Friday, February 27, 2009

तुषार धवल की कविताएँ

(.....अभी मैंने तुषार के कविता संकलन से सम्बंधित पोस्ट लगाई थी। आज मेल में गीत, अनुराग, गिरिराज, व्योमेश आदि दोस्तों को सम्मिलित रूप से भेजी गई ये दो कविताएँ मिलीं। मुझे अच्छी लगीं, सो इन्हें जस का तस यहाँ लगा रहा हूँ ..... हालाँकि तुषार ने इन्हें पढ़ने भर को भेजा है .... पर मैं साधिकार लगा दे रहा हूँ ! )


तुम्हें मुक्त करते हुए

वह जो कुछ अब बीत जायेगा
किसी एल्बम में देखोगे तुम
वही परछाइयाँ
जिरह करेंगी तुम्हारे सन्नाटों से

एक दिन सदी बीत जायेगी
एक दिन नदी बीत जायेगी
सूखे किनारे पर बेमानी हो जायेगा पुल

एक प्यास फैली होगी यहाँ से वहां तक
मोह के बाहुपाश में कई कथाएँ होंगी
ये जो कई विचार मन पर दौड़ते हैं
एक दिन नहीं होंगे, जानता हूँ
जानता हूँ कि अब मुक्त होना है तुम्हें जबकि तुम मुक्त थे हमेशा ही
एक विचार था जो तुम्हें रोके हुए था अभी तक

ओ मेरे ओक्टोपस साथी
तुम्हें मुक्त करता हूँ
यहीं अभी और लौटता हूँ अपनी गुफा में
खुद मुक्त होता हुआ
इन अँधेरों में कोई अक्षर मेरे इंतज़ार में कब से बैठा है.
---

दुःख

दुःख सूने कैनवास सा
दुःख समुद्र के सिराहने खड़े टूटे चाँद सा
दुःख बालकनी में टंगे अकेले तौलिये सा
एक नमी से सीला संसार
रुकी हुई उबकाई लिए आ घेरता है
शीशे शीशे टुकड़े टुकड़े किरमिच कंकड़ पलकों में
समय का पीला धुआं
किसी छोड़ी गई बीड़ी की राख से उगता हुआ
बताता है कि तुम हो
कि यह जो सुख की केंचुल छूट गयी है
इसे मन ने उतारा था
सिरजते हुए विचार
दुःख सूखी लकड़ी सा
दुख सूने बथान सा
दुःख फाइल पर जमी धूल सा
जहाँ तहां गड़ता है झड़ता है
एक भीगा धुआं भीतर ही भीतर फ़ैल जाता है शरीर में
और तुम्हारे कई चित्र उभरते हैं जाने कौन कौन सी आँख में
दुःख लकड़बग्घे सा
दुःख उल्टे बर्तन सा
दुःख रात की हवा सा
दबे पाँव आता है जैसे आया हो कोई लोहार
खड़कने लगते हैं अचानक अनगढे औजार
कोई सपेरा बीन बजा कर गायब हो जाता है
कोई लकीर सांप निकाल लेती है
कोई फ़कीर मेरे भीतर जो रहता है टोकता है डूबती सांस को
मनजात है
मनजात है दुःख
दुःख मनजात है.
---
(२६।०२।२००९)
मुंबई

Monday, February 23, 2009

पंकज चतुर्वेदी की चार प्रेम कविताएं

अनुनाद पर अभी आपने समकालीन कविता को लेकर पंकज का एक लम्बा सैद्धान्तिक लेख पढ़ा है। अपने समय और पूर्वस्थापित सिद्धान्तों की गहन छानबीन करते हुए उन्होंने अपनी कुछ स्थापनाएं दी हैं, जिन पर प्रणयकृष्ण, आशुतोष कुमार और गिरिराज किराडू की प्रतिक्रियाएं भी अनुनाद पर मौजूद हैं।

यह पोस्ट पंकज की कविताओं की पोस्ट है और वह भी प्रेम कविताओं की ! पाठक उनके लेख के बरअक्स जब इन गुनगुनी कविताओं को पढ़ेंगे तो यह उनके लिए ज़रूर एक रोचक अनुभव साबित होगा।

गुस्ताव कूर्बे की कृति " चित्रकार का स्टूडियो"
निरावरण वह
(फ्रांसीसी कलाकार गुस्ताव कूर्बे की कृति " चित्रकार का स्टूडियो" को देखकर)

देह को निरावृत करने में
वह झिझकती है
क्या इसलिए कि उस पर
प्यार के निशान हैं

नहीं

बिजलियों की तड़प से
पुष्ट थे उभार
आकाश की लालिमा छुपाए हुए

क्षितिज था रेशम की सलवटों-सा
पांवों से लिपटा हुआ

जब उसे निरावरण देखा
प्रतीक्षा के ताप से उष्ण
लज्जा के रोमांच से भरी
अपनी निष्कलुष आभा में दमकता
स्वर्ण थी वह
इन्द्र के शाप से शापित नहीं
न मनुष्य-सान्निध्य से म्लान

वह नदी का जल
हमेशा ताज़ा
समस्त संसर्गों को आत्मसात किए हुए
छलछल पावनता


प्रेम

तुम्हारे रक्त की लालिमा से
त्वचा में ऐसी आभा है
पानी में जैसे
केसर घुल जाता हो

आंखें ऐसे खींचती हैं
कि उनकी सम्मोहक गहनता में
अस्तित्व डूबता-सा लगे
अपनी सनातन व्यथा से छूटकर

भौंहों में धनुष हैं
वक्ष में पराग
तुम्हारी निष्ठुरता में भी
हंसी की चमक है
अवरोध जैसे कोई है नहीं
बस बादलों में ठिठक गया चन्द्रमा है

तुममें जो व्याकुलता है
सही शब्द
या शब्द के सौन्दर्य के लिए
वही प्रेम है
जो तुम दुनिया से करती हो !


इसी कोलाहल में

इसी भीड़ में सम्भव है प्रेम
इसी तुमुल कोलाहल में
जब सूरज तप रहा है आसमान में
जींस और टी-शर्ट पहने वह युवती
बाइक पर कसकर थामे है
युवक चालक की देह

इसी भीड़ में
सम्भव है प्रेम !


तुम मुझे मिलीं

तमाम निराशा के बीच
तुम मुझे मिलीं
सुखद अचरज की तरह
मुस्कान में ठिठक गए
आंसू की तरह

शहर में जब प्रेम का अकाल पड़ा था
और भाषा में रह नहीं गया था
उत्साह का जल

तुम मुझे मिलीं
ओस में भीगी हुई
दूब की तरह
दूब में मंगल की
सूचना की तरह

इतनी धूप थी कि पेड़ों की छांह
अप्रासंगिक बनाती हुई
इतनी चौंध
कि स्वप्न के वितान को
छितराती हुई

तुम मुझे मिलीं
थकान में उतरती हुई
नींद की तरह
नींद में अपने प्राणों के
स्पर्श की तरह

जब समय को था संशय
इतिहास में उसे कहां होना है
तुमको यह अनिश्चय
तुम्हें क्या खोना है
तब मैं तुम्हें खोजता था
असमंजस की संध्या में नहीं
निर्विकल्प उषा की लालिमा में

तुम मुझे मिलीं
निस्संग रास्ते में
मित्र की तरह
मित्रता की सरहद पर
प्रेम की तरह


Saturday, February 14, 2009

हस्तक्षेप - श्रीकांत वर्मा


(चित्र राजकमल द्वारा प्रकाशित 'प्रतिनिधि कविताएँ' से साभार)

कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए
मगध को बनाए रखना है तो
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए

मगध है, तो शांति है
कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्यवस्था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए

मगध में न रही
तो कहां रहेगी ?

क्या कहेंगे लोग ?

लोगों का क्या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है
रहने को नहीं

कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज़ न बन जाए

एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप -

वैसे तो मगधनिवासियों
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से -

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है -
मनुष्य क्यों मरता हो?

(`मगध´ संग्रह से)

Monday, February 2, 2009

वसन्त कभी अकेले नहीं आता - वरवर राव

वरवर राव विख्यात तेलगू कवि हैं। उनका संकलन हिंदी में भी उपलब्ध है। वसन्त के क्रम को आगे बढ़ाती हुई उनकी यह कविता पहल-47 से साभार!


वसन्त कभी अकेले नहीं आता
गर्मियों के साथ मिलकर आता है

झड़े हुए फूलों की याद के करीब
नई कोंपलें फूटती हैं
वर्तमान पत्तों के पीछे अदृश्य भविष्य जैसी कोयल विगत विषाद की
मधुरता सुनाती है

निरीक्षित क्षणों में उगते हुए
सपनों की अवधि घटती है
सारा दिन तवे-से तपे आकाश में
चंद्रमा मक्खन की तरह शायद पिघल गया होगा
मुझे क्या मालूम

चांदनी कभी अकेले नहीं आती
रात को साथ लाती है
सपने कभी अकेले नहीं आते
गहरी नींद को साथ लाते हैं
गिरे हुए सूर्य बिंब जैसे स्वप्न से छूटकर भी
नींद नहीं टूटती

सुख कभी अकेले नहीं आता
पंखों के भीतर भीगा भार भी
कसमसाता है !

अनुवाद - एम0टी0 खान और आदेश यादव

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