अनुनाद

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गिरिराज किराड़ू की कविताएं

पहले तो स्पष्ट कर दूं कि यह गिरिराज किराड़ू की कविता से मेरे सम्बन्धों पर एक निहायत निजी टिप्पणी है। साथ ही यह भी कि इस टिप्पणी और पोस्ट को लगाते हुए मैं मुखिया कबाड़ी अशोक पांडे और मेरे बचपन के शहर रामनगर में हूं -यानी लपूझन्ने के शहर में ! सो इस पोस्ट और टिप्पणी को मेरी निजी मन:स्थिति से भी जोड़ कर देखा जाए।

कोई आठ साल पहले किसी पत्रिका में पढ़ा था कि इस नाम के सज्जन को अशोक वाजपेयी जी के निर्णायकत्व में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला है। तब मेरे लिए यह महज एक साहित्यिक सूचना थी, जो मिली और फिर धूमिल पड़ती गई। शायद 2005 का अंत था, जब वागर्थ के उर्वर प्रदेश स्तम्भ में गिरिराज की कुछ कविताएं और उन पर पंकज चतुर्वेदी की टिप्पणी पढ़ी। मुझे ये कविताएं अच्छी लगीं पर मेरे लिए इस `अच्छा लगने´ से आगे अभी कुछ और भी घटना बदा था। कुछ महीने बाद मैंने पाया कि मुझे ब्रेन हैमरेज हुआ है और मुरादाबाद से लेकर दिल्ली तक के न्यूरो सर्जन्स से मेरा इलाज चल रहा है। इतने दिनों के लिए बाहर का संसार मेरे लिए पूरी तरह बंद हो गया था और आगे के लिए मेरे मन में गहरी शंका थी, ऐसी मन:स्थिति में मैंने पाया कि `भीतर के संसार´ के बारे गिरिराज की एक कविता उसी वागर्थ के पन्ने पर थी और मैं अपने बाहर से भागता हुआ अकसर उसे पढ़ने लगा। जाहिर तौर पर मेरे लिए वह एक अलग घराने का कवि था लेकिन तब भी मेरे भीतर के संसार में अपने लिए एक अलग जगह बना चुका था। इस तरह सबसे आड़े वक्त में कविता के किसी महामहिम की नहीं, एक अपरिचित हमउम्र कवि की कविता मेरे काम आयी। बावजूद इस सबके मेरी अभी तक गिरिराज से कोई मुलाक़ात या फोन पर बात भी नहीं है – मुझे नहीं पता कि कविता से बाहर उसकी आवाज़ कैसी सुनाई पड़ती है! हमारे बीच ईमेल का आदान-प्रदान है और इस माध्यम में भी हम ज़रूरत भर संवाद कर ही लेते हैं।

अभी कुछ समय पहले गिरिराज ने एक अनूठे विश्वास के साथ अपनी 40 कविताएं मेरे पढ़ने को भेजीं हैं, जो मेरे लिए एक तोहफ़े सरीखी ही है। मैंने इन सभी अच्छी कविताओं में से चुनकर अपनी पसन्द गिरिराज को बताई है और इधर उससे यह आग्रह भी किया है कि मैं इनमें से कुछ को अनुनाद पर भी लगाना चाहता हूं। गिरिराज ने हामी भरी है और इस तरह आइए – अब आप भी पढ़िए इस अनोखे कवि की कविताएं और बताइए अपनी राय !


जहां से


जहां कच्चा ईंटें बनती हैं उस जगह को देखते हुए लगता है कई घर खड़े हैं

बल्कि थोड़ी ऊंचाई
जैसे कि छत से
दिखता कि
कोई बस्ती-सी है

बल्कि थोड़ी और ऊंचाई
जैसे कि आकाश से
मालूम होता कि
कोई नगर है एक दूसरे आंगन में खुलते कई दरवाज़े हैं शामियाने जैसी एकल छत है
दरारों जैसी गलियां हैं जिनमें अपने बचपन में हम कई एक दूसरे को ढूंढ रहे हैं

बल्कि थोड़ी और ऊंचाई
जैसे कि कविता से
झांकता कि
शामियाना कई छतों में विसर्जित हो रहा है दरारें गलियों में बंट रही हैं
ढूंढना छुपने में खुल रहा है घर फिर से ईंटें हुए जा रह हैं

और
वे इतनी कोमल हैं कि हम देखने से वापस लौटते हुए कई सारी थैले में भर लाए हैं !
***

भविष्य

जो हमारे बारे में कुछ नहीं जानते थे भविष्यदृष्टा थे

या तो वे भविष्य में घटित होनेवाले को देख सकते थे
जैसा भविष्यदृष्टाओं के बारे में कहा जाता है
या वे कुछ ऐसा गढ़ सकते थे
जो भविष्य में घटित होगा
जैसे कि
अफ़वाह

मुहावरे ने अफ़वाह के बारे में निश्चित कर रक्खा है कि
वो हमेशा सच ही होती है
बिना आग के
अफ़वाह का धुंआ
आकाश तक नहीं पहुंचता

इस बार मुहावरे का नया संस्करण होना था
धुंआ वर्तमान में उड़ना था आग भविष्य में लगनी थी

तो इन भविष्यदृष्टाओं ने
इस धुंए
इस अफ़वाह
इस भविष्य को बनाया

और हम उनके बनाए धुंए अफ़वाह भविष्य में फंस गए

इस तरह हमारी कथा उनका बनाया हुआ भविष्य है
जिसमें हम रहने लग गए हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते !
***

टूटी हुई बिखरी हुई पढ़ाते हुए

एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से
मानो उनके कवियों का कवि कहे जाने को चरितार्थ करते हुए
लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख होते ही लगा
शमशेर जितना अजनबी और कोई नहीं मेरे लिए
मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है
कि उनके मन का क्षेत्रफल पूरी सृष्टि के क्षेत्रफल जितना है
कि उनकी कविता एक ख़यालखाना है जिसके बाहर खड़े
वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे उसे देखना भी एक ख़याल हो
कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है
कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं

अपने सारे कहे से शर्मिन्दा
उन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे
कहीं लड़खड़ाकर ग़ायब होते हुए पूछा मैंने
अब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं?

उनका जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया
जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था !
*** 

0 thoughts on “गिरिराज किराड़ू की कविताएं”

  1. अच्छा शिरीष जी ! अलग घराने का कवि ! आपने तो संगीत की तरह साहित्य में भी घराने बना दिए! क्या वाकई ऐसा है? है तो भी गिरिराज जी मुझे अच्छे लगे! अब साहित्य के घरानों पर शोध करूंगा! वैसे आप किस घराने के हैं? क्या ये घरानाबन्दी अथवा घेराबन्दी ठीक है! मेरे खयाल से तो आप सब नए समय के कवि हैं और आपका समय ही आपका घराना है!

  2. इन कविताअों को पढ़ते हुए पहली नजर में ही यह कहा जा सकता है कि ये सबसे पहले अपने कहने को किसी भी सरलीकरण से बचाते हुए चालू मुहावरों में अपने को अभिव्यक्त नहीं करती।

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