
बहुत भीड़ भरी सड़क पर
खड़खड़ाती साइकिल के कैरियर से बंधा
वह आ रहा था चुपचाप
एक काला-सफ़ेद टी. वी.
नौंवे दशक की भारतीय आधुनिकता के ज़माने से निकल कर
इक्कीसवीं सदी की चौखट पार के इस युग में
जिसे कुछेक बेहद जानकार जन
उत्तरोत्तर आधुनिकता कहते हैं
मैं देख सकता था सुधरने आ रहा था वह
कई सारे गांवों को अपनी परिधि पर धारे एक इतने बड़े
रंगीनियों से बजबजाते शहर में
जहां पैसे के अलावा
और कुछ भी काला-सफ़ेद नहीं था
हस्बे-मामूल मुझे सोचना ही था उस घर के बारे में
जहां से वह आया था
जो ले आया था उसे थके क़दम चलता वह शायद
उसका मालिक ही था
और कितने लोग होंगे वहां
उनमें से कुछ तो इसे देखते ही जवान हुए होंगे
कुछ बच्चे होंगे सुबह उठकर बासी रोटी मांगते
कुछ किशोर अपने समकालीन अपराधी समय में
गहरे धंस जाने के बारे में सोचते हुए
काम में खटी कुछ बेवक़्त बूढ़ी स्त्रियां
कुछ होंगी लड़कियां भी
यों भले लोगों के घर वे होती ही हैं
आने वाली बोझिल दुनिया से
बाख़बर
इस बुद्धू बक्से मे दीखती काली-सफ़ेद दुनिया
फिर भी लुभाती होगी उन्हें
जगाती होगी कुछ सपने
उनके भीतर भी मरोड़ कर उठता होगा वैभव उस लोक का
जिसमें वे कभी नहीं बसेंगी
उनके हिस्से में तो होगी वही अधकपारी
अलसुब्ह उठ कर
रात के छूटे बरतन मांजते समय की
और जो कभी न हो सकेगा अपना
एक हूक
उसकी भी
इस प्राचीन काले-सफे़द टी. वी. से निकल कर आ सकता है
एक समूचा सोप-ओपेरा परदे के बाहर के जीवन का
फ़िलहाल तो सुधरने जा रहा यह लौट भी सकेगा वापस
इसका मुझे विश्वास नहीं
सुधारने वाला भी पहले तो हंसेगा एक विद्रूप हंसी
और फिर
दो-चार सौ में बेच देने की सलाह देगा
एक दिन इसी साइकिल पर जाता दिखे शायद किस्तों पर लिया कोई
रंगीन टी. वी.
कौन है जो बदल देता है चीज़ों को और लोगों को भी
समय ?
विचार ?
या फिर बाज़ार ?
गो एक विचार ही तो है वह भी !
कहना चाहता हूं मैं
कि यह किसी इतिहास का अन्त नहीं
और न ही किसी समाज का
समय में बहुत आगे कहीं किसी मोड़ पर
कभी न कभी
बताएगा कोई
कि यह किसी कविता का भी अन्त नहीं
दरअसल
शुरूआत है किसी दूसरी समयावधि में
जीवन की चिर-उलझी उसी
पेचीदा गुत्थी की
ज़रूरी हैं जिसके लिए इतने विशेषण
और अमर है कविता
जिसकी बदौलत
भीतर ही भीतर धुंआती
और सुलगती !
000
2007
कहना चाहता हूं मैं
ReplyDeleteकि यह किसी इतिहास का अन्त नहीं
और न ही किसी समाज का
समय में बहुत आगे कहीं किसी मोड़ पर
कभी न कभी
बताएगा कोई
कि यह किसी कविता का भी अन्त नहीं.
adbhut panktiyan. badhaai.
कमाल है भाई ... शिरीष साहब ... आज का दिन इस रचना के नाम.
ReplyDeleteबहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.
ReplyDeleteKavita to achhi hai hi par T.V. aur bhi achha laga.....
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