Sunday, September 21, 2008

हम जिन्हें भूल रहे हैं....गिरधर राठी की कविताएं


1 अगस्त 1944 को पिपरिया, म0प्र0 में जन्मे गिरधर राठी अस्सी के दशक में हिंदी के सम्मानित कवि माने जाते रहे हैं। उनके आलोचक भी कम नहीं थे, पर उनका होना भी राठी के अस्तित्व का पुख़्ता प्रमाण था। उन्होंने काफ़ी अनुवाद भी किया, जिसमें हिंदी से अंग्रेज़ी अनुवाद भी शामिल है। चीन यात्रा पर उनका सुंदर गद्य भी मुझे याद आ रहा है। शानी के बाद गिरधर राठी ने कई साल साहित्य अकादमी की पत्रिका `समकालीन हिंदी साहित्य´ का सफल सम्पादन किया। सम्पादक रहते भी उनकी लोकप्रियता बरकरार रही, लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद वे धीरे-धीरे साहित्य से अनुपस्थित रहने लगे। मैं यहां महज उनकी अनुपस्थिति का उल्लेख कर रहा हूं, उसके कारणों की तलाश नहीं। प्रसंगवश बता दूं कि गिरधर राठी का और मेरा गृहनगर एक ही है, पर हमारा कभी कोई सम्पर्क आपस में नहीं रहा है। यहां तक कि हर उम्र में वे मेरे पसन्दीदा तीन-चार कवियों में भी कभी शामिल नहीं रहे, लेकिन कुछ बात है कि उनकी कविताएं याद आती हैं। इसी याद और सम्मान के साथ फिलहाल प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं।


अनुनाद उनके हमेशा रचनात्मक-सृजनात्मक होने-रहने की कामना करता है!
***

उखड़ी हुई नींद
सच वह कम न था
नींद उखड़ी जिससे
न ही यह कम है -
उखड़ी हुई नींद
जो अब सपना नहीं बुन सकती

अंधेरे में
या रोशनी जलाकर
जो भी अहसास है
सच वह भी कम नहीं है

पर नींद वह क्या नींद
जो बुन न सके सपने !
कैसी वह भाषा
जो कह न सके -
देखो !
*** 


ठोसलैंड की सैर
कुछ ठोस मुद्दों पर कुछ ठोस रोशनी गिरी
हवाई सवालों को
हवाई जवाब ले उड़े

काल्पनिक सिर
अब ठोस हाथों में था

कुछ ठोस `निचुड़ा´

ठोस चीज़ों पर ठोस
सोचना था

ग़नीमत थी कि हवा अनहद ठोस नहीं थी
और हम सब जो थे सांस ले सकते थे
आंख को भी थोड़ी राहत थी-
ठोस रही, इधर-उधर घूम सकी।

भूख क़तई ठोस थी
उस पर दिल्लगी बुरी होती
हल्की-फुल्की दिल्लगी खासकर बुरी

वह ठोस खाती रही
मछली की मछली को आदमी की आदमी को
आदमी की भूख मछली और आदमी दोनों को

सिलसिला कुछ इतना ठोस
कि पूरे प्रवास में
कुछ और न हो पाता

मगर ठोस पेट ने ठोस `ना´ कर दी

सैर यह अलहदा थी
फिर भी अवशेष थे

प्रस्ताव - ठोस - आया ।

ठोस किस्म का ठोस प्रस्ताव था
ठोस प्रेम करना था, करना भी ठोस
ठोस वह लड़की, ठोस ही लड़का

प्रिय ठोस पाठक,
आंखों को सांसों को राहत थी
मगर शब्द -
वे इतने ठोस थे
कि ठोस कान के परदे
कुछ ठोस टुकड़ों में बिखर गए।

सनद रहे!
हम नहीं लौटे
लौटना ठोस अगर होगा
तो लौटेंगे।
***


कायाकल्प

फिर क्या हो जाता है
कि क्लास-रूम बन जाता है काफ़ी-हाउस
घर मछली बाज़ार?

कोई नहीं सुनता किसी की
मगर खुश-खुश
फेंकते रहते हैं मुस्कानें
चुप्पी पर,
या फिर जड़ देते नग़ीने !

करिश्मे अजीबोग़रीब -
और किसी का हाथ नज़र भी नहीं आता -
पहलू बदलते ही
जार्ज पंचम हो जाते हैं जवाहर लाल !
***


उनींदे की लोरी
सांप सुनें अपनी फुफकार और सो जाएं
चींटियां बसा लें घर बार और सो जाएं
गुरखे कर जाएं ख़बरदार और सो जाएं

*** 

5 comments:

  1. सांप सुनें अपनी फुफकार और सो जाएं
    चींटियां बसा लें घर बार और सो जाएं
    गुरखे कर जाएं ख़बरदार और सो जाएं


    --वाह!! क्या बात है..आभार राठी जी की रचनाऐं पढ़वाने का.

    ReplyDelete
  2. सांप सुनें अपनी फुफकार और सो जाएं
    चींटियां बसा लें घर बार और सो जाएं
    गुरखे कर जाएं ख़बरदार और सो जाएं


    --वाह!! क्या बात है..आभार राठी जी की रचनाऐं पढ़वाने का.

    ReplyDelete
  3. उनिंदे की लोरी पर कवि राजेश सकलानी ने एक टिप्पणी लिखी थी, जिसे यहां देखा जा सकता है-
    http://likhoyahanvahan.blogspot.com/2008/03/blog-post_13.html

    ReplyDelete
  4. विजय भाई, राजेश सकलानी जी की जिस टिप्पणी का उल्लेख कर रहे हैं, उसे मै पाठकों के लिए नीचे कॉपी कर रहा हूं - लिखो यहां-वहां से साभार !
    000
    पृथ्वी पर सबके लिए सुकून चाहने की इच्छा रखने की ऐअसी कविता शायद अन्य कहीं सम्भव हो। नींद यहाँ एक भरी पुरी आत्मीय दुनिया बनाटी हे। ध्वनी की दृष्टि से अनुस्वार की आवृति कविता को प्यारी रचना बनाटी he.

    ReplyDelete
  5. उनिंदे की लोरी sangrah mein bahut achhi kavitayen hain. Raathi ji se hi mili thee mujhe ye kitaab. achhi kavitayen padhvaate rahane ke liye shukriya

    ReplyDelete

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