Monday, February 23, 2009

पंकज चतुर्वेदी की चार प्रेम कविताएं

अनुनाद पर अभी आपने समकालीन कविता को लेकर पंकज का एक लम्बा सैद्धान्तिक लेख पढ़ा है। अपने समय और पूर्वस्थापित सिद्धान्तों की गहन छानबीन करते हुए उन्होंने अपनी कुछ स्थापनाएं दी हैं, जिन पर प्रणयकृष्ण, आशुतोष कुमार और गिरिराज किराडू की प्रतिक्रियाएं भी अनुनाद पर मौजूद हैं।

यह पोस्ट पंकज की कविताओं की पोस्ट है और वह भी प्रेम कविताओं की ! पाठक उनके लेख के बरअक्स जब इन गुनगुनी कविताओं को पढ़ेंगे तो यह उनके लिए ज़रूर एक रोचक अनुभव साबित होगा।

गुस्ताव कूर्बे की कृति " चित्रकार का स्टूडियो"
निरावरण वह
(फ्रांसीसी कलाकार गुस्ताव कूर्बे की कृति " चित्रकार का स्टूडियो" को देखकर)

देह को निरावृत करने में
वह झिझकती है
क्या इसलिए कि उस पर
प्यार के निशान हैं

नहीं

बिजलियों की तड़प से
पुष्ट थे उभार
आकाश की लालिमा छुपाए हुए

क्षितिज था रेशम की सलवटों-सा
पांवों से लिपटा हुआ

जब उसे निरावरण देखा
प्रतीक्षा के ताप से उष्ण
लज्जा के रोमांच से भरी
अपनी निष्कलुष आभा में दमकता
स्वर्ण थी वह
इन्द्र के शाप से शापित नहीं
न मनुष्य-सान्निध्य से म्लान

वह नदी का जल
हमेशा ताज़ा
समस्त संसर्गों को आत्मसात किए हुए
छलछल पावनता


प्रेम

तुम्हारे रक्त की लालिमा से
त्वचा में ऐसी आभा है
पानी में जैसे
केसर घुल जाता हो

आंखें ऐसे खींचती हैं
कि उनकी सम्मोहक गहनता में
अस्तित्व डूबता-सा लगे
अपनी सनातन व्यथा से छूटकर

भौंहों में धनुष हैं
वक्ष में पराग
तुम्हारी निष्ठुरता में भी
हंसी की चमक है
अवरोध जैसे कोई है नहीं
बस बादलों में ठिठक गया चन्द्रमा है

तुममें जो व्याकुलता है
सही शब्द
या शब्द के सौन्दर्य के लिए
वही प्रेम है
जो तुम दुनिया से करती हो !


इसी कोलाहल में

इसी भीड़ में सम्भव है प्रेम
इसी तुमुल कोलाहल में
जब सूरज तप रहा है आसमान में
जींस और टी-शर्ट पहने वह युवती
बाइक पर कसकर थामे है
युवक चालक की देह

इसी भीड़ में
सम्भव है प्रेम !


तुम मुझे मिलीं

तमाम निराशा के बीच
तुम मुझे मिलीं
सुखद अचरज की तरह
मुस्कान में ठिठक गए
आंसू की तरह

शहर में जब प्रेम का अकाल पड़ा था
और भाषा में रह नहीं गया था
उत्साह का जल

तुम मुझे मिलीं
ओस में भीगी हुई
दूब की तरह
दूब में मंगल की
सूचना की तरह

इतनी धूप थी कि पेड़ों की छांह
अप्रासंगिक बनाती हुई
इतनी चौंध
कि स्वप्न के वितान को
छितराती हुई

तुम मुझे मिलीं
थकान में उतरती हुई
नींद की तरह
नींद में अपने प्राणों के
स्पर्श की तरह

जब समय को था संशय
इतिहास में उसे कहां होना है
तुमको यह अनिश्चय
तुम्हें क्या खोना है
तब मैं तुम्हें खोजता था
असमंजस की संध्या में नहीं
निर्विकल्प उषा की लालिमा में

तुम मुझे मिलीं
निस्संग रास्ते में
मित्र की तरह
मित्रता की सरहद पर
प्रेम की तरह


9 comments:

  1. सचमुच बहुत प्रभावशाली ....अच्छी लगी ...

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  2. आनन्द आ गया पंकज जी को पढ़कर. आभार.

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  3. इसी भीड में संभव है प्रेम-
    जीवन की हलचलों से भरी यह पंक्ति तो अपने आप में ही पूरी कविता है। बधाई कहना काफ़ी न होगा इसके लिए। बस इतना समझो की बार बार याद आती रहने वाली ऎसी ही कविताएं लिखते रहो मित्र।

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  4. बहुत बढ़िया रचनाएं प्रेषित की है।आभार।

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  5. बंधु, जय हो
    आप सामग्री उम्‍दा दे रहे हैं. इफरात में भी. पर उसे टिकने भी तो दो. एक पोस्‍ट अभी टिक के बैठने को होती है. उसे लगभग नीचे धकेलते हुए नई पोस्‍ट सज संवर के बैठ जाती है. चाय तक में रंग आने में थोड़ा वक्‍त लगता है. यह तो साहित्‍य का मामला है. इसी चक्‍कर में पंकज चतुर्वेदी का लेख ओझल हो गया.
    अगर तकनीक ने फंसाया नहीं तो इसे ब्‍लाग पर चिपकाने की कोशशि करता हूं.

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  6. पंकज चतुर्वेदी की कवितायेँ प्रेम से लबरेज़ है और इन्हें जीवन की सशक्त कवितायेँ कहना चाहिए

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  7. पंकज की कवितायेँ निरी प्रेम कवितायेँ नहीं बल्कि जीवन में उत्साह और उमंग के रंग की कवितायेँ हैं बधाई

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  8. kavitayen prem ki kahi jayen ya daihik prem ki isi asmanjas main hoon

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