अनुनाद

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व्योमेश शुक्ल की कविताएँ

व्योमेश की कविताएं अपनी तरह से समकालीन कविता में एक नए युग की शुरूआत का विनम्र घोषणा-पत्र हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि व्योमेश बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गया है, लेकिन उसकी कविताओं को ध्यान से पढ़ें तो पता लगता कि उनके पीछे कितनी लम्बी वैचारिक तैयारी और एक सधी हुई सहज कुशलता है, जिसमें कला कम और मेहनतकश कारीगरी अधिक है। अभी व्योमेश के बारे में कुछ बड़ा लिखना अतिरेक होगा और उसकी प्रतिभा के साथ अन्याय भी ! उस पर अभी विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल और असद ज़ैदी के असर के बीच से एक नितान्त मौलिक राह तलाशने का दायित्व भी है। उसके संकलन की प्रतीक्षा तो मेरे भीतर कहीं बहुत दिनों से शुरू हो चुकी है और मैं कामना करता हूं कि उसके बारे में लिखने का समय भी जल्द ही आए। जब ये समय आएगा तो उस पर लिखने वालों की भीड़ में एक खुरदुरा-सा नाम मेरा भी ज़रूर होगा! यहां प्रस्तुत कविताएं गिरिराज किराडू जी की ई-पत्रिका(http://pratilipi.in/) से साभार ली जा रही हैं, जिसमें कवि की अनुमति भी शामिल है।

***


किशोर

कहने को यही था कि किशोर अब गुब्बारे में चला गया है लेकिन
वहाँ रहना मुश्किल है दुनिया से बचते हुए
खाने नहाने सोने प्यार करने को
दुनिया में लौटना होता है किशोर को भी

यदि कोई बनाये तो किशोर का चित्र सिर्फ काले रंग से बनेगा
वह बाक़ी रंग गुब्बारे में अब रख आता है
वहीं करेगा आइंदा मेकप अपने हैमलेट होरी घासीराम का
यहाँ बड़ी ग़रीबी है कम्पनी के पर्दे मैले और घायल हैं
हनुमान दिन में कोचिंग सेंटर रात में भाँग की दुकान चलाता है
होरी फिर से कर्ज़ में है
और इस बार उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए
कुछ अप्रासंगिक पुराने असफल चेहरे बिना पूछे बताते हैं कि होरी का पार्ट
एक अर्सा पहले, किशोर ही अदा करता था या कोई और करता था
इस बीच एक दिन वह मुझसे कुछ कह रहा था या पैसे माँग रहा था
असफल लोगों को याद है या याद नहीं है
मुझसे किशोर ने कुछ कहा था या नहीं कहा था
विपत्ति है थियेटर घर फूँककर तमाशा देखना पड़ता है

दर्शक आते हैं या नहीं आते
नहीं आते हैं या नहीं आते

भारतेंदु के मंच पर आग लग गई है लोग बदहवास होकर अंग्रेजी में भाग रहे हैं
किशोर देखता हुआ यह सब अपने मुँह के चित्र में खैनी जमाता है ग़ायब हो जाता है
शाहख़र्च रहा शुरू से अब साँस ख़र्च करता है गुब्बारे फुलाता है
सुरीला था किशोर राग भर देता है गुब्बारों के खेल में बच्चे
यमन अहीर भैरव तिलक कामोद उड़ाते हैं अपने हिस्से के खेल में
बहुत ज्यादा समय में बहुत थोड़ा किशोर है
साँस लेने की आदत में बचा हुआ
गाता
***

दीवार पर

गोल, तिर्यक, बहकी हुईं
सभी संभव दिशाओं और कोणों में जाती हुईं
या वहाँ से लौटती हुईं
बचपन की शरारतों के नाभिक से निकली आकृतियाँ

दीवार पर लिखते हुए शरीफ बच्चे भी शैतान हो जाते हैं

थोड़े सयाने बच्चों की अभिव्यक्ति में शामिल वाक्य
जैसे ‘रमा भूत है’, इत्यादि
हल्दी, चाय और बीते हुए मंगल कार्यों के निशान
कदम-कदम पर गहरे अमूर्तन
जहाँ एक जंगली जानवर दौड़ रहा है
दूसरा चीख रहा तीसरा लेटा हुआ है
असंबद्ध विन्यास

एक बिल्कुल सफेद दीवार का सियापा
इस रंगी पुती दीवार के कोलाहल में मौजूद है
ग्रीस, मोबिल, कोलतार और कुछ ऐसे ही संदिग्ध दाग़
जिनके उत्स जिनके कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता
बलगम पसीना पेशाब टट्टी वीर्य और पान की पीक के चिह्न
चूने का चप्पड़ छूटा है काई हरी से काली हो रही है

इसी दीवार के साये में बैठा हुआ था एक आरामतलब कवि
यहीं बैठकर उसने लिखा था
कि कोई कवि किसी दीवार के साये में बैठा हुआ होगा
***

पक्षधरता
हम बारह राक्षस
कृतसंकल्प यज्ञ ध्यान और प्रार्थनाओं के ध्वंस के लिये
अपने समय के सभी ऋषियों को भयभीत करेंगे हम
हमीं बनेंगे प्रतिनिधि सभी आसुरी प्रवृत्तियों के
‘पुरुष सिंह दोउ वीर’ जब भी आएँ, आएँ ज़रूर
हम उनसे लडेंगे हार जाने के लिये, इस बात के विरोध में
कि असुर अब हारते नहीं
कूदेंगे उछलेंगे फिर-फिर एकनिष्ठ लय में
जीतने के लिये नहीं, जीतने की आशंका भर पैदा करने के लिये
सत्य के तीर आएँ हमारे सीने प्रस्तुत हैं
जानते हैं हम विद्वान कहेंगे यह ठीक नहीं
‘सुरों-असुरों का विभाजन
अब एक जटिल सवाल है’

नहीं सुनेंगे ऐसी बातें
ख़ुद मरकर न्याय के पक्ष में
हम ज़बर्दस्त सरलीकरण करेंगे
***


कुछ देर

तुम्हारी दाहिनी भौं से ज़रा ऊपर
जैसे किसी चोट का लाल निशान था
तुम सो रही थी
और वो निशान ख़ुद से जुडे सभी सवालों के साथ
मेरी नींद में
मेरे जागरण की नींद में
चला आया है
इसे तकलीफ या ऐसा ही कुछ कह पाने से पहले
रोज़ की तरह
सुबह हो जाती है

सुबह हुई तो वह निशान वहाँ नहीं था
वह वहाँ था जहाँ उसे होना था
लोगों ने बताया: तुम्हारे दाहिने हाथ में काले रंग की जो चूड़ी है
उसी का दाग रहा होगा
या कहीं ठोकर लग गई हो हल्की
या मच्छर ने काट लिया हो
और ऐसे दागों का क्या है; हैं, हैं, नहीं हैं, नहीं हैं
और ये सब होता रहता है

यों, वो ज़रा सा लाल रंग
कहीं किसी और रंग में घुल गया है

हालाँकि तब से कहीं पहुँचने में मुझे कुछ देर हो जा रही है
*** 


नया
(प्रसिद्ध तबलावादक किशन महाराज की एक जुगलबंदी की याद)


एक गर्वीले औद्धत्य में
हाशिया बजेगा मुख्यधारा की तरह
लोग समझेंगे यही है केन्द्र शक्ति का सौन्दर्य का
केन्द्र मुँह देखेगा विनम्र होकर
कुछ का कुछ हो रहा है समझा जायेगा
कई पुरानी लीकें टूटेंगी इन क्षणों में
अनेक चीज़ों का विन्यास फिर से तय होगा
अब एक नई तमीज़ की ज़रूरत होगी

*** 

0 thoughts on “व्योमेश शुक्ल की कविताएँ”

  1. अपने समय के सभी ऋषियों को भयभीत करेंगे हम
    हमीं बनेंगे प्रतिनिधि सभी आसुरी प्रवृत्तियों के
    ‘पुरुष सिंह दोउ वीर’ जब भी आएँ, आएँ ज़रूर
    हम उनसे लडेंगे हार जाने के लिये, इस बात के विरोध में
    कि असुर अब हारते नहीं

    बहुत अच्छी कविताएं प्रस्तुत करने का शुक्रिया

  2. रमा (व्योमेश) भूत है। अक्षरों को पाल कर जिंदगी पर हुसकाता है फिर पकड़ लेता है। ईर्ष्या योग्य कवि।

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