Sunday, November 30, 2008

टामस ट्रांसट्रोमर की कविताएँ

1950 के बाद से टामस ट्रांसट्रोमर (तोमास त्रांसत्रोमर) लगातार स्वीडिश कविता का सबसे महत्वपूर्ण चेहरा बने हुए हैं। आधुनिक स्वीडिश कविता का कोई भी जिक्र उनके बिना अधूरा होगा। नोबेल के इस देश में उनका नाम पिछले पांच दशकों से अधिक समय से न सिर्फ कवि-अनुवादक, बल्कि एक मनोविज्ञानी के रूप में भी एक स्थापित और चर्चित नाम है।
शंघाई की सड़कें

एक

पार्क में
कई लोग ध्यान से देख रहे हैं
सफेद तितलियों को
मुझे वह तितली बहुत पसन्द है
जो खुद ही जैसे सत्य का फड़फड़ाता हुआ
कोना है कोई

सूरज के उगते ही
दौड़ती-भागती भीड़ हमारे इस खामोश ग्रह को
गतिमान बना देती है
और तब पार्क भर जाता है
लोगों से

हर आदमी के पास आठ-आठ चेहरे होते हैं
नगों-से चमचमाते
गलतियों से बचने के वास्ते
हर आदमी पास एक अदृश्य चेहरा भी होता है
जो जताता है -
" कुछ है जिसके बारे में आप बात नहीं करते!"

कुछ जो थकान के क्षणों में प्रकट होता है
और इतना तीखा है
जैसे किसी जानदार शराब का एक घूंट
उसके बाद में महसूस होने वाले
स्वाद की तरह

तालाब में हमेशा हिलती-डुलती रहती हैं मछलियां
सोते में भी तैरती वे
आस्थावान होने के लिए एक मिसाल हैं -हमेशा गतिवान


दो

अब यह दोपहर है
सलेटी समुद्री हवा धुलते हुए कपड़ों-सी
फड़फड़ाती है
उन साइकिल सवारों के ऊपर
जो चले आते हैं
एक दूसरे से चिपके हुए
एक समूह में
किनारे की खाइयों से बेखबर

मैं घिरा हुआ हूं किताबी चरित्रों से
लेकिन
उन्हें अभिव्यक्त नहीं कर सकता
निरा अनपढ़ हूं मैं

और
जैसी कि उम्मीद की गई मुझसे
मैंने कीमतें चुकाई हैं
और मेरे पास हर चीज की रसीद है
जमा हो चुकी हैं
पढ़ी न जा सकने वाली ऐसी कई रसीदें
-अब मैं एक पुराना पेड़ हूं इन्हीं मुरझाई पत्तियों वाला
जो बस लटकती रहती हैं
मेरे शरीर से
धरती पर गिर नहीं पातीं

समुद्री हवाओं के तेज झोंके
इनमें सीटिया बजाते हैं।


तीन

सूरज के डूबते ही
दौड़ती-भागती भीड़ हमारे इस खामोश ग्रह को
गतिमान बना देती है

हम सब
सड़क के इस मंच पर खड़े हुए
कलाकार हैं जैसे

यह भरी हुई है लोगों से
किसी छोटी नाव के
डेक की तरह
हम कहां जा रहे हैं?
क्या वहां चाय के इतने कप हैं?
हम खुद को सौभाग्यशाली मान सकते हैं
कि हम समय पर पहुंच गए हैं
इस सड़क पर

क्लास्ट्रोफोबिया की पैदाइश को तो अभी
हजार साल बाकी है !

यहां
हर चलते हुए आदमी के पीछे
एक सलीब मंडराती है
जो हमें पकड़ना चाहती है
हमारे बीच से गुज़रना
हमारे साथ आना चाहती है

कोई बदनीयत चीज़
जो हमारे पीछे से हम पर झपटना
और कहना चाहती है -बूझो तो कौन?

हम लोग
ज्यादातर खुश ही दिखाई देते हैं
बाहर की धूप में
जबकि हम अपने घावों से रिसते खून के कारण
मर जाने वाले हैं

हम इस बारे में
कुछ भी नहीं जानते!

अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य

Friday, November 28, 2008

एक कविता यह भी ....

बच्चे का स्वर अपने आप में एक कविता होता है और अगर वो स्वर सुर में सधा हो तो फ़िर कहने ही क्या ! मैं आपके लिए लाया हूँ उस बच्चे का स्वर, जिसका नाम कुमार गन्धर्व है ! आवाज़ से आप अंदाज़ लगाइए इस रिकॉर्डिंग में उनकी उम्र क्या रही होगी ?
राग रामकली है और बंदिश " सगरी रैन के जागे " । ये मुझे अशोक पांडे के दिए संगीत भण्डार में
मिली, सो मैं इस पोस्ट के लिए उसका आभारी हूँ।
(मुंबई के हादसे के बीच इस आवाज़ का भोलापन प्रेरित करता है। हादसा हावी है पर अपने अन्दर ही उससे बाहर आने कोशिश भी करनी ही होगी। जिन पर बीत रही है , उन्हें और उनकी हिम्मत को अनुनाद का सलाम।)

Wednesday, November 26, 2008

सपने में बड़बड़ाता मैं आदमी हूं नई सदी का - तुषारधवल की कविताएं


जैसा अनुनाद के पाठक जानते हैं कि मैं अकसर ही अपने साथ के और बाद के किसी न किसी युवा कवि को अपने ब्लॉग में प्रस्तुत करता रहा हूं। पिछले दिनों में आपने व्योमेश शुक्ल, अलिन्द उपाध्याय और गिरिराज किराड़ू को पढ़ा है। आज के कवि हैं तुषारधवल। तुषार हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में दिखे हैं और उनका संकलन भी किसी प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में प्रकाशनाधीन है शायद ! कुछ समय पहले अनुराग वत्स के सबद पर तुषार की मुक्तिबोधीय अभिव्यक्ति की इच्छा से भरी एक लम्बी कविता `काला राक्षस´ ब्लॉगजगत में पढ़ी जा चुकी है। मेरे पास दो महीने पहले अपनी एक औंचक फोनकॉल से सम्पर्क में आए इस सहृदय मित्र की चालीस कविताएँ हैं और उनमें से कुछ आज और कुछ बाद में आपको पढ़वाऊंगा - जो आकार में छोटी, लेकिन आशय में बड़ी होंगी। तुषार की कविता के बारे में सबसे पहले जो बात समझ आती है, वह यह है कि ये कवि एक महानगर में रहता है। तुषार मुम्बई में रहते हैं और अपने भीड़भाड़ भरे तार-तार होते "आसपास" पर पूरा भरोसा भी करते हैं। मेरी बात का यह मतलब न लगाया जाए कि वे महानगरत्व को स्वीकारने के लिए आतुर हैं, बल्कि वे तो उसके रग-रेशों में बसी ज़िन्दगी में आवाजाही कर रहे हैं। यह आवाजाही जब कविता का रूप लेती है तो उनके कविकर्म के प्रति गहरे तक आश्वस्त भी करती है। जब वे कहते हैं कि `मुझे सपनों में कोई गांव नहीं पुकारता ´ तो पता चलता है कि उनका भी कोई गांव है और यह एक विशिष्ट मुहावरे में सम्भव हो पाता है। आगे यह मुहावरा और विकसित और स्पष्ट हो, अनुनाद की यही शुभकामना है।

मैंने तुषार की कविताओं पर कोई बौद्धिक, लच्छेदार और महत्वाकांक्षी वक्तव्य नहीं दिया है, बल्कि उन्हें अनुनाद के पाठकों के आगे खुली प्रतिक्रिया के लिए रखा है। इन प्रतिक्रियाओं में मेरी अपनी दिलचस्पी भी तुषार से कम नहीं होगी। उम्मीद है आप भी कंजूसी नहीं करेंगे !
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काम पर जाती घरेलू औरतें

अपने बच्चों को दुनिया में उतार आयी हैं
वह दुनिया जिस पर वे भरोसा करना जानती हैं

घर से निकलती हैं रोज़ सुबह फोन पर
सखियों को बुलाकर
इकट्ठे ही चढ़ेंगी 9:32 की लोकल में
उनके हाथों में फाइलें नहीं
अपनी-अपनी परेशानियां और उन पर सबकी साझा राय होती है
उनके साथ अकसर होतीं हैं टिफिन बॉक्स के अलावा कुछ डिब्बियां भी
जिनमें हल्दी कुमकुम और शगुन की चीज़ें होती हैं
बांटती हैं अखंड सुहाग, संतति और शुभ की कामना घर से दफ्तर के बीच लोकल ट्रेन में

दफ्तर में भी वही धुन चलती रहती है
बॉस और फाइलों के बीचोंबीच
वे फिल्मों के किस्से और पतियों की बातें करती हैं
अंताक्षरी खेलती,गाती हुई घर लौट जाती हैं पिसकर अपनी दुनिया में पिसने
पिस पिस कर और भी महीन हुआ जाता है उनका धीर
ऐसे ही उनका होना संसार में घुल जाने को तैयार होता है

वे खतरनाक जंगलों से एक साथ गुज़रती हैं
मशाल उठाए
अपनी देह से ढक देती हैं दूसरों की लाज
बिना जाने उसका कुनबा

नाचती रहती हैं सुरसा के मुंह में
पीड़ाओं के बीच उनका होना अनवरत उत्सव है
साझा साझा होने का

वे कबीर की बेटियां हैं
वे सूफियों की सन्तानें हैं
जो अपना संसार उठाए पुरुषों की दुनिया में
आ जाती हैं
वे मुहम्मद का पैग़ाम हैं
जो जेहादियों को जेहाद का मतलब बता रही हैं !


मुझे भरोसा है

मैं प्रक्षिप्त शब्द !
मृत्यु के नाचते पैरों के बीच
अन्त का मुकम्मल अन्त
कलम से पूछता हूं

एक पन्ना कहीं उड़ कर पूरी दुनिया छाप लाता है
और उसमें दुनिया भर की क़ब्रें होती हैं

मुझे नहीं चाहिए ये क़ब्रें ये नक्शे
क्योंकि अभी भी दुनिया को हाथों की ज़रूरत है
पहचान को ज़बान की ज़रूरत है

हवस के चेहरों पर फलसफों के मुखौटे
ध्वस्त मुंडेरों पर नाचने वाले
अपने ही गिद्धों से परेशान होते हैं
और
चुप कर दिए गए लोग
बस देखते रहते हैं

उनके सन्नाटों में कोई चीखता है
पुकारता है
उनकी व्यस्तताओं के बीच

मुझे भरोसा है उसी बस्ती का
जहां लोग बोलना भूल गए हैं !


जिन्न

जरूरत नहीं है
फिर भी मुझे चाहिए
मैं हिस्सा हूं हवस का

कुरेदा तो निकला
मेरी तहों से
जिन्न

आकाश में दौड़ता हूं
सड़कों पर तैरता हूं
जड़ नहीं शाखा नहीं
किसी आकाशीय तल पर रहता हूं
वहीं से मारता हूं गोता
और निकाल लाता हूं कल्पना भर सामान
नए असन्तोष

मुझे सपनों में कोई गांव नहीं पुकारता
नहीं दुलारते हैं पूर्वज
दंतकथाओं का कोई सिरा नहीं जुड़ा है मेरे पोर से
अणु परमाणु अस्तित्व का
मेरे चंद ही हैं सरोकार
मैं क्लोन हूं
नई सोच का

फायदे का गणित सीखता
सेंसेक्स की सीढ़ियों पर ही सोता हूं
गर्भाशय बदलता हूं जब चाहे

ठेल कर तुम्हारी कायनात
अपनी सृष्टि खड़ी कर रहा
नींद में चलता
सपने में बड़बड़ाता
मैं आदमी हूं नई सदी का !


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पुनश्च : ये पोस्ट लिखे जाने तक तुषार का शहर अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले का शिकार हो चुका है और तुषार ने बताया कि वो किसी तरह बच- बचा कर घर वापस आया है ! हालाँकि फ़ोन पर आशल - कुशल मिल चुकी है, तब भी मैं उसके लिए चिंतित हूँ।


ये पोस्ट ऐसी सभी मानवद्रोही गतिविधियों का विरोध करती है !

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Tuesday, November 25, 2008

औरतों की दुनिया में एक आदमी

इस कविता को प्रगतिशील वसुधा के नए अंक में भी पढ़ा जा सकता है और विलक्षण चित्रकार अमृता शेरगिल की यह विख्यात पेंटिंग यहाँ से साभार ली गई है !

वे दुखों में लिथड़ी हैं
और प्रेम में पगी
दिन-दिन भर खटीं किसी निरर्थक जांगर में
बिना किसी प्रतिदान के
रात-रात भर जगीं

उनके बीच जाते हुए
डर लगता है
उनके बारे में कुछ कहते कुछ लिखते
दरअसल
अपने तमामतर दावों के बावजूद
कभी भी
उनके प्रति इतने विनम्र नहीं हुए हैं हम

इन दरवाज़ों में घुसने की कोशिश भर से ही
चौखट में
सर लगता है

यक़ीन ही नहीं होता
इस दुनिया में भी घुस सकता है
कोई आदमी इस तरह
खंगाल सकता है इसे
घूम सकता है यूँ ही हर जगह
लेता हुआ
सबके हाल-चाल

और कभी
खीझता नहीं इससे
भले ही खाने में आ जाएं
कितने भी बाल!

यहां सघन मुहल्ले हैं
संकरी गलियां
पर इतनी नहीं कि दो भी न समा पाएं

इनमें चलते
देह ही नहीं आत्मा तक की
धूल झड़ती है
कोई भी चश्मा नहीं रोक सकता था इसे
यह सीधे आंखों में
पड़ती है

कहीं भी पड़ाव डाल लेता है
रूक जाता है
किसी के भी घर
किसी से भी बतियाने बैठ जाता है
जहाँ तक नहीं पहुंच पाती धूप
वहाँ भी यह
किसी याद या अनदेखी खुशी की तरह
अंदर तक पैठ जाता है

वे इसके आने का बुरा नहीं मानती
हो सकता है
कोताही भी करती हों
पर अपने बीच इसके होने का मतलब
ज़रूर जानती है
उन्हें शायद पता है
समझ पाया अगर तो यही उन्हें
ठीक से समझ पाएगा
उनके भीतर की इस गुमनाम-सी यातना भरी दुनिया को
बाहर तक ले जाएगा

एक बुढ़िया है कोई अस्सी की उमर की
उसे पुराने बक्से खोलना
अच्छा लगता है
दिन-दिन भर टटोलती रहती है
उनके भीतर
अपना खोया हुआ समय या फिर शायद कोई आगे का पता
पूछताछ करते किसी दरोगा की तरह
चीख पड़ती है
अचानक खुद पर ही- बता !
बता नहीं तो …

एक औरत
जो कथित रूप से पागल है
आदमी को देखते ही नंगी होने लगती है
उसके दो बरस के बच्चे से
पूरी की थी एक दिन
किसी छुपे हुए जानवर ने अपनी वासना
मर गया था उसका बच्चा
कहती है घूम-घूम कर नर-पशुओं से -
छोड़ दो !
छोड़ दो मेरे बच्चे को
बच्चे को कुछ करने से तो मुझ माँ को करना अच्छा

एक लड़की है
जो पढ़ना चाहती है और साथ ही यह भी
कि भाई की ही तरह मिले
आज़ादी उसे भी
घूमने-फिरने की
जिससे मन चाहे दोस्ती करने की
कभी रात घर आए
तो मां बरजने और पिता बरसने को
तैयार न मिलें
बाहर कितनी भी गलाज़त हो
कितने ही लगते हों अफ़वाहों के झोंके
कम से कम
घर के दरवाज़े तो न हिलें

एक बहुत घरेलू औरत है
इतनी घरेलू कि एक बार में दिखती ही नहीं
कभी ख़त्म नहीं होते उसके काम
कोई कुछ भी कह कर पुकार सकता है उसे
वह शायद खुद भी भूल चुकी है
अपना नाम
सास उसे अलग नाम से पुकारती है
पति अलग
खुशी में उसका नाम अलग होता है और गुस्से में अलग
कोई बीस बरस पहले का ज़माना था जब ब्याह कर आयी
और काले ही थे उसके केश
जिस ताने-बाने में रहती थी वह
लोग
संयुक्त परिवार कहते थे उसे
मैं कहता हूं सामंती अवशेष

कुछ औरतें हैं छोटे-मोटे काम-धंधे वाली
इधर-उधर बरतन मांजतीं
कपड़े धोतीं
घास काटतीं
लकड़ी लातीं
सब्ज़ी की दुकान वगैरह लगातीं
ये सुबह सबसे पहले दृश्य में आती है
चोरों से लेकर
सिपाहियों तक की निगाह उन्हीं पर जाती है
मालिक और गाहक भी
पैसे-पैसे को झगड़ते हैं
बहुत दुख हैं उनके दृश्य और अदृश्य
जो उनकी दुनिया में पांव रखते ही
तलुवों में गड़ते हैं
जिन रास्तों पर नंगे पांव गुज़ार देती हैं
वे अपनी ज़िंदगी
अपने-अपने हिस्से के पर्व और शोक मनाती
उन्हीं पर
हमारे साफ-सुथरे शरीर
सुख की
कामना में सड़ते है

वे पहचानती है हमारी सडांध


कभी-कभार नाक को पल्लू से दबाये
अपने चेहरे छुपाए
हमारे बीच से गुज़र जाती हैं
मानो उन्हें खुद के नहीं
हमारे वहाँ होने पर शर्म आती हैं

आलोक धन्वा से उधार लेकर कहूँ तो वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें थीं
लुटेरों बटमारों
और हमारे समय के कोतवालों से पिटतीं
हर सुबह
सूरज की तरह काम पर निकलतीं
वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें हैं
आज भी

उनमें बहुत सारी हिम्मत और ग़ैरत बाक़ी है अभी
और हर युग में
पुरुषों को बदस्तूर मुंह चिढ़ाती
उनकी वही चिर-परिचित
लाज भी!

कुछ औरतें हैं जो अपने हिसाब से
अध्यापिका होने जैसी किसी निरापद नौकरी पर जाती हैं
इसके लिए घरों की इजाज़त मिली है उन्हें
एक जैसे कपड़े पहनती
और हर घड़ी साथ खोजती हैं किसी दूसरी औरत का
वे घर से बाहर निकल कर भी
घर में ही होती हैं
सुबह काम पर जाने से पहले
पतियों के अधोवस्त्र तक धोती हैं

हर समय घरेलू ज़रूरतों का हिसाब करतीं
खाने-पकाने की चिंता में गुम
पति की दरियादिली को सराहतीं हैं कि बड़े अच्छे हैं वो
जो करने दी हमको भी
इस तरह से नौकरी
आधी खाली है उनके जीवन की गागर
पर उन्हें दिखती है
आधी भरी

कुछ बच्चियां भी हैं दस-बारह बरस की
हालांकि बच्चों की तो होती है एक अलग ही दुनिया
पर वे वहाँ उतनी नहीं हैं
जितनी कि यहाँ
उन्हें अपने औरत होने का पूरा-पूरा बोध है
वह नहीं देखना चाहता था
उन्हें जहाँ
उसकी सदाशयता पर कोड़े बरसातीं
वे हर बार
ठीक वहीं हैं

वे भांति-भांति की हैं
उनके नैन-नक्श रंग-रूप अनंत हैं
उनके जीवन में अलग-अलग
उजाड़ पतझड़
और उतने ही बीते हुए बसंत हैं

उनके भीतर भी मौसम बदलते हैं
शरीर के राजमार्ग से दूर कई पगडंडियां हैं
अनदेखी-अनजानी
ज़िदगी की घास में छुपी हुई
बहुत सुंदर
मगर कितने लोग हैं
जो उन पर चलते हैं?

फिलहाल तो
विलाप कर सकती हैं वे
इसलिए
रोती हैं टूटकर

मनाती हैं उत्सव
क्योंकि उनका होना ही इस पृथ्वी पर
एक उत्सव है
दरअसल

आख़िर
कितनी बातें हैं जो हम कर सकते हैं उनके बारे में
बिना उन्हें ठीक से जाने
क्या वे खुद को जानने की इज़ाजत देंगी
कभी?

अभी
उन्हें समझ पाना आसान नहीं है
अपने अंत पर हर बार
वे उस लावारिस लाश की तरह है
जिसके पास शिनाख्त के लिए कोई
सामान नहीं है

इस वीभत्स अंत के लिए यह आदमी बेहद शर्मिन्दा है

पर क्या करे
आख़िर इस दुनिया में किस तरह कहे
किस तरह कि अभी बाक़ी है लहू उसमें
अभी कुछ है
जो उसमें जिन्दा है !

Friday, November 21, 2008

कवितायें पढ़ने वाली लड़कियाँ

(शालिनी को समर्पित)
कम ही सही पर वे हर जगह हैं
इस महादेश की करोड़ों लड़कियों के बीच अपने लायक जगह बनाती
घर से कालेज और कालेज से सीधे घर आने के
सख़्त
पारिवारिक निर्देशों को निभातीं
वे हर कहीं हैं

मैं सोचता हूँ कि हिन्दुस्तान के बेहद करिश्माई सिनेमा
और घर-घर में घुसी केबल की सहज उपलब्ध अन्तहीन रंगीन दुनिया के बावजूद
वे क्यों पढ़ती हैं
एक बेरंग पत्रिका में छपी
जीवन के कुछ बेहद ऊबड़खाबड़ अनुभवों से भरी
हमारी कविताएँ

जिन पच्चीस रुपयों से ली जा सकती हो
गृहशोभा
मेरी सहेली
वनिता
बुनाई - कढ़ाई या सौन्दर्य विशेषांक
या फिर फेमिना जैसी कोई चमचमाती
अंग्रेज़ी पत्रिका
क्यों बरबाद कर देती हैं उन्हें वे
हिन्दी की
कुछेक कविताओं की खातिर ?

कल फोन पर मुझसे बात की थी एक ऐसी ही लड़की ने
पूर्वांचल के एक दूरस्थ सामन्ती कस्बे से आती उसकी आवाज़ में
एक अजीब-सा ठोस विश्वास था
और थोड़ा-सा तयशुदा अल्हड़पन भी
वह धड़ाधड़ देती जा रही थी प्रतिक्रिया मेरी महीना भर पहले छपी
एक कविता पर
जो प्रेम के बारे में थी

मैं लगभग हतप्रभ था उसकी उस निश्छल आवाज़ के सामने
वह बांज के जंगल में छुपे किसी पहाड़ी सोते-सी मीठी
और निर्मल थी
और वैसी ही छलछलाती भी

मैं चाहता था कि उससे पूछूं
वही एक सवाल -
कि दुनिया की इतनी सारी मज़ेदार चीज़ें को छोड़ आख़िर तुम क्यों पढ़ती हो कविताएँ ?

लेकिन काफी देर तक मैं चुपचाप सुनता रहा उसकी बात
उसमें एक गूँज थी
जो कालेज से घर लौटती सारी लड़कियों की आवाज़ में होती है
घर लौटने के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद
जो रुक जाती हैं थोड़ी देर
गोलगप्पे खाने को
और साथ ही खरीद लाती हैं
वह पत्रिका भी
जिसमें मुझ जैसे ही किसी नौजवान कवि की कोई कविता होती है

वे पढ़ती हैं उसे
बैठकर घर की खामोशी में
किसी तरह समझातीं और चुप करातीं अपने भीतर बिलख रहे संसार को
छुपातीं अपने सपने
अपने दु:ख
अपनी यातनाएं
और कभी अमल में न लाई जा सकने वाली
अपनी योजनाएं

वे कविताएँ पढ़ती हैं
घर के सारे कामकाज और कालेज की ज़रूरी पढ़ाई के
साथ-साथ
किसी तरह मौका निकालकर

अन्त पर पहुंचाते हुए इस बातचीत को जब पूछ ही बैठा मैं
तो पलटकर बोली वह
बड़ी निर्दयता से
कि पहले आप बताइए
आप क्यों लिखते हैं कविताएँ ?

अब अगर किसी पाठक की समझ में आ गया हो
तो वह कृपया मुझको भी समझाए
कि बाहर की सारी लुभावनी चकाचौंध से भागकर
हर बार
अपने भीतर के घुप अन्धेरों में
कहीं किसी बचे-खुचे प्रेम की थोड़ी रोशनी जलाए
ये कुछ लड़कियाँ
आख़िर क्यों पढ़ती हैं
कविताएँ ?


Thursday, November 20, 2008

बिना माँ के बड़ी होने वाली लड़कियां

अनुनाद मेरा ब्लॉग है और शायद मुझे पूरा अधिकार है कि इसमें अपनी कविताएं लगाऊं, लेकिन एक वरिष्ठ तथा मेरे प्रिय कवि ने फोन पर बताया कि एक सज्जन ने उनसे कहा है कि शिरीष अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा ब्लॉग पर आत्मप्रचार में नष्ट कर रहा है। सभी पाठक जानते हैं कि अनुनाद पर मेरे अलावा भी बहुत कुछ छपता है।
मैं आज अपनी एक कविता लगा रहा हूं, लेकिन किंचित दु:ख के साथ ..... यह कविता गोरखपुर से छपने वाली पत्रिका प्रस्थान के नए अंक में छपी है, जो मुझ पर केंद्रित है !



बिना माँ के बड़ी होने वाली लड़कियां

इतने
कठोर शीर्षक का मैं
विरोध करता हूँ
लेकिन
इसे शायद ऐसा ही होना है
क्योंकि ये जीवन है कितनी ही लड़कियों का
जिन्हें बड़ा होना होता है
बिना किसी सहारे
ख़ुद के ही दम पर
पार पाना होता है दुनिया से
और ख़ुद से भी

उनके कुछ शुरूआती क़दमों तक
वे माएँ उनके साथ रही
फिर खो गईं
किसी ऐसे बहुत बड़े अंधेरे में
जिसे पारिभाषिक रूप से हम मृत्यु भी कह सकते हैं
वे छोड़ गई पीछे
अपनी ही कोख से जन्मे
डगमगाते पाँव
जिन्हें धरती को इस्तेमाल करना भी नहीं आता था

वे छोड़ गईं उन्हें
जैसे अचानक ही तेज़ हवा चलने पर
आँगन में
अधूरी छोड़नी पड़ जाती है
कोई रंगोली

जो पीछे रह गईं वे कुछ कोंपलें थी
धूप और हवा में हिलती हुई पूरे उत्साह से
हर किसी को लुभाती
कभी-कभी तो अचानक ही उन्हें चरने चले आते
मवेशी
अपना मजबूत जबड़ा हिलाते

वे भय से काँप कर
अपने आपसपास की बड़ी पत्तियों के पीछे
सिमट जातीं

अपने पहले स्त्राव से घबरायी
दौड़ती जातीं
पड़ोस की किसी बुआ या चाची के घर
मदद के वास्ते
तो ऐलान हो जाता
मुहल्ले भर की औरतों में ही
कि बड़ी हो गईं हैं अब अमुक घर की बछेिड़यां भरपूर
और उनके पीछे तो कोई लगाम भी नहीं

क्या वे सिर्फ़ लगाम ही बन सकती थीं
जो चली गईं
असमय ही छोड़कर
और जो बची रहीं वे भी आख़िर क्या बन पायीं?

बहुत कठोर लेकिन आसान है यह कल्पना
एक दिन
ये लड़कियां भी माँ बनेंगी
और उसी राह चलेंगी
दुनिया में रहते या न रहते हुए भी
बहुत अलग नहीं होगा इनका भी जीवन

इतने कठोर अन्त का भी
मैं विरोध करता हूँ
लेकिन इस प्रार्थना के साथ -

मेरी कविता में उजाला बनकर आयें
वे हमेशा
वैसी ही खिलखिलाती
शरारती
और बदनाम

और मैं उजागर करता रहूँ जीवन
उनके लिए
लेकिन
अपनी किसी अनहुई बेटी की तरह
हमेशा ही
दिल की गहराइयों में कहीं
सोचकर रखूं
उनके लिए एक नाम!


Tuesday, November 18, 2008

उदयप्रकाश की कविता पर अभय तिवारी

मैं बहुत लंबे समय से चाहता हूँ कि अनुनाद पर अब तक लंबित रहे विचार - विमर्श के पक्ष को किसी तरह पूरा किया जाए ! मैंने इसके लिए देवीप्रसाद अवस्थी सम्मान प्राप्त प्रिय मित्र अनिल त्रिपाठी और कवि व्योमेश से लेकर कविकुलगुरू केदारनाथ जी के पट्टशिष्य अधीर कुमार और अपने जवाहिर चा यानी कर्मनाशा वाले सिद्धेश्वर सिंह तक से अनुरोध किया और लगता है कि मेरे अनुरोध पर ये लोग काम भी कर रहे हैं पर अभी मामला पका नहीं दिखता। कुछ दिन पहले ब्लॉगजगत के चक्कर काटते अभय तिवारी के निर्मल-आनंद पर एक गम्भीर लेख दिखा जो विख्यात कवि उदयप्रकाश की एक कविता पर केंद्रित है - मुझे लगा इससे भी शुरूआत हो सकती है। प्रस्तुत है यह लेख निर्मल-आनंद से साभार...
.... और प्रतीक्षित हैं आपकी प्रतिक्रियाएं !


उदय प्रकाश ने चमत्कारिक कहानियाँ लिखी हैं.. और हिन्दी साहित्य की दुनिया में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। मैं खुद उनकी कहानी-कला का प्रशंसक रहा हूँ, हूँ। मगर उदय जी कवि भी हैं और मैंने अपने छात्र जीवन में उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ा और महसूस करने की भी कोशिश की थी।

उनकी एक कविता-एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएं- एक अन्तराल तक मेरे मानस पर क़ायम रही थी। उस कविता में वैयक्तिक प्रेम और सामाजिक स्वीकृति के बीच के तनाव के ताने-बाने को उन्होने अपनी भाषाई चमत्कार से अच्छे से गढ़ा था। पर उनकी कई अन्य कविताओं में मुझे कभी कोई खास तत्व नहीं नज़र आया। मुझे उन में अनुभूति से अधिक अतिश्योक्ति और एक नाटकीयता ही समझ आई।

आज अचानक अफ़लातून भाई के ब्लॉग पर उदय जी की एक कविता दिखी। जो अफ़लातून भाई ने छापी तो जनवरी २००७ में थी मगर मैं आज ही देख सका। समाजवादी जनपरिषद पर एक नया लेख पढ़ते हुए संयोगवश साइडबार में मैंने उदय जी का नाम देखा .. जिज्ञासा हुई.. क्लिक किया तो पहले कमेंट पढ़ने को मिले। सभी पाठक कविता से अभिभूत थे.. उदय जी का भी कमेंट था. वे इस इतने आत्मीय और प्रेरणास्पद स्वीकार से गदगद थे। प्रतिक्रियाओं को पढ़ने के बाद कविता पढ़ी..। वैसे तो मैं कविताएं अब नहीं पढ़ता हूँ लेकिन युवावस्था में उदय जी के लिए जो श्रद्धाभाव बना था उसके दबाव में एक बहुत लम्बे समय के बाद कोई कविता पढ़ी.. कविता शुरु होती है ऐसे..

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ ‘आँसू’ से मिलता-जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

पहली ही पंक्ति ग़ालिब के मिसरे- 'जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है'- का कठिन रूपान्तर है.. ऐतराज़ रूपान्तर से नहीं है.. अगर कोई छवि, रूपक आप के भाव के सादृश्य हो तो पाठक गप्प से निगल लेने को तैयार रहता है मगर मुझ से गप्प हुआ नहीं क्योंकि यहाँ कोशिश वही चमत्कार खड़ा करने की है। खैर.. आगे पढ़ा..

वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ

तो क्या जो पागल नहीं हुए वे ईमानदार नहीं है..? जिस जमात में स्वयं उदय प्रकाश भी शामिल हैं? और यहाँ पर यह भी याद कर लिया जाय कि ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होने प्रेम और क्रांति के जज़्बों के बीच झूलने वाले और अपनी इसी ईमानदारी के चलते विक्षिप्त हो जाने वाले कवि गोरख पाण्डेय का विद्रूप करते हुए एक कहानी भी रची थी-राम सजीवन की प्रेम कथा। जिसमें गोरख जी कभी कभी सहानूभूति के पात्र मगर अधिकतर हास्यास्पद चित्रित किए गए थे।

ईश्वर ‘ कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध..

इस तरह की पंक्तियाँ बेहद असरदार हैं और उदय जी की उसी चमत्कारिक भाषा का प्रदर्शन है..जो उनकी पहचान है। पाठक इनको पढ़ कर कवि की प्रतिभा के आगे ढेर हो सकता है.. हो जाता है.. मगर क्या यही कविता है? ज़रा इन जुमलों पर भी गौर किया जाय..

सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक
सबसे ज्यादा लोकप्रिय
सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर
सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार
सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे
सबसे उत्पीड़ित और विकल

ये जुमले अतिश्योक्ति के एक ऐसे संसार की ओर इशारा करते हैं जिसमें अपना दुख ही सबसे बड़ा है.. और दुख देने वाला सबसे खतरनाक। ऐसी मोटी समझ से किसी महीन अनुभूति की अपेक्षा की जा सकती है क्या? मगर हम करते हैं.. क्योंकि उदय जी हिन्दी साहित्य के आकाश के प्रतिभावान सितारे हैं।
भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ
वर्जित है विचार

उदय जी के दिमाग में एक कल्पित तानाशाह है और है एक कल्पित विद्रोही। उस के अन्तरविरोध की तनी हुई रस्सी पर ही उदय जी अपनी सीली हुई कविता की भाषा सुखा रहे हैं। मेरा कहना है कि भई रस्सी है कि नहीं है.. है तो किस हाल में है.. ज़रा बीच-बीच में जाँच लिया जाय। कम से कम इस तरह की पंक्ति लिखने के पहले तो ज़रूर ही..

वह भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को
अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का
समूचा सूचना संजाल

हो सकता है कि ये वाक्य उन्होने नेट पर लिपियों के इस स्वातंत्र्य के पहले लिखें हों.. तो भी ये वाक्य कवि की 'दृष्टा' और 'जहाँ न रवि पहुँचे' वाली उक्तियों को पछाड़ कर उदय जी की वास्तविकता के आकलन क्षमता के प्रति कोई अनुकूल मत नहीं बनाती।

बहुत काल से हम हिन्दी वाले सत्ता की मुखालफ़त करते हुए अपने समाज की सारी कमियों का ठीकरा सत्ता पर फोड़ते जाते हैं। हम विज्ञान और संज्ञान में पिछड़े हैं क्योंकि हमारे भीतर न तो वैज्ञानिक सोच है और न ही औरतों की छातियों और कूल्हों को देखने से फ़ुरसत। इसका दोष सत्ता को देने से क्या सबब?

ये बात ही हास्यास्पद है कि सत्ता लोगों को औरतों के कूल्हे देखने के लिए मजबूर कर रही है। हिन्दी की तमाम छोटी-छोटी पत्रिकाओं में असहमति के आलेख छापे जाते हैं.. लेकिन लोग उन्हे न खरीद के ‘आज तक’ पर ‘सैफ़ ने करीना की चुम्मी क्यों ली’ देखना ही पसन्द करते हैं। क्या इसमें लोगों का कोई क़सूर नहीं? आगे लिखते हैं..

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और
पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ

इन वाक्यों में ईमानदारी भी है और अनुभूति भी.. पर इस पर वे ज़्यादा देर टिकते नहीं, वे वापस अपनी हिन्दी कवियों की चिर-परिचित नाटकीयता के रथ पर सवार हो कर किसी दायोनीसियस को फटकारने लगते हैं..

सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो
यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे
तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के
विराट संग्रहालय के ,

एक दायोनीसियस प्राचीन काल में यूनान का तानाशाह था। जो खा-खा कर इतना मोटा हो गया था कि बाद में उसे खाना खिलाने के लिए अप्राकृतिक तरीक़े इस्लेमाल किए गए.. आखिरकार वो अपने ही मोटापे में घुट कर मर गया। एक दूसरा दायोसीनियस अशोक के दरबार में यूनानी राजदूत था जिसने बहुत शक्ति और सम्पदा जुटा ली थी। तमाम और दायोनीसियसभी हैं.. ऐसी ही एक मिलते जुलते नाम का मिथकीय चरित्र दायनाइसस (बैकस) भी है जो मद, मदिरा और मस्ती का ग्रीक देवता है। उदय जी किस दायोनीसियस की बात कर रहे हैं? क्या इशारा है ये? किन बाहर से आए लोगों ने भाषा की दुर्गत कर दी है?

हिन्दी भाषा की दुर्गति और इस दायोनीसियस का क्या गूढ़ सम्बन्ध है यह मुझे समझ में नहीं आया। हो सकता है सामान्य समझ के परे होना ही दायोनीसियस जैसे नाम की विशेषता हो। आप को नहीं पता-उदय जी को पता है- वे आप से विद्वान हैं-सीधा निष्कर्ष निकलता है। तमाम विषेषणों से दायोसीनियस का चेहरा भली भाँति लाल कर चुकने के बाद उदय जी आशा के लाल सूरज पर ला कर कविता का अंत कर देते हैं।

लेकिन देखो
हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा
और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और
कहता है - ‘ माँ ! ‘

नया बच्चा पैदा हो रहा है.. और मातृभाषा में बोल रहा है.. उद्धार की उम्मीद बनी हुई है। ये कविता का वैसे ही अंत है जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में एक चेज़ के साथ फ़िल्म का क्लाईमेक्स होता था या तमाम प्रेम कथाओं का अंत हॉलीवुड की प्रेरणा से, आजकल एअरपोर्ट पर होने लगा है।

कविता, कहानी, तमाम कला और कलाकारों को तय करने का मेरा पैमाना उसकी सच्चाई ही रहा है.. बहुत साथियों को उदय जी की कविता सच का आईना लग सकती है मुझे वह अपनी तमाम भाषाई चमचमाहटों के बावजूद अतिश्योक्ति, और थके हुए-घिसे हुए शिल्प का एक प्रपंच लगती है। एक पहले से तय ढांचा, पहले से तय मुहावरे, पहले से तय निशानों पर वार, पहले से तय बातों के प्रति उत्साह.. लगता नहीं कि कुछ नया लिखा जा रहा है.. नया रचा जा रहा है.. कम से कम मुझे तो नहीं लगता कि कुछ भी नया पढ़ रहा हूँ। ऐसा लगता है कि बने-बनाए खांचों में फ़िट हुआ जा रहा है। विद्रोह का भी एक बना-बनाया स्पेस है हिन्दी और हिन्दी कविता में। जिसे ओढ़कर आप बड़े कवि बन सकते हैं और पुरुस्कार, सम्मान आदि पा सकते हैं।

Monday, November 17, 2008

व्योमेश शुक्ल की तीन कविताएँ

व्योमेश शुक्ल की कविता से हिंदी जगत परिचित है। वे पहल, नया ज्ञानोदय, तद्भव, वागर्थ, कथाक्रम आदि में निरंतर दिखाई दिए हैं। 2008 के अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार से पुरस्कृत इस कवि को आप पहले अनुनाद में भी पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत हैं उनकी तीन और कविताएं, जिनमें से दो पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा तीसरी अप्रकाशित है। अनुनाद में यह मेरी ओर से समकालीन हिंदी कविता के नव्यतम स्वर को पहचानने की कोशिश है - बाक़ी आप बताएंगे ही !

चौदह भाई-बहन

झेंप से पहले परिचय की याद उसी दिन की
कुछ लोगों ने मुझसे पूछा तुम कितने भाई-बहन हो
मैंने कभी गिना नहीं था गिनने लगा
अन्नू दीदी मीनू दीदी भानू भैया नीतू दीदी
आशू भैया मानू भैया चीनू दीदी
बचानू गोल्डी सुग्गू मज्जन
पिंटू छोटू टोनी
तब इतने ही थे
मैं छोटा बोला चौदह
वे हंसे जाने गए ममेरों मौसेरों को सगा मानने की मेरी निर्दोष ग़लती

इस तरह मुझे बताई गई
मां के गर्भ पिता के वीर्य की अनिवार्यता
और सगेपन की रूढ़ि !

***


आर्क्रेस्टा


पतली गली है लोहे का सामान बनता है
बनाने वाले दृढ़ ताली निश्चित लय में ठोंकते हैं

हथौड़े की अंगुली
लोहे का ताल

धड़कनों की तरह आदत है समय को यह
समय का संगीत है
ठ क ठ क ठ क ठ क
या
ठकठक ठकठक ठकठक ठकठक

और भी लयें हैं सब लगातार हैं
लोगों को आदत है लयों का यह संश्लेष सुनने की
हम प्रत्येक को अलग-अलग पहचानते हैं
और साथ-साथ भी

एक दिन गली में लड़का पैदा हुआ है और
शहनाइयां बज रही हैं
पृष्ठभूमि में असंगत लोहे के कई ताल
एक बांसुरी बेचने वाला बजाता हुआ बांसुरी
गली में दाखिल है और
बांसुरी नहीं बिकी है शहनाई वाले से अब बात हो रही है
वह बातचीत संगीत के बारे में नहीं है पता नहीं किस बारे में है
एक प्राइवेट स्कूल का 500 प्रतिमाह पाने वाला तबला अध्यापक
इस दृश्य को दूर से देख रहा है !

***


रविवार

अप्रत्याशित जगह पर दिख जाए जब छोटी-सी धूप
दुकानें जिस दिन बंद रहें अपने आराम में
चिडियाएँ जमकर आवाज़ करती हैं
सब्जीवाले लगभग चुनौती देते हुए पुकारें ग्राहकों को
हमारी व्यर्थताओं का भी उचित मूल्य देता है विनम्र कबाड़ी
कूड़ा उठाने वाला गुंडे की मस्ती में
हम थोड़े-से पीर फ़कीर
घर अब एक मज़ार
शांति इतनी कि समाधि का एहसास
हफ्ते भर थके हुओं के शरीर में
बुद्ध ईसा मुहम्मद का वास !

*** 

Saturday, November 15, 2008

गिरिराज किराड़ू की कविताएं


पहले तो स्पष्ट कर दूं कि यह गिरिराज किराड़ू की कविता से मेरे सम्बन्धों पर एक निहायत निजी टिप्पणी है। साथ ही यह भी कि इस टिप्पणी और पोस्ट को लगाते हुए मैं मुखिया कबाड़ी अशोक पांडे और मेरे बचपन के शहर रामनगर में हूं -यानी लपूझन्ने के शहर में ! सो इस पोस्ट और टिप्पणी को मेरी निजी मन:स्थिति से भी जोड़ कर देखा जाए।

कोई आठ साल पहले किसी पत्रिका में पढ़ा था कि इस नाम के सज्जन को अशोक वाजपेयी जी के निर्णायकत्व में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला है। तब मेरे लिए यह महज एक साहित्यिक सूचना थी, जो मिली और फिर धूमिल पड़ती गई। शायद 2005 का अंत था, जब वागर्थ के उर्वर प्रदेश स्तम्भ में गिरिराज की कुछ कविताएं और उन पर पंकज चतुर्वेदी की टिप्पणी पढ़ी। मुझे ये कविताएं अच्छी लगीं पर मेरे लिए इस `अच्छा लगने´ से आगे अभी कुछ और भी घटना बदा था। कुछ महीने बाद मैंने पाया कि मुझे ब्रेन हैमरेज हुआ है और मुरादाबाद से लेकर दिल्ली तक के न्यूरो सर्जन्स से मेरा इलाज चल रहा है। इतने दिनों के लिए बाहर का संसार मेरे लिए पूरी तरह बंद हो गया था और आगे के लिए मेरे मन में गहरी शंका थी, ऐसी मन:स्थिति में मैंने पाया कि `भीतर के संसार´ के बारे गिरिराज की एक कविता उसी वागर्थ के पन्ने पर थी और मैं अपने बाहर से भागता हुआ अकसर उसे पढ़ने लगा। जाहिर तौर पर मेरे लिए वह एक अलग घराने का कवि था लेकिन तब भी मेरे भीतर के संसार में अपने लिए एक अलग जगह बना चुका था। इस तरह सबसे आड़े वक्त में कविता के किसी महामहिम की नहीं, एक अपरिचित हमउम्र कवि की कविता मेरे काम आयी। बावजूद इस सबके मेरी अभी तक गिरिराज से कोई मुलाक़ात या फोन पर बात भी नहीं है - मुझे नहीं पता कि कविता से बाहर उसकी आवाज़ कैसी सुनाई पड़ती है! हमारे बीच ईमेल का आदान-प्रदान है और इस माध्यम में भी हम ज़रूरत भर संवाद कर ही लेते हैं।

अभी कुछ समय पहले गिरिराज ने एक अनूठे विश्वास के साथ अपनी 40 कविताएं मेरे पढ़ने को भेजीं हैं, जो मेरे लिए एक तोहफ़े सरीखी ही है। मैंने इन सभी अच्छी कविताओं में से चुनकर अपनी पसन्द गिरिराज को बताई है और इधर उससे यह आग्रह भी किया है कि मैं इनमें से कुछ को अनुनाद पर भी लगाना चाहता हूं। गिरिराज ने हामी भरी है और इस तरह आइए - अब आप भी पढ़िए इस अनोखे कवि की कविताएं और बताइए अपनी राय !



जहां से


जहां कच्चा ईंटें बनती हैं उस जगह को देखते हुए लगता है कई घर खड़े हैं

बल्कि थोड़ी ऊंचाई
जैसे कि छत से
दिखता कि
कोई बस्ती-सी है

बल्कि थोड़ी और ऊंचाई
जैसे कि आकाश से
मालूम होता कि
कोई नगर है एक दूसरे आंगन में खुलते कई दरवाज़े हैं शामियाने जैसी एकल छत है
दरारों जैसी गलियां हैं जिनमें अपने बचपन में हम कई एक दूसरे को ढूंढ रहे हैं

बल्कि थोड़ी और ऊंचाई
जैसे कि कविता से
झांकता कि
शामियाना कई छतों में विसर्जित हो रहा है दरारें गलियों में बंट रही हैं
ढूंढना छुपने में खुल रहा है घर फिर से ईंटें हुए जा रह हैं

और
वे इतनी कोमल हैं कि हम देखने से वापस लौटते हुए कई सारी थैले में भर लाए हैं !
***

भविष्य

जो हमारे बारे में कुछ नहीं जानते थे भविष्यदृष्टा थे

या तो वे भविष्य में घटित होनेवाले को देख सकते थे
जैसा भविष्यदृष्टाओं के बारे में कहा जाता है
या वे कुछ ऐसा गढ़ सकते थे
जो भविष्य में घटित होगा
जैसे कि
अफ़वाह

मुहावरे ने अफ़वाह के बारे में निश्चित कर रक्खा है कि
वो हमेशा सच ही होती है
बिना आग के
अफ़वाह का धुंआ
आकाश तक नहीं पहुंचता

इस बार मुहावरे का नया संस्करण होना था
धुंआ वर्तमान में उड़ना था आग भविष्य में लगनी थी

तो इन भविष्यदृष्टाओं ने
इस धुंए
इस अफ़वाह
इस भविष्य को बनाया

और हम उनके बनाए धुंए अफ़वाह भविष्य में फंस गए

इस तरह हमारी कथा उनका बनाया हुआ भविष्य है
जिसमें हम रहने लग गए हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते !
***

टूटी हुई बिखरी हुई पढ़ाते हुए


एक प्रतिनियुक्ति विशेषज्ञ की हैसियत से
मानो उनके कवियों का कवि कहे जाने को चरितार्थ करते हुए
लगभग तीस देहाती लड़कियों के सम्मुख होते ही लगा
शमशेर जितना अजनबी और कोई नहीं मेरे लिए
मैंने कहा कि उनकी कविता का देशकाल एक बच्चे का मन है
कि उनके मन का क्षेत्रफल पूरी सृष्टि के क्षेत्रफल जितना है
कि उनकी कविता एक ख़यालखाना है जिसके बाहर खड़े
वे उसे ऐसे देख रहे हैं जैसे उसे देखना भी एक ख़याल हो
कि वे उम्मीद के अज़ाब को ऐसे लिखते हैं कि अज़ाब खुद उम्मीद हो जाता है
कि उनके यहां पांच वस्तुओं की एक संज्ञा है और पांच संज्ञाएं एक ही वस्तु के लिए हैं

अपने सारे कहे से शर्मिन्दा
उन उक्तियों की गर्द से बने पर्दे के पीछे
कहीं लड़खड़ाकर ग़ायब होते हुए पूछा मैंने
अब आपको कविता समझने में कोई परेशानी तो नहीं?

उनका जवाब मुझे कहीं बहुत दूर से आता हुआ सुनाई दिया
जब मैं जैसे तैसे कक्षा से बाहर आ चुका था और शमशेर से और दूर हो चुका था !
*** 

Monday, November 10, 2008

नक्शे में निशान और अन्य कविताएँ - अलिंद उपाध्याय


बनारस में रहने वाले अलिन्द उपाध्याय ने विगत वर्ष वागर्थ के नवलेखन कवितांक में प्रेरणा पुरस्कार पा अपनी आमद दर्ज की थी। इधर कुछ पत्रिकाओं में वे दिखाई देते रहे। यहां दी जा रही कविताओं में से दो परिकथा के नवलेखन अंक से हैं और एक वागर्थ के कवितांक से। अब तक छपी कविताओं से यह तय हो गया है कि अलिन्द का कवि किसी बड़े बौद्धिक जंजाल में नहीं पड़ना चाहता और शब्दों में ज्यादा उड़ने की इच्छा भी नहीं रखता। वह बहुत सादगी से अपनी और सबकी बात कहता है। इस `सबकी´ में कौन-कौन समाहित है यह कहने-सुनने की जरूरत नहीं - इस बारे में ये कविताएं खुद कहेंगी। मैं निजी तौर पर इस सादगी को एक काव्यमूल्य की तरह देखता हूं। हमारे समय की कविता इस काव्यमूल्य में अपना विश्वास खो चुकी लगती है कि अलिन्द की कविताएं अचानक कहीं से प्रकट होकर ढाढ़स बंधाने लगती हैं। मुझ समेत मेरे समय के सभी युवा कवियों के बारे में मेरी एक चिंता लगातार बनी रहती है कि कविता में जो स्वीकृति हम पा रहे हैं या तथाकथित रूप से पा चुके हैं वह लेखकीय या आलोचकीय स्वीकृति भर है कि उसमें आम पाठकीय स्वीकृति भी शामिल है! अगर शामिल है तो अच्छा, नहीं तो हम अधिक देर टिक नहीं पायेंगे।


नक्शे में निशान

दुनिया के नक्शे में
चौकोर-गोल-तिकोने निशानों से
दिखाए जाते हैं वन, मरुस्थल, नदियां, डेल्टा, पर्वत, पठार
दिखाया जाता है इन्हीं से
पायी जाती है कहाँ - कहाँ
दोमट, लाल, काली या किसी और प्रकार की मिट्टी
कविता की मिट्टी में सरहद नहीं होती
निशान नज़र आते हैं
किसी न किसी सरहद में ही

दिखायी जाती हैं इन्हीं डिज़ाइनर निशानों से
लोहा, कोयला, सोना, तांबा, अभ्रक और हीरे की खानें
लेकिन खदानों के श्रमिकों की पीड़ा
और उनके मालिकों की विलासिता
नहीं दिखा सकता है कोई निशान

ये दिखाते हैं हमें
तेल और गैस के प्रचुर क्षेत्र
कोई निशान नहीं दिखाता इनके इर्द-गिर्द का वह क्षेत्र
जहाँ मिट गया आबादी का नामोनिशान
अमेरिकी बमबारी से

एक काला गोल निशान दिखता है
जहाँ कहीं भी होती है राजधानी
कुछ बडे़-बड़े अक्षरों में नज़र आती है जो
वहीं तैयार किया जाता है दुनिया का नक्शा
जहाँ दुनिया के ताकतवर देश
उनके हिसाब से नहीं चलने वाले देशों पर
लगाते हैं निशान
अगला निशाना साधने के लिए।
***

घंटी

कम ही बजती है घर की घंटी
घर कम आते हैं लोग आजकल
बढ़ी है फोन की घंटी की घनघनाहट
फोन करना भी मिलन का एक रूप है
महसूस कराती है फोन की घंटी

विभागाध्यक्ष को बादशाहों की तरह ताली बजा
खादिमों को करीब लाने के उपक्रम से
मुक्त कराती है घंटी
बादशाहत से नहीं

अफसरों को हॉर्न के आगे बरदाश्त नहीं
साइकिल की घंटी

दिनों-दिन बढ़ रही है बेरोज़गारी
लूट-खसोट

तेज़ और तेज़ बज रही है मंदिर की घंटी
***

जनरल बोगी के यात्री


जो इसमें करते हैं सफर
काटना जानते हैं आंखों में रात
बोतल बंद पानी नहीं खरीद पाते हैं वे
हिचकते नहीं हैं
चुल्लू बनाकर नल से पानी पीने में
चांदी जैसे कागज में लिपटा भोजन
नहीं होता है उनके लिए
उनका टिफिन कैरियर होता है गमछा
बंधा रहता है जिसमें लाई, चना, गुड़, सत्तू
लोहे की जंजीरों से बंधे सूटकेस
दिखते नहीं हैं उनके आस-पास
किसी झोले या संदूक में
रहता है उनका सामान
प्लेटफॉर्म पर लगीं वजन तोलने वाली
रंग-बिरंगी मशीनों के चक्के
नहीं घूमते हैं उनके दम पर
क्योंकि वे ही महसूस कर सकते हैं
जेब में एक-एक रुपये का वजन।
*** 

Sunday, November 9, 2008

दादी की चिट्ठियां



चौदह बरस पहले गुज़र गयीं दादी
मैं तब बीस का भी नहीं था

दादी बहुत पढ़ी-लिखी थीं
और सब लोग उनका लोहा मानते थे
मोपांसा चेखव गोर्की तालस्ताय लू-शुन तक को
पढ़ रखा था उन्होंने
और हम तब तक बस ईदगाह और पंच-परमेश्वर ही
जानते थे

मैं और माँ सुदूर उत्तर के पहाड़ों पर रहते थे
नौकरी करने गए पिता के साथ
दादी मध्य प्रदेश में पुश्तैनी घर सम्भालती थीं

आस-पड़ोस में काफी सम्मान था
उनका
वह शासकीय कन्या शाला की रौबदार प्रधानाध्यापिका थीं

वह जब भी अकेलापन महसूस करतीं
हमें चिट्ठी लिखतीं
यों महीने में तीन या चार तो आ ही जाती थीं उनकी चिट्ठियां

इनमें बातों का ख़जाना होता था
मैं बहुत छोटा था तो भी पिता के साथ-साथ
आख़िर में
मेरे नाम अलग से लिखी होती थीं कुछ पंक्तियाँ
बाद में इसका उल्टा होने लगा
मुझ अकेले के नाम आने लगीं
उनकी सारी चिट्ठियां
जिनके अंत में बेटा-बहू को मेरी याद दिलाना लिखा होता था

तब फ़ोन का चलन इतना नहीं था
और पूरा भाव-संसार चिट्ठियों पर ही टिका था

चिट्ठियां अपने साथ
गंध और स्पर्श ही नहीं आवाज़ें भी लाती थीं
मैंने अकसर देखा था
कोना कटे पोस्टकार्ड में चुपचाप आने वाली चिट्ठी ही
सबसे ज़्यादा शोर मचाती थी

दादी हमेशा
अंतर्देशीय इस्तेमाल करती थीं
जो खूब खुले नीले आसमान-सा लगता था
उसमें उड़ती चली आती थीं
दादी की इच्छाएं
दादी का प्यार

कभी-कभार इस आसमान में बादल भी घिरते थे
दूर दादी के मन में आशंका की
बिजलियाँ कड़कती थीं
उनका हृदय भय और हताशा से कांपता था
ऐसे में अकसर साफ़ नीले अंतर्देशीय पर कहीं-कहीं
बूँद सरीखे कुछ धब्बे मिलते थे

एक वृद्ध होती स्त्री क्या सोचती है अपने बच्चों के बारे में
जो उससे अलग
अपना एक संसार बना लेते हैं?

दादी कहती थीं - सबसे भाग्यशाली और सफल होते हैं
वे वृक्ष
जो अपने बीजों को पनपने के लिए कहीं दूर उड़ा देते हैं

दादी भी सफल और भाग्यशाली कहलाना चाहती थीं
लेकिन वो पेड़ नहीं थी
उन्हें अपने से दूर हुए एक-एक बीज की परवाह थी

हम उनसे मिल नहीं पाते थे
कभी दो-तीन साल में घर जाते थे
वह हमारे हिस्से के कई सुख
संजोये रखती थीं
मनका-मनका फेरती अपने भीतर की टूटती माला को
किसी तरह पिरोये रखती थीं

हम छुट्टियाँ मनाने जाते थे वहाँ
शायद इसीलिए
पिता से वह कभी कोई जिम्मेदारी सम्भालने-निभाने की
बात नहीं करती थीं

मैं दादी को उनकी चिट्ठियों से जानता था
कभी साथ नहीं रहा था उनके
और
छुट्टियों में साथ रहने पर भी उनकी चिट्ठियों के न मिलने का
अहसास होता था
बहुत अजीब बात थी कि मैं साथ रहते हुए भी अकसर उनसे
चिट्ठी लिखने को कहता था

अच्छा तो मुझसे मेरी चिट्ठियां अधिक प्यारी हैं तुझे - कह कर हमेशा वह मुझे
झिड़क देती थीं
तब मैं घरेलू हिसाब की कॉपियों में उनके लिखे
गोल-गोल अक्षर देखता था
वह कहतीं अब मैं तुम्हारे पास ही आ जाउंगी रहने
बस तेरे चाचाओं का ब्याह कर दूँ
तू भी पढ़-लिखकर दूर कहीं नौकरी पर चला जाएगा
फिर मैं तेरे पापा के घर से तुझे
चिट्ठियां लिक्खूंगी

तब मैं इस बारे में सोचने के लिए बहुत छोटा था

चौदह बरस पहले अचानक वह गुज़र गयीं
छाती पर पनप आयीं कैंसर की भयानक गांठों को छुपातीं
भीतर-भीतर छटपटाती

लेकिन
उनके भीतर का वह संसार मानो अब भी नुमाया है
अकसर ही पूछता है पाँच बरस का मेरा बेटा
उनके बारे में
अभी अक्षर-अक्षर जोड़ कर उसे पढ़ना आया है

आज एक सपने की तरह देखता हूँ मैं
पुराने बस्ते में रखी उनकी चिट्ठियों को
वह गहरी उत्सुकता से साथ टटोलता है

यह भी उनके न रहने जितना ही सच है
कि बरसों बाद एक बच्चा
हमारे जीवन के विद्रूपों से घिरी उस नाजुक-सी दुनिया को
अपने उतने ही नाजुक हाथों में
फिर से
बरसों तक सम्भालने के लिए
खोलता है!
***
2005
कथादेश और लेखनसूत्र में प्रकाशित
०००

Saturday, November 8, 2008

अंजेला डुवाल की कविताएं - अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र


अंजेला डुवाल
(1905-1981 )

लेखिका फ्रांस के उत्तरी ब्रिटेनी में जन्मीं और जीवनपर्यन्त वहीं रहीं। किसान परिवार की मामूली पढ़ी हुई इस स्त्री ने 55 वर्ष की उम्र में लुप्तप्राय ब्रेटन भाषा में कविताएं लिखनी शुरू कीं, जो अंग्रेजी और फ्रेंच सहित कई अन्य भाषाओं में छपीं। उनके चार कविता संकलन प्रकाशित हुए।

ब्रेटन भाषा को फ्रांस में सरकारी मान्यता नहीं प्रदान की गई है। 1930 में ब्रेटनभाषियों की संख्या 13 लाख थी जो 1997 तक घटते-घटते 3 लाख रह गई - क़रीब दो तिहाई बोलनेवाले 60 वर्ष से ऊपर की आयु के हैं।




कौन?

मैं अपने उसूलों पर अडिग रही सदा
- हर मोर्चे पर करना है संघर्ष मुझे - मेरा जीवन बस एक मुकम्मल संघर्ष ही रहा
अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर
अब ठंडी सांसें भरती हूं :
कौन खड़ा होगा हिफाज़त करने
इन उसूलों की
मेरे मरने के बाद?

कौन उठाएगा हथियार
जो छूटकर गिर गए मेरे हाथों से -

मैंने तो कोई बेटा जना ही नहीं ........?



तुम्हारा दुख केवल तुम्हारा है !

तुम बांट सकते हो
अपने प्रियजनों के साथ
अपनी अच्छाईयां
अपना ज्ञान
अपना प्रेम
अपनी खुशियां

पर एक चीज़ है जो नहीं बांटोगे तुम:
अपना दुख -

यही तो है
जो नापकर बना है बिलकुल तुम्हारे आकार का !



सूरज का आंखें

सूरज इतनी देर क्यों लगा दी आज उठने में?
और आंखें तुम्हारी इतनी लाल कैसे हो गईं?
क्या रात में कोई बुरा सपना देखा
और रोते रहे रातभर?

`मैं न तो सोया और न ही रोया -
रातभर गश्त लगाता रहा
जब पश्चिम सो रहा था घोड़े बेचकर
अपनी शोहरत की धूसर राख के बिछौने पर निश्चिन्त -
मैं लेता रहा रातभर दुनिया की खोज-खबर।´

सूरज, अपनी गश्त के दौरान क्या-क्या देखा तुमने?

`मैंने देखा ठंड से मरते लोगों को
मैंने देखा भूख से दम तोड़ते लोगों को
मैंने देखा एक दूसरे की जान लेते लोगों को
भाई-भाई को मरते-कटते
मैंने देखा दबे-कुचले मज़लूमों को
मैंने देखा एक सिरफिरे की गोलियों का शिकार बनते एक महान नेता को
मैंने देखा तो बहुतेरों को
पर मालूम नहीं उनमें से कितने रो रहे थे
सब कुछ अपनी आंखों देखकर भी बना रहा मैं निर्लिप्त

फिर मैंने देखा लोगों को आक्रान्त भाइयों पर छींटाकशी करते
उन पर भी जिन्हें दरकार है मदद की
और उन पर भी जो जुते हुए हैं गुलामी के कोल्हू में

पर इतना सब देखकर नहीं रहा और सब्र
और छूट ही पड़ी रुलाई
इसीलिए तो है मेरी आंखें सूजी हुई लाल-लाल´

सूरज, बंद करो अब यह रोना-धोना -
थोड़ी देर में सामने सागर में
तुम डुबो लेना अपनी सूजी हुई लाल-लाल आंखें !


यादवेन्द्र

अनुवादक 53 वर्षीय इंजीनियर हैं। किताबों में और नेट पर दुनिया भर का साहित्य खंगालते रहते हैं। रुड़की में रहते हैं और हिंदी अनुवादों में मुझे उनका अन्दाज़ कुछ खास और अलग लगता है। नया ज्ञानोदय में उनके द्वारा अनूदित नेल्सन मंडेला के प्रेमपत्र चर्चित रहे। उन्होंने विजय गौड़ के लिखो यहां वहां और पंकज पाराशर के ख्वाब का दर में भी उल्लेखनीय अनुवाद किए हैं। अनुनाद अंजेला डुवाल के इन अनुवादों के लिए यादवेन्द्र जी का आभारी है और उनसे आगे भी ऐसे ही आत्मीय सहयोग की उम्मीद करता है।
सम्पर्क: ए-24, शांतिनगर, रुड़की - 247 667
फ़ोन: 01332- 271176

Tuesday, November 4, 2008

हेरमेन हेस्से की दो कविताएं : महेन का अनुवाद - मूल जर्मन से...


महेन युवा ब्लागर हैं और बैंगलोर में रहते हैं, इससे अधिक मैं उनके बारे कुछ नहीं जानता। उनकी एक पोस्ट से पता चला कि वे मेरे हममुलुक भी हैं। कबाड़ियों के अड्डे अशोक के ब्लॉग कबाड़खाना पर हमारी जान-पहचान हुई और उनके हलंत नामक ब्लॉग से भी परिचय हुआ । उनका ब्लॉग मुझे रोचक लगा और उन्हें मेरा अनुनाद, ऐसे ही शायद हमारे बीच की अदेखी दोस्ती पनपी हो। इधर उनके हलंत में विख्यात कथाकार हेरमेन हेस्से की कुछ कविताएं देखीं, जो मुझे बहुत अच्छी लगीं। मैंने उनसे अनुनाद के लिए भी अनुवाद करने का अनुरोध किया और उन्होंने मेरे अनुरोध की रक्षा की!
परिणामत: प्रस्तुत हैं ये दो कविताएं ...




०१.मैं जानता हूँ, तुम जाती हो

अकसर देर रात मैं सड़क पर चलता हूँ
जल्दी-जल्दी
नज़र झुकाए और डर से भरा हुआ

तुम आ सकती हो चुपचाप अचानक मेरे सामने
और मैं चुरा नहीं पाऊँगा तुम्हारी तकलीफ़ों से नज़र
देखना ही पड़ेगा
कैसे तुम मुझसे अपना अभ्यतीत सुख मांगती हो

हर रात तुम जाती हो बाहर
मैं जानता हूँ
झिझकते कदमों से सस्ते भड़कीले कपड़ों में
पैसों के लिये
और दिखती हो बेहद दरिद्र

तुम्हारे जूतों पर चिपकी रहती है
तमाम धूल
भव्य हवा तुम्हारे बालों से अठखेलियाँ करती है

तुम जाती हो और तुम्हें मिलता नहीं घर।


०२.खेतों के पार

ऊपर आकाश में बादल घूमते हैं
खेतों के ऊपर हवा
पार खेतों के घूमती है
मेरी माँ की खो चुकी संतान

सड़क पर उड़ते हैं पत्ते
पेड़ों पर पंछी चहचहाते हैं
दूर कहीं पहाड़ों के पार
ज़रूर मेरा घर होगा।

Sunday, November 2, 2008

अहमद फ़राज़ की आवाज़


मैं डा० अनुराग शर्मा के प्रति अत्यन्त आभारी हूँ जो उन्होनें हिन्दीयुग्म - आवाज़ में चीज़ों को अन्यत्र शेयर करने की सुविधा उपलब्ध करायी है ! आइये सुनिए इस जादुई शख्सियत को उसकी अपनी जादुई आवाज़ में और मेरे साथ एक बार फ़िर शुक्रिया अदा कीजिये डा० अनुराग शर्मा का !



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Saturday, November 1, 2008

आओ फ़िर से पहल करें - ज्ञान जी को एक चिट्ठी !


आदरणीय ज्ञान जी !

मुझे नहीं लगता की आप ब्लॉग की दुनिया में आते होंगे। कल वीरेन जी ने फोन पर पहल के पटाक्षेप की स्तब्धकारी सूचना दी और कहा इसे ब्लॉग की दुनिया में बताया जाय ! जाहिर है कि मकसद सबको अवगत कराना था, जिससे सम्भव था कि कुछ लोग आपसे बात कर आपको इस तरह के किसी भी पटाक्षेप से विमुख करने की कोशिश करें और ऐसा हुआ भी है ! सिद्धेश्वर भाई ने आपसे बात कर उसका ब्यौरा कबाड़खाने पर दिया है !
आपका पत्र आपके कुछ दोस्तों को मिला है ,जिनका साहित्य में बड़ा नाम है और पहल से गहरा जुड़ाव भी। मेरा ये पत्र आप शायद ही पढ़ें पर ये एक गुजारिश है कि जहाँ तक सम्भव हो पहल को जारी रखें ...
कुछ मित्र कह रहे हैं कि आप एक टीम बना कर उसे आगे की जिम्मेदारी सौंप दें पर मुझे नहीं लगता ज्ञानरंजन के बिना पहल हो सकती है !
कुछ समय पहले मैंने आपके परममित्र कुमार विकल की आपको संबोधित एक कविता लगाई थी , उसे आज फ़िर लगा रहा हूँ - कृपया अपने दिवंगत मित्र की आवाज़ सुनें !

आओ पहल करें
जब से तुम्हारी दाढ़ी में
सफेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऐसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
जिन्दगी की शाम से डर खाने लगे हो
और दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज़ रहने लगे हो
लेकिन, सुनो ज्ञान !
हमारे पास जिन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाक़ी है
जो एक सघन फेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऐसा आंगन बन जाए
जहां प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान !
तुम एक ऐसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता
तुम्हारे दोस्त
पड़ोसी
सुनयना भाभी
तुम्हारे बच्चे
या अपने आप को हिंदी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल

कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्या में
अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि
वह अब भी
धूप का पक्षधर है

प्रिय ज्ञान !
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफेद बालों को भूल जाएं
और एक ऐसी पहल करें
कि जीवन-संध्याएं
दोपहर बन जाएं !

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