(यह कविता अशोक के पहले और एकमात्र संकलन "देखता हूँ सपने" से साभार ली जा रही है। इसके लोकार्पण के समय अशोक पच्चीस साल के पूरे हुए थे। अब इस बात को १६ साल गुज़र चुके हैं ! इस प्रकरण के बारे में कुछ और जानने के लिए यहाँ क्लिक करें ! ये एक पुरानी याद है !)
उसके पापों से मुक्ति दिलाने को
कांटों का ताज पहना था
और स्वीकार किया था
अपनी हथेलियों पर कीलें ठुकवाना
-ऐसा
मैंने अपने बड़ों से सुन रखा था ईसा !
तुम्हारी बात छिड़ती है
तो लोग याद करते हैं
नंगे बदन सलीब से लटके
कमज़ोर एक मासूम आदमी को
बस
अब तुम्हारा
और कोई अर्थ नहीं रह गया है
मेरे ड्राइंगरूम की दीवार पर पालिश की हुई
आबनूसी लकड़ी में तराशे हुए तुम
बड़े दयनीय लग रहे हो
ईसा !
आओ
उतार दूं तुम्हें सलीब से
ज़रा मरहमपट्टी कर दूं
तुम्हारे हाथ-पैरों की
किस कमबख्त मानवता की बात कर रहे हो
बेकार ऐसा करुण भाव
न लाओ आंखों में
आओ उतार दूं तुम्हें
चलो एकाध जाम टकराते हैं
भूल जाओ
कि बाहर सड़कों पर रोता होगा कोई अनाथ बच्चा
या कि
भूख से तड़पती होगी जिन्दगी
आओ
ग़ालिब की ग़ज़ल सुनते हैं
और
नृत्य करते हैं
हाई-फाई म्यूजिक सिस्टम पर बज रही धुन पर
आओ
मेरे कमरे में तुम्हें नहीं सुनाई देगी
कोई करुण पुकार
चलो
अपने हाथ-पैरों में लगा खून साफ़ कर लो
आओ
जिन्दगी जीते हैं ईसा !
अदभुत
ReplyDeleteअदभु ही है। सभी भगवानों को ये मौका मिलना चाहिए। फिर कोई करुण पुकार न रह जाएगी।
ReplyDeletekareeb 20 saal pahele ashok da se suni thi ,aaj bhi taja hai,ashok da or aapko shukria,
ReplyDeleteकमाल की कविता ! इतिहास की हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के पुरातन से लेकर नवीनतम पहलुओं पर प्रकाश डालती है। ईसा भले ईशपुत्र थे पर थे तो इंसान ! अशोक जी की कविता में ये बात शायद पहली बार दर्ज हो रही हैं यानी हिंदी कविता में पहली बार यानी दुनिया भर की अच्छी कविता में पहली बार। शिरीष जी आप अच्छे कवि हैं इसलिए आपके ब्लाग की सभी कविताएं भी अच्छी होती हैं। बधाई ! अशोक जी को भी !
ReplyDeleteदोनों को बधाई।
ReplyDeletekyun likhte hai....
ReplyDeletepandey jee aise kamjor rachnayennn
bahut pahle parikatha me aapki ek kavita padhi thi bahut khush hua tha par aaj mayush hun?
बहुत बढिया कविता। आज का यर्थाथं
ReplyDeletekyaa baat hai!
ReplyDeletevaah!
ReplyDeleteyatharth ka aaina dikhati ek kavita. behad prakhar. दुश्चक्र में स्रष्टा 'viren dangwal ki kavita me bhi kuchh aisa hee bhav tha.
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