Saturday, January 31, 2009

वसन्त पंचमी यानी निराला यानी वसन्त पंचमी यानी निराला ..

(कवि -चित्र के चित्रकार : प्रभु जोशी / यहाँ से साभार)

सखि, वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया !

किसलय-वसना नव लय लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु-लतिका
मधुप-वृंद बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया !

सखि वसंत आया !

लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर
बही पवन मंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया !

सखि वसंत आया !

आवृत सरसी-उर-सरसिंज उठे
केशर के केश कली के छुटे
स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया !

सखि, वसंत आया !

Thursday, January 29, 2009

हथिया नक्षत्र तथा अन्य कविताएँ - सिद्धेश्वर सिंह


सिद्धेश्वर सिंह कविता के एक खामोश और संकोची किंतु अत्यन्त समर्थ कार्यकर्ता हैं। अपनी कविताओं के जिक्र को वे हमेशा टालते आए हैं इसलिए इस बार मैं उनके ब्लाग कर्मनाशा से उनकी कुछ कविताएं चोरी कर रहा हूं।


मेरे लिए वे जवाहिर चा हैं - क्यों हैं, यह जानने के लिए आप यहाँ क्लिक कर सकते हैं। तो यह पोस्ट आप लोगों के साथ साथ मेरे लिए भी, जवाहिर चा की आत्मीय स्नेहिल याद के साथ .........


हथेलियाँ

लोग अपनी हथेलियों का उत्खनन करते है
और निकाल लाते हैं
पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु
वे चकित होते है अतीत के मटमैलेपन पर
और बिना किसी औजार के कर डालते हैं कार्बन - डेटिंग.
साधारण -सी खुरदरी हथेलियों में
कितना कुछ छिपा है इतिहास
वे पहली बार जानते हैं और चमत्कॄत होते हैं.

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे.

हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी - कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.
हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है
लेकिन कब तक
खुली - पसरी रहेंगी घठ्ठों वाली हथेलियाँ ?
***

बालिका वर्ष

खुश हो जा मेरी मेरी बिट्टो !
यह तेरा वर्ष है.
दक्षेस ने तेरे नाम कर दिया है यह वर्ष
पता है तुझे दक्षेस?
समझ ले कि दुनिया के सात देश
इस वर्ष तेरी ही चिन्ता में डूबे हुए हैं.
उन्हें हर हाल में साल रहा है तेरा दु:ख
वे हर तरफ़ से खोज रहे हैं
तेरे लिए खुशी-तेरे लिए सुख.
सात भाइयों की तरह
तुझे चंवर डुला रहे हैं दुनिया के सात देश !

देश किसे कहते हैं
यह मत जान-मत सोच
छोटे-से बाल मस्तिष्क पर
मत डाल इतना गुरुतर बोझ
इस वर्ष तू मुस्कान बिखेरती रह
कैमरे की आंख तेरी तरफ़ है
तेरी ओर टकटकी बांधे देख रहा है
समूचा प्रचारतंत्र , प्रजातंत्र और राजतंत्र.
इस वर्ष तू भूख की बात मत कर
मत रो कि तेरे कपड़े तार-तार हो गए हैं
गुमसुम मत बैठ कि तेरे पास कोई खिलौना नहीं है
तेरे पास एक वर्ष है बिट्टो ! हर्ष कर !

पूरे तीन सौ पैंसठ दिन
तेरे नाम कर दिए गए हैं
हमारे प्रति कृतज्ञ रह और काम कर.
अपने चेहरे की तरह चमका दे घर के सारे बासन
कोयले से मत लिख क ख ग
फ़र्श पर मत फ़ैला गंदगी.
चूल्हे पर अदहन तैयार है
पूरे कुनबे के लिए भात रांध और माड़ पी
यह तेरा वर्ष है -तुझे तंदुरुस्त दीखना है
बचना है हारी-बीमारी से !

राजधानियों में
दीवारों पर चस्पां हैं तेरे पोस्टर
मेजों पर बिखरी पड़ी हैं
तेरी रंगीन पुस्तिकायें
टेलीविजन के पर्दे पर तू उछल-कूद रही है
देख तो इस वर्ष तुझे कितने फ़ुरसत हो गई है.
नन्हें खरगोशों की तरह
तू एक साथ सात देशों की जमीन पर खेल रही है.

वर्ष बीतने पर
क्या तू सचमुच मांद में दुबक जाएगी मेरी बिट्टो !
या एक वर्ष तक हर्ष मनाकर
बिल्कुल थक जाएगी मेरी बिट्टो !
वर्षान्त करीब है
यह तेरा वर्ष है बिट्टो ! तू खुश रह !
***

हथिया नक्षत्र

हथिया इस बार भी नहीं बरसा
टकटकी लगाए देखते रहे
खेतों के प्यासे-पपड़ाए होंठ।

मोतियाबिंद से धुँधलाई आँखों से
खाली-खाली आकाश ताक रहे हैं जवाहिर चा'
और बुदबुदा रहे हैं-
हथिया इस बार भी नहीं बरसा।
लगता है आसमान में कहीं अटक गया है
जैसे भटक जाते हैं गाँव के लड़के
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, जाकर।
-ये कयामत के आसार हैं मियाँ
बात में लग्गी लगाते हैं सुलेमान खाँ
हथया का न बरसना मामूली बात नहीं है जनाब!
अब तो गोया आसमान से बरसेगी आग
और धरती से सूख जाएगी हरियर दूब।

हथिया का न बरसना
सिर्फ़ जवाहिर चा'
और सुलेमान खाँ की चिंता नहीं है
हथिया का न बरसना
भूख के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है।
जवाहिर चा और सुलेमान खाँ नहीं जानते हैं
कि हथिया एक नक्षत्र है
बाकी छब्बीस नक्षत्रों की तरह
जिनकी गणना
पंडित रामजी तिवारी की पोथियों में बंद है।
हथिया मनमौजी है
वह कोई बंदिश नहीं मानता
दुनिया के रंगबिरंगे नक्शे में
नहीं पहचानता है हिंदुस्तान,
बर्मा या पाकिस्तान
वह नहीं देखता है
हिंदू, सिक्ख, क्रिस्तान या मुसलमान
वह बरसता है तो सबपर
चाहे वह उसर हो या उपजाऊ धनखर।
वह लेखपाल की खसरा-खतौनी की
धज्जियाँ उड़ा देता है
न ही वह डरता है
बी.डी.ओ. और तहसीलदार की
गुर्राती हुई जीप से।

कभी फ़ुर्सत मिले तो देखना
बिल्कुल मस्ताए हाथी की तरह दीखता है
मूसलाधार बरसता हुआ हथिया नक्षत्र।

जवाहिर चा' और सुलेमान खाँ को
प्रभावित नहीं कर सकता है
मेरा यह काव्यात्मक हथिया नक्षत्र
वे अच्छी तरह जानते हैं
हथिया के न बरसने का वास्तविक अर्थ।

हथिया के न बरसने का अर्थ है-
धान की लहलहाती फसल की अकाल मृत्यु
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
कोठार और कुनबे का खाली पेट
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
जीवन और जगत का अर्थहीन हो जाना।

विद्वतजन!
मुझे क्षमा करें
मैं सही शब्दों को ग़लत दिशा में मोड़ रहा हूँ
मुझे हथिया नक्षत्र पर नहीं
बटलोई में पकते हुए भात पर
कविता लिखनी चाहिए।

***


पीढ़ी प्रलाप

मैं एक साथ कई काम करता हूं
अच्छा लगता है
एक साथ कई कामों को निपटाना.

किताबों की दुकान पर
एक ही दिन
'वर्तमान साहित्य','डेबोनेयर','इंडिया टुडे'और 'रोजगार समाचार' खरीदते
कोई संकोच-कोई आश्चर्य नहीं होता.
लोकसेवा आयोग के आवेदन पत्रों पर
अपना फोटो चिपकाते हुए
पत्र-पत्रिकाओं से काटता रहता हूं
नेताओं,भिखारियों और औरतों की तस्वीरें
ताकि 'माई लाइफ' शीर्षक कोलाज बना सकूं.

फिल्म देखते हुए
नाटक के बारे में सोचता हूं
और नाटक करते हुए
जिन्दगी के बारे में - दार्शनिक की तरह.
कमरे का उखड़ता हुआ पलस्तर
गारा-मिट्टी ढ़ोने वाले मजदूरों की तस्वीर नहीं उकेर पाता
और न ही आंखों में चुभती हैं
देर रात गए तक
मेस की किचन में बरतन साफ करने वाले
पहाड़ी किशोर की ठंडी उंगलियां.
बलात्कार की शिकार औरतों की सहानुभूति में
तख्ती उठाकर जुलूस में शामिल होते हुए
मैं देखना चाहता हूं प्रेमिका का शारीरिक सौन्दर्य.
परिचित-अपरिचितों की शोकसभा में
सिर्फ दो मिनट का मौन मुझे अशान्त कर देता है
लाईब्रेरी में बैठते ही
किताबों के शब्द निरर्थक लगने लगते हैं
मैं भाग जाना चाहता हूं
एवरेस्ट या अंटार्कटिका की तरफ़
दिन भर खटने के बाद
लगता है कि आज कुछ भी नहीं किया
प्रभु!
मुझे जीने का बहाना दो
अब तक मैंने कुछ भी नहीं जिया.
***

Friday, January 23, 2009

ये जो नई फसल है..! - युवा कविता पर अरुण आदित्य की टिप्पणी और तीन कविताएं

अरुण आदित्य
1965 में प्रतापगढ़ में जन्म हुआ़। कविता-संग्रह 'रोज ही होता था यह सब' 1995 में प्रकाशित। इसी संग्रह के लिए मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा दुष्यंत पुरस्कार से सम्मानित। पहल, हंस, वसुधा, पल-प्रतिपल, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, बया आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। असद जैदी द्वारा संपादित 'दस बरस' और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित 'समय की आवाज' में कविताएं संकलित। कुछ कविताएं पंजाबी, मराठी और अंग्रेजी में अनूदित। उपन्यास 'उत्तर वनवास' आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य। सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी।
संप्रति: अमर उजाला, नोएडा में एसोसिएट एडिटर।

(अरुण जी ने यह टिप्पणी मेरे अनुरोध पर लिखी है और इसे यहाँ ससम्मान और साभार प्रकाशित किया जा रहा है। मेरे लिए यह युवा कविता पर एक स्वस्थ बहस की शुरुआत है। अनिल त्रिपाठी और व्योमेश शुक्ल से भी ऐसी टिप्पणियां मांगीं गई हैं - अब वक्त आ गया है कि वे भी पहल करें ! )


समकालीन युवा कविता पूर्ववर्ती पीढियों की कविता से कितनी अलग है। यह सवाल क्या कुछ ऐसा नहीं लगता है कि इस बार आम की जो फसल आई है, वह पिछले वर्षों में आई फसलों से किस तरह अलग है। आम का स्वाद क्या बदल गया है? क्या उसका रंग बदल गया है? क्या उसकी गंध कुछ नई हो गई है? फिर इसे एक नई फसल क्यों माना जाए? तर्कों की अपनी सत्ता है, मगर इन तमाम तर्कों के बावजूद हकीकत यह है कि वह नई फसल है। कि वैसा ही रूप-रंग-गंध होने के बावजूद वह पिछली फसल से अलग भी है। अलग इसलिए कि उसका समय अलग है। कि उसके बाजार का मिजाज अलग है। कि अपने समय और बाजार और मौसम के साथ उसका रिश्ता वही नहीं है, जो पिछली फसल का था। उसका मूल्यांकन पिछली फसल के मूल्य के आधार पर नहीं किया जा सकता। समय और परिवेश के साथ मिलकर उसका जो संदर्भ बनता है, वही उसे अलग करता है। कविता, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह काल से होड़ करती है, उतनी ही सुंदर और सशक्त होती है, जितनी बड़ी चुनौती समय उसके समक्ष पेश करता है। लेकिन इस चुनौती को हमारी आलोचना में बहुप्रयुक्त कठिन समय जैसे रूढ़ हो चुके पद से नहीं समझा जा सकता है।

वास्तव में तो हर दौर के रचनाकार के लिए अपना समय कठिन ही होता है, लेकिन हर नए समय में कुछ नई चुनौतियां, नए अनुभव, नए स्वप्न और नए मोहभंग मिलकर रचना के लिए एक नई स्थिति रच देते हैं। नई स्थिति में पुराने स्वप्न तक से हमारा संबंध बदल जाता है। तीस-चालीस के दशक में आजादी सबसे बड़ा स्वप्न था, पचास-साठ के दशक में आवाज आने लगी कि देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है। समाजवाद साहित्य का एक बड़ा सपना तब भी था और आज भी है, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद सक्रिय हुई पीढ़ी का इस सपने से संबंध क्या वैसा ही है, जैसा पूर्ववर्तियों का था? बीती सदी के अंतिम दशकों में उदारवाद के मुखौटे में बाजारवाद ने भी युवाओं को खूब सब्जबाग दिखाया। पर आज मंदी की मार ने जरा सा लबादा खींचा तो उदारवाद के क्रूर पंजे पूरी बेशर्मी से बाहर आ गए। सत्यम कंप्यूटर्स में नौकरी पाना कुछ समय पहले तक एक स्वप्न था, आज दुस्वप्न है। आज के युवा-मन और बाजार के रिश्तों में एक नए तरह का जो तनाव पैदा हो रहा है, उसका असर इस दौर की कविता पर भी दिखता है। यह अलग बात है कि उसकी शैली बाजार मुर्दाबाद जैसी मुखर न हो। और जरूरी भी नहीं कि एक राजनीतिक शैली में ही इस तनाव को दर्ज किया जा सकता है। एक प्रेम कविता में शायद ज्यादा प्रभावी तरीके से इस तनाव को अभिव्यक्त किया जा सकता है-

कोई चांदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम पत्र।
(प्रेमपत्र, बद्रीनारायण)

भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित बद्री की यह कविता अपने समय के साथ समाज, बाजार और मानवीय संवेदना के अंतर्संबंधों को एक सधे हुए शिल्प में प्रस्तुत करती है। लेकिन इसी कविता को आज कोई युवतर कवि लिखेगा तो उसके प्रतीक नए भी हो सकते हैं, क्योंकि उसके पास बाजार के लिए पहले से उपलब्ध सोना-चांदी जैसे प्रतीकों के अलावा शेयर-डिबेंचर जैसे अपेक्षाकृत नए प्रतीक भी हैं, जो वाकई आज के बाजार को डुबोने या उबारने का काम करते हैं। आदि कवि के निषाद से लेकर बद्री के प्रेमपत्र तक प्रेम को बचाने की मूल चिंता समान होते हुए भी कविता का रूप बदलता रहता है। नए समय, नई तकनीक और नए बाजार का प्रभाव हमारे संबंधों, संवेदनाओं और काव्य-युक्तियों पर भी पड़ता है। इसकी एक झलक नीलेश रघुवंशी की कविता रोमिंग की इन पंक्तियों में भी देखी जा सकती है-

मोबाइल पर कहना चाहती हूं बातें अपने सपनों की
करते हैं हम बातें जरूरी काम की
रोमिंग पर हूं कह काटते हो तुम फोन
एक अजीब सा सन्नाटा पसरता है हमारे बीच
जिसे तोडने को होती हूं कि आ जाता है मोबाइल पर मैसेज
अब कुछ दिन ही बाकी हैं दस लाख का सोना जीतने के लिए
एप्लाई करें 1388 पर क‚ल चार्जेज ओनली 15 रुपए
और आप के एकाउंट में मात्र तेरह रुपए
अपने मोबाइल को शीघ्र रिचार्ज कराएं और घर बैठे पाएं
दस लाख का सोना... मैं तुम्हारी याद में बैठी हूं और ...

सूचना-क्रांति से आक्रांत इस नए समय में आम आदमी की चिंता में प्रेम के साथ-साथ और भी बहुत कुछ बचाना शामिल होता जा रहा है। प्रेम तो दांव पर था ही, आज तो उसके बच्चे भी दांव पर हैं। निठारी कांड जैसे दुस्वप्न पर युवा कवि कल्लोल चक्रवर्ती ने अपनी कविता दु समय में एक आम आदमी की बेबसी को जिस मार्मिक तरीके से अभिव्यक्त किया है,

उससे लगता है कि समाज की हर टीस और कराह पर युवा कवियों की निगाह है-
मेरे घर के बाहर एन सड़क पर बिना ढक्कन का मेनहोल है
और घर में है मेरी पांच साल की बेटी
मैं निठारी से बहुत दूर नहीं रहता

तो यह समय, जो हर पीढ़ी के लिए नई तरह से कठिन होता है, हर दौर की कविता को पुरानी कविता से अलग करता है। आज के युवा कवि भी इस नई तरह से कठिन हुए समय को बूझ रहे हैं और उससे जूझ भी रहे हैं। इस समय को दर्ज करने के लिए वे अलग-अलग बिम्बों-युक्तियों का सहारा ले रहे हैं। गीत चतुर्वेदी इसे उखड़ते लोगों और उखड़ती सांसों के रूपक में बांधने की कोशिश करते हैं-

जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है

एक अन्य युवा कवि तुषार धवल इस कारपोरेट-समय को लिखने के लिए शेयर बाजार की शब्दावली का प्रयोग करते हैं-

फायदे का गणित सीखता
सेंसेक्स की सीढियों पर ही सोता हूं
......
नींद में चलता, सपने में बड़बड़ाता
मैं आदमी हूं नई सदी का

नए समय में मनुष्य की अवस्थिति को समझने की इन काव्य-युक्तियों के बरक्स एक और युवा कवि जितेंद्र श्रीवास्तव इस समय को बूझने के लिए प्रकृति का सहारा लेते हैं-

कांप रहा है दिन
और धूप भी पियराई है
न जाने कौन ऋतु आई है।

ये चंद उदाहरण हैं, इनके अलावा पवन करण, सुंदर चंद ठाकुर, प्रेमरंजन अनिमेष, आशुतोष दुबे, हरिओम राजोरिया, शिरीष मौर्य, हरे प्रकाश उपाध्याय, प्रदीप मिश्र, विशाल श्रीवास्तव, हरि मृदुल, निर्मला पुतुल, रवींद्र स्वप्निल प्रजापति, व्योमेश शुक्ल, प्रमोद रंजन, अजेय से लेकर निशांत तक कविता की युवा पीढ़ी के पास इतने विविध रंग हैं कि इस पीढ़ी का बहुरंगी कैनवास अलग से नजर आता है। फिर भी यह सवाल पूछा जाता है कि आज की युवा कविता पहले से अलग कहां है? इसके जवाब में संजय कुंदन की इन पंक्तियों के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि-

बार-बार सुनता हूं ताने की तरह
अपना बचपना कब छोड़ोगे
समझ नहीं पाता कि लोग आखिर चाहते क्या हैं?
वे जब जब ऐसा कहते हैं
जी करता है किसी बच्चे की सीटी में
जाकर बैठ जाऊं और बजूं जोर-जोर से
उनके कान के परदे हिलाकर रख दूं।

....................................................................................................................

अरुण आदित्य की तीन कविताएं

कागज का आत्म-कथ्य

अपने एकांत की छाया में बैठ
जब कोई लजाधुर लड़की
मेरी पीठ पर लिखती है
अपने प्रिय को प्रेमपत्र
तो गुदगुदी से फरफरा उठता हूँ मैं।

परदेश में बैठे बेटे की चिट्ठी बांचते हुए
जब कांपता है किसी जुलजुल मां का हाथ
तो रेशा-रेशा कांप जाता हूं मैं
और उसकी आंख से कोई आंसू टपकने से पहले
अपने ही आंसुओं से भीग जाता हूं मैं

महाजन की बही में गुस्से से सुलग उठता हूं तब
जब कोई बेबस
अपने ही दुर्भाग्य के दस्तावेज पर लगाता है अंगूठा

मुगालते भी पाल लेता हूं कभी-कभी
मसलन जब उत्तर पुस्तिका की भूमिका में होता हूं
तो इस खुशफहमी में डूबता उतराता हूं
कि मेरे ही हाथ में है नई पीढ़ी का भविष्य

रुपए की भूमिका में भी हो जाती है खुशफहमी
कि मेरे ही दम पर चल रहा है बाजार और व्यवहार
जबकि मुझे अच्छी तरह पता होता है
कि कीमत मेरी नहीं उस चिड़िया की है
जिसे रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बिठा दिया है मेरी पीठ पर

अपने जन्म को कोसता हूं
जब लिखी जाती है कोई काली इबारत या घटिया किताब
पर सार्थक लगता है अपना होना
जब बनता हूं किसी अच्छी और सच्ची रचना का बिछौना

बोर हो जाता हूं
जब पुस्तकालयों में धूल खाता हूं
पर जैसे ही किसी बच्चे का मिलता है साथ
मैं पतंग हो जाता हूं

मेरे बारे में और भी बहुत सी बातें हैं
पर आप तो जानते हैं
हम जो कुछ कहना चाहते हैं
उसे पूरा-पूरा कहां कह पाते हैं

जो कुछ अनकहा रह जाता है
उसे फिर-फिर कहता हूं
और फिर-फिर कहने के लिए
कोरा बचा रहता हूं।
---


श्लेष-यमक

बहुत पहुंची हुई कलाकार है वह
बहुत आग है उसके भीतर
इतनी अधिक कि कभी बुझती ही नहीं

जितना पानी डालो उतनी ही भड़कती है
और न डालो तो बुझने का सवाल ही नहीं
कहते हैं और हंस देते हैं बुद्धिजीवी

उनकी बात में श्लेष है
और हंसी में चमक नहीं यमक
उनके हंसते ही प्रकट हो जाता है
श्लेष में छिपा द्वेष
और हंसना का अर्थ डंसना हो जाता है।
---

डर

किसी उदास दोपहर में बिल्कुल बुझे मन के साथ हम
बोर हो रहे होते हैं थोक में आए ग्रीटिंग कार्ड्स को देखकर
कि अचानक हमारे हाथ में आता है एक ऐसा कार्ड
जिसे देखने के बाद हम ठीक वही नहीं रह पाते
जो इसे देखने से पहले थे।

कितना अद्भुत है यह कार्ड
कि एक अच्छे ब्ल‚टिंग पेपर की तरह
सोख लेता है सारी ऊब और उदासी

इसमें छपे फूलों की खुशबू
कार्ड से बाहर निकल तैरने लगती है हवा में
शिशिर ऋतु में अचानक आ जाता है बसंत
हम भूल जाते हैं सारी चिड़चिड़ाहट
आ जाती है इतनी उदारता
कि अपनी गलती न होने के बावजूद
माफी मांग लेते हैं कुछ देर पहले झगड़ चुके सहकर्मी से

इतना विशाल हो जाता है ह्रदय
कि वाकई क्षुद्र लगने लगती है अपनी क्षुद्रताएं
इतना कुछ बदल जाता है अचानक
कि ग्रीटिंग कार्ड भेजने की औपचारिकता का
मुखर विरोधी मैं, सोचने लगता हूँ
कि दुनिया के हर आदमी को
मिलना ही चाहिए एक ऐसा कार्ड

सोचता हूँ और अपने इस सोच पर डर जाता हूं
कि कार्ड बनाने वाली कोई कंपनी
मेरी कविता की इन पंक्तिओं को
अपने विज्ञापन का स्लोगन न बना ले
और मैं बाद में सफाई देता फिरूं
कि कार्ड बेचने वाले की नहीं
भेजने वाले की खुसूसियत
बयान करना चाहता था मैं।

Wednesday, January 21, 2009

इन्दौर वाया भोपाल - एक निजी यात्रा-वृत्तान्त

नीचे तस्वीर में है भोपाल की विख्यात ताजुल मस्जिद

यह एक पुरानी स्मृति है। इसे 2005 के शुरू में रायपुर से निकलने वाली देशबंधु समूह की पत्रिका "अक्षर पर्व" ने छापा था । पत्रिका के सम्पादक श्री ललित सुरजन है।
---
भोपाल से गुज़रा तो शानी याद आए
गो वे नहीं हैं
और उनकी यादों का भोपाल भी अब नहीं है
मस्जिदें तो बरक़रार हैं
लेकिन उनके होने या न होने का
अर्थ बदल रहा है
इस शहर का पानी
किसी बड़े चोर दरवाजे़ से
बाहर निकल रहा है
ऊंची-नीची ज़मीन पर
बदस्तूर उतरती-चढ़ती दीखती हैं सड़कें
पर पुराना अब पीछे छूट गया है
खुल रहे हैं नए-नए शापिंग काम्प्लेक्स
टंग रही हैं जगह-जगह
`यहाँ क्रेडिट कार्ड लिए जाते हैं´ की शुभ सूचनाएं
बैंकों के ए0टी0एम0
मोबाइल की पॉलिफोनिक घंटियां
पहले से ज़्यादा सुन्दर चित्ताकर्षक स्त्रियां
उदार पोशाकें
पुरुष भी ज़्यादा सजे-संवरे
ज़्यादा लालची
बच्चे कम
होगे तो कहीं स्कूलों या घरों में
अपनी कम्प्यूटर करामातों में व्यस्त
ज़ुबान बदली हुई
भोपाल अब नहीं रहा भोपाल
मेट्रो हो चला है
और अचानक ही दीख पड़ा `भारत-भवन´ भी
भव्य-विशाल
साहित्य और संस्कृति का मुर्दाघर

फिलहाल किसी आई0पी0एस0 के अधीन है
याद आए
वाजपेयी जी चतुर-सुजान
---˜˜˜
इन्दौर जाने को मिली
एक सजीली इंडिका-`टैक्सी रूपेण संस्थिता´
सहयात्री भी तीन

एक व्यापारी बात करता निरन्तर
झलमलाते मोबाइल फोन पर
हीरक-अंगूठी धारे

किसी दवा-कम्पनी का स्वयंसिद्ध प्रतिनिधि एक
और बिना बात ताव खाता एक छात्र
शायद बिजनेस मैनेजमेंट जैसे किसी भविष्यदृष्टा कोर्स का

हम एक दूसरे को देखते थे रह-रहकर
पर बोलते नहीं थे
ऐसे ही बिताए हमने साढ़े तीन घंटे सफ़र के

रास्ते में रुके भी एक बार कुछ जलपान करने को
सोन कच्छ में एक ढाबा शायद किन्हीं चड्ढा जी का
और ढाबा भी कैसा चमचमाता
पोहे-समोसे से लेकर केक-पेस्ट्री औेर आइसक्रीम तक
सब कुछ उपलब्ध कराता

बस आपको मांगना होता प्लास्टिक का एक मूल्यांकित टोकन
कांच के काउण्टर के पीछे खड़ी
उस खुशमिजाज़ युवती से
जो इस ढाबे को आप ही का बताती थी
फिर कोशिश भर लजाती थी
˜˜˜
इन्दौर से थोड़ा पहले था देवास
मराठा अवशेषों का शहर इन्दौर की तरह
गुज़रता कपड़ा-उद्योग के वैभव से
तथाकथित आधुनिकता की ओर
बहुत तेज़ी से बढ़ता किसी सजीले वृद्ध सरीखा
लगता था

यहीं कहीं रहते थे कुमार गंधर्व
मालवा की मिट्टी और अपनी व्यक्तित्व के खरेपन से
रचते हुए अपने प्रश्नाकुल राग

और अब तो यह भी गत-विगत की बात हुई
˜˜˜
देवास से निकलते ही एक बार फिर सड़क थी एकदम काली चमकीली और शानदार
जाने की अलग आने की अलग
और उनमें भी तीन-तीन लेन रफ़्तार के मुताबिक

ये इन्दौर का रास्ता था
और बीच में जुड़ती थी `ए.0बी0´
`आगरा-बॉम्बे रोड´
जिसे वक़्त के हिसाब से अब `ए0एम0´ हो जाना था
इस पर दौड़ते थे विशाल कंटेनर ट्रक
डरावनी आवाज़ वाली वातानुकूलित बसें और छोटी गाड़ियाँ तो
एक से बढ़कर एक
बेशुमार
---˜˜˜
धूल और धुंए से भरा था इन्दौर का आसमान
यों रवायतन उसमें थोड़ी धूप भी थी
जो नवम्बर की आती शाम में
बुरी नहीं लगती थी
पलासिया
जी0पी0ओ0 नौलखा
रेजीडेंसी
और मेरा गंतव्य आज़ाद नगर पूर्व
रमज़ान के इस मुक़द्दस महीने में
रोजे़दारों की
सरगर्मियों से भरा

अध्यापक होने के नाते
मैं देखने गया देवी अहिल्या बाई होलकर विश्वविद्यालय
कला विज्ञान वाणिज्य और प्रबन्धन संस्थान
बक़ौल एक छात्र
विश्वविद्यालय के भीतर ही क्रमश: इन्दौर दिल्ली बम्बई और
पेरिस थे
---˜˜˜
मेरे दिमाग़ में एक पुराना पता था संवादनगर मुहल्ले का
स्मृतियों को टटोलते मैं जा सकता था वहां
हम सबके गुरू जी विष्णु चिंचालकर
जो अब दुनिया में नहीं हैं

पर उनके बारे में मेरे भीतर कितनी ही यादें हैं
90-91 की
उनका सिखाया समझाया हुआ थोड़ा कुछ मेरे साथ है
अभी बिल्कुल नज़दीक में
वहीं
चन्द्रकान्त देवताले रहते हैं
बहुत बड़े कवि और मनुष्य भरपूर
बडे मशहूर
कुछ महीने पहले ही दिल्ली में मिले थे पहली बार
एक मंच से मेरे बारे में दो शब्द भी बोले थे

राह में मिली एक स्त्री ने बताया
वहां कोने पर आगे उन्नीस नम्बर में रहते हैं
दोपहर में लौटे हैं उज्जैन से
और अभी हाल जूनी कसेरा बाखल से

घर में घुसा तो मोबाइल पर गपियाते मिले
दिन के सबसे बड़े आश्चर्य की तरह
फोन रक्खा तो मुझे गले लगाया
बोले - तुम बैठो आराम से मैं एक गिलास पानी लाता हूं
मना मत करना
तुम्हारे लिए पानी लाना मुझे अच्छा लगेगा

फिर अपना मोबाइल थमाया
पूछा इसे बन्द कहां से करते हैं
कनु ने खरीदवा दिया था
इसी साल मई में
पर इसकी गति मैं अब तक पकड़ नहीं पाया
पिछली बार तो
सारे पैसे चुक गए थे एक ही कॉल में

मैं उन्हें कहना चाहता था कि आप जितना दिखते हैं
उससे कहीं ज़्यादा प्यारे हैं देवताले जी
लेकिन मैं बस दूसरी बार ही
उनसे मिला था
कुछ कह नहीं पाया
अपनी फ़ोन-बुक से एक नम्बर दिया मैंने उन्हें
जिस पर फोन कर उन्होंने कहा-
`मैं चन्दकान बातमारे बोलतऊं वीरेन!
सलाम पेश करतऊं !!´

यह एक ऐसी दुनिया थी
जिसका
इतना सरल होना लगभग अविश्वसनीय था
मेरे लिए
---˜˜˜
अगले रोज़ सुबह एक दोस्त मिली पुरानी
सत्रह-अठारह की उमर के
ज़माने की
उसने कुछ ताने दिए
हैरत जतायी कि हज़ारहा इनकार के बाद भी
मैंने प्रेम किया
बसाया अपना घर-बार
और मुड़कर तक नहीं देखा दुबारा पुराने दोस्तों को
---˜˜˜
दोपहर मैं फिर देवताले जी के पास था
वे मध्य प्रदेश दुग्ध संघ `सांची´ का
बढ़िया छांछ लाए थे मेरे लिए
और कवि राजेश जोशी को भी बुलाया था अपने घर
यों मुझे उनसे मिलना भी नसीब हुआ

हम मिले
हमने आमीखाई मीवोश पॉज़ अख़्मातोवा
वगैरह की बातें की

और देवताले जी दरअसल
इस बीच
बना लाए थे एक कप बढ़िया-सी चाय जोशी जी के लिए

जूठे बरतन रसोई तक वापस ले जाने में भी वे तत्पर दिखे
मुझे शर्मिन्दा करते हुए

जोशी जी ने मुझे नहीं मिले एक पुरस्कार
के बारे में पूछा
उन्हें इसके और मेरे सम्बन्धों को लेकर कुछ भ्रम था

देवताले जी ने पूछा दुर्दान्त अशोक पाण्डे के बारे में
जो इन दिनों अपनी पत्नी के मुलुक आस्ट्रिया विराजता है

मेरे मोबाइल की `बेडू पाको बारामासा´ की टोन भी
उन्हें बहुत भायी थी
उन्हें इससे मोहन उप्रेती की याद आती थी
और वे खुशी से लगभग चिल्ला ही पड़े
जब मैंने यही टोन उनके फोन में भी डालकर बजा दी

बात अभी चुकी नहीं थी
`आग हर चीज़ में बतायी गयी थी´ की एक प्रति
देवताले जी ने मुझे दी
दरअसल वे इस पर पहले किसी और का नाम लिख चुके थे
लेकिन `हाज़िर को हुज्जत´ नहीं के सिद्धान्त पर
अमल करते थे
सो ब्लेड का सहारा लिया और वह नाम काट दिया
मुझसे पूछा
तुम्हें `मित्र´ लिख सकता हूं क्या
और मेरा नाम आंक दिया

सचमुच ऐसी चीज़ होती है
कविता भी
जिसे किसी भी समय आप कर सकते हैं
किसी के भी नाम
---˜˜˜
रात मुझे जाना था वैष्णव विद्यालय के अहाते में
जहां पण्डित भीमसेन जोशी का
गाना था

अपनी किशोरावस्था के प्रिय कवि केदार की भाषा में सोचा मैंने
हे ईश्वर यह कितना अद्भुत है,
कि मैं भी ठीक आज की रात इंदौर में उपस्थित हूं !

हज़ारों लोगों के सामने एक खुले मंच पर
सबके हृदय की धुकधुकियों को भांपते बादलों जैसे स्वर में
गाया उन्होंने `यमन-कल्याण´

`ईश्वर शायद ऐसे ही कंठ से बोलता है´ -
बाजू में बैठे एक मराठी बुजुर्ग ने
कहा मुझसे

खूब तारों भरी रात
नवम्बर के खूब खुले आकाश में दूसरी सभी आवाज़ों को
पीछे छोड़ जाती थी
हर जगह मंडराती थी वही एक आवाज़
---˜˜˜
और अब मैं वापस लौटता हूं
समेटता हुआ हर कहीं से खुद को
बांधता हुआ
जगह-जगह बिखरा अपना सामान

अब ये आखिरी फेरा है मेरा
बाज़ार का
और देश की बहुत सारी चीज़ों की तरह
दंगों में उजड़ चुका राजबाड़ा देखता है मुझे
मानो कहता हुआ
कि जो कुछ उजड़ जाता है वह भी साथ आता है
भले ही संग्रहालय बनकर

अब वापस लौटता हूं
और देखता हूं कि मैं कुछ भी छोड़ जाने के लिए
तैयार नहीं हूं
और सब कुछ ले जा पाने में असमर्थ

मैं चन्द्रकान्त देवताले को छोड़ आया हूं
लेकिन उनकी कविता ले आया हूं

मैं भीमसेन जोशी को छोड़ आया हूँ
लेकिन उनका राग ले आया हूँ

मैं खुद को भी छोड़ आया हूँ वहीँ
संवाद नगर आज़ादनगर पलासिया जूनी कसेरा बाखल
और वैष्णव विद्यालय प्रांगण में कहीं

लेकिन थोड़ा-सा इन्दौर ले आया हूं।
---
5 से 7 नवम्बर, 2004

Monday, January 19, 2009

गीत चतुर्वेदी की डायरी पर गिरिराज किराडू की चिट्ठी ...


मित्रो !
सबद पे गीत चतुर्वेदी की डायरी के अंश प्रकाशित हुए हैं जिनमें उन्होंने कुछ ऐसी चीज़ों के बारे में बात की है जो हम में से कईयों को और मुझे बहुत शिद्दत से महसूस होती रही है. हिन्दी में दो दुनियाएं हैं. एक ग्रासरूट दुनिया है जो "रूप" और "अंतर्वस्तु" के , "साहित्य" और "विचारधारा" के प्रश्न अब भी रोज़ उसी दीवानगी से सुलझा-उलझा रही है; चाहे उसे कस्बाई भावुकता समझा जाए पर परिवर्तन और उम्मीद के हर संकेत पर अब भी मर मिट जाती है; किसी पत्रिका में अपने नाम को 'ड्राप' हुआ देखकर उसे स्नेह, दोस्ती और लोयल्टी का मौका मानती है, अपने अंतर्विरोधों को लेकर अक्सर बेख़बर है; जीवन जीने का सामान जुटाने में इतनी खप जाती है कि बहुत अल्लम बल्लम स्टेट आफ द आर्ट थियरी नहीं जानती और अक्सर दूसरी दुनिया वालों का उपकरण बन जाती है.

दूसरी दुनिया मेट्रोपोलिस दुनिया है यूनिवर्सीटियों, दूतावासों, प्रकाशकों, अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक समारोहों मेलों के इर्द गिर्द बनती हुई. उसे पहली दुनिया के संघर्ष 'रूडीमेन्टरी' और साधारण लगते हैं. पर उसके पास वहां पाठक नहीं है! उसके सब गुणग्राहक अनुवाद में हैं.आइडियोलोजिकल कान्स्टिट्वेन्सी के साथ साथ उसका पाठक भी अक्सर पहली दुनिया में है.

हिन्दी इन दोनों से मिलकर बनती है. दोनों में बहुत प्यार और झगडे का रिश्ता है. एक की चिंता है हंस तद्भव वागर्थ ज्ञानोदय में क्या छपा, क्या चढा; दूसरे की चिंता है इस फेस्टिवल, इस फेयर में कौन गया? किसको अमरीकी प्रकाशक किसको योरोपीय अनुवादक मिला? किसको कौनसी ग्रांट कौनसी फेलोशिप मिली? किसकी किताब की रिलीज किस दूतावास में ?

दोनों में कुछ ऐसा है कि लिखा फिर भी हिन्दी में ही जाता है. दोनों दुनियाओं से कई लोग, दूसरी से ज्यादा, अंग्रेज़ी में लिख सकते हैं पर नहीं लिखते, नहीं लिख पाते. ये दोनों के बीच ओरगेनिक पुल है.

सोचा था ४-५ वाक्य का कमेन्ट होगा; पर ढाई पेज की समांतर चीज़ बन गया है.

आपका
गिरिराज

गीत की डायरी पर एक बढ़त

समाजविज्ञानी योगेंद्र यादव ने इन दिनों कहा कि अगर आप अमेरिकी मीडिया के इजरायल-प्रेम को समझना चाहते हैं तो मीडिया के शीर्ष पदों पर बैठे यहूदियों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं कर सकते. यह टिप्पणी लिखते हुए यह बात याद आ रही है. अगर आप हिन्दी की स्थिति को समझना चाहते हैं तो हिन्दी के 'केन्द्रों' के 'शीर्ष-स्थानीयों' के जीवन और 'करियर' को समझे बिना नहीं कर सकते.
******
डायरी पढने का मजा तो नहीं आया पर गीत ने कुछ ऐसी बातें कही हैं जो हम में से कई बहुत शिद्दत से सोचते महसूस करते रहे है और मैं कुछ ज्यादा ही. पर यहाँ सिर्फ़ हिन्दी के हवाले से. अव्वल तो ऐसे बहुत हैं हिन्दी में जो आपको सिखायेंगे,"मुझे क्या मतलब बाहर मुझे कोई जानता है कि नहीं, मैं उनके लिए नहीं लिखता." जब रश्दी ने विंटेज के लिए वो कुख्यात संकलन बनाया पचास साल के भारतीय लेखन के बारे में तब ऐसे खिसियाने वाले बहुत थे. मानों अपने समाजों से वाबस्ता लेखक दुनिया भर के बारे में न सोचते थे न उनका काम दुनिया भर में पहुँचा. ख़ुद 'अपने' समाज में रचनापाठ के लिए २० लोग जुटाना मुश्किल, किताब के लिए ५00-७00 प्रति के पार जाना मुश्किल और वास्तविक समाज में आपकी काव्य शक्ति को पाँच मिनट झेल पाना लोगों के लिए मुश्किल और यह सब सिर्फ़ इसलिए कि फासीवादी और बाजारवादी ताकतों ने पूरे देश को बर्बाद कर दिया है, हमारा लेखन तो उत्कृष्ट है.

दो कारण है:

१) हिन्दी के लेखकों के घनघोर आत्मकेंद्रिकता: अंग्रेज़ी से आरसी-फारसी, जर्मन-वर्मन, रूसी-वूसी, पोलिश-कोलिश के अनुवाद के जरिये कुछ प्रतिष्ठा, कुछ पैसा, कुछ संपर्क, कुछ यात्राएं कमाने वाले लेखकों ने हिन्दी के कितने लोगों को अंग्रेज़ी या दूसरी भाषाओँ में किया? दूसरा हिन्दी का जो भी सीमित अंतर्राष्ट्रीय एक्सपोज़र है (अक्सर वो खानापूर्ति ही होता है ओरोपीय/अमेरिकन आयोजकों के लिए) बाहर के आयोजनों में हिस्सेदारी या अनुवाद किसी भी रूप में वो अधिकारी/ पत्रकार लेखकों तक, ज्यादातर मेट्रोपोलिस लेखकों तक सीमित है या उन तक जो हिन्दी के दो तीन संगठनों के पदाधिकारी हैं या कभी कभार उन तक उन तक जो पहले दो टाईप के लोगों के दोस्त हैं या रिश्तेदार हैं. और इस सब के लिए खूब प्रयत्न करना पड़ता है. अपनी किताबों के अंग्रेज़ी अनुवाद कराने के लिए, निमंत्रण पाने के लिए. ऐसे संत मिलेंगे जो कहेंगे उन्हें यह सब प्रतिभा के कारण मिला है बाकी तो उसके दोस्त हैं या अधिकारी हैं. जब आपकी किताब हिन्दी में ५००-१००० लोग पढ़ रहे हैं तो जर्मनी में या अमेरिका में आपके बारे में दिलचस्पी पैदा कैसे हुई? बुकर वाली कम्पनी मैन ने तीन चार साल पहले मैन एशिया पुरस्कार जब शुरु किया तो उन्हें चीन में ऐसे समकालीन लेखक/किताबें मिले जिनकी बिक्री लाखों में थी भारत में?

(२) हिन्दी लेखकों की उतनी ही घनघोर आत्मदया: कोई बड़ा प्रयास हुआ नहीं अंतर्राष्ट्रीय एक्सपोज़र का. भारत भवन में विश्व कविता, एशिया कविता को लेकर हुए थे पर भारत भवन में कुछ अच्छा हुआ था यह मानने का रिवाज़ नहीं हिन्दी की मुख्यधारा में. जयपुर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का लिटरेचर फेस्टिवल ३-४ साल से हो रहा है. रश्दी और मैकिवान समेत दुनिया भर के बहुत लेखक आये हैं. (दानियाल भी आ रहा है इस बार) हर बार करीब सौ लेखक होते हैं हिन्दी के सिर्फ़ वही जो पेंग्विन या हार्पर के लेखक हो गए हैं. हिन्दी प्रकाशकों और शीर्ष-स्थानीयों से उनके सम्बन्ध में बारे में आप जानते हैं. वे हिन्दी के घेटोआईजेशन के लिए जिम्मेवार हैं, आधे साहित्य को 'पिटी हुई उक्ति' बनाने के लिए, प्रोपेगेंडा बनाने के लिए जिम्मेवार हैं. हिन्दी में वैकल्पिक प्रकाशनों को हिन्दी लेखक का समर्थन क्यों नहीं है? क्यों वो अब भी दिल्ली के २-३ प्रकाशनों से छपकर ही क्रांति करना चाहता है? क्यों वो हर सुबह अंग्रेज़ी के खिलाफ जिहाद में शामिल है और हर रात ये सपना देखता है कि उसकी किताब भी अंग्रेज़ी अनुवाद में छप जाय? सब ऐसे जताएंगे मानों बहुत संघर्ष कर रहे हैं. हिन्दी लेखक हो कर बहुत कष्ट उठा रहे हैं. जबकि हमारे 'महत्वपूर्ण' लेखकों को देखिये, उनमें एक निरंतर आत्मदया है. सेल्फ-जस्टिफिकेशन है, कोई सामाजिक योजना नहीं. कोई लेखकीय चुनौती नहीं। उठाने गिराने के कारनामे हैं. आधे नौजवान बुजुर्गों की सेवा में हैं. आधे बुजुर्गों को नौजवानों से ईर्ष्या है. और उस पर तुर्रा यह कि सब समाजसेवी संत हैं. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा! प्रसिद्धि !! शिव शिव शिव. 'मुझे कोई नोबेल पुरस्कार नहीं जीतना था साहित्य लिखकर 'एक महत्वपूर्ण' कहानीकार के ताज़ा साक्षात्कार का शीर्षक है. मैं हिन्दी में उस लेखक का इंतज़ार कर रहा हूँ जो साहित्य अकादमी पुरस्कार को मोक्ष और ज्ञानपीठ को मुक्ति मानने और उन्हें पाने के लिये हर कोशिश कर गुजरने से साफ़ इन्कार करते हुए बिना हिचक, बिना शंका, बिना अपराधबोध यह कहेगा कि मैं नोबेल पुरस्कार जीतना चाहता हूँ. यह मेरा लक्ष्य है. ओरहान पामुक ने लिखा है कि वे बहुत महत्वाकांक्षी रहे है जब वे अपना पहला दूसरा उपन्यास लिख रहे थे तभी से उनका लक्ष्य था यह पुरस्कार जीतना. हिन्दी के त्यागी संतों से कहीं अधिक भला अमीर, एलीट पामुक ने अपनी भाषा और साहित्य का तो कर ही दिया है, शायद अपने समाज और देश का भी.

दोनों कारणों को एक वर्गीय- मिडलक्लास - आचरण की तरह समझ सकते हैं. अगर हमारी चिंता एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया में भारतीय लेखक की गुमनामी ना हो कर मुख्यतः यूरो-अमेरिकी दुनिया के बारे में है तो एक कारण यह है कि उपनिवेशोत्तर पश्चिमी समाज की दिलचस्पी, जिसमें अनुवादकों/प्रकाशकों की दिलचस्पी शामिल है अपने से बाहर वैसी कला की ओर रही है (और वो स्वाभाविक भी है) जो उनसे बहुत भिन्न हो. हिन्दी का बहुत सारा समकालीन/ आधुनिक/ प्रगतिशील साहित्य अनुवाद हो कर 'मूल' हो जाता है. ये एक खास औपनिवेशिक/हिन्दुस्तानी विडंबना है. जो समकालीन लेखन अनुवाद में पश्चिम के लिये सर्वाधिक नया हो सकता है वो बहुत कम अनूदित हुआ है जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, रेणु.
समस्या तो यह भी है कि हिंदुस्तान को लेकर दिलचस्पी है ही कहाँ किसी भी क्षेत्र में. सिवाय सॉफ्टवेयर, योग,तंत्र, 'फोक', 'क्लासिकी' संगीत-नृत्य, और 'बहुराष्ट्रीय' व्यापार के. पाकिस्तान में एक नयी दिलचस्पी के कारण दूसरे हैं जो खासे ज़ाहिर हैं, उत्तर-९/११. और उत्तर-अफगानिस्तान. पोलैंड में दिलचस्पी के लिए भी आयरोनिकली पोलिश लेखकों को नाजियों का और युद्दोत्तर योरोप के अपराधबोध का शुक्रगुजार होना चाहिए!

*गिरिराज किराड़ू*

Sunday, January 18, 2009

लाल्टू की कविताएँ

लाल्टू को मैं उनके पहले संग्रह `एक झील थी बर्फ़ की´ से जानता हूं। मुझे वे कविताएं अच्छी लगीं और इधर नेट पर उनका दूसरा संकलन `डायरी में तेईस अक्टूबर ´ नाम से मिला।

लाल्टू हमारे विराट संसार में घट रही तरह-तरह की घटनाओं और लगातार मर और पैदा हो रही कुछ छोटी लेकिन महत्वपूर्ण मानवीय इच्छाओं के कवि हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इन घटनाओं और इच्छाओं में एक स्पष्ट राजनीति भी है, जो हिंदी कविता के निरन्तर राजनीतिविहीन और ख़ाली होते ह्रदय में मुझे कहीं बहुत गहरे तक आश्वस्त करती है।

इस बड़े भाई के काव्य सामर्थ्य को मेरा सलाम।

डायरी में तेईस अक्टूबर

उस दिन जन्म हुआ औरंगज़ेब का
लेनिन ने सशस्त्र संघर्ष का प्रस्ताव रखा उस दिन
उस दिन किया जंग का एलान बर्तानिया के खिलाफ़ आज़ाद हिंद सरकार ने

उस दिन हम लोग सोच रहे थे अपने विभाजित व्यक्तित्वों के बारे में
रोटी और सपनों की गड़बड़ के बारे में
बहस छिड़ी थी विकास पर
भविष्य की आस पर

सूरज डूबने पर गाए गीत हमने हाथों में हाथ रख
बात चली उस दिन देर रात तक
जमा हो रहा था धीरे-धीरे बहुत-सा प्यार
पूर्णिमा को बीते हो चुके थे पांच दिन

चांद का मुंह देखते ही हवा बह चली थी अचानक
गहरी उस रात पहली बार स्तब्ध खड़े थे हम

डायरी में तेईस अक्टूबर का अवसान हुआ बस यहीं पर!
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पुनश्च

हां नेपाल में जीते हैं कम्युनिस्ट
जब डिकिंस बना था न्यूयार्क का पहला काला मेयर
हम लोगों ने हरदा में बैठकर गीत गाए थे
आज तुम तक जब यह खत पहुंचेगा काडमांडों में
आसमान लाल होगा
ऐसे झूम रही होगी हवा जैसे अड़सठ में कलकत्ता

(डिकिंस भी गया
अड़सठ की हवा में पुराने तालाब के दलदल-सी कैसी गंध आ गई
हम हो गए दूर
चढ़ गए बसों पर जाने कितने लोग
कहते हैं इतिहास बदल गया
सुखराज जाली पासपोर्ट लेकर आइसक्रीम बेचता है अमरीका में
वहीं-कहीं)

चोली के पीछे है माइकल जैक्सन

बहरहाल, तुम आओगी तो बैठेंगे, हालांकि अब बढ़ चुका है बेसुरापन
बस पर चढ़ने से बची होगी कविता
हो सकता है नेपाल के पहाड़ लाल सूरज जैसे तमतमाते रहें

सच तो यह है अड़सठ ज़ि़ंदा है हमारे बेसुरे गीतों में!
-----

Wednesday, January 14, 2009

फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताएं : अनुवाद : शानी / 4


फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताओं / गीतों के अनुवाद की ये चौथी और अन्तिम किस्त ......... इन सारी कविताओं/गीतों के अनुवादक प्रसिद्ध कथाकार दिवंगत गुलशेर खान शानी हैं और इन अनुवादों की भाषा पर उनकी अपनी एक स्पष्ट और गहरी छाप है।

बर्फ़ के तारे

पहाड़ियां चाहती हैं पानी हो जायें
और पीठ में खोजती हैं वे
टिकने के लिए
सितारे !


बादल

और चाहती हैं पहाड़ियां
निकल आयें उनके पंख
और खोजती हैं वे
बादल
सफ़ेद बुर्राक !



बर्फ़

तारे हो रहे हैं बेपर्द

झरते हैं पठारों पर सितारों के लिबास
ज़रूर आयेंगे तीर्थयात्री
और खोजेंगे आर्तनाद

कल के बुझे हुए अलाव!


सिरफिरा गीत

मां,
चांदी कर दो मुझे !

बेटे,
बहुत सर्द हो जाओगे तुम !

मां,
पानी कर दो मुझे !

बेटे,
जम जाओगे तुम बहुत !

मां,
काढ़ लो न मुझे तकिये पर
कशीदे की तरह !

कशीदा?
हां,
आओ!


सुनहरी लड़की का क़सीदा

तालाब में नहा रही थी
सुनहरी लड़की
और तालाब सोना हो गया

कंपकंपी भर गए उसमें छायादार शाख और शैवाल

और गाती थी कोयल
सफ़ेद पड़ गई लड़की के वास्ते

आयी उजली रात
बदलियां चांदी के गोटों वाली
खल्वाट पहाड़ियों और बदरंग हवा के बीच
लड़की थी भीगी हुई
जल में सफ़ेद
और पानी था दहकता हुआ बेपनाह

फिर आयी ऊषा
हज़ारों चेहरों में
सख़्त और लुके-छिपे
मुंजमिद गजरों के साथ

लड़की आंसू-ही-आंसू शोलों में नहाई
जबकि स्याह पंखों में
रोती थी कोयल

सुनहरी लड़की थी
सफ़ेद बगुली
और तालाब हो गया था सोना !


घुड़सवार का गीत

काली चांदनी में राहज़न के झनझना रहे हैं रकाब

काले घोड़े,
कहां लिए जा रहे हो पीठ पर
मुर्दा असवार?

राहज़न बेजान
कड़े करख़्त रकाब
हाथ से जिसकी छूट चुकी हो लगाम
सर्द घोड़े
फूल गंध चाकू की,
क्या खूब !

काली चांदनी में
मोरिना पर्वतमाला के बाजुओं से
होता है रक्तपात !

कोल घोड़े,
कहां लिए जा रहे हो पीठ पर
मुर्दा असवार?

सर्द घोड़े
फूल गंध चाकू की,
क्या खूब !

काली चांदनी में
चीरती हुई चीख और अलाव की धार

काले घोड़े,
कहां लिए जा रहे हो
अपना
मुर्दा असवार?


काले फ़ाख़्तों का क़सीदा

चम्पा की शाखों के बीच
मैंने देखे दो स्याह फ़ाख़्ते
सूरज था एक
चांद था दूसरा

प्यारे दोस्तो,
कहां है मक़बरा मेरा, मैंने पूछा?
मेरी दुम में, सूर्य ने कहा
हलक़ में मेरे, चांद बोला

और कमर-कमर तक मिट्टी में चलते हुए
मैंने देखे
दो बर्फानी उक़ाब
और एक लड़की निर्वस्त्र !

दोनों थे एक
और लड़की न तो यह थी और न वो

प्यारे उक़ाबो,
कहां है मेरा मक़बरा, मैंने पूछा?
मेरी दुम में, सूर्य ने कहा
हलक़ में मेरे, चांद बोला

चम्पा की शाखों के बीच
मैंने देखे दो फ़ाख़्ते
निर्वस्त्र
दोनों थे एक
और दोनों न तो यह और न वो !

Tuesday, January 13, 2009

फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताएं : अनुवाद : विष्णु खरे / 3


फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताओं / गीतों के अनुवाद की ये तीसरी किस्त .........

नारंगी के सूखे पेड़ का गीत

लकड़हारे
मेरी छाया काट
मुझे खुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर !

मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है

मैं खुद को देखे बगैर ज़िन्दा रहना चाहता हूं

और सपना देखूंगा
कि चींटियां और गिद्ध मेरी पत्तियां और चिड़ियां हैं

लकड़हारे!
मेरी छाया काट
मुझे खुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर !

रोने का क़सीदा

मैंने अपने छज्जे की खिड़की बंद कर दी है
क्योंकि मैं रोना सुनना नहीं चाहता
लेकिन मटमैली दीवारों के पीछे से रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता

बहुत कम फरिश्ते हैं जो गाते हैं
बहुत ही कम कुत्ते हैं जो भौंकते हैं

मेरे हाथ की हथेली में एक हज़ार वायलिन समा जाते हैं

लेकिन रोना एक विशालकाय कुत्ता है
रोना एक विराट फरिश्ता है
रोना एक विशाल वायलिन है

आंसू हवा हो घोंट देते हैं
और रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता!

गुलाब का क़सीदा

गुलाब ने सुबह नहीं चाही अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही

गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
सांप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही

गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !

हर गीत

हर गीत
चुप्पी है
प्रेम की

हर तारा
चुप्पी है
समय की

समय की
एक गठान

हर आह
चुप्पी है
चीख की!

(अगली किस्त में शानी के सात अनुवाद)

Sunday, January 11, 2009

फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताएं : अनुवाद : विष्णु खरे / 2


फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताओं / गीतों के अनुवाद की ये दूसरी किस्त .........

चांद उगता है

जब चांद उगता है
घंटियां मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं

जब चांद उगता है
समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और ह्रदय अनन्त में
एक टापू की तरह लगता है

पूरे चांद के नीचे
कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक्त हरे और बर्फीले फल
खाने का होता है

जब एक ही जैसे
सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े
चांदी के सिक्के सिसकते हैं!

अलविदा

अगर मैं मरूं
तो छज्जा खुला छोड़ देना

बच्चा नारंगी खा रहा है
(छज्जे से मैं उसे देखता हूं)

किसान हंसिये से बाली काट रहा है
(छज्जे से मैं उसे सुन रहा हूं)

अगर मैं मरूं
तो छज्जा खुला छोड़ देना!

Saturday, January 10, 2009

फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताएं : अनुवाद : विष्णु खरे / 1

ये सभी अनुवाद आलोचना के अंक जनवरी-मार्च 1987 से साभार। इन पन्द्रह कविताओं को श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुत करने का इरादा है और यह उम्मीद भी कि आप आने वाले कुछ दिनों तक लोर्का को पढ़ना पसन्द करेंगे।
(पचास बरस पहले लोर्का शहीद हुए थे। अगस्त 1936 में वे फासिस्टों की गोली के शिकार हुए थे। फेदेरिको गार्सिया लोर्का वामपंथी क्षेत्रों में सक्रिय न थे, पर वे जनता के कवि थे। स्पेन में वे एक ताक़त थे। उनकी किताबें जलायी गई थीं। "एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत" उनकी अमर कविता है और एक तरह से वे स्वयं भी "सांड़ के सींगों पर" मरे। लोर्का भरी जवानी में मारे गए - उस समय वे सिर्फ 37 वर्ष के थे। अठारह वर्षों की संक्षिप्त किंतु सक्रिय सृजन अवधि में उन्होंने अनेक अमर गीतों और नाटकों की रचना की। उनका हर गीत ऐसा है, जो "चीज़ों की आत्मा तक पहुंचता है" और इसलिए वह "एक दमकता, इस्पात जैसा ढला गीत" है। हमारे लोर्का यही हथियार छोड़ गए हैं, जिससे हम आज भी फासिस्ट ताक़तों से लड़ सकें और उन मूल्यों की रक्षा कर सकें जो सत्य हैं और सुन्दर हैं। - सम्पादक : आलोचना)

विष्णु खरे के अनुवाद

१- नए गीत

तीसरा पहर कहता है: मैं छाया के लिए प्यासा हूं
चांद कहता है:मुझे तारों की प्यास है
बिल्लौर की तरह साफ झरना होंट मांगता है
और हवा चाहती है आहें

मैं प्यासा हूं खुश्बू और हंसा का
मैं प्यासा हूं चंद्रमाओं, कुमुदिनियों और झुर्रीदार मुहब्बतों से मुक्त
गीतों का

कल का एक ऐसा गीत
जो भविष्य के शांत जलों में हलचल मचा दे
और उसकी लहरों और कीचड़ को
आशा से भर दे

एक दमकता, इस्पात जैसा ढला गीत
विचार से समृद्ध
पछतावे और पीड़ा से अम्लान
उड़ान भरे सपनों से बेदाग़
एक गीत जो चीज़ों की आत्मा तक
पहुंचता हो
हवाओं की आत्मा तक
एक गीत जो अन्त में अनन्त ‚दय के
आनन्द में विश्राम करता हो!

१ - मालागुए-या

मौत
शराबखाने में
आती-जाती है

काले घोड़े
और फरेबी लोग
गिटार के गहरे रास्तों
के बराबर चलते हैं

और समन्दर के किनारे
बुखार में डूबी गंठीली झाड़ियों से
नमक की और औरत के खून की
बू आती है

मौत
आती और जाती है
आती और जाती है
मौत
शराबखाने की !
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मालागुए-या : एक विशेष नृत्य और गीत का नाम

Wednesday, January 7, 2009

जिन्हें हम भूल रहे हैं ......... दुष्यन्त कुमार


कुछ दिन यात्रा में बीते और अब अपने पिता के शहर पिपरिया में हूं ! रास्ते में भोपाल पड़ा तो दुष्यन्त याद आए - याद आए का मतलब ये निकला कि "मैं" या "हम" कहीं उन्हें भूल तो नहीं रहे ! इस बार प्रस्तुत हैं उनकी दो ग़ज़लें और एक शेर।



एक

कहां तो तय था चराग़ां हरेक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है, सिल दे ज़बान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

दो
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
का़यदे-क़ानून समझाने लगे हैं

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहखानो से तहखाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं

मौलवी से डांट खाकर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं

अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं


एक शेर

ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा

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