
बहुत दूर कुछ शिखर दिखते थे कमरे की खिड़की से बाहर
उनसे बहुत पहले एक तिरछी घाटी
उससे पहले कुछ मकान
बिजली के कुछ तार जाते हुए यहाँ से वहाँ
आपस में उलझी कपड़े टांगने की रस्सियाँ
कुछ लोग
आपस में बतियाते हुए
और उनसे भी पहले
बाहर देखते ही दिख जाती थीं सलाखें
उस खिड़की की
जिसे में सुबह सबसे पहले खोलता था
बन्द करता था रात
सबसे बाद !
मुझे कोई संवाद नहीं दिया गया था
मुझे हिलना भी नहीं था अपनी जगह से
उनसे बहुत पहले एक तिरछी घाटी
उससे पहले कुछ मकान
बिजली के कुछ तार जाते हुए यहाँ से वहाँ
आपस में उलझी कपड़े टांगने की रस्सियाँ
कुछ लोग
आपस में बतियाते हुए
और उनसे भी पहले
बाहर देखते ही दिख जाती थीं सलाखें
उस खिड़की की
जिसे में सुबह सबसे पहले खोलता था
बन्द करता था रात
सबसे बाद !
मुझे कोई संवाद नहीं दिया गया था
मुझे हिलना भी नहीं था अपनी जगह से
दरअसल मुझे कुछ भी नहीं करना था उस खूबसूरत दृश्य में
जो सिर्फ़ मेरी तरफ़ से दिखता था।
मैं कई दिनों से
कहीं जाने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे पाँव हिलते न थे
मैं कई दिनों से
कुछ चीज़ों की तरतीब देने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे हाथ उठते न थे
जो सिर्फ़ मेरी तरफ़ से दिखता था।
मैं कई दिनों से
कहीं जाने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे पाँव हिलते न थे
मैं कई दिनों से
कुछ चीज़ों की तरतीब देने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे हाथ उठते न थे
मैं कई दिनों से
कुछ बोलने के बारे में सोच रहा था
बल्कि मैं तो बोल भी रहा था
कुछ बोलने के बारे में सोच रहा था
बल्कि मैं तो बोल भी रहा था
पर मेरे शब्दों में आवाज़ न थी।
मैं बहुत साहसी होना चाहता था
और बहुत धीर भी
मैं उदार भी होना चाहता था
और बहुत गम्भीर भी
मैं ज़्यादा होना चाहता था
और कम भी
मैं ``मैं´´ भी होना चाहता था
और ``हम´´ भी।
शायद ऐसे ही ख़त्म हो जाता है सफ़र
हर बार
बहुत घने
भाप भरे जंगल पुकारते हैं हमें
मैं बहुत साहसी होना चाहता था
और बहुत धीर भी
मैं उदार भी होना चाहता था
और बहुत गम्भीर भी
मैं ज़्यादा होना चाहता था
और कम भी
मैं ``मैं´´ भी होना चाहता था
और ``हम´´ भी।
शायद ऐसे ही ख़त्म हो जाता है सफ़र
हर बार
बहुत घने
भाप भरे जंगल पुकारते हैं हमें
पेड़ों के तने
बहुत चिकने कुछ खुरदुरे भी
बहुत चिकने कुछ खुरदुरे भी
पतझर में साथ छोड़ जाने वाली
चतुर-चपल पत्तियां
चतुर-चपल पत्तियां
लम्बी लचीली डगालें
मिट्टी की बहुत पतली चादर तले
रह-रहकर
करवट बदलती है ज़िन्दगी
अख़ीर में
ऐसी ही किसी जगह हमें लाता है प्रेम
हम जहाँ से कहीं नहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
मिट्टी की बहुत पतली चादर तले
रह-रहकर
करवट बदलती है ज़िन्दगी
अख़ीर में
ऐसी ही किसी जगह हमें लाता है प्रेम
हम जहाँ से कहीं नहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
(ये कविता जैसा कुछ २००३ में रानीखेत में रहते हुए लिखा गया था)
गजब!! अद्भुत!!
ReplyDeleteyahan aa kar comment kya karna..bas padhna hai ...aur mehsuusnaa
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