Friday, October 31, 2008

प्रगतिशील वसुधा -78 से दो कवि - दिनकर कुमार और अजेय



मुझे लगा कि ब्लॉग पर पत्रिकाओं से अपनी पसंद छापने का एक क्रम शुरू करूं और इसके लिए प्रगतिशील वसुधा -78 में मुझे मेरी अपनी पसंद के हिसाब से दो बेहतरीन कविताएं मिलीं. इन्हें मैं यहाँ दे रहा हूं - कमला प्रसाद जी के प्रति आभार के साथ ....
***

दिनकर कुमार की कविता 


उत्सव की पूर्वसंध्या पर

उत्सव की पूर्वसंध्या पर मंहगाई बढ़ जाती है हमारे शहर में
रसोई गैस की किल्लत हो जाती है
छह सौ रूपए किलो बिकने लगती है इलीस मछली
उत्सव की पूर्वसंध्या पर
राजधानी छोड़कर चले जाते हैं शासक
तिरुपति बाला जी का दर्शन करने
किसी दूसरे प्रांत के फार्म हाउस में थकान मिटाने
उत्सव की पूर्वसंघ्या पर
रेल्वे स्टेशन के बाहर ग्रेनेड विस्फोट किया जाता है
समूचा मध्यवर्ग शराब की दुकान के सामने
कतार लगाकर खड़ा हो जाता है !
***

अजेय की कविता


आग के इलाक़े में आओ!
(चन्द्रकांत देवताले की कविताएं पढ़ने के बाद)

कब तक टालते रहोगे
एक दिन तुम्हें आना ही होगा
आग के इलाक़े में
जहां जल जाता है वह सब
जो तुमने ओढ़ रखा है
और जो नंगा हो जाने की जगह है
नहीं है जहां से बचकर निकलने का कोई चोर दरवाज़ा
तुम्हें आना चाहिए
स्वयं को परखने के लिए
बार-बार
आग के इलाक़े में

ज़रूरी नहीं
तपकर तुम्हें सोना ही होना है
सोंधी और खरी
बेशक भुरभुरी
मिट्टी होने के लिए भी तुम्हें आना चाहिए
जो हवा में उड़ जाती है
और हवा होने के लिए भी
जो भर सकती है तमाम सूनी जगहों को
जो पतली है पानी से भी
और पानी होने के लिए भी
ढोते हुए अपना पूरा वज़न जो
पहुंच सकता है आकाश तक
और आकाश होने के लिए भी
क्योंकि वही तो था आखिर
जब कुछ भी नहीं था

फिर सब कुछ हुआ जहां
और उस प्रचुरता को
भरपूर भोग लेने को उद्धत आतुर जीव भी हुए
और जीवों में श्रेष्ठतम तुम हुए आदमी
अपनी ही एक आग लिए हुए
भीतर

बोलो खो देना चाहते हो क्या वह आग?
अगर नहीं
तो वह आग होने के लिए
फिर से तुम्हें आना चाहिए
बार-बार आना चाहिए
आग के इलाक़े में !
*** 

Thursday, October 30, 2008

इक्कीसवीं सदी का छंदज्ञान यानी वीरेन डंगवाल की अलग तान !


एक ज़िद्दी धुन ने अपनी टिप्पणी में मुझे वीरेन दा की याद दिलाई और यहाँ मैं लाया हूँ उनकी दो कविताएँ, जिनमें से दूसरी की फरमाईश ज़िद्दी धुन ने की है ...... कवि की फोटू श्री नवीन सिंह बिष्ट ने खींची है - बगल में खाकसार भी बैठा था पर मैंने कबाब से हड्डी निकाल दी है ! रही बात पाठ की तो दोनों ही पाठ अकुलाहट में किए गए हैं ... जिसका भेद आवाज़ खोल देगी !

1- हमारा समाज



यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से

बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज़्जत हो, कुछ मान मिले, फल-फूल जायं
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जायें किसी तो न घबराएं
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछताएं

कुछ चिंताएं भी हों, हां कोई हरज नहीं
पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले-घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे खूब घने

पापड़-चटनी, आंचा-पांचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना सम्भव हो देख सकें इस धरती को
हो सके जहां तक, उतनी दुनिया घूम आयें

यह कौन नहीं चाहेगा?

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह कत्ल हो रहा सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन जो भोला-भाला है

किसने आखिर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है ?

मोटर सफेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है

कालेपन की वे संतानें
हैं बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रही
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है ?
***

2- आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे



आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठृराती
आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पायेंगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पायेंगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हंसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जायेंगे

मै। नहीं तसल्ली झूट-मूट की देता हूं
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आयें हैं जब चलकर इतने लाख वर्ष
इसके आगे भी चलकर ही जायेंगे

आयेंगे, उजले दिन ज़रूर आयेंगे
*** 

Tuesday, October 28, 2008

आयेंगे अच्छे दिन - दिवाली पर एक शुभेच्छा !


मित्रो !
मैं गोरख पांडे की दुनिया से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ ! लगता है कि उम्मीदें बची हैं अभी, हालाँकि वैसे लोग नहीं बचे अब ! आप सुनिए सालों पार से आती - ढाढस बंधाती ये लरज़ती आवाज़ -



जन संस्कृति मंच का एक बार फिर आभार !

Friday, October 24, 2008

पिता की बरसी पर - येहूदा आमीखाई


अपने पिता की बरसी पर
मैं गया
उनके साथियों को देखने
जो दफ़नाए गए थे उन्हीं के साथ एक क़तार में
यही थी
उनके जीवन की स्नातक कक्षा

मुझे याद हैं उनमें से अधिकतर के नाम
जैसे कि एक पिता को
अपने बच्चे को स्कूल लाते हुए याद रहते हैं
उसके दोस्तो के नाम

मेरे पिता
अब भी मुझसे प्यार करते हैं और मैं तो हमेशा ही करता हूं उनसे
इसीलिए मैं कभी नहीं रोता उनके लिए
लेकिन यहां
इस जगह का मान रखने की ख़ातिर ही सही
मैं ला चुका हूं थोड़ी-सी रुलाई अपनी आंखों में
एक नज़दीकी क़ब्र को देखकर

एक बच्चे की क़ब्र -
हमारा नन्हा योसी जब मरा
चार साल का था !

Monday, October 20, 2008

अधबना स्वर्ग - टॉमस ट्रांसट्रॉमर


विश्वकविता में अपना एक विशिष्ट स्थान रखने वाले स्वीडिश कवि टॉमस ट्रांसट्रॉमर का जन्म 15 अप्रैल 1931 को हुआ। उनका बचपन अपनी के मां के साथ एक श्रमिक बस्ती में बीता। एक विद्यार्थी के रूप में उन्होंने मनोविज्ञानी की उपाधि प्राप्त की और संगीत से भी उन्हें बेहद लगाव रहा। इन सब बातों का प्रभाव उनकी कविता पर पड़ा, जहाँ मौजूद भीतरी और बाहरी संसार पाठकों को बरबस ही अपनी ओर खींचता है। जल्द ही अशोक पांडे की इस्लाह के बाद मैं ट्रांसट्रॉमर की संगीत केंद्रित लम्बी कविता शुबेर्तियाना आपको पढ़वाऊंगा , फिलहाल यहां प्रस्तुत हैं उनकी एक कविता ....

हताशा और वेदना स्थगित कर देती हैं
अपने-अपने काम
गिद्ध स्थगित कर देते हैं
अपनी उड़ान

अधीर और उत्सुक रोशनी बह आती है बाहर
यहाँ तक कि प्रेत भी अपना काम छोड़
लेते हैं एक-एक जाम

हमारी बनाई तस्वीरें -
हिमयुगीन कार्यशालाओं के हमारे वे लाल बनैले पशु
देखते हैं
दिन के उजास को

यों हर चीज़ अपने आसपास देखना शुरू कर देती है
धूप में हम चलते हैं सैकड़ों बार

यहाँ हर आदमी एक अधखुला दरवाज़ा है
उसे
हरेक आदमी के लिए बने
हरेक कमरे तक ले जाता हुआ

हमारे नीचे है एक अन्तहीन मैदान
और पानी चमकता हुआ
पेड़ों के बीच से -

वह झील मानो एक खिड़की है
पृथ्वी के भीतर
देखने के वास्ते।

Saturday, October 18, 2008

सूचनाओं के संसार में


कुछ भी
पकड़ में नहीं आ रहा है

इधर घटनाओं को पकड़ नहीं पा रहा है
दिमाग़
हालांकि मिल रही हैं
उनके घटने की सूचनाएं भरपूर

दृश्यों को पकड़ नहीं पा रही है
आँख
कान आवाज़ को पकड़ नहीं पा रहे हैं
जीभ पकड़ नहीं पा रही है स्वाद

बहुत ऊंचे और सुन्दर हैं मकान
वन-उपवन पेड़ों से भरे
प्रकृति बहुत उदार

लेकिन धरती को पकड़ नहीं पा रहा है
बिना किसी सहारे
अधर में टंगा सूचनाओं का वितान

ढहने को हैं भव्यतम निर्माण

इधर कुछ भी पकड़ में नहीं आ रहा है

अपनी पूरी चमक-दमक के बावजूद
नमी और सीलन को
पकड़ नहीं पा रही है धूप

बहुत उथला और तात्कालिक है दुनिया का रूप

शब्द नहीं पकड़ पा रहे हैं
अर्थ को
तर्क को पकड़ नहीं पा रही है बात

समय तारीख़ों से बाहर है लोग समझ से

और हम बाहर हैं इस समूचे संसार से
जो लोगों से नहीं सूचनाओं से बना है

ग़ायब है हमारा चेहरा हर दृश्य से
हर तरफ़
हमारे न होने की सूचना है !
०००
2002

Friday, October 17, 2008

इन सबसे बनती है एक नृत्यलय - येहूदा आमीखाई

( ये पोस्ट अग्रज कवि कुमार अम्बुज के लिए बतौरे ख़ास ... )


जब आदमी उम्रदराज़ हो जाता है
तो उसका जीवन
मुक्त हो जाता है समय और मौसमों की लय से

अंधेरा
कभी-कभी सीधे नीचे गिरता है आलिंगन में बंधे दो जनों के बीच
और गर्मियां अपने अंत पर पहुंच जाती हैं प्रेम के दौरान ही
जबकि प्रेम शरद में भी जारी रहता है

एक आदमी गुज़र जाता है अचानक ही बोलते-बोलते
और उसके शब्द बाक़ी रह जाते हैं दूसरे छोर पर

या फिर एक ही बरसात होती है
जो गिरती है
विदा लेते और विदा करते, दोनों तरह के लोगों पर

एक ही विचार भटकता है
शहरों और गांवों और कई मुल्कों में
और उस आदमी के दिमाग़ के भीतर भी
जो सफ़र कर रहा होता है

यह सब मिलकर एक अजीब-सी नृत्यलय बनाते हैं
लेकिन मुझे नहीं मालूम कि इसे कौन बजाता है और कौन लोग हैं वे
जो इस पर नाचते हैं

कुछ समय पहले
मुझे बहुत पहले गुज़र चुकी एक नन्हीं लड़की के साथ अपनी एक पुरानी फोटो मिली
हम एक साथ बैठे थे
बच्चों की तरह आपस में चिपके हुए
एक दीवार के सामने जहां एक फलदार पेड़ भी था
उसका एक हाथ मेरे कंधे पर था और दूसरा आज़ाद -
जो अब मुझे मृत्यु से अपनी ओर आता दीखता है

और मैं जानता था कि मृतकों की उम्मीदबस उनका अतीत है
जिसे ईश्वर ले चुका है !
०००
अनुवाद : ख़ाकसार का

Wednesday, October 15, 2008

आशुतोष दुबे की कविताएं


आशुतोष दुबे की ये कविताएँ उनके संकलन "यकीन की आयतें" से ली गई हैं और इन्हें हमारे चित्रकार दोस्त श्री रविन्द्र व्यास ने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक उपलब्ध कराया है, अनुनाद इस सहयोग के लिए उनका आभारी है। आशुतोष जी ने कई तरह से एक बड़ी रेंज में अपना काव्य सामर्थ्य साबित किया है और उनका पहला संकलन "असंभव सारांश" भी पर्याप्त चर्चित रहा है। मुझे नहीं लगता की उनके रचनाकर्म के पक्ष में किसी बड़े वक्तव्य या सबूत की ज़रूरत है ! बस आप पढ़िये ये तीन कविताएँ और अपनी अनुभूति से अवगत भी कराइए हमें ...


संसार चलता है


उनकी
निराशा बहुत घनी होती है
सिर्फ
एक नम्बर से जीवन
जिनकी पकड़
से छूट जाता है

हताशा उनमें
इतना कोहरा भर देती है
कि आगे
का कुछ भी दिखना बंद हो जाता है
वे टटोलते
हुए आ जाते हैं खिड़की तक
और जीवन
से बाहर छलांग लगा देते हैं

इससे एक
छोटे से डर में
एक बहुत
बड़े डर का डूब जाना दिखता है

और वे
कई नम्बरों से पीछे होते हैं
नीचे होते
हैं जो किसी भी सूची में
चींटियों की
तरह दीवार पर चढ़ने की कोशिश में
बार-बार गिरते-उठते और फिर गिरते हैं

उनके बारे
में कोई नहीं जानता
कि अपनी
राख में से अगली बार
वे फिर
से साकार हो पाएंगे या नहीं

इससे एक
छोटी सी कोशिश में
एक विकट
उम्मीद का पता मिलता है

और संसार
चलता है
***

पुल

दो दिनों के बीच है
एक थरथराता पुल
रात का

दो रातों
के दरमियां है
एक धड़धड़ाता
पुल
दिन का

हम बहते हैं रात भर
और तब
कहीं आ लगते हैं
दिन के
पुल पर

चलते रहते हैं दिन भर
और तब
कहीं सुस्ताते हैं
रात के
पुल पर

वैसे देखें
तो
हम भी
एक झुलता हुआ पुल ही हैं
दिन और
रात जिस पर
दबे पांव
चलते हैं
***

कुछ हमेशा बीच में था

हम
एक दृश्य में दाखिल होना चाहते थे।

हम भीतर
जाना चाहते थे और भीतर जाने
की उत्कंठा
में अपने पूरे वेग से टकराते
हैं कांच
की उस दीवार से जो दृश्य के
और हमारे
बीच में थी जिसके बारे में
हम कुछ
नहीं जानते थे।

न जानना
भी एक अपराध है जो न दीवार
को साबुत
रहने देता है, न हमें।

दृश्य
अलबत्ता वैसा ही बना रहता है।

कांच टुकड़े सीढ़ियों पर झरने की तरह बहते हैं।

इसके बहुत बाद फर्श पर खून की कुछ बूंदें दिखाई देती हैं
जो हमारे
घावों पर टपकी हैं।

कांच की
दीवार के उस तरफ कोई चौंककर
सिर नहीं उठाता।

कोई दौड़ा-दौड़ा नहीं आता।
इतने शोर, इतने ध्वंस का दृश्य में कोई हस्तक्षेप
नहीं होता।

अपने कांच
के अदृश्य टुकड़ों की चिलक लिए
लौटते हैं हम।

हमारे घाव किसी को दिखाई नहीं देते।
*** 

हल

मित्रो अगस्त के महीने में कुछ दिन के लिए अपने पहाड़ गया तो कई बरस बाद "हल" देखने और छूने का मौका मिला। मौसम नहीं था तब भी एक छोटे सीढीदार खेत में उतर गया। कई बरस बाद बैलों से उनकी भाषा में बोलने का दिन एक बार फ़िर मेरे जीवन में आया। उस दिन की स्मृति में अपनी एक पुरानी कविता लगा रहा हूँ।






उसमें बैलों की ताक़त है और लोहे का पैनापन

एक जवान पेड़ की मज़बूती

किसी बढ़ई की कलाकार कुशलता
धौंकनी की तेज़ आंच में तपा लुहार का धीरज

इन सबसे बढ़कर परती को फोड़कर उर्वर बना देने की
उत्कट मानवीय इच्छा है उसमें

दिन भर की जोत के बाद
पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सटकर खड़ा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह लगता है

बस एक लम्बी छलाँग
और वह गायब हो जायेगा
मेरे अतीत में कहीं।
2004

Monday, October 13, 2008

नगर की एक मां भी हो, यह किसी ने नहीं सोचा - देवीप्रसाद मिश्र


नामवर जी के भारतभूषण कविता पुरस्कार के निर्णायक होने की एक अप्रतिम खोज हैं 1987 में पुरस्कृत मेरे प्रिय अग्रज कवि देवीप्रसाद मिश्र।

देवी भाई की कुछ लम्बी कविताएं पिछले दिनों आलोचना और पहल में देखी गई हैं, जिनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के आमजन का हाहाकर दर्ज है। लेकिन उन्हें जितनी तवज्जो की दरकार थी, वो नहीं मिली। सोचता हूं नहीं मिली तो क्या ? आलोक धन्वा के शब्दों में "मैं जानता हूं कुलीनता की हिंसा !" हिंदी में उपेक्षा की यह हिंसक राजनीति कितनी प्रभावी है, कहने की ज़रूरत नहीं। देवी भाई के नए रचनाकर्म पर कभी विस्तार से पोस्टियाऊगा ! फिलहाल यहां मैं जो लगाने जा रहा हूं, उससे पता लगता है कि लगभग 15 से 20 बरस पहले उन्होंने वर्तमान से जुड़े अपने एक विशिष्ट इतिहासबोध के साथ कविता की शुरूआत कैसे की थी !


वे शायद दिल्ली में रहते और फ्रीलांसिग करते हैं! मेरे लिए तो इतना जानना ही काफ़ी है कि वे अद्भुत कविताएं लिखते हैं और आज के समय की अजीब सामाजिक-आर्थिक-वैचारिक चुनौतियों के बीच मुझ जैसे नए कवि का उनकी कविताओं से एक रिश्ता बनता है - कोई चाहे तो इसे परम्परा भी कह सकता है !

ये कविताएँ उनके जिस संकलन से हैं , उसकी तस्वीर भी यहां लगा रहा हूं - दूसरे संकलन की कामना के साथ !


आपके गणतंत्र की एक स्त्री की प्रेमकथाएक स्त्री प्यार करना चाहती थी
लेकिन प्यार करने से चरित्र नष्ट होता है

स्त्री प्यार करना चाहती थी
किंतु चरित्र नहीं नष्ट करना चाहती थी

एक स्त्री इस तरह प्यार करना चाहती थी
कि प्यार बना रहे! चरित्र बना रहे!

स्त्री जितना प्यार के हाथों मजबूर थी
उतना ही चरित्र की जलवायु से परेशान

स्त्री इसलिए चरित्रवान होना चाहती थी
क्योंकि स्त्रियां चरित्रवान होती हैं
क्योंकि चरित्रवान होना स्त्री के लिए अनिवार्य है
क्योंकि गणतंत्र में स्त्री का काम ही क्या
सिवाय इसके कि स्त्री अपना चरित्र बनाये रखे

स्त्री स्त्री थी
स्त्री बार-बार भूल जाती थी
और प्यार कर बैठती थी

जी हां सामाजिको !
उसके बाद चरित्रवान होने की हाय हाय और
हाय हाय चरित्र की हाय हाय
नागरिको !
महानुभावो !
विचारको !
सिद्धान्तकारो !
नीतिकारो !
बौद्धिकों !
और साहित्यिको !

वह स्त्री जो मुझसे प्यार करती थी चरित्रवान होने के लिए
आपके गणतंत्र की ओर लौट रही है
आप उसे संभालें और उसे अपना भरपूर
वृद्ध, सिद्धहस्त, विदूषक और निर्वीय प्यार दें !
***


नगरवधू
नगर में एक नगरवधू थी

अंधेरा होते ही नगरप्रमुख आता था
नगरप्रमुख चला जाता था तो
नगरश्रेष्ठि आता था

जो भी आता था
मुंह छिपाकर आता था

जो भी जाता था
मुंह छिपाकर जाता था

नगर में एक नगरवधू थी

जैसे नगरप्रमुख था
जैसे नगरश्रेष्ठि था
वैसे ही वैसे ही
नगरवधू थी

एक शरीर कितने ही शरीरों में उपस्थित था
एक शरीर कितने ही शरीरों में सुगंधित था
एक शरीर कितनी ही मेधाओं में प्रविष्ट था

जिन्होंने नगरवधू को नहीं देखा था वे भी
नगरवधू के शरीर से परिचित होते जाते थे

एक शरीर से लथपथ था पूरा नगर
नगर की नागरिक संहिता
सिर्फ़ यहीं तक थी कि नगर में नगर प्रमुख हो
नगर में नगरश्रेष्ठि हो
नगर में एक नगरवधू हो

नगर की एक मां भी हो
यह किसी ने नहीं सोचा !

***

Sunday, October 12, 2008

शरद आने को है और मेरे माता-पिता की याद


कबाड़खाने से शुरू हुए येहूदा आमीखाई की कविताओं के क्रम को अनुनाद में भी जारी रख रहा हूं। आगे कुछ उनकी लम्बी `युद्ध श्रंखला´ से कुछ कविताएं एक साथ पोस्ट करूंगा, जिसे टाइप करने के लिए वक्त चाहिए - फिलहाल ये एक कविता ...

शरद आने को है आख़िरी फल पकता है
लोग चलते हैं उन सड़कों पर जिन पर वे पहले कभी नहीं चले
पुराना मक़ान शुरू कर देता है अपने किरायेदारों को माफ़ करना
उम्र के साथ गहरी रंगत वाले हो जाते हैं पेड़
और लोग सफ़ेद

बारिश आयेगी तो ताज़ी हो जायेगी ज़ंग की गंध
और रुचिकर भी
जैसे वसंत में फूलों के खिलने पर होती है

उत्तरी देशों में वे कहते हैं अधिकांश पत्तियां अभी तक पेड़ों पर हैं
और यहां हम कहते हैं
अभी तक लोगों के पास हैं उनके अधिकांश शब्द
हालांकि हमारे ये झुरमुट खो देते हैं दूसरी तमाम चीज़ें

शरद आने को है
मेरे लिए अपने माता-पिता को याद करने का वक्त
मैं उन्हें अपने बचपन के साधारण खिलौनों की तरह याद करता हूं -
"छोटे-छोटे घेरों में चक्कर लगाते, ख़मोशी से होंठ हिलाते
एक पांव उठाते, एक बांह फैलाते
धीरे-धीरे मानो एक लय में अपने सिर को इधर से उधर घुमाते
एक स्प्रिंग उनके पेट में और पीठ पर एक चाबी
और अचानक ऐसे ही वे जड़ हो जाते हैं
थम जाते हैं अपनी आख़िरी मुद्रा में हमेशा के लिए"

ऐसे मैं अपने माता-पिता को याद करता हूं
और ऐसे ही वे थे !

Friday, October 10, 2008

मोमबत्ती की रोशनी में कवितापाठ - वीरेन दा के साथ

बहुत काली थी रात
हवाएं बहुत तेज़

बहुत कम चीज़ें थीं हमारे पास
रोशनी बहुत थोड़ी-सी
थोड़ी-सी कविताएँ
और होश
उनसे भी थोड़ा

हम किसी चक्रवात में फंसकर
लौटे थे
देख आए थे
अपना टूटता-बिखरता जहान

हमारी आवाज़ में
कंपकंपी थी
हमारे हाथों में
और हमारे पूरे वजूद में

हम दे सकते थे
एक-दूसरे को थोड़ा-सा दिलासा
थपथपा सकते थे
एक-दूसरे की कांपती -थरथराती देह
पकड़ सकते थे
एक-दूसरे का हाथ

हम बहुत कायर थे
वीरेन दा
उस एक पल
और बहुत बहादुर भी
मैं थोड़ा जवान था
तुम थोड़े बूढ़े

हमारी काली रात में गड्ड - मड्ड हो गयी थी
आलोक धन्वा की सफे़द रात
वो पागल कवि लाजवाब
गड्ड - मड्ड हो गया था
थोड़ा तुममें
थोड़ा मुझमें

अक्सर ही आती है यह रात
हमारे जीवन में
पर हम साथ नहीं होते या फिर होते हैं
किसी दूसरे के साथ

सचमुच
क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन
और न ही वह बनता है
महानताओं से
पर कभी-कभी क्षुद्रताओं से बनती है महानता

और महानताओं से
अकसर ही कोई न कोई क्षुद्रता
० ० ०
२००६ में "विपाशा" के कवितांक में प्रकाशित ....

Thursday, October 9, 2008

व्योमेश शुक्ल की कविताएँ


व्योमेश की कविताएं अपनी तरह से समकालीन कविता में एक नए युग की शुरूआत का विनम्र घोषणा-पत्र हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि व्योमेश बहुत जल्दी प्रसिद्ध हो गया है, लेकिन उसकी कविताओं को ध्यान से पढ़ें तो पता लगता कि उनके पीछे कितनी लम्बी वैचारिक तैयारी और एक सधी हुई सहज कुशलता है, जिसमें कला कम और मेहनतकश कारीगरी अधिक है। अभी व्योमेश के बारे में कुछ बड़ा लिखना अतिरेक होगा और उसकी प्रतिभा के साथ अन्याय भी ! उस पर अभी विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल और असद ज़ैदी के असर के बीच से एक नितान्त मौलिक राह तलाशने का दायित्व भी है। उसके संकलन की प्रतीक्षा तो मेरे भीतर कहीं बहुत दिनों से शुरू हो चुकी है और मैं कामना करता हूं कि उसके बारे में लिखने का समय भी जल्द ही आए। जब ये समय आएगा तो उस पर लिखने वालों की भीड़ में एक खुरदुरा-सा नाम मेरा भी ज़रूर होगा! यहां प्रस्तुत कविताएं गिरिराज किराडू जी की ई-पत्रिका(http://pratilipi.in/) से साभार ली जा रही हैं, जिसमें कवि की अनुमति भी शामिल है।
***


किशोर

कहने को यही था कि किशोर अब गुब्बारे में चला गया है लेकिन
वहाँ रहना मुश्किल है दुनिया से बचते हुए
खाने नहाने सोने प्यार करने को
दुनिया में लौटना होता है किशोर को भी

यदि कोई बनाये तो किशोर का चित्र सिर्फ काले रंग से बनेगा
वह बाक़ी रंग गुब्बारे में अब रख आता है
वहीं करेगा आइंदा मेकप अपने हैमलेट होरी घासीराम का
यहाँ बड़ी ग़रीबी है कम्पनी के पर्दे मैले और घायल हैं
हनुमान दिन में कोचिंग सेंटर रात में भाँग की दुकान चलाता है
होरी फिर से कर्ज़ में है
और इस बार उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए
कुछ अप्रासंगिक पुराने असफल चेहरे बिना पूछे बताते हैं कि होरी का पार्ट
एक अर्सा पहले, किशोर ही अदा करता था या कोई और करता था
इस बीच एक दिन वह मुझसे कुछ कह रहा था या पैसे माँग रहा था
असफल लोगों को याद है या याद नहीं है
मुझसे किशोर ने कुछ कहा था या नहीं कहा था
विपत्ति है थियेटर घर फूँककर तमाशा देखना पड़ता है

दर्शक आते हैं या नहीं आते
नहीं आते हैं या नहीं आते

भारतेंदु के मंच पर आग लग गई है लोग बदहवास होकर अंग्रेजी में भाग रहे हैं
किशोर देखता हुआ यह सब अपने मुँह के चित्र में खैनी जमाता है ग़ायब हो जाता है
शाहख़र्च रहा शुरू से अब साँस ख़र्च करता है गुब्बारे फुलाता है
सुरीला था किशोर राग भर देता है गुब्बारों के खेल में बच्चे
यमन अहीर भैरव तिलक कामोद उड़ाते हैं अपने हिस्से के खेल में
बहुत ज्यादा समय में बहुत थोड़ा किशोर है
साँस लेने की आदत में बचा हुआ
गाता

***

दीवार पर

गोल, तिर्यक, बहकी हुईं
सभी संभव दिशाओं और कोणों में जाती हुईं
या वहाँ से लौटती हुईं
बचपन की शरारतों के नाभिक से निकली आकृतियाँ

दीवार पर लिखते हुए शरीफ बच्चे भी शैतान हो जाते हैं

थोड़े सयाने बच्चों की अभिव्यक्ति में शामिल वाक्य
जैसे ‘रमा भूत है’, इत्यादि
हल्दी, चाय और बीते हुए मंगल कार्यों के निशान
कदम-कदम पर गहरे अमूर्तन
जहाँ एक जंगली जानवर दौड़ रहा है
दूसरा चीख रहा तीसरा लेटा हुआ है
असंबद्ध विन्यास

एक बिल्कुल सफेद दीवार का सियापा
इस रंगी पुती दीवार के कोलाहल में मौजूद है
ग्रीस, मोबिल, कोलतार और कुछ ऐसे ही संदिग्ध दाग़
जिनके उत्स जिनके कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता
बलगम पसीना पेशाब टट्टी वीर्य और पान की पीक के चिह्न
चूने का चप्पड़ छूटा है काई हरी से काली हो रही है

इसी दीवार के साये में बैठा हुआ था एक आरामतलब कवि
यहीं बैठकर उसने लिखा था
कि कोई कवि किसी दीवार के साये में बैठा हुआ होगा

***

पक्षधरता
हम बारह राक्षस
कृतसंकल्प यज्ञ ध्यान और प्रार्थनाओं के ध्वंस के लिये
अपने समय के सभी ऋषियों को भयभीत करेंगे हम
हमीं बनेंगे प्रतिनिधि सभी आसुरी प्रवृत्तियों के
‘पुरुष सिंह दोउ वीर’ जब भी आएँ, आएँ ज़रूर
हम उनसे लडेंगे हार जाने के लिये, इस बात के विरोध में
कि असुर अब हारते नहीं
कूदेंगे उछलेंगे फिर-फिर एकनिष्ठ लय में
जीतने के लिये नहीं, जीतने की आशंका भर पैदा करने के लिये
सत्य के तीर आएँ हमारे सीने प्रस्तुत हैं
जानते हैं हम विद्वान कहेंगे यह ठीक नहीं
‘सुरों-असुरों का विभाजन
अब एक जटिल सवाल है’

नहीं सुनेंगे ऐसी बातें
ख़ुद मरकर न्याय के पक्ष में
हम ज़बर्दस्त सरलीकरण करेंगे

***


कुछ देर

तुम्हारी दाहिनी भौं से ज़रा ऊपर
जैसे किसी चोट का लाल निशान था
तुम सो रही थी
और वो निशान ख़ुद से जुडे सभी सवालों के साथ
मेरी नींद में
मेरे जागरण की नींद में
चला आया है
इसे तकलीफ या ऐसा ही कुछ कह पाने से पहले
रोज़ की तरह
सुबह हो जाती है

सुबह हुई तो वह निशान वहाँ नहीं था
वह वहाँ था जहाँ उसे होना था
लोगों ने बताया: तुम्हारे दाहिने हाथ में काले रंग की जो चूड़ी है
उसी का दाग रहा होगा
या कहीं ठोकर लग गई हो हल्की
या मच्छर ने काट लिया हो
और ऐसे दागों का क्या है; हैं, हैं, नहीं हैं, नहीं हैं
और ये सब होता रहता है

यों, वो ज़रा सा लाल रंग
कहीं किसी और रंग में घुल गया है

हालाँकि तब से कहीं पहुँचने में मुझे कुछ देर हो जा रही है

*** 


नया
(प्रसिद्ध तबलावादक किशन महाराज की एक जुगलबंदी की याद)


एक गर्वीले औद्धत्य में
हाशिया बजेगा मुख्यधारा की तरह
लोग समझेंगे यही है केन्द्र शक्ति का सौन्दर्य का
केन्द्र मुँह देखेगा विनम्र होकर
कुछ का कुछ हो रहा है समझा जायेगा
कई पुरानी लीकें टूटेंगी इन क्षणों में
अनेक चीज़ों का विन्यास फिर से तय होगा
अब एक नई तमीज़ की ज़रूरत होगी

*** 

Tuesday, October 7, 2008

शरदस्य प्रथम दिवसे


बहुत दूर कुछ शिखर दिखते थे कमरे की खिड़की से बाहर
उनसे बहुत पहले एक तिरछी घाटी
उससे पहले कुछ मकान
बिजली के कुछ तार जाते हुए यहाँ से वहाँ
आपस में उलझी कपड़े टांगने की रस्सियाँ
कुछ लोग
आपस में बतियाते हुए
और उनसे भी पहले
बाहर देखते ही दिख जाती थीं सलाखें
उस खिड़की की
जिसे में सुबह सबसे पहले खोलता था
बन्द करता था रात
सबसे बाद !

मुझे कोई संवाद नहीं दिया गया था
मुझे हिलना भी नहीं था अपनी जगह से

दरअसल मुझे कुछ भी नहीं करना था उस खूबसूरत दृश्य में
जो सिर्फ़ मेरी तरफ़ से दिखता था।

मैं कई दिनों से
कहीं जाने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे पाँव हिलते न थे

मैं कई दिनों से
कुछ चीज़ों की तरतीब देने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे हाथ उठते न थे

मैं कई दिनों से
कुछ बोलने के बारे में सोच रहा था
बल्कि मैं तो बोल भी रहा था

पर मेरे शब्दों में आवाज़ न थी।

मैं बहुत साहसी होना चाहता था
और बहुत धीर भी

मैं उदार भी होना चाहता था
और बहुत गम्भीर भी

मैं ज़्यादा होना चाहता था
और कम भी

मैं ``मैं´´ भी होना चाहता था
और ``हम´´ भी।

शायद ऐसे ही ख़त्म हो जाता है सफ़र
हर बार

बहुत घने
भाप भरे जंगल पुकारते हैं हमें

पेड़ों के तने
बहुत चिकने कुछ खुरदुरे भी


पतझर में साथ छोड़ जाने वाली
चतुर-चपल पत्तियां


लम्बी लचीली डगालें

मिट्टी की बहुत पतली चादर तले
रह-रहकर
करवट बदलती है ज़िन्दगी

अख़ीर में
ऐसी ही किसी जगह हमें लाता है प्रेम

हम जहाँ से कहीं नहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।

(ये कविता जैसा कुछ २००३ में रानीखेत में रहते हुए लिखा गया था)

Saturday, October 4, 2008

तसला


वह मुझे धरती की तरह लगता है
जिसे उठाए
इतने सधे कदमों से चढ़ती-चली जाती हैं बांस के टट्टरों पर
कुछ सांवली और उदास औरतें

उसमें क्या नहीं समा जाता?

एक बार तो अपने दुधमुहें बच्चे को ही
उसमें लिटाए
चली जा रही थी एक ऐसी ही औरत
तब वह उसके हृदय की तरह था

अच्छे से माँज - धोकर आटा भी गूंधा जा सकता है
उसमें
उसी को उल्टा धर आग पर सेंकी जा सकती हैं रोटियां
यह मैंने कल शाम देखा

उसमें औज़ारों की-सी चमक नहीं होती
कोई धार
कोई भारीपन नहीं

बहुत विनम्र होता है वह
औज़ारों में कभी गिना ही नहीं जाता
जबकि उसी पर लदकर आती हैं इमारतें
जब वे खालिस ईंट-गारा होती हैं

उन्हें ढोने वाली औरतें उन्हें ढोती रहती हैं अविराम
चढ़ती जाती है ईंट पर ईंट
गारा भर-भर के उन्हें जोड़ना जारी रहता है
तब तसला
तसला नहीं रहता
एक पक्षी में बदल जाता है
एक काले और भारी पक्षी में
जिसे हम सिरों के ऊपर उड़ता हुआ देखते हैं

कभी अपनी कोई अधूरी इच्छा
ऐसे ही किसी तसले में रखकर देखिए
जैसे वे औरतें रखती हैं अपना बच्चा
या जैसे गूंधा हुआ आटा रख दिया जाता है
या फिर
सुलगा ली जाती है जाड़ों की रात में कोई आग
उसी में धरकर

वो बच्चा एक दिन बड़ा हो जायेगा
मेहनतकश बनेगा
अपने माँ -बाप की तरह
उस आटे की भी रोटियां सिंक जायेंगी
और उस बच्चे का पेट भरेंगी

और वह आग
वह तो तसले में ही नहीं
उस और उस जैसे कई बच्चों के
दिलों में जलेगी

जानना चाहते हैं
तो देखिए-
उस आग की रोशनी में देखिए
क्या आपकी इच्छाएं भी
कभी फलेगी?
० ० ०
'वसुधा' और 'विपाशा' में प्रकाशित

Friday, October 3, 2008

जेब काटने वाली औरत

मुझे बहुत हैरानी हुई यह जानकर कि वह एक औरत थी
जिसने दस दिन पहले मेरी जेब काटी थी
बस अड्डे पर रोडवेज़ की एक पुरानी जर्जर बस में

थाने से एक सिपाही ख़बर लाया
और साथ में मेरा ख़ाली बटुआ भी
जो भीतर की परतों में
मेरे पहचान-पत्र के बचे रहने से पहचाना गया

कैसी होगी वह औरत जो जेब काटती है
सोचा मैंने
मुझे इसमें भी सदैव सेवा को तत्पर पुलिस की
कोई शरारत लगी

पता नहीं किस फेर में
मैं थाने चला गया उस औरत को देखने
मेरी कल्पना को ध्वस्त करती
वह एक ख़ामोश लेकिन तेज़-तर्रार औरत थी
तीस-पैंतीस बरस की
सलीके का सलवार-कुर्ता पहने

उसे किसी बात का कोई भय नहीं था

पुलिस वाले
बार-बार रंडी कहकर पुकारते थे उसे
और वह निर्विकार ताकती थी थानाध्यक्ष के पीछे लगी
अब तक साबुत बची
गांधी जी की लाठीधारी एक पुरानी तस्वीर को

उसके पास ऐसे बीस-पचीस बटुए निकले थे
साहब के कृपापात्र
तेज़ी-से अंदर-बाहर जाते एक अत्यंत गतिशील हवलदार ने
बतलाया मुझको

मुझे दिखाई दिए वे दृश्य बसों के
जहाँ मजबूरी में लोलुप पुरुषों के बगलवाली सीट पर
बैठ जाने की इजाज़त मांगती
और बैठ जाने के बाद लगातार कसमसाती रहती थीं
कुछ औरतें

यह भी उन्हीं में से होगी
शायद
अपनी ज़िन्दगी की लगातार विवशता में जगह-जगह भटकते
इसने खुद ही ईजाद किया होगा
ऐसे हालात में उन कामी पुरुषों और अपनी वंचित दुनिया को
अनायास ही जोड़ देने वाला
यह विचित्र और कारगर तरीका

मुझे याद आती हैं
घरों में पति की जेब से पैसे निकालती वे औरतें
जिनके पास
किसी एक जेब की विशिष्ट सुविधा है

यह भले ही मज़ाक लगे
पर उस एक जेब से ही तो चलता है संसार
उस औरत का
पूरी होती हैं ज़रूरतें उसकी और बच्चों की
हमारे औसत भारतीय समाज में
उसी के वज़न से तो मापी जाती है हैसियत
उसके आदमी की

इतने सारे लोगों की जेब काटती उस औरत को देख
बहुत अंदर कहीं महसूस हुआ मुझे
क्या सचमुच इतनी जेबविहीन है उसकी ज़िन्दगी

दुनिया में कहीं कोई जेब नहीं क्या
जिसमें वो झाँक सके
निस्संकोच बिना अपराधी बने

मुझे नहीं मालूम उसका क्या हुआ

सिगरेट के गाढ़े धुंए के पीछे से अनवरत देखते
थानाध्यक्ष के अर्धनिमीलित नेत्रों ने
उसके बारे में आख़िर क्या फैसला लिया?

मुझे नहीं पता
मैं तो बस देख सका था
पुलिस की गालियों और अंदरूनी जांच - पड़ताल के
आसन्न संकट से बेपरवाह उस औरत को
जो अपने किए पर कतई शर्मिन्दा नहीं थी

मुझे लगता था बेआवाज़
भीतर ही कहीं बदल रहा था हमारा संसार
हर दिन कुछ और क्रूर होता हुआ

या फिर
अपने पतियों की जेब टटोलने की सुविधा से लैस
औरतों की दुनिया में
चुक गई थीं
उसकी ही सारी संभावनाएं
और वंचना की सबसे करुण कथा को कहती
जेब काटते हुए भी
जैसे वह ज़िन्दा ही नहीं थी

क्या वाक़ई
वह अपने किए पर कतई
शर्मिन्दा नहीं थी?

० ० ०
वसुधा में २००६ में प्रकाशित

Wednesday, October 1, 2008

जड़ी-बूटियों का गीत


ये छोटी सी कविता २००६ में आउटलुक में छपी थी और उस समय कुछ दोस्तों ने इसे पसंद भी किया था ! अब ये एक बार फ़िर आपके सामने है !






पत्ती-पत्ती देखो हमें डगर-डगर छानो
तय नहीं है हमारा मिलना

हम बहुत छुपी हुई चीज़ें हैं

हम जो ताक़त हैं यौवन हैं
तथाकथित अक्षुण्ण आरोग्य का धन हैं

जंगलों-पहाड़ों में नहीं है अब हमारा डेरा

इस तेज़ी से सिमटती दुनिया में कोई शातिर उस्ताद ही
पा सकता है हमें

कोई
प्रशिक्षित मल्टीनेशनल लुटेरा !

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