
(जालों में झूलते हुए वे मक्खियों के अवशेष नहीं हैं)
और पहरेदार गिद्धों की छाया को चूमते हैं
वे स्वयं पीछे रहकर स्वत: को समर्पित करते हैं
और अंधी घाटी के देवताओं को जयकारते हुए
`कगारों के पार जीवन नहीं है´
कहकर मृत्यु को स्वीकारते हैं
और जो भृकुटियां तानते हैं, ऊपर इंगित करते हैं, टोलियां बनाते हैं
और दबे स्वरों में मंत्रणा करते हैं
उन्हें धिक्कारते हैं, उनके विषय में दारूण भविष्यवाणी करते हैं
अथवा शाप देते हैं
किंतु टोलियां बड़ी होती जाती हैं
दबे स्वर विस्तृत ध्वनि बनते जाते हैं
और जब हम पीछे देखते हैं तो देखते हैं
फिर कोई साथी यकायक ग़ायब हो जाता है
हम थर्राते हुए ठिठकते हैं
लेकिन वह चीख नहीं सुन पाते
न ही देवताओं के जयजयकार में उसका कंठ

शायद इसीलिए कुछ दिनों से धुंधली असूर्यम्पश्या आंखें देखती हैं
दैत्याकार मकड़ियों के जालों में हलचल
पहरेदार गिद्ध रोमहीन व्यग्र गरदनें झुकाकर नीचे कुछ खोजते हैं
लगता है
कोई वह जो सयानों में ईमान न ला सका
भाग निकला है शिखरों की ओर
सूर्य की टोह लेने!
***
( यह कविता परिकल्पना प्रकाशन (डी-68, निरालानगर, लखनउ-२२६००६, प्रकाशन वर्ष २००८, मूल्य : पेपरबैक -६०=००, सजिल्द १५०=०० ) से आई कवि की चुनी हुयी कविताओं के संग्रह " लालटेन जलाना" से साभार ली गई है। इसके प्रकाशन के बारे में यह बताना ज़रूरी है कि यह कविता ४५ वर्ष पुरानी है तथा किंचित भिन्नता के साथ क्रमश: आजकल (दिल्ली) एवं नई कविता (इलाहबाद) में १९६४ से १९६६ के बीच छपी। )

Sunday, March 29, 2009

अपनी याद

(चित्र : वेन गॉग - तारों भरी रात)
उस सर्द अंधेरी दिसम्बरी रात की
छाती पर
नई-नई चमचमाती कीलों-से
तारे जड़े थे
और पृथ्वी के उस नगण्य-से कोने में
पतली डगालों पर
फले थे सन्तरे
कच्चे और हरे
जब मैं पैदा हुआ
एक बेरोज़गार और हताश आदमी के जीवन में
उसके पहले खुशनुमा स्वप्न की तरह

कुछ अजीबोग़रीब उत्सव भी मनाए गए
मेरे पैदा होने पर

मेरे पैदा होने की जगह से बहुत दूर
तार पहुँचते ही
बीमार दादा ने बेच दी
बची-खुची ज़मीन
और दोस्तों को दिया एक शानदार भोज
जिसमें बकरे का माँस और अंग्रेज़ी शराब भी थी
यों अपने सबसे बुरे वक़्त में भी
उन्होंने
अभी-अभी जन्मे अपने पहले पोते की
अगवानी की

दादी ने जो औरत होने के नाते सिर्फ़ देवी को ही पूजती थी
किया लगातार तीन दिनों तक देवी का पाठ

उस शहर का नाम नागपुर था
जहाँ मैं पैदा हुआ
और अब मुझे सिर्फ नाम ही याद है
लेकिन पिता को याद है
सभी कुछ -

तामसकर क्लीनिक
उनकी बनायी नर्सों और बैरों की पहली ट्रेड यूनियन
सीताबर्डी रोड
आपतुरे का बाड़ा
कोयले की सबसे बड़ी टाल
जुम्मा तलाब
भाऊ समर्थ
स्वामी कृष्णानन्द सोख़्ता
नया खून
और इस दृश्यलेख से अनुपस्थित
बीते हुए समय में
दूर कहीं
बेहद चुपचाप खटते
मुक्तिबोध भी

पिता को याद है
रोज़ नियम से शाम पाँच बजे बजने वाला
मिल का सायरन
मेरे साथ ही जन्मे सिंह-शावकों वाला
चिड़ियाघर
महाराजा बाग़
और उसके ठीक सामने
उनके विश्वविद्यालय का आधा बन्द आधा खुला
विशाल द्वार
उन्हें सब कुछ याद है

मुझे कुछ भी याद नहीं

जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखते ही एक दिन
अचानक
मेरे प्रेम पड़ जाने के सनसनी खेज़ खुलासे के बाद
चौराहे पर अपमानित होने जाने के
एक कल्पित भय
और उतने ही अकल्पित क्रोध के साथ
लगभग काँपते हुए
एक सुर में चीखकर सुनाया था उन्होंने
यह सभी कुछ

...............बाक़ी का सारा जीवन तो
इसके बाद है

कितना हैरतअंगेज़ है यह
कि मुझे कुछ भी याद न होने के बावजूद
यही तो मेरी अपनी याद है !

" पृथ्वी पर एक जगह" में संकलित


Friday, March 27, 2009

गीत चतुर्वेदी की कविताएँ

(गीत युवा पीढी की एक बहुत बड़ी सम्भावना और महत्वाकांक्षा हैं। उनसे उम्मीदें बहुत ऊंची हैं और इस ऊँचाई को पाने का रचनात्मक साहस और प्रतिभा उनमें खूब है। इससे अधिक और कुछ न कहते हुए यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएँ ....)


नीम का पौधा

यह नीम का पौधा है
जिसे झुककर
और झुककर देखो
तो नीम का पेड़ लगेगा
और झुको, थोड़ा और
मिट्टी की देह बन जाओ
तुम इसकी छांह महसूस कर सकोगे
इसकी हरी पत्तियों में वह कड़ुवाहट है जो
ज़ुबान को मीठे का महत्व समझाती है

जिन लोगों को ऊंचाई से डर लगता है
वे आएं और इसकी लघुता से साहस पाएं।


चोर गली

कुछ कहते हैं
कविता में इन शब्दों को मत आने दो
मुझे याद आता है नासिक का काला राम मंदिर
जहां द्वार पर खड़ा बाभन कहता था
इन लोगों को मंदिर में मत आने दो

सच बताओ
कभी देखा है विजेताओं को शरणस्थली की तलाश में
वर्षों दशकों शताब्दियों सहस्राब्दियों की चोर गली में
छुप-छुपकर चलते हैं पराजित ही

सूचकांक जो बढ़ते जाते हैं
कूदकर मरने का विकल्प बचाए आदमी को ताकि
एक नई ऊंचाई मिल सके कूदने के वास्ते

खुद तय कर लो क्या अहम है
जो कहा गया
या
जो समझा गया

यह पराजितों का डिस्को नहीं
कहे गए और समझे गए के बीच चोर गली में
थिर है पाठ से छूट गई पंक्ति
जो पराजित थे वही तो सही हैं !


Thursday, March 26, 2009

जिसके बिना मनुष्‍य होने में सम्‍पूर्णता नही : पंकज चतुर्वेदी की दो कविताएँ

आज के सबसे सुखद समाचार की तरह पंकज जी की ये दो कविताएं मिलीं। बच्चे के लिए उन्होंने जो कुछ लिखा, वो दुनिया भर के पिताओं का सबसे गौरवशाली वक्तव्य हो सकता है। अनुनाद के पाठक पहले भी उनकी कविताएं इस ब्लाग पर पढ़ चुके हैं और एक लम्बा लेख भी। इन कविताओं के लिए धन्यवाद पंकज भाई !



मुसीबत में

अचानक आयी बीमारी
दुर्घटना
या ऐसे ही किसी हादसे में
हताहत हुए लोगों को देखने
उनसे मिलने
उनके घर जाओ
या अस्पताल

उन्हें खून दो
और पैसा अगर दे सको
नहीं तो ज़रूरत पड़ने पर क़र्ज़ ही
उनके इलाज में मदद करो
जितनी और जैसी भी
मुमकिन हो या माँगी जाय

तुम भी जब कभी
हालात से मजबूर होकर
दुखों से गुज़रोगे
तब तुम्हारा साथ देने
जो आगे आयेंगे
वे वही नहीं होंगे
जिनकी तीमारदारी में
तुम हाज़िर रहे थे

वे दूसरे ही लोग होंगे
मगर वे भी शायद
इसीलिए आयेंगे
कि उनके ही जैसे लोगों की
मुसीबत में मदद करने
तुम गये थे
***

पाँच महीने के अपने बच्चे से बातचीत के बहाने

जब भी तुम रोते हो
मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे
तुम कुछ कहना चाहते हो
और उसे कह नहीं पा रहे

मसलन् अपनी नींद, भूख
किसी और इच्छा, ज़रूरत
या तकलीफ़ के बारे में कुछ

भले ही कुछ कवियों को लगता हो
कि बच्चे अकारण रोते हैं
और कुछ और कवि
ग़ालिब की कविता में आये दुख को
महज़ `होने´ का अवसाद
बताते हों
मगर ऐसी शुद्धता
मुमकिन नहीं है

दुख के कारण होते हैं
और उसके रिश्ते
हमारे समय
और ज़िन्दगी के हालात से
चाहे कोई उन्हें देख न पाये
और अगर देख पा रहा है
तो इस तरह के झूठ का प्रचार करना
किसी सामाजिक अपराध से कम नहीं है
मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे
एक फ़्लैट के भीतर
जिसका अपना कोई बाग़ीचा नहीं
आकाश भी नहीं
तुम सो नहीं पाते

तुम्हें नींद आती है
खुले आसमान के नीचे
जहाँ ठंडी हवा चलती है
उन सघन वृक्षों की छाँह में
जो सड़क पर बचे रह गए हैं

उनसे पहले आते हैं
वे इक्का-दुक्का
ऊँचे और भव्य लैम्प-पोस्ट--
जो सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं
इसलिए शायद जले रह गए हैं--
उन्हें देखते हो तुम
अपार कौतूहल से
अपनी ही नज़र में डूबकर
मानो यह सोचते हुए--
यह रौशनी इतनी उदात्त
आखिर इसका स्रोत क्या है?

और वे चन्द्रमा और नक्षत्र--
खगोलविद् उनके बारे में
कुछ भी कहें--
मगर जो न जाने कितनी शताब्दियों से
दुनिया के सबसे सुखद
और समुज्ज्वल विस्मय हैं

उनके सौन्दर्य में जब तुम
निमज्जित हो जाते हो
मुझसे बहुत दूर
फिर भी कितने पास मेरे
तब मुझे लगता है, मेरे बच्चे--
यह भी एक ज़रूरी काम है
जिसके बिना
मनुष्य होने में
संपूर्णता नहीं
***
______________
पता - पंकज चतुर्वेदी, 203, उत्सव अपार्टमेण्ट( 379, लखनपुर( कानपुर (उ0प्र0) / मोबाईल -09335156082

बतकही ......2

व्योमेश शुक्ल की यह प्रश्नोत्तरी सापेक्ष के आलोचना महाविशेषांक से - दूसरी तथा अन्तिम किस्त


आपकी नज़र में समकालीन लेखन की बुनियादी पहचान क्या हो सकती है?

अगर एक वाक्य में कहना हो तो समकालीन लेखन एक ऐसा लेखन होगा जो अपने वक्त के साथ अपनी भाषा के रिश्तों को अधिकतम सम्भव संिश्लष्टता और गहराई के साथ आभ्यंतरीकृत और अभिव्यक्त कर रहा होगा।

रचना के कथ्य और शिल्प में आप किसे महत्वपूर्ण मानते हैं?

कथ्य और शिल्प में कोई द्वैत देख पाना अव्वल तो मेरे लिए सम्भव नहीं है और यह इतिहास की गति के खिलाफ़ भी होगा। असल में नामावलियाँ और परिभाषाएं बदल दी जानी चाहिए - मसलन मैं कभी - कभी सोचता हूँ कि जिस चीज़ को कथ्य कहने का हमारे यहाँ चलन है उसकी बजाय उस तथाकथित कथ्य के साथ कलाकार के ट्रीटमेंट को अगर कथ्य कहा जाय, और जिसे हम सब शिल्प कहते हैं उसकी जगह पाठक की चेतना पर पड़ रहे असर के मानचित्र को अगर शिल्प कहें तो ज्यादा युक्तिसंगत होगा। लेकिन ऐसा सोचना तो ख़याल ही है।

क्या आप रामचन्द्र शुक्ल को आलोचना के सिद्धान्तों और मूल्यांकन के मानदण्डों का प्रवर्तक मानते हैं?

रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-पद्धति में अतीत की संस्कृत परंपरा और पाश्चात्य आलोचना सरणियों के अनेक सूत्र मौजूद हैं। उनका हस्तक्षेप अनिवार्य है लेकिन उन्हें प्रवर्तक कहना अतिरंजना होगी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-पद्धति क्या प्रासंगिक है?

इस सिलसिले में मुझे समकालीन हिन्दी कविता की एक महत्वपूर्ण एंथोलोजी - `दस बरस´ की भूमिका में लिखी असद ज़ैदी की वह बात याद आती है कि आधुनिक हिन्दी कविता रामचन्द्र शुक्ल के `इतिहास´ को बंद करने के बाद शुरु होती है।

क्या आप मानते हैं कि रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचना का विकास हुआ है?


रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचना अनेक आयामों में विकसित हुई है और उसके भीतर परस्पर संघर्षरत अनेक गतियाँ हैं। एक मुकम्मल सूची अगर बनाई जाय तो वह एक व्यापक स्तर सूची होगी। उसमें सैकड़ों लोगों के नाम आएंगे।

अपने समकालीन आलोचकों से आप कितने प्रभावित हैं? किन आलोचकों को आप अपना सहयात्री मानते हैं ?

आलोचना में कई उम्रों के और कई अनुभव-स्तरों के लोग एक साथ सक्रिय हैं। उनमें पर्याप्त वैमिन्य है लेकिन मतभेद विकसित होने की बजाय भुला दिये जाते हैं। इसलिए जिन मुद्दों पर विधिवत विचार हो चुका है, उन्हीं पर फिर से वैसे ही विचार होने लगता है। यह कहना कि आलोचना है ही नहीं , बहुत आसान है, लेकिन एक सार्थक आलोचनात्मक निबन्ध लिख पाना या अच्छे-बुरे के भीषण गड्डमड्ड और समसामयिकता के अंबार में से श्रेष्ठ आलोचना को निकालकर सामने ले आना चैलेंजिंग कार्यभार है। रघुवीर सहाय ने एक जगह पर लिखा है कि जब हम यह कहते हैं कि सब बेईमान हैं तो हमारी यह बात एक ही ईमानदार आदमी के होने से निरस्त हो जाती है। अपनी मृत्यु के तथ्य को पार करते हुए विजयदेव नारायण साही, मलयज और देवीशंकर अवस्थी एक युवा आलोचक के समकालीन हो सकते हैं- विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, मनमोहन का आलोचनात्मक लेखन हमारे सामने है - उसके परिमाण की अल्पता से आप कभी कभी खिन्न् हो सकते हैं लेकिन उसकी गुणवत्ता उसकी रचनात्मकता उसकी अपील अनिवार्य है। बाद के लोगों में पंकज चतुर्वेदी, वीरेन्द्र यादव, विजय कुमार, प्रणय कृष्ण, प्रियम अंकित, आशुतोष कुमार का काम हमेशा ज़रूरी लगता रहा है। इनसे सहमत होना नहीं है( बल्कि इनमें से कई के साथ एक विवादपरक संवाद में भी कुछ दूर तक शामिल हूँ। लेकिन हस्तक्षेप तो अपनी जगह है।

आप प्रगतिशील विचारधारा के साथ सौन्दर्यशील मूल्यों की रचना को ज़रूरी मानते हैं या वैसी रचना को जो प्रगतिशील न भी हो।

प्रगतिशीलता और सौन्दर्यशीलता में एक द्वंद्वात्मक संबंध का ही पक्षधर हुआ जा सकता है। अपने अत्यन्त सीमित अनुभव और अध्यवसाय में मैं यह नहीं समझ पाता कि कोई रचना सुन्दर तो है, लेकिन प्रगतिशील नहीं है, या उसमें प्रगतिशीलता के तत्व तो हैं लेकिन सौन्दर्य नदारद है।

पुरस्कारों का रचनाकारों और आलोचकों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

मेरे अग्रज मित्र आलोचक-स्तम्भकार रवीन्द्र त्रिपाठी अक्सर कहते हैं कि पुरस्कृत आलोचना एक संदेहास्पद प्रत्यय है। शायद वह यह कहना चाहते हैं कि कोई जायज़ आलोचना आखिर कैसे साहित्यिक सत्तातंत्र को पसंद आ सकती है? इस धारणा में शक्ति है- और यह आपको सच बोलने की, वह कितना भी विध्वंसक या कटु क्यों न हो, चुनौती देती है। हालाँकि यह भी है कि पुरस्कार-वगैरह एक माहौल बनाने का काम करते हैं और अन्यथा संवादहीन हिन्दी साहित्य संसार इस अवसर पर पुरस्कृत आलोचक और उसके सरोकारों पर चर्चा वगैरह कर लेता है। लेकिन पुरस्करणीय आलोचना या रचना लिखने का दबाव एक लेखक को किस तरह से और इन स्तरों पर प्रभावित करता है यह हमारी जाँच का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए । एक पुरस्कृत लेखक किस तरह प्रतिनिधिक हो उठता है - और सफलता को मूल्य मानने वाले विमर्श में ज़रूरी हो जाता है - कैसे वह ज़्यादा धन्य और सार्थक मान लिया जाता है - कैसे कुछ लोग लगातार इन प्रक्रियाओं का नियमन करते रहते हैं, इन सब सवालों को कतई साहित्यिक आलोचना के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता- इनका सामना किये बगैर आलोचना अधुनातन नहीं हो पायेगी।

वर्तमान परिस्थितियों में आलोचक का धर्म क्या है?

वर्तमान परिस्थितियों में आलोचना या आलोचक का धर्म क्या है- इसके पहले यही तय करना होगा कि वर्तमान परिस्थितियाँ क्या हैं। इस सवाल का जवाब ज़ाहिर है कि कई तरीक़ों से दिया जा सकता है। एक जवाब बहुत विस्तृत हो सकता है, दूसरा अत्यन्त क्षिप्र, लेकिन यह तय जानिये कि हम एक असहिष्णु, चंचल और मुग्ध समय में हैं। सरलीकरणों और विस्मरण का बोलबाला है और ज़रूरी चीजे़ं नष्ट कर दी गई हैं या उन्हें आद्यन्त बदल दिया गया है। विचार और स्मृति का निरादर सही समय बताती घड़ी की तरह लगातार है। ताक़त की लालसा और कब्जा कर लेने के षड्यन्त्र लगातार हैं और सभी दृश्य एक जैसे दिखाई दे रहे हैं। वहीं हाशिये पर से आती आवाज़ों का दखल भी बड़ा है और इंसान सम्भव - असंभव तरीक़ों से विरोध कर रहा है। जो लोग विचारधारा (मार्क्सवाद ) के अंत की बात कर रहे थे वे ही राज्य के पैसे से अपने-अपने शेयर बाज़ारों को ज़िंदा करने की कोशिश कर रहे हैं।

विश्व में आज यदि कोई सम्पूर्ण वैज्ञानिक दर्शन है तो मार्क्सवाद। क्यों?

यही वर्तमान परिस्थिति बता रही है कि मार्क्सवाद कितना वैज्ञानिक, इतिहाससिद्ध और अनिवार्य दर्शन है, वह लौटता है और ख़ुद को दुहराता है - कभी त्रासदी की तरह, कभी प्रहसन की तरह। 1990 में वह त्रासदी की तरह विदा हुआ था( आज जब अमेरिका स्थित दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक संस्थाएं दिवालिया हो रही हैं और मंदी की वजह से मरणासन्न अपने अर्थतन्त्र को बचाने के लिए वहाँ की सरकार राजकोष का रुपया बाज़ार में झोंक रही है( इस भागमभाग में शामिल रहे लोगों को एक बेहद करुण लेकिन दिलचस्प प्रहसन का हिस्सा बनाता हुआ मार्क्सवाद लौट रहा है।

लघु पत्रिकाओं की क्या भूमिका है?

रचना और आलोचना में लघु पत्रिकाओं की भूमिका इतनी विराट है कि उसके मूल्यांकन के लिए अनेक शोधग्रन्थ दरकार हैं। पहल के विभिन्न आयोजनों पर ग़ौर कीजिए। इसी तरह तद्भव है। उद्भावना साहित्य की ऑफबीट पत्रिका है। उसने कितने श्रेष्ठ विशेषांक निकाले हैं। युवा कवि गिरिराज किराडू की एक द्विमासिक द्विभाषिक पत्रिका है, प्रतिलिपि - उसके 5 ही अंक आये हैं जो बहुत अच्छे हैं। इस सिलसिले में किसी का भी नाम छोड़ना धृष्टता है। पहल की ही बात करें - यह पत्रिका छोटी पूँजी और बहुत बड़े ख़्वाब, बहुत बड़े बलिदान का प्रतिफल है। एक बिल्कुल भिन्न तरह की, अनुशासित पत्रिका रंग प्रसंग प्रयाग शुक्ल के संपादन में आ रही है। कुछ रद्दी, फूहड़ और महत्वाकांक्षी पत्रिकाएं भी हैं - लेकिन वे अपवाद हैं।

लेखक संगठन एकदूसरे पर आरोप् लगाते रहते हैं। क्या इन संगठनों को साथ-साथ आगे बढ़ाया जा सकता है?

नए साहित्यिक संगठनों की ज़रूरत है। क्योंकि अगर आरोप- प्रत्यारोप ही करना है, तब भी, पक्ष और प्रतिपक्ष पचास साल पुराने कैसे हो सकते हैं? साहित्यिक संगठनों की हस्तक्षेपीय भूमिका से इंकार नहीं है, लेकिन इस बात पर शोध होना चाहिए कि लेखक संगठनों के नियामक खुद कितने लेखक हैं।

नए लोगों के बारे में आपकी क्या राय है?

मैं खुद ही अभी-अभी आया हूं - और ज़्यादातर साहित्यिक मेरे काम से परिचित नहीं हैं जो स्वाभाविक है, इसलिए नए लोगों पर जो भी कहूंगा वे छोटे मुंह बड़ी बात होगी, फिर भी 2000 के लगभग या उसके बाद कविता की दुनिया में आए लोगों ने मुझे सुन्दरचंद ठाकुर, आर चेतनक्रान्ति, शिरीष कुमार मौर्य, गिरिराज किराडू, विशाल श्रीवास्तव, गीत चतुर्वेदी, तुषार धवल और हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताएं अच्छी लगती हैं।

साहित्य संगठन कैसे हों? राजनीतिक संगठनों का हस्तक्षेप उनमें किस सीमा तक हो?

दरअसल राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप बंद होना चाहिए - वे अधिकांशत: समझौतापरस्त और यथास्थितिवादी हैं- शायद एक ऐसी सूरत वांछित है जिसमें राजनीति तो हो लेकिन राजनीतिक दल न हों।

पुस्तकों के मूल्य के बारे में आपकी राय। वे पाठक और आम जनता तक कैसे पहुँचाई जा सकती हैं?

मेरा मानना है कि रचनाकार कभी भी लोकप्रिय हो जाने का स्वप्न नहीं देखता, लेकिन पुस्तकों का मूल्य हिन्दी के निम्नतर वर्गं की पहुँच में - जो हिन्दी के लेखक और उसके पाठक का वर्ग है, रहना चाहिए। नहीं तो, यह एक ऐसी विडंबना होगी जिसे संभालना दुश्वार होगा। अभी परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ ने असद ज़ैदी और विष्णु खरे के कविता-संग्रह प्रकाशित किये हैं। उनकी साज-सज्जा हिन्दी के सर्वोत्तम प्रकाशनों से मुकाबला करती है और दाम भी बहुत कम हैंं। इस प्रकाशन समूह की नियामिका हिन्दी की विरल कवि कात्यायनी हैं और यह आयोजन मुख्यत: वैचारिक पहलकदमी है। ऐसे ही वैकल्पिक प्रयत्नों से पुस्तकों का मूल्य हिन्दी पाठक के नियन्त्रण में रखा जा सकता है।

Wednesday, March 25, 2009

बतकही ....

व्योमेश शुक्ल की यह प्रश्नोत्तरी सापेक्ष के आलोचना महाविशेषांक से - पहली किस्त

अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए। आलोचना में रुचि क्यों और कैसे हुई? इस क्षेत्र को आपने क्यों चुना? क्या आपने दूसरी विधाओं में भी लिखा है?

ख़ुद की रचना-प्रक्रिया पर बात करने का यह पहला मौका है, और मेरे पास अपनी रचना-प्रक्रिया को सोचने का कोई अनुभव भी नहीं है। हिन्दी साहित्य संसार का यह विचित्र हाल है कि कुछ लोगों की रचना-प्रक्रियाएँ अत्यन्त प्रकाशित हैं। वे लगभग जगमगा रही हैं। ऐसी चमकीली रचना-प्रक्रियाओं पर बात करते हुए कवि एक रहस्यवादी अंदाज़ में ऐसा कुछ कहता नज़र आता है कि `मेरे लिये रचना-प्रक्रिया पर बात करना अंधे कुएँ में झाँकने जैसा है´। इस वक्तव्य में `अंधेरा´ शब्द दरअसल रोशनी का प्रतीक है। ऐसे तथाकथित अंधेरे कुएँ में झाँककर पाठक को और स्वयं कवि को कुछ उपलब्ध नहीं होता। वहीं दूसरी ओर मुक्तिबोध जैसे प्रचण्ड कवि की रचना-प्रक्रिया है जो अंधेरे की ही धातु में ढली हुई लगती है और आज़ाद भारत की आधुनिकता का एक प्रासंगिक विमर्श है। वह रचना-प्रक्रिया अपने पाठक को कितना छिन्न-भिन्न करती है। और उस प्रक्रिया को आप किस श्रेणी में रखेंगे ? साहित्येतिहासकार और नियन्तागण उसे निबन्ध, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, आलोचना क्या मानेंगे ? उसमें आने वाले चरित्र आजकल की जगमगाती हुई रचना-प्रक्रियाओं के बरअक्स कितने अशुभ और अन्धकारमय लगते हैं। और वे वाह्य के आभ्यंतरीकरण, कलानुभव, रचना-प्रक्रिया और यथार्थ के साक्षात्कार सामर्थ्य जैसे मुद्दों पर कितनी विकलता कितने धीरज के साथ बात करते हैं। मुक्तिबोध के अपार आत्म को आप अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों, संबंधों और समस्याओं में विघटित होता हुआ यहाँ देख सकते हैं। यह अपने ज्ञानात्मक संवेदन को रेशा-रेशा कर डालना है। हिंदी के कवि की रचना-प्रक्रिया असल में रक्तरंजित ही हो सकती है। ऐसी ही होनी चाहिए। मुक्तिबोध के विराट के सामने हम कितने ही नगण्य हों, लेकिन हमारी भी रचना-प्रक्रिया का मॉडल मुक्तिबोधीय ही होना चाहिए। आलोचना में मेरी रुचि के तर्क शायद राजनीति में मेरी रुचि में हैं। यह याद करना आज कुछ शर्म, कुछ अफ़सोस से भर देता है कि 1989 में, जब मैं 9 साल का था, मुझे तत्कालीन वी। पी। सिंह सरकार के सभी कैबिनेट मंत्रियों, राज्य मंत्रियों के नाम याद थे और वाराणसी का सांसद बन पाना मेरे कैशोर्य का केन्द्रीय स्वप्न था। राजनीति के मुद्दों पर बात करना और ख़ास तौर पर असहमतों से बात करने का नशा था। यहीं से आलोचना का काम शुरू होता है। आलोचना हमेशा असहमतों को कन्विंस करने के लिये लिखी जाती है। जो लोग आपकी बात नहीं मानना चाहते( उनको राजी करना कितना स्वप्नसंघर्षमय युटोपिया है। तो संसदीय राजनीति की सडांध में से मैंने कम से कम अपने लिये विकल्प का प्रारिम्भक किस्म का आश्वासन अर्जित किया। हाँ, मैं दूसरी विधाओं में भी कुछ न कुछ लिखता हूँ। शायद हर पहली से इतर दूसरी विधा में। और यह भी एक तथ्य है कि मैं बहुत देर तक और दूर तक इन विधाओं में फ़र्क नहीं कर पाऊँगा।


आजकल हिन्दी आलोचना का क्षितिज संकीर्ण हो गया है। आलोचक अपने मित्रों की रचनाओं पर लिखते हैं। समग्र मूल्यांकन कोई नहीं करता?

हाँ! जीवन-व्यवहार के दूसरे क्षेत्रों की तरह आलोचना का भी क्षितिज संकीर्ण तो हुआ है। जैसे यह चेतनाओं के भी निजीकरण का वक्त है। कल तक जो असहमतियाँ थीं वे आज खीझों में तब्दील हो गई हैं। बेशक कुछ लोग अपने मित्रों की रचनाओं पर लिखते रहते हैं और उसे ही आलोचना भी मानते हैं लेकिन यह सब सतह पर संपन्न हो रहे कार्यकलाप हैं - जैसे हमारे सामूहिक व्यक्तित्व की त्वचा पर खुजली हो गई हो, जबकि बड़े संकल्प और महाभियान चेतना के गहनतम स्तरों पर जारी रहते हैं। वे हमारे स्वार्थ, लालच, अवसरवाद, तत्कालवाद, तदर्थवाद, समायोजनवाद और दूसरे ऐसे हीनतर कृत्यों के खिलाफ़ हमारी ही जासूसी करते रहते हैं। अपने अमूर्तनों में मूल्यांकन और निष्कर्ष आकार लेते रहते हैं - कभी यह सब भाषा में दर्ज हो जाता है, कभी नहीं हो पाता। लेकिन उसके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा नहीं होता तो बग़ैर किसी आलोचना की प्रत्यक्ष उपस्थिति के, विष्णु खरे और विनोद कुमार शुक्ल को रघुवीर सहाय के बाद के दौर का केन्द्रीय कवि कैसे मान लिया गया होता। आपकी शिकायत है कि समग्र मूल्यांकन कोई नहीं करता। मैं कहना चाहता हूँ कि एक पूरे दौर को तो जाने दीजिए, क्या एक कवि का भी समग्र मूल्यांकन हम फि़लहाल कर रहे हैं। विजयदेव नारायण साही ने `शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट´ जैसा लेख शमशेर की कविता पर लिखा( मैं उसके निष्कर्षों से सहमत नहीं हो पाता लेकिन वह पेशकश व्याकुल कर देती है। क्या देवी प्रसाद मिश्र पर वैसा लेख हमारे पास है ? दूसरी ओर मैं यह भी देख रहा हूँ कि लोग उत्कृष्टतम आलोचना के आगे या तो डर और चालाकी के मारे चुप हो जाते हैं या विषयांतर कर डालना चाहते हैं। हमारे पास `आलोचना की आलोचना´ प्रत्यक्षत: नहीं है और अक्सर अच्छी आलोचना बुरी आलोचना में फर्क नहीं किया जा पाता और दोनों साथ-साथ चलती रहती हैं। हमारे गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया है और हम डायलिसिस पर हैं और हमारे खून में पेशाब मिल गई है। निकट अतीत की बात करें, क्या हमारे लेखन में मलयज के लेख `काव्यभाषा का इकहरापन´ की कोई स्मृति है ? अशोक वाजपेई का लेख `बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये´ या विष्णु खरे का लेख `उत्तर छायावादी तलछट का अन्त´ किस उम्र में लिखा गया है ? अशोक वाजपेई तब 26 साल के थे और विष्णु खरे 30 साल के। यह लेख तब की साहित्यिक सत्ता - `अज्ञेय´ के सामने कितनी निर्भीकता के साथ खड़े हैं। और यह पढ़ने वाले को भी साहस और उमंग से भर देते हैं। मंगलेश डबराल का लेख `शमशेर का मतलब´ अपनी पाकीज़गी और भीतरी शान्ति की वजह से पाठक को शमशेर के होने के एहसास के क़रीब पहुँचा देता है। वह लेख इतना पारदर्शी है कि उसमें निहित वस्तुओं और अवधारणाओं को आप छू सकते हैं।

रचनाकार की शिकायत है कि वे बिना पढ़े समीक्षाएँ लिखते हैं, जबकि आलोचक कहते हैं कि रचनाकार समीक्षाएँ नहीं पढ़ते ?

रचनाकारों की यह शिकायत कि आलोचक बिना पढ़े समीक्षाएँ लिखते हैं या आलोचकों की रचनाकारों से ऐसी ही शिकायत दूर तक जायज़ है। ऐसी हालत हमेशा रही होगी लेकिन फिलहाल यह आदत आसमान पर है। ऐसी उदासीनता से सबसे ज्यादा नुकसान वस्तुस्थिति का होता है। किसी भी आदमी से बात कीजिए, काव्यदृश्य के बारे में उसकी जानकारी और राय हर दूसरे आदमी से इतनी भिन्न होती है कि हैरान रह जाना पड़ता है। लेकिन इतिहास का निर्मम धाराप्रवाह ऐसी अपर्याप्तताओं और एकांगिताओं को बहा ले जाता है और अनिवार्यतम रचनात्मकताएं बची रह जाती हैं।

क्या आलोचना में सिद्धान्त से ज्यादा महत्व व्याख्या का है?

मैं सिद्धान्त और व्याख्या को अलग-अलग नहीं मानता हूँ। ऐसे विज़न हालाँकि खूब प्रचलित हैं लेकिन इनमें इहलोक और परलोक जैसी कोटियाँ बनाने वाले भीरु हिन्दू मानस के संकेत देखे जा सकते हैं। एक सार्थक व्याख्या ही असल काव्य सिद्धान्त है और जायज़ सिद्धान्त अपनी व्याख्या पर ही टिका हो सकता है। व्याख्या और सिद्धान्त एक ही चीज़ के नाम हैं और वो चीज़ ज़रूरी है। तुलसीदास की मशहूर अर्धाली याद आती है : गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।


परंपरा के प्रति राय कैसी होनी चाहिए? पुनर्मूलयान्कन क्यों ज़रूरी है?

परंपरा एक ऐसी चीज़ है जिस पर शक किया जाना चाहिए। अपनी परंपरा को अर्जित करने की आज़ादी और उसे आत्मसात करने का संघर्ष भी इसी सवाल के हिस्से हैं। अब यह बिल्कुल ज़ाहिर है कि कई परंपराएँ हैं। वर्चस्ववादी परंपरा को चुनौती देती असंख्य परंपराएँ जो अब तक समाज और संस्कृति के हाशिये पर रही आई थी। उन्होंने मुख्यमार्ग को संकीर्ण और अवरूद्ध कर दिया है और काफी गहमागहमी पैदा कर दी है। इसीलिए व्यापक पुनर्मूल्यांकन की दरकार है। रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को ही ले, खड़ी बोली के खाते में पस्त, लद्धड़, देहाती, राजभक्त और चापलूस हिन्दी उनके लिए महत्वपूर्ण है लेकिन मीर और ग़ालिब नहीं । तो उनके इतिहास की अनिवार्यता को चैलेंज करते पुनर्मूल्यान्कन की अरसे से ज़रूरत है। बल्कि जैसा कि विष्णु खरे कहते हैं, `नकार की डाइयलेक्टिक्स´ की ज़रूरत!

आलोचक और आलोचना की क्याभूमिका है?

आलोचक और आलोचना सभ्यता के लिए हमेशा अनिवार्य रहे हैं। इसे प्रेमचन्द के आलोचनात्मक विवेक का प्रतिफलन माना जाना चाहिए कि वे मैथ्यू आर्नाल्ड को उद्धृत करते हुए साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। अगर आप क्रिटिकल नहीं हैं तो यथास्थिति के मददगार हैं और मेरा मानना है कि महान अवधारणाओं और अद्वितीय सुन्दरताओं को भी यथावत स्वीकार नहीं किया जा सकता। टोका-टोकी, मोल - भाव , रास्ताजाम, धरना-प्रदर्शन, भूख -हड़ताल, आमरण-अनशन और ज़रूरी हो तो मानव बम बन के फट जाना - सब अन्तत: आलोचना के संस्करण हैं। चराचर में घट रहा सब कुछ आलोचना के दायरे में हैं। वह हमारी जैविकी में शामिल है और आलोचक होना तो बकौल रोलाँ बार्थ, `एक खास तरह से जीने के पद्धति´ है।

रचना की तुलना में क्या आलोचना द्वितीयक है? अगर नहीं तो रचना और आलोचना में समानता का आधार क्या है?

रचना और आलोचना में से कोई भी प्राथमिक या द्वितीयक नहीं है। दोनों ही सर्वोच्च हैं और एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं करते । जयशंकर `प्रसाद´ की कामायनी और मुक्तिबोध के `कामायनी : एक पुनर्विचार´ में कोई मुकाबला कैसे सम्भव है? और वह बोध कितना अटपटा होगा जिसमें इस तरह की कोई कुश्ती लड़ी जा रही हो! ऐसा मुकाबला हद से हद कुछ देर का मनोरंजन है। एक राजनीतिरहित गुदगुदी। दरअसल हम राजनीतिकरण नहीं कर पा रहे हैं। यह एक व्यापक दिक्कत है और आलोचना और रचना दोनों की दिक्कत है। हमारे पास विकल्प का डिज़ाइन नहीं है और रचनात्मक आदतें सामाजिक परिवर्तनों की गति के सामने कहीं ज़्यादा सुस्त और धीमी है।

एक रचनाकार आलोचक किस तरह पेशेवर आलोचक से भिन्न होता है?

विश्वविद्यालय के परिसरों से निकलने वाली आलोचना हुत ज़्यादा संदिग्ध हो चुकी है। वह साहित्य संसार में प्रसरित अभिजन संस्कृति का हिस्सा है। दरअसल हिंदी की सार्वजनिक तस्वीर कुछ ऐसी ही है कि हर साल इसके शिक्षण-प्रशिक्षण, प्रचार-प्रसार और विकास पर अकूत धन खर्च होता है, लेकिन आज़ादी के साठ साल बाद भी विश्वस्तर की साहित्यिक आलोचना में - वह चाहे मार्क्सवादी हो या ग़ैर मार्क्सवादी - कुछ जोड़ने वाला आलोचक मुक्तिबोध के अलावा कौन है? मुक्तिबोध को ही रचनाकार आलोचक होने की कसौटी भी बनाया जा सकता है। हमारे संस्थानों के पास मुक्तिबोध जैसे रैडिकल चिन्तक को जज़्ब करने की प्रणालियाँ नहीं हैं। यह ठीक है कि सारे पाप सारी बुराइयों की जड़ में अमेरिका है लेकिन वहाँ के संस्थानों के भीतर मुमकिन हो रही आज़ादी और निर्बन्धता भारत के लिए ख़्वाब है। नॉम चॉमस्की और हावर्ड ज़िन जैसे अमेरिकी राज्य के कटु आलोचक अमेरिकी विश्वविद्यालयों का हिस्सा हैं। हमारे यहाँ क्या ऐसी स्वायत्तता और सरकार सम्भव है? और नॉम चॉमस्की का असर - अमेरिकी सरकार और उसके सहयोगियों का प्रचारतन्त्र पूरी दुनिया में पड़ रहे न‚म चॉम्स्की के असर को कम करने या खत्म करने के लिये हर साल एक असंभव राशि ख़र्च करता है। एक इन्टेलेक्चुअल निर्भीकता पतनशील साम्राज्यवाद के लिए कितनी महँगी साबित हो सकती हैं, यह तथ्य इसका उदाहरण है। इसके उलट हमारी हिन्दी का हाल देखिये। इसके प्रगतिशील माने जाते आलोचक नामवर सिंह भाजपाई उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के साथ सफ़र करते हैं। मुंबई में मुरारी बापू के सानिध्य में मुरारी बापू के धनाढ्य बनिया और मारवाड़ी भक्तो के मनोरंजन के लिए माथे पर टीका लगाकर, गले में माला पहनकर प्रवचन करते हैं जिसका प्रसारण एक ओछे फासिस्ट धार्मिक चैनल से किया जाता है। यह वृतान्त यह बताने के लिये कि पेशेवर हिन्दी बुद्धिजीवी की क़ीमत मीडिया, धर्मतंत्र दूसरी सत्ताओं के सामने कितनी गिरी हुई है। कभी रघुवीरसहाय ने कहा था कि सच्ची कविता लिखने वाले वहीं से निकलेंगे जहाँ कविता का मूल्यांकन करने वाला तन्त्र नहीं होगा। यह वाक्य बताता है कि किस कदर पेशेवर आलोचना को अपना चरित्र बदलने की ज़रूरत है।
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अगली किस्त में जारी

Friday, March 20, 2009

रात में शहर



दिन की सबसे ज़्यादा हलचल वाली जगहें ही
सबसे ज़्यादा खामोश हैं अब

चौराहे पर अलाव जलाये
पान की दुकान के बन्द होते समय नियम से सुरक्षा शुल्क में
मिलने वाली सिगरेट फूँकते हैं
पुलिस बल के दो महाबली सिपाही

एक गठीला गोरखा भी है वहाँ
जो अकेला ही `जागते रहो´ पुकारता घूमता है
पास ही नेपाल में
राजा की सुलायी सदियों पुरानी नींद से
अकबका कर जाग रही
अपनी शानदार जनता से बेखबर
वह फिलहाल
रानीखेत की सर्द अक्टूबरी रात और उसके जादू में कहीं
पोशीदा घूमते
लुटेरों और सेंधमारों से खबरदार भर करता है

आसमान के सीने पर टिमकते हैं तारे
कभी-कभी
टिमकती हैं यादें उस गोरखे के सीने में भी

गाता है जिसके लिए
वह अपना बेहद पसन्दीदा मगर गूढ़ नेपाली गाना
दूर कहीं वह एक लड़की है बहुत सुन्दर
फूलों वाला रिबन बाँधे
कच्चे दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुज़रती
क्या उस तक भी पहुंचती होंगी ये बेतरतीब
मगर मदमस्त स्वरलहरियाँ
दिन भर की सख़्त मेहनत के बाद बमुश्किल नसीब
अपनी थोड़ी-सी नींद में भी
जो न जाने किस बेचैनी में रह-रहकर
करवटें बदलती है ?

चीड़ों और बाँजों और देवदारों और ढेर सारी
पहाड़ी इमारतों पर पसरे
अंधियारे में
उसका यह अबूझ गान ओस की बूँदों-सा साफ़ चमकता है
और कहीं जुड़ता है मेरी भी आँखों से
जिन्हें मैंने अभी-अभी पोंछा है

यह मेरा ही शहर है
जिसे मैं बहुत कम देख पाता हूँ
मैं नहीं देख पाता वो रस्ते जिनसे रोज़ गुज़रता हूँ
नहीं मिल पाता उनसे
जिनसे मैं रोज़ मिलता हूँ
उस चौराहे को तो मैं सबसे कम जानता हूँ
रहता हूँ ऐन जिसके ऊपर बने
अपने घर में

यह जानना कितना अद्भुत है कि उजाले में छुप जाती हैं
कई सारी चीज़ें
और अंधेरा उन्हें उघाड़ देता है

इस रास्ते पर एक पागल सोया है ऐसी पुरसुकून नींद
जो होश वालों की दुनिया में
किसी को
शायद ही मिलती हो इस क़दर

वह मानो
हर चीज़ से फ़ारिग है
उसके सोये चेहरे पर मैल की कई परतों के नीचे
मुस्कुराता है एक बच्चा
वह नींद में भी अपने हाथ बढ़ाता है
मगर कहीं कोई नहीं है
उसके लिए
माँ की कोई गोद नहीं
और न ही आगोश किसी प्रेयसी का
जो है तो बस यही रस्ता
जिस पर से मैं रोज़ गुज़रता हूँ

उस परिचित को हृदयाघात हुआ था
जिसे मैं
अभी छोड़कर आया अस्पताल तक
यह मालूम होते हुए भी
कि दरअसल इस शहर का सबसे
हृदयहीन आदमी है वह

जानता हूँ
मेरा भी हृदय अब उतना सलामत नहीं रहा
उसमें भी आने लगी हैं खरोंचें
उसके और दिमाग़ के बीच तनी हुई
कई-कई
धमनियों और शिराओं में लगातार जारी है
एक जंग
तभी तो मेरी सूजी हुई कनपटियों के भीतर
किसी गुहा में
कोई रह-रहकर चौंकता हुआ-सा
कहता है -

खोजो !
खोजो उसे.................. वो शिरीष
यहीं तो रहता है !

अपने ही शहर की
एक अनदेखी रात के बीचोंबीच
ख़ुद को ही खोजता
भटकता
सोचता हूँ मैं
कि ऐसा ही होता है लगातार खुलती हुई दुनिया
और बन्द होते जीवन में
यह बेहद दुखद
लेकिन
एक तयशुदा तरीका है
रोशनी से भरे किसी भी दिल के
अचानक भभक कर
बुझ जाने का!

("पृथ्वी पर एक जगह" में संकलित....)

गिरिराज किराड़ू की प्रतिक्रिया

बहुत एकांत में घटित होती हुई और अकेली करती हुई कविता है बावजूद इसके कि इसकी अंतर्मुखता को घेरे है दो सार्वजनीन महाबली। मुझे ६-७ सात पहले मेरी एक कविता में नामालूम तरीके से प्रवेश कर गया एक गोरखा याद आया जो शायद अपने देश से उतना ही बेखबर रहता था लेकिन हमेशा ऐसा लगता था की चाहे चौकीदारी 'हमारे' मोहल्ले की करता है पर रहता किसी और देश में ही है. तुम्हारी कविता में कभी कभी यह जो अवसाद घटित होता है एकांत में, दिल और दिमाग, धमनियों और शिराओं के तनाव में वह, कैसे कहूं कि 'अच्छा' लगता है !

मार्च 22, 2009 2:26 PM
पंकज चतुर्वेदी की प्रतिक्रिया
रागिनी जी के कमेन्ट से बहुत ज़्यादा सहमत हूँ और प्रभावित भी। यह रिस्पोंस कितना मैच्योर और इनलाइटेंड है। आपकी कविता समकालीन मनुष्य की बेचैनी का आख्यान है, इस मानी में अच्छी है। अगर उसकी समस्या की बात करें तो वह बेचैनी के सन्दर्भ को लगातार शिफ्ट करती रहती है, जिस वजह से उसके न्यूक्लियस को लोकेट कर पाना कुछ मुश्किल हो जाता है। दिल के भभक - कर बुझ जाने के भौतिक अंधेरे के पार कोई रौशनी नहीं है क्या ? शायद इस महाजीवन की अनश्वरता की रौशनी? अगरचे पागल का वर्णन मार्मिक है और उजाले के जिस अन्धकार की अपने बात की है, उसके रचनात्मक तर्क से ही यह जाहिर है कि अंधेरे के भीतर छुपे उजाले से भी आप बखूबी वाकिफ हैं ...... कविता के रूप में बेचैनी के इस मार्मिक आख्यान के लिए मेरी भी बधाई स्वीकार करें !

Thursday, March 19, 2009

मनमोहन की कविताएँ



स्मृति में रहना



स्मृति में रहना
नींद में रहना हुआ
जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ

ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी
याद नहीं निमिष भर की रात थी
या कोई पूरा युग था

स्मृति थी
या स्पर्श में खोया हाथ था
किसी गुनगुने हाथ में

एक तकलीफ़ थी
जिसके भीतर चलता चला गया
जैसे किसी सुरंग में

अजीब ज़िद्दी धुन थी
कि हारता चला गया

दिन को खूँटी पर टांग दिया था
और उसके बाद कतई भूल गया था

सिर्फ़ बोलता रहा
या सिर्फ सुनता रहा
ठीक-ठीक याद नहीं


आग

आग
दरख्तों में सोई हुई
आग, पत्थरों में खोई हुई

सिसकती हुई अलावों में
सुबकती हुई चूल्हों में

आँखों में जगी हुई या
डरी हुई आग

आग, तुझे लौ बनना है
भीगी हुई, सुर्ख, निडर
एक लौ तुझे बनना है

लौ, तुझे जाना है चिरागों तक
न जाने कब से बुझे हुए अनगिन
चिरागों तक तुझे जाना है

चिराग, तुझे जाना है
गरजते और बरसते अंधेरों में
हाथों की ओट
तुझे जाना है

गलियों के झुरमुट से
गुजरना है
हर बंद दरवाजे पर
बरसना है तुझे
(१९७६-७७)


मशालें...

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर

मशालें जिन्हें लेकर
हम गाढ़े अंधेरों को चीरते हैं
और बिखरे हुए
अजीजों को ढूंढते हैं
सफ़र के लिए

मशालें जिनकी रोशनी में
हम पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हैं

वैसे ही पनीले रंग हैं
इनकी आंच के...जैसे
हमारी भोर के होंगे

लहू का वही गुनगुनापन
ताज़ा...बरसता हुआ...

मशालें हमें वैसी ही प्यारी हैं
जैसी हमें भोर
(1976)
- - - - - - - - -
धीरेश सैनी की ज़िद्दी धुन से साभार ....

Wednesday, March 18, 2009

मियाँ की मल्हार - तानसेन से कुछ बात

मियाँ कहने का अब ज़माना नहीं रहा
और अच्छा हुआ
कि गुजरात में नहीं
ग्वालियर में हुई आपकी मज़ार
वरना उजाड़ दी जाती सैकड़ों बरस बाद भी
आपको क़त्ल न कर पाने की
ऐतिहासिक असमर्थता में

हालाँकि
वहाँ तलक भी पहुँचेगे
उनके हाथ
एक दिन
उनका दिमाग़ आपको भी
पकड़ ही लेगा
 ˜˜˜
पता नहीं क्यों मैं इतना ही सोच पाता हूँ
आपके बारे में
और आपके इस राग के बारे में

मुझे इसके अलावा भी कुछ और चीज़ों के बारे में
सोचना चाहिए

मसलन यह
कि सूखा तो अब हर साल आता है हमारे इलाक़े में

और बारिश का कुछ
ठीक नहीं
 ˜˜˜
हम जिस चीज़ के बारे में सबसे ज्य़ादा बोलते हैं
सबसे कम जानते हैं उसके बारे में

हमें मौसम के बारे में बात करनी चाहिए

हमें बात करनी चाहिए ख़राब मौसम में
अच्छे
और अच्छे मौसम में ख़राब के बारे में
 ˜˜˜
क्या किसी के सोचने से कुछ होता है ?
क्या किसी के बोलने से कुछ होता है ?
क्या किसी के गाने से कुछ होगा ?
 ˜˜˜
इस जलती हुई धरती का दुख किसी की तो समझ में आयेगा
कोई तो इस बारे में गाएगा
किसी तरह तो हटाया जा सकेगा धूल और धुँए का
ये अन्तहीन गुबार

कभी तो बुलाए जा सकेंगे बादल बेखटके
गायी जा सकेगी
मियाँ की मल्हार।

आमीन!
( जीवन राग श्रृंखला से ......)

Monday, March 16, 2009

शुन्तारो तानीकावा की कविताएँ - अनुवाद : अशोक पांडे

( ऊपर कवि नीचे अनुवादक )
नए साल की क़समें

क़सम खाता हूं दारू और सिगरेट नहीं छोड़ूंगा
क़सम खाता हूं जिनसे मैं नफ़रत करता हूं उन्हें नहला दूंगा नीच शब्दों से
क़सम खाता हूं सुन्दर लड़कियों को ताका करूंगा
क़सम खाता हूं हंसने का जब भी उचित मौक़ा होगा
खूब खुले मुंह से हंसूगा
सूर्यास्त को देखूंगा खोया-खोया
फ़सादियों की भीड़ को नफ़रत से देखूंगा
क़सम खाता हूं
दिल को हिला देने वाली कहानियों पर रोते हुए भी संदेह करूंगा
दुनिया और देश के बारे में दिमाग़ी बहस नहीं करूंगा
बुरी कविताएं और अच्छी कविताएं लिखूंगा
क़सम खाता हूं समाचार-पत्र सम्पादक को नहीं बताऊंगा अपने विचार
क़सम खाता हूं
अंतरिक्ष-यान में चढ़ने की इच्छा नहीं करूंगा
क़सम खाता हूं क़सम तोड़ने का अफ़सोस नहीं करूंगा
-इसकी गवाही में हम दस्तखत करते हैं !

काल्पनिक आंकड़े
टूटी शाखें : छियासी लाख बासठ हज़ार तीन
घायल तितलियां : पांच लाख तेरह हज़ार चार सौ इक्कीस
पैदाइशी जीनियस : माइनस तीन
जुड़े हुए आंसू : उनहत्तर हज़ार पांच सौ पंद्रह
बहे हुए आंसू : पांच अरब आठ करोड़ क्यूबिक मीटर
पवित्र मासूम पुरुष : शून्य
छींकें : गिनी नहीं जा सकतीं
धुंधले इंद्रधनुष : उतने जितने पुरुषों का विवाह हो गया
टूटे नगाड़े : चार
रूमानी प्यार : साढ़े आठ
अफ़सोस करने लायक स्थितियां : अनन्त
मैं : बस एक

बारिश, गिरो ना !

गिरो ना बारिश
उन बिना प्यार की गई स्त्री पर
गिरो ना बारिश
अनबहे आंसुओं के बदले
गिरो ना बारिश गुपचुप

गिरो ना बारिश
दरके हुए खेतों पर
गिरो ना बारिश
सूखे कुंओं पर
गिरो ना बारिश जल्दी

गिरो ना बारिश
नापाम की लपटों पर
गिरो ना बारिश
जलते गांवों पर
गिरो ना बारिश भयंकर तरीके से

गिरो ना बारिश
अनंत रेगिस्तान के ऊपर
गिरो ना बारिश
छिपे हुए बीजों पर
गिरो ना बारिश हौले-हौले

गिरो ना बारिश
फिर से जीवित होते हरे पर
गिरो ना बारिश
चमकते हुए कल की खातिर
गिरो ना बारिश आज!


एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष

छोटे-से ग्लोब में मानव सभ्यता
सोती है, जागती है और काम करती रहती है
कभी चाहती हुई मंगलग्रह के साथ दोस्ती करना

मंगलवासी छोटे-से ग्लोब में
और शायद कुछ करते हुए, पता नहीं क्या
(शायद सोना-सोते हुए, पहनना-पहनते हुए, हड़बड़ी-हड़बड़ाते हुए)
कभी चाहते हुए पृथ्वी के साथ दोस्ती करना
मैं निश्चित हूं उस तथ्य को लेकर

यह चीज़ जिसे हम कहते हैं सार्वत्रिक गुरुत्व
अकेलेपन की शक्ति है चीज़ों को इकट्ठा करती हुई

ब्रह्मांड की आकृति बिगड़ी हुई है
इसलिए सब जुड़ते हैं इच्छा में

ब्रह्मांड फैलता जाता है लगातार
इसलिए सारे महसूस करते हैं बेचैनी

बीस अरब प्रकाशवर्षों के अकेलेपन पर
बिना सोचते हुए, मैं छींका !


माहवारी

1
उसके भीतर कोई तैयार करता है एक उत्सव भोज
उसके भीतर कोई तराशता है एक अनजाना बेटा
उसके भीतर कोई पड़ा है घायल

2
सृष्टि की रचना के समय
लापरवाही के कारण घायल हो गई ईश्वर की हथेली को
अब भी मुश्किल लगता है भुला पाना

3
इस विशुद्ध नियमितता के साथ सुसज्जित
अंतिम संस्कार होते हैं मेरे भीतर उत्सव के रंगों में
मनाया जाता है उनका शोक
वे जारी रहते हैं बिना घायल हुए और वे मर नहीं पाते
और वे शून्य में मिल पाते हैं मेरे बच्चे जो
ज़रूरत से ज्यादा छोटे हैं एक पका हुआ चांद
गिर रहा है उसे थामने वाला कोई नहीं
मैं इंतज़ार कर रही हूं एक ठंडी जगह पर
उकड़ूं बैठी मैं अकेली इंतज़ार कर रही हूं---
उसके लिए जो बोएगा चांद को
उसके लिए जो मुझे वंचित कर देगा इस चढ़ते ज्वार में --
एक घाव के साथ, जो खो चुका
हर किसी की
स्मृति में,
मेरे भीतर और जो परे है
किसी भी उपचार की पहुंच से

4
.... जो चाहते हैं जीवित रहना उन्हे बुलाता हुआ
किनारे की तरफ़ ज्वार बहता है भरपूर
उसके भीतर उसके भीतर एक समुंदर है
पुकारता हुआ चांद को और जैसे-जैसे चांद
घूमता जाता है उसके भीतर है
एक अनन्त कैलेंडर ....
____________________________________________________________________ ( शुन्तारो तानीकावा जापान की नई पीढी के कवियों में सर्वोपरि माने जाते हैं। अशोक पांडे द्वारा किए गए उनके अनुवाद संवाद प्रकाशन से " एकाकीपन के बीस अरब प्रकाशवर्ष" नाम से छपे हैं, जो एक संग्रहणीय पुस्तक है।)

Sunday, March 15, 2009

फ़रोग फरोखज़ाद की कविताएं : अनुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

आज से 74 वर्ष पूर्व तेहरान में एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी फ़रोग इरानी स्त्रीवादी कविता की अगवा मानी जाती हैं। हालांकि वे महज 32 साल तक जीवित रहीं। औपचारिक तौर पर उन्होंने नौंवी क्लास तक शिक्षा पाई, फिर पेंटिग और सिलाई सीखी। 17 वर्ष की उम्र में उनका पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। 16 की उम्र में उन्होंने एक व्यंग्यकार रिश्तेदार से विवाह किया, कुछ ही समय बाद एक बेटे का जन्म हुआ और तभी उनका तलाक हो गया। धार्मिक रुढ़िवादिता को धता बताते हुए बेचैन फ़रोग 1956 में यूरोप यात्रा पर निकल पड़ीं - इंग्लैंड में उन्होंने फिल्मकला का प्रशिक्षण लिया। बाद में वे अमरीका जाकर बस गईं, जहां रहस्यमय परिस्थियों में 1967 में एक कार एक्सीडेंट में उनकी दर्दनाक मौत हो गई। 1962 में उन्होंने `द हाउस इज ब्लैक´ नामक डाक्यूमेंट्री बनाई, जिसमें एक ईरानी कुष्ठाश्रम की मार्मिक दशा का वर्णन किया गया था- इसे जर्मनी के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में पुरस्कृत किया गया। फिल्म निर्माण के दौरान एक कुष्ठ रोगी दंपति के बच्चे को उन्होंने गोद लिया और जीवनपर्यन्त अपने साथ रखा। उनका दूसरा,तीसरा और चौथा काव्य संकलन जीवित रहते निकला पर पांचवां संकलन मृत्योपरांत प्रकाशित हुआ। 1963 में यूनेस्को ने उनके जीवन और कृतित्व पर एक लघु फिल्म बनाई। पुरुष वर्चस्व को चुनौती देती हुई उनकी कविताओं में निर्बाध प्रेम का अनहद नाद सुनाई देता है। लिहाजा अपनी भाषा में लिखते रहने के बावजूद ईरानी समाज में उनकी स्वीकृति सहज नहीं रही। पर जब भी ईरान में प्रगतिशील साहित्य की चर्चा होती है, फ़रोग का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है। - यादवेन्द्र


कविताएं

तोहफ़ा

मैं मध्यरात्रि के गर्भ से बोल रही हूं
दरअसल बता रही हूं अंधकार की अतियों के बारे में
और असीमित छाया की सघनता के बारे में भी

मेरे प्रिय
जब तुम आओगे मुझसे मिलने मेरे घर
साथ में लेते आना रोशनी बिखेरता एक चिराग़
और खोल देना यहां एक खिड़की भी
जिससे देख सकूं मैं भर आंखों
पूरे शबाब पर खुशनसीबों के नाचते-गाते
जनसमूह !



चिड़िया थी तो आखिर चिड़िया ही

चिड़िया बोली :
कितना है चटकीला दिन
कितनी ताज़ा यह हवा
अहा, वसन्त आ गया है
मैं निकलती हूं अब
अपने जोड़ीदार की तलाश में

चिड़िया उड़ी तारों की बाड़ के पार
छूने लगी बादल
और ओझल हो गई ऊंचाईयों में -

किसी चाहत की तरह
किसी प्रार्थना की तरह
किसी सरसराहट की तरह

और देखते-देखते बिखर गई चारों ओर चिड़िया हवा में

नन्हीं-सी चिड़िया
पिद्दी-सी चिड़िया
धूसर-सी चिड़िया

एकाकी थी चिड़िया पर थी सचमुच में एकदम आज़ाद

आकाश में ऊपर-नीचे
ट्रैफिक लाइटों के पार
सड़क पर बने निशानों के पार
उड़ती ही रही
अनवरत
अविराम
वह चिड़िया
और अंत में अपने ख्वाबों के शिखर पर पहुंच
उसने चखा काल और स्थान का आनन्द

चिड़िया थी तो आखिर चिड़िया ही
पर थी सचमुच में
एकदम आज़ाद !




गुलाब

गुलाब
गुलाब
ओ गुलाब !

वह मुझे साथ लेकर गया था
गुलाबों के बाग़ में

गुलाबों के बाग़ में
और खोंस दिया
मेरे आतुर बालों के बीच
एक गुलाब

गुलाबों के बाग़ में
एक झाड़ी की ओट लेकर
वह लेटा था
मेरे साथ

गुलाबों के बाग़ में
वृक्षों और पंछियों से थोड़ा परे हटकर
इसके बाद वह सोया था
मेरे साथ

सुनो न !
आंखों पर पट्टी बांधे हुई खिड़कियों
इस बाबत मैं तुमसे ही तो बोल रही हूं

सुनो न !
ईष्यालु वृक्षों, डरी हुई बतखों
इस बाबत मैं तुमसे ही तो बोल रही हूं

ग़़ौर से सुनना मेरी बात :
जोर-जोर से धड़कते मेरे दिल के नीचे
मेरे अंतर की अतल गहराई में
ऐसा लग रहा है
खिल रहा हो जैसे कोई गुलाब

लाल गुलाब
एक चटकीला लाल गुलाब
जैसे हो फहराता कोई ईश्वरीय ध्वज
फिर से जीवित हो जाने के दिन !

सुनो मेरी बात :
मुझे लगता है
जैसे बह रहा हो कोई गुलाब
मेरी उत्तेजित शिराओं के अंदर ही अंदर

मैं हो गई हूं गर्भवती
गर्भवती?
हां, गर्भवती !

_________________________________________________________
यादवेंद्र
एफ-24, शांतिनगर,
रुड़की - 247 667
फोन : 9411111689

Wednesday, March 11, 2009

अब मैं विदा लेता हूं - पाश




होली की मस्ती के तुरत बाद आइए अब जिन्दगी के कुछ अहम मरहलों पर चर्चा करते हैं। चर्चा का माध्यम होगी पाश की यह कविता। 9 सितम्बर 1950 को तलवंडी सलेम, पंजाब में जन्मे अवतार सिंह `संधू´ पाश आठवें-नवें दशक की पंजाबी कविता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें हिंदी में भी वही स्थान और प्यार प्राप्त है, जो पंजाबी में। सैंतीस जैसी कम उम्र में वे खालिस्तानी उग्रवादियों के शिकार हो गए, जब उनके गांव में ही उनके अभिन्न मित्र हंसराज के साथ उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया। पाश का वामपंथी समर्पण आतंकवादियों को रास नहीं आया। बाकी बात उनकी कविता कहेगी ....

अब मैं विदा लेता हूं - पाश

अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं

उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना ना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सबकुछ का जिक्र होना था

उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त

लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है

मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जजो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं

प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे

प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गुंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने व्यापारी बना दिया

जिस्म का रिश्ता समझ सकना -
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना -
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना -
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना -
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं

तुम भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया
मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे सांचें में ढाला

तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवाय इसके,
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना !
________________________________________________
यह अद्भुत अनुवाद प्रो0 चमनलाल जी का किया हुआ है। मैंने अपने तईं कुछ क्रियाओं और शब्दों में परिवर्तन किया है ताकि वे हिंदी के ज्यादा क़रीब लगें। नीचे पाश पर अनुराग अन्वेषी का एक महत्वपूर्ण लेख भी दिया जा रहा है, अनुराग जी के प्रति आभार के साथ ....

पाश को मारकर भी नहीं मार सके आतंकवादी -अनुराग अन्वेषी

यह हैं पाश। अवतार सिंह संधू 'पाश'। आज से बीस साल पहले (23 मार्च 1988 को) खालिस्तानी आतंकवादियों ने इनकी हत्या कर दी थी। इस पंजाबी कवि का अपराध (?) यही था कि यह इस जंगलतंत्र के जाल में फंसी सारी चिड़ियों को लू-शुन की तरह समझाना चाह रहे थे। चिड़ियों को भी इनकी बात समझ आने लगी थी। और वे एकजुट होकर बंदूकवाले हाथों पर हमला करने ही वाली थीं कि किसिम-किसिम के चिड़ियों का हितैषी मारा गया। उस वक्त पाश महज 37 बरस के थे।

वैसे, यह बेहद साफ़ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है, जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आता है। यानी, कोई भी हत्या डर का परिणाम है। पाश की क़लम से डरे हुए आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। पाश बेशक ज़िंदादिल इनसान थे। उनकी जिंदादिली की पहचान हैं उनकी बोलती-बतियाती कविताएं। पाश की कविताएं महज कविताएं नहीं हैं, बल्कि वे विचार हैं। उनका साहित्य पूरी दृष्टि है। ज़िंदगी को क़रीब से देखने का तरीका है। कुल मिलाकर वह ऐसी दूरबीन है जिससे आप दोस्तों की खाल में छुपे दुश्मनों को भी पहचान सकते हैं।


पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी। इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी। पर ख़ुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा। 1970 में वह जेल में थे और वहीं से उन्होंने कविता संकलन 'लौह कथा' छपने के लिए भेजा। इस संकलन में उनकी कुल 36 कविताएं थीं। इस संकलन के आने के साथ ही अवतार सिंह संधू 'पाश' पंजाबी कवियों में 'लाल तारा' बन गये। 1971 में पाश जेल से छूटे। इस बीच जेल में ही उन्होंने ढेर सारी कविताएं लिखीं और हस्तलिखित पत्रिका 'हाक' का संपादन किया। 1974 में पाश के 'उड्डदे बाजां मगर', 1978 में 'साडे समियां विच' और 1988 में 'लड़ांगे साथी' कविता संकलन छपकर आये। अपने 21 वर्षों की काव्य-यात्रा में पाश ने कविता के पुराने पड़ रहे कई प्रतिमानों को तोड़ा और अपने लिए एक नयी शैली तलाशी। संभवतः अपने इसी परंपराभंजक तेवर के कारण पाश ने लिखा है :

तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाये
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।

पाश की कविताओं में विषय-वैविध्य भरपूर है, किंतु उनके केंद्रीय भाव हमेशा एक हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि पाश ने जिंदगी को बहुत करीब से देखा। तहजीब की आड़ में छूरे के इस्तेमाल को उन्होंने हमेशा दुत्कारा, साथ ही मानवता और उसकी सच्चाई को उन्होंने गहरे आत्मसात किया। पाश के लिए ये पंक्तियां लिखते हुए उनकी कविता 'प्रतिबद्धता' याद आती है, जिसका करारा सच प्रतिबद्धता के नाम पर लिखी ढेर सारी कविताओं को मुंह चिढ़ाता है :

हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की चाशनी में कण होता है
जैसे हुक्के में निकोटिन होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर
कोई मलाई जैसी चीज होती है।

गुड़ की चाशनी, हुक्के की निकोटिन और महबूब के होठों की मलाई - ये बिंब पाश जैसे कवि को ही सूझ सकते हैं। यह अलग बात है कि कविता के नासमझ आलोचक इसे बेमेल बिंबों की अंतर्योजना कह कर खारिज करना चाहें। पाश ने खेतों-खलिहानों में दौड़ते-गाते, बोलते बतियाते हुए हाथों की भूमिका भी सीखी :
हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
'हीर' के हाथों से 'चूरी' पकड़ने के लिए ही नहीं होते
'सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
'कैदो' की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं।

इस अंदाज में अपनी बात वही कवि रख सकता है जिसे पता हो कि वह कहां खड़ा है और सामनेवाला कितने पानी में है :

जा, तू शिकायत के काबिल होकर आ
अभी तो मेरी हर शिकायत से
तेरा कद बहुत छोटा है।

मनुष्य और उसके सपने, उसकी ज़िंदादिली और इन सबसे भी पहले अपने आसपास की चीजों के प्रति उसकी सजगता पाश को बहुत प्यारी थी :

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...।

पाश के लिए कविता प्रेम-पत्र नहीं है और जीवन का अर्थ शारीरिक और भौतिक सुख भर नहीं। बल्कि इन सबसे परे पाश की दृष्टि एक ऐसे कोने पर टिकती है, जिसे आज के भौतिकतावादी समाज ने नकारने की कोशिश की है - वह है उसकी आज़ादी के सपने। आज़ादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम नहीं और देश का मतलब भौगोलिक सीमाओं में बंधा क्षेत्र विशेष नहीं। आज़ादी शिद्दत से महसूसने की चीज़ है और देश, जिसकी नब्ज भूखी जनता है, उसके भीतर भी एक दिल धड़कता है। इसलिए पाश हमेशा इसी सर्वहारा के पक्ष में खड़े दिखते हैं।

वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं। विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है। पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी। पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है :

यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...

पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था - लौहकथा। इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा। कवि ने इस कविता में लोहे को इस क़दर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं। एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल। कुदाल लिये हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है। लेकिन इन दोनों में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :

आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो।

पाश की कविताओं से गुज़रते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुज़रना पाठकों के लिए मुश्किल है। इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुज़रते हैं और जहां कविता ख़त्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं। यानी, तमाम खिलाफ़ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है।

मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।

उन्होंने अपनी लंबी कविता 'पुलिस के सिपाही से' में स्पष्ट कहा है :

मैं जिस दिन रंग सातों जोड़कर
इंद्रधनुष बना
मेरा कोई भी वार दुश्मनों पर
कभी ख़ाली नहीं जाएगा।
तब फिर झंडीवाले कार के
बदबू भरे थूक के छींटे
मेरी ज़िंदगी के घाव भरे मुंह पर
न चमकेंगे...

और इसके लिए बेहद ज़रूरी है :

मैं उस रोशनी के बुर्जी तक
अकेला पहुंच नहीं सकता
तुम्हारी भी जरूरत है
तुम्हें भी वहां पहुंचना पड़ेगा...

1974 में प्रकाशित 'उड्डदे बाजां मगर' में पाश की निगाह बेहद पैनी हो गयी है और शब्द उतने ही मारक। इसी संकलन की कविता है - हम लड़ेंगे साथी ।

हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी ज़िंदगी के सपने

पाश ने देश के प्रति अपनी कोमल भावना का इज़हार पहले काव्य संग्रह की पहली कविता में किया है

भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...

पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते। वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है। और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं :

इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है...


नवंबर '84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने 'बेदखली के लिए विनयपत्र' जैसी रचना भी की। इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी।

मैंने उम्रभर उसके खिलाफ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफ़सोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें ...
... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।

पाश की हत्या ने उनकी एक कविता की तरफ लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया। 'मैं अब विदा लेता हूं' शीर्षक इस कविता में पाश ने अपनी सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए मृत्यु से 10 साल पहले ही अपनी अंतिम परिणति का ज़िक्र किया था :

...तुम यह सब भूल जाना मेरे दोस्त
सिवाय इसके
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का भी जी लेना मेरे दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना।

संभवतः यही एक ऐसी कविता थी, जिसमें पाश अपने व्यक्तिगत जीवन से संबोधित थे और अपने आसपास के निकटस्थों के लिए लिखा था। सचमुच, उनके भीतर जिंदगी को उसके गले तक जीने की बलवती इच्छा थी।

Saturday, March 7, 2009

उर्दू हिन्दू और अन्य कविताएँ : नरेश चन्‍द्रकर



"जिन कवियों की बदौलत आज की हिंदी कविता का संसार नया और बदला-बदला लग रहा है, उनमें नरेश चंद्रकर अग्रणी हैं" - वरिष्ठ कवि अरुण कमल की यह टिप्पणी नरेश जी के परिचय के लिए काफी होगी। वे हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में हैं और उनका सीधा-सादापन अनमोल। यह सभी कविताएं अनुनाद के प्रवेशांक से ......



उर्दू हिंदू

उन्होंने कहा - तुम्हारी भाषा में उर्दू बहुत है
नाम क्या है?
हिंदू नहीं हो क्या?
मुझे लगा
इस भाषाई नंगई का जन्म
ज़रूर किसी
हिंदू प्रयोगशाला में हुआ होगा !


स्त्रियों की लिखी पंक्तियां

एक स्त्री की छींक सुनाई दी थी कल मुझे अपने भीतर
वह जुकाम से पीड़ित थी
नहाकर आयी थी
आलू बघारे थे
कुछ ज्ञात नहीं
पर काम से निपटकर कुछ पंक्तियां लिखकर वह सोई
स्त्रियों के कंठ में रूंधी असंख्य पंक्तियां हैं अभी भी
जो या तो नष्ट हो रही हैं
या लिखी जा रही हैं सिर्फ़ कागज़ों पर
कबाड़ हो जाने के लिए

कभी पढ़ी जायेंगी ये मलिन पंक्तियां तो सुसाइड नोट लगेंगी


हमारे समय में कृतज्ञता

मैंने उनके कई काम निपटाए
न निपटाता तो हमेशा के लिए नाराज़ रहते
अब वे कहते हैं
बुरा फंसा तुम्हारे निपटाए काम की वजह से!


क्रम

पहले हत्या की
फिर खून के दाग़ मिटाए
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट बदली
गवाह बदले
अदालती कार्रवाई की जगहें बदलीं
हत्या की तरक़ीब
और उनकी अटकलें बदलीं
हत्यारे का हुलिया बदला
हत्या के वाहन बदले
साथ-साथ उसने हाथ धोए
वह नहाया
उसने साफ़ कपड़े पहने
मुस्कुराता चेहरा लिए हवाई अड्डे पहुंचा
ऐसे विदा हुआ वह देश से
ऐसे शुरू हुआ नया व्यापार !


अन्न हरकारे हैं
इस बार गेंहू फटकारते वक़्त
कुछ अजीब आवाज़ें उठीं
धान के सूखे कण चुनना
खून के सूखे थक्के बीनने जैसा था
आटे चक्की में सुनाई दी रगड़ती हुई सूनी सांसें
ठीक नहीं थे इस बार गेंहू बाज़ार में
मन उचाट रहा उनके मलिन स्वर सुनकर
वह किसान आत्महत्याओं का प्रभाव था
हाथ से छूट जाते थे अन्नकण
उदास बना हुआ था उनका गेंहुआ रंग
अन्न हरकारे हैं
ख़बर पहुंचाते हैं हम तक
अपने अंदाज़ में !


मेज़बानों की सभा

आदिवासीजन पर सभा हुई
इंतज़ाम उन्हीं का था
उन्हीं के इलाक़े में
शामिल वे भी थे उस भद्रजन सभा में
लिख-लिखकर लाए पर्चे पढ़े जाते रहे
खूब थूक उड़ा
सहसा देखा मैंने
मेज़बानों की आंखों में भी चल रही है सभा
जो मेहमानों की सभा से बिलकुल
भिन्न और मलिन है !


Thursday, March 5, 2009

नई पौध और 'ग्लोबल वार्मिंग' का समय - कुसमय : सिद्धेश्वर सिंह

(मैंने कई बार अनुनाद पर "कविता के विचार पक्ष" के छूट जाने का रोना रोया है और परिणाम स्वरुप मित्रजन अपनी विचारात्मक टिप्पणियां और लेख भेजने लगे है। यह टिप्पणी है कर्मनाशा वाले जवाहिर चा की ... उनके अपने विशिष्ट छुपे चुटीले अंदाज़ में ! )
शाम कई दिनों के बाद खेतों की तरफ घूमने निकला था. क्या देखता हूँ कि गेहूँ के खेत के खेत पियरा - से गए हैं. अगर ऐसा ही रहा तो लगभग एक पखवाड़े के भीतर ही कटिया (कटाई) शुरू हो जाएगी और मड़ाई - गहाई का दौर अपने साथ अन्न के दाने लाएगा साथ ही भूसा भी . धूल -धक्कड़ और गर्द - गुबार भी इसी के सहउत्पाद की भाँति हमारे निकट आएगी. यह समय एक बड़े तबके के लिए उल्लास व उत्सव लेकर आएगा तथा कुछेक लोगों के लिए ऊब , उकताहट और छींक -झींक भी. इधर हाल ही में अखबारों - पत्रिकाओं में खबर थी कि 'ग्लोबल वार्मिंग' के दुष्परिणामों की एक खेप के रूप यह सामने आने लगा है कि फलदार पेड़ों पर असमय ही फूल - फल और फसलों पर असमय छीमियाँ व बालियाँ दिखाई देने लगी हैं. क्या ऐसा सभी पेड़ों ,सभी फसलों के साथ हो रहा है ? कॄषि वैज्ञानिक बताते हैं नहीं सभी के साथ नहीं किन्तु जिन पर इनका असर है उनकी उपज गुणवत्ता तो प्रभावित तो होगी ही. आज गेहूँ के खेतों के बीच पसरी डामर की सड़क पर टहलते हुए कई बातें ध्यान में आती रहीं . कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है. इसी सिलसिले में यह भी कि जहाँ तक दॄष्टि जाती है एक ही फसल -गेहूँ , गेहूँ ,गेहूँ ; न चना , न मटर , न मसूर, न अरहर , न बाकला , न उड़द , न मूंग.....

आज शाम कई दिनों के बाद खेतों की तरफ टहलते हुए प्रकॄति के पॄष्ठ पर लिखी फसलों की कविता को निहारते - निहारते आज लिखी जा रही हिन्दी की युवा कविता को भी गुनता - बुनता रहा. मन प्रांतर में बहुत कुछ सिलसिलेवार - बेतरतीब उभरता - मिटता रहा. घर लौटकर उसे एक टिप्पणी की शक्ल देने की कोशिश- सा कर रहा हूँ . इस टिप्पणी में मैं जान बूझकर नाम नहीं गिना रहा रहा हूँ. ऐसा करने के पीछे कोई संकट नहीं है वरन इस टिप्पणी के बहाने मैं उस देश - काल की चर्चा करना चाहता हूँ जिसकी परिधि में युवा कविता की व्याप्ति है. विचार , भाव , भावाभियक्ति , भंगिमा और भाषा के सवाल पर भी फिर कभी. गाँव में मेरा जन्म हुआ , एक गाँवनुमा कस्बे में शिक्षा - दीक्षा हुई , अब भी गाँव में ही रहता हूँ. न तो जीवन में शहरी हो सका न कविता में अतएव इस टिप्पणी में भी वही सब उपादान - उपमान मौजूद हैं. कहा जाता है कि ईश्वर ने गाँव बनाए और मनुष्य ने शहर. मेरे हिसाब से इस संसार के कलित कोलाहल कलह में गँवईपन की तलाश करते हुए शब्दों की खेती करना ही कविकर्म है.आइए आज की युवा हिन्दी कविता और कवि कर्म पर कुछ यूँ ही - सी बात करते है -

* नये कवियों की एक बहुत बड़ी कतार हमारे समक्ष विद्यमान है. उनकी उपस्थिति के लिए पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं है. इधर हाल में कई नई पत्रिकायें निकली हैं जिन्होंने मंच दिया है साथ ही यह भी कहा जाना जरूरी है कि अखबारों से प्राय: साहित्य के पन्ने तिरोहित हुए हैं और एक लंबी व शानदार पारी खेल कर 'पहल' जैसी पत्रिका इतिहास के खाते में दर्ज हुई है. आज जिन कवियों को हिन्दी की युवा कविता का चेहरा कहा जा रहा है उनमें से अधिकांश की मुँहदिखाई 'पहल' ने ही की थी. नई पत्रिकाओं की निरन्तर आमद से प्रकाशन की प्रक्रिया तीव्र हुई है. स्थापित कहे जाने प्रकाशकों ने युवा कवियों के संग्रह छापने की कॄपणता में कमी की है. संचार के नये माध्यमों (वेब ,ब्लाग आदि) के जरिये भी कविता की आमद में इजाफा हुआ है. तकनीक की इस नई जुगत की जादूगरी ने जहाँ हिन्दी कविता को एक वैश्विक मंच दिया है वहीं दूसरी ओर वैश्विक कविता की सहज उपलब्धता का संकट भी इस तरकीब ने कमतर किया है. कुल मिलाकर कविता की भरपूर उपस्थिति है और वह देखी जा रही है ठीक वैसे ही जैसे कि फसल खेतों में खड़ी है और दूधिया दाने अन्न में रूपायित होने के काम में लगे हुए हैं

** इस बीच सुनने में आया है कि कविता की किताबों के संस्करण परिमाणात्मक रूप से छोटे होते जा रहे हैं वही दूसरी ओर यह भी देखने में आया है कि पत्रिकाओं व अन्य मंचों की प्रचुरता है , सो समीक्षायें भी प्रचुर हैं. छोटे -मँझोले शहरों तक में पुस्तक मेले अयोजित होने लगे हैं , सो कविता के चाहने वालों की कमी का रुदन भी तर्कसंगत नहीं लगता. उन्नीसवीं शताब्दी के कवि मंडलों का कुछ - कुछ आभास देते हुए नए- नए कविमंडल भी निर्मित - से हुए हैं. आज के युवा कवि अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के कवियों के प्रति आदर का भाव रखते हुए उन्हें न केवल सचमुच पढ़ रहे हैं अपितु वैयक्तिक जीवन में भी दोनो पीढ़ियाँ प्राय: निकट दिखाई दे रही हैं. मेरी जानकारी में यह पहले दुर्लभ था और यदि किंचित था भी तो उसमें भय-भक्ति भाव जैसा कुछ सतह पर दीखता था. अब तो स्थिति यह है दो अलग - अलग पीढ़ियों के कवि दो अलग - अलग पीढ़ियों के किसानों की तरह मिल जुलकर खेतीबाड़ी के काम में लगे हुए हैं. इस सहकारी खेती से न केवल रकबा बढ़ा है बल्कि प्रति बीघा उपज में बढ़ोत्तरी का अनुमान भी मूर्त होता दीख रहा है.

*** आज का युवा कवि न केवल कविता लिख रहा है बल्कि कविता पर लिखने का काम भी लगभग उसी के जिम्मे है.हिन्दी बिरादरी में लिखने - पढ़ने वालों की एक लम्बी जमात के बावजूद हमारे पास आलोचकों - समीक्षकों का अकाल तो है ही. आज का युवा कवि दुहरे मोर्चे पर जूझ रहा है. कविता की दुनिया और रोजमर्रा की दुनिया में तालमेल संभवत: कभी नहीं रहा है. एक तरह से इस तालमेल के अभाव को भरने का उपक्रम ही कविता - कर्म का उत्स है. कवि उस भाषा में भी बात नहीं करता है जो सामान्य भाषा है और न ही कविता की लड़ाई और उसके औजार वैसे ही होते हैं जैसे कि मोर्चे पर लड़ने वाले एक सैनिक के. अब तो लड़ाई के कारण और उसके कुचक्र इतने गझिन हैं कि भाषा भी गुंफित -सी हो चली है . पहले ही निवेदन कर चुका हूँ इस बाबत कभी अलग से. अभी तो बस हिन्दी की युवा कविता के ग्लोब पर मँडरा रहे 'ग्लोबल वार्मिंग' के धमक पर कुछ बातें जो एक कवि और कविता के ठीकठाक पाठक के रूप में मैं अनुभव करता रहा हूँ.

**** आज पुरस्कारों की कोई कमी नहीं है.यह भी सच है कि पुरस्कारों की साख घटी है. पुरस्कार और सम्मान एक दूसरे के पर्याय जैसे नहीं रह गए हैं. नए कवियों के पास प्रकाशित होने के जितने पर्याप्त अवसर हैं उससे कहीं अधिक अवसर चर्चित -पुरस्कॄत होने के हैं. यह भी सच है कि पुरस्कॄत -चर्चित होने के बाद अपने कवि रूप को बनाए - बचाए रखने के खतरे भी बढ़े हैं. प्रश्न है कि कवि रूप क्या है ? एक सामान्य युवा मनुष्य जो कि कवि भी है , के सामने कई तरह की चुनौतियाँ हैं जो पद, पुरस्कार, प्रकाशन, प्रतिष्ठा , नौकरी, स्थायित्व, सफलता जैसे नाना रूप धारण कर आए जा रही हैं. युवा कवि को इन्हीं के बीच समझदारी दिखाते हुए अपने लिए दाल रोटी के सवाल भी हल करने हैं और अंतर की अकुलाहट को अलग अंदाज में वाणी भी देनी है.यह ऐसा समय है जब सब कुछ औसत - सा दीखता है -विचार , विमर्श , व्यक्तित्व , आन्दोलन सब कुछ. फिर भी कविता का रचा जाना कम नहीं हुआ है; वह निरन्तर रची जाती रहेगी . जिस प्रकार उर्वरकों की खपत के बावजूद जमीन की अपनी उर्वरा छीज रही है, तमाम तरह के कीटनाशकों के छिड़काव के बाद भी न तो बीमारियाँ कम हुई हैं न खर पतवार और ऊपर से यह 'ग्लोबल वार्मिंग' जिसने बीजवपन से अन्न उपज की परंपरागत कालावधि को संकुचित करने का कुचक्र रचना शुरु कर दिया है फिर भी किसान खेती करना तो नहीं छोड़ देगा . जीवित रहने और स्वस्थ तरीके से जीवित रहने के लिए अन्न के दाने तो चाहिए ही. आखिरकार एक किसान किसके लिए खेती करता है ? दाने के लिए या कि भूसे के लिए ? किसान के पास हमेशा से इस प्रश्न का उत्तर मौजूद रहा है फिलहाल यह प्रश्न तो मैं आज के हिन्दी युवा कवियों से कर रहा हूँ.

एक जिद्दी धुन यानी धीरेश सैनी की प्रतिक्रिया

भूसे और गेहूं वाला सवाल महत्वपूर्ण है। अब यह बात युवा पीढ़ी को खुद सोचनी चाहिए। इन दिनों यह रोना है कि 80 के दशक वाले जगह नहीं छोड़ रहे हैं, बचकाना है। 80 के दशक में वाकई इस तरह छपना इतना आसान नहीं था और तब कई कवियों को तो न छपने की बीमारी भी थी और जो आज के हाल को देखकर बड़ी सम्मानीय लगती है। हां इन दिनों ये शिकायत सही है कि आलोचना ढंग से नहीं हो रही है। पर शिकायत करने वाले क्या वाकई आलोचना के पैरोकार हैं। पिछले दिनों विजय कुमार के लेख पर और मंगलेश डबराल की एक टिपण्णी पर क्या अश्लील आत्मप्रदर्शन किया गया था। दो पीढ़ियों का रिश्ता भी अब ऐसा ही है, वैसा नहीं जैसा कि शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि का अपनी बाद की पीढ़ी से था। हां एक अजीब सी चतुरता जरूर है जिसके तहत किसी एक को पीटने के लिए किसी एक की पीठ सहला दी जाती है। अब 80 के दशक के कई `हीरो' अपनी रेटिंग के लिए यही दंद-फंद करते हैं। ये `हीरो' आजकल के `हीरो' को भी साधे रखते हैं और दोनों टाइप वाले एक-दूसरे से ये सब कलाकारी सीखते रहते हैं। `महानता' की पदवी के लिए बरसों से संघर्षरत `कलित कोलाहल में गंवईपन की तलाश करने वाले`आधुनिक गुरूजी' भी राजधानी की यूनिवर्सिटी से यही खेल संचालित करते रहते हैं। अब यह वर्गीकरण उन्ही की देन है क्या कि रघुवीर सहाय शहरी कवि हैं। कुछ का कहना है कि वे यथास्थितिवादी हैं। ग्राम्यजीवन को अहा, वाह करते रहना और उसके गड्ढ़ों को नजरअंदाज करते रहना सिखाने वाले महान कवि और उनके सगे किस पृष्ठभूमि से आए हैं और वे इन गड्ढ़ों को दिखाने की कोशिश करने वाले ग्राम्य जीवन को चित्रित करने की कोशिश करने वालों को कलाहीन क्यों समझते हैं, यह भी देखना जरूरी है। पिछले दिनों यूटोपिया-वूटोपिया, वाम-अतिवाम के जुमले भी ब्लाग पर खास सुविधाजनक ढंग से उछाले गए। अब `कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सरत नज़र नहीं आती' कहना क्रांतिविरोधी है और लो आ गई क्रांति का गाल बजा देना क्रांतिवीरता है क्या? अब 80 के दशक के ही मनमोहन का कोई पुराना लेख था जिसमें एक बात कुछ इस तरह थी (ठीक-ठीक याद नहीं, सिर्फ भाव) कि एक मूर्ख उम्मीद होती है और एक एनलाइटन निराशा भी होती है।

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