(हर साल दिसम्बर लगते ही मेरे मन में लगातार भोपाल का खयाल आता है। कुछ बरस पहले राग भोपाली पर लिखते हुए भी ऐसा ही हुआ। भोपाल गैस कांड पीड़ितों के लिए मुम्बई के शिवाजी पार्क में 1995 में हुई डॉ0 गोपालकृष्णन (वायलिन) और उस्ताद सुल्तान खां साहब (सारंगी) की जुगलबन्दी की रिकार्डिंग सुनकर ये कवितानुमा प्रतिरोध कागज़ पर दर्ज हुआ , जो अमर उजाला हिन्दी दैनिक में छपा था। )

दो परिन्दे आए अलग-अलग दिशाओं से
और देर तक मंडराते रहे एक साथ
इस आकाश में
नीचे कुछ भी साफ नहीं था
कुछ धुंआती चिमनियां
कुछ भगदड़ भरी सड़कें
कुछ बिलखते-कलपते हुए लोग
नीचे कुछ भी साफ नहीं था
˜˜˜
एक आदमी आगे-आगे जाता था
दूसरा पीछे-पीछे
एक आदमी दूसरे आदमी को रास्ता दिखाता था
रास्ता जो कहीं था ही नहीं
˜˜˜
इसी देश का एक हिस्सा था वो
इसी देश के लोग रहते थे
उसमें
इसी देश का दुख ढोते थे
दूसरे देश के लोगों से मांगते थे
रहम की भीख
नहीं मिलने पर
इसी देश की अदालतों में रोते थे
इसी देश में हो सकता था ऐसा
इसी देश में
कितना भी दौड़कर मिले कोई
नारायण नहीं मिलता था
किसी भेष में
˜˜˜
ऐसा नहीं थी ये धुंध
कि संगीत का कोई सूरज उगाया जा सके इसमें
फिर भी ये एक शहर था
लोगों और मकानों
दुकानों और कारखानों से भरा
कई साल पहले जा चुकी थी यहाँ से
ज़िन्दगी की धूप
बिल्कुल ठीक वक़्त था यह
दूर किसी शहर में
गाया और बजाया जा सकता था
राग भूप
˜˜˜
दर्द की छायाएं और भी बड़ी होती जाती थीं
रात कितनी बड़ी
दुख के बने आधे-अधूरे बदन
अपने वजूद को रोते थे
हवाओं से आया दुश्मन अब पानी और मिट्टी का
गुरूर तोड़ता था
सच कहता हूँ डॉक्टर साहब
खां साहब मैं सच कहता हूँ
खां साहब मैं सच कहता हूँ
टूट जाती थी आपकी ये धुन रह-रहकर
मेरे मन में
कोई भोपाल-भोपाल बोलता था।
मेरे मन में
कोई भोपाल-भोपाल बोलता था।
अच्छी है पर आपके हिसाब से नहीं !
ReplyDeleteबुरा मत मानिएगा पर आपने एक कोमल राग और एक अमानवीय विध्वंस में घालमेल कर दिया है।