Saturday, November 8, 2008

अंजेला डुवाल की कविताएं - अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र


अंजेला डुवाल
(1905-1981 )

लेखिका फ्रांस के उत्तरी ब्रिटेनी में जन्मीं और जीवनपर्यन्त वहीं रहीं। किसान परिवार की मामूली पढ़ी हुई इस स्त्री ने 55 वर्ष की उम्र में लुप्तप्राय ब्रेटन भाषा में कविताएं लिखनी शुरू कीं, जो अंग्रेजी और फ्रेंच सहित कई अन्य भाषाओं में छपीं। उनके चार कविता संकलन प्रकाशित हुए।

ब्रेटन भाषा को फ्रांस में सरकारी मान्यता नहीं प्रदान की गई है। 1930 में ब्रेटनभाषियों की संख्या 13 लाख थी जो 1997 तक घटते-घटते 3 लाख रह गई - क़रीब दो तिहाई बोलनेवाले 60 वर्ष से ऊपर की आयु के हैं।




कौन?

मैं अपने उसूलों पर अडिग रही सदा
- हर मोर्चे पर करना है संघर्ष मुझे - मेरा जीवन बस एक मुकम्मल संघर्ष ही रहा
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर
अब ठंडी सांसें भरती हूं :
कौन खड़ा होगा हिफाज़त करने
इन उसूलों की
मेरे मरने के बाद?

कौन उठाएगा हथियार
जो छूटकर गिर गए मेरे हाथों से -

मैंने तो कोई बेटा जना ही नहीं ........?



तुम्हारा दुख केवल तुम्हारा है !

तुम बांट सकते हो
अपने प्रियजनों के साथ
अपनी अच्छाईयां
अपना ज्ञान
अपना प्रेम
अपनी खुशियां

पर एक चीज़ है जो नहीं बांटोगे तुम:
अपना दुख -

यही तो है
जो नापकर बना है बिलकुल तुम्हारे आकार का !



सूरज का आंखें

सूरज इतनी देर क्यों लगा दी आज उठने में?
और आंखें तुम्हारी इतनी लाल कैसे हो गईं?
क्या रात में कोई बुरा सपना देखा
और रोते रहे रातभर?

`मैं न तो सोया और न ही रोया -
रातभर गश्त लगाता रहा
जब पश्चिम सो रहा था घोड़े बेचकर
अपनी शोहरत की धूसर राख के बिछौने पर निश्चिन्त -
मैं लेता रहा रातभर दुनिया की खोज-खबर।´

सूरज, अपनी गश्त के दौरान क्या-क्या देखा तुमने?

`मैंने देखा ठंड से मरते लोगों को
मैंने देखा भूख से दम तोड़ते लोगों को
मैंने देखा एक दूसरे की जान लेते लोगों को
भाई-भाई को मरते-कटते
मैंने देखा दबे-कुचले मज़लूमों को
मैंने देखा एक सिरफिरे की गोलियों का शिकार बनते एक महान नेता को
मैंने देखा तो बहुतेरों को
पर मालूम नहीं उनमें से कितने रो रहे थे
सब कुछ अपनी आंखों देखकर भी बना रहा मैं निर्लिप्त

फिर मैंने देखा लोगों को आक्रान्त भाइयों पर छींटाकशी करते
उन पर भी जिन्हें दरकार है मदद की
और उन पर भी जो जुते हुए हैं गुलामी के कोल्हू में

पर इतना सब देखकर नहीं रहा और सब्र
और छूट ही पड़ी रुलाई
इसीलिए तो है मेरी आंखें सूजी हुई लाल-लाल´

सूरज, बंद करो अब यह रोना-धोना -
थोड़ी देर में सामने सागर में
तुम डुबो लेना अपनी सूजी हुई लाल-लाल आंखें !


यादवेन्द्र

अनुवादक 53 वर्षीय इंजीनियर हैं। किताबों में और नेट पर दुनिया भर का साहित्य खंगालते रहते हैं। रुड़की में रहते हैं और हिंदी अनुवादों में मुझे उनका अन्दाज़ कुछ खास और अलग लगता है। नया ज्ञानोदय में उनके द्वारा अनूदित नेल्सन मंडेला के प्रेमपत्र चर्चित रहे। उन्होंने विजय गौड़ के लिखो यहां वहां और पंकज पाराशर के ख्वाब का दर में भी उल्लेखनीय अनुवाद किए हैं। अनुनाद अंजेला डुवाल के इन अनुवादों के लिए यादवेन्द्र जी का आभारी है और उनसे आगे भी ऐसे ही आत्मीय सहयोग की उम्मीद करता है।
सम्पर्क: ए-24, शांतिनगर, रुड़की - 247 667
फ़ोन: 01332- 271176

5 comments:

  1. pahle kabhi in kai ka naam nahi suna tha. inki in kuch hee kawitaon ne prabhaita kiya hain. kya aap bata saknge ki inkii or rachnaein kaha se mil saktii hain ?
    piyush daiya

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  2. अंजेला जी की तोनों रचनाएं बहुत ही पसंद आई है।साथ में ये भी कहूँगा जिन्होने अनुवाद किया उनको भी शुक्रिया और आपको भी।

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  3. तीनों ही कवितायें अच्छी लगीं | 'सूरज की आँखें' ज्यादा अच्छी लगी | प्रशंसा अनुवाद की करनी होगी क्योंकि कवितायें अनुदित नहीं मौलिक लगती हैं |

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  4. यह नाम सुना नहीं था. पढ़ा. अच्छा अनुवद .उम्दा प्रस्तुति!

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  5. खूब अनुवाद है भई। दोनों को मेरा सलाम।

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