Saturday, September 6, 2008

एक प्रागैतिहासिक कविता - भीमबेटका के भित्ति-चित्रों को देखकर



पसीने की
एक आदिम गंध आती है
मुझसे
एक पाषाणकालीन गुफा में
खुदा मिलता है
मेरा चेहरा

हज़ारों साल पुराने
कैल्शियम और फास्फोरस का
संग्रहालय बन जाती हैं
मेरी अस्थियां
भाषा के कुछ आदिम संकेत
मेरे रक्त तैरते

हज़ारों साल पुरना
एक बनैला पशु पीछा करता है मेरा

मैं शिकार को जाता हूं
और लाता हूं ढेर-सा गोश्त
जिसका स्वाद
मेरी स्मृतियों में बस जाता है

मैं उकेरता हूं
भित्तियों पर जीवन
अंकित हो जाता हूं मैं
अपने समय के साथ हमेशा के लिए
इन पत्थरों पर

हज़ारों साल बाद
मुझको होता है विस्मय
अरे, यह मैं हूं !
और मेरे रंग हैं यह
यह मेरा इतिहास
अपने ही हाथों
कभी मैंने लिखा था
इसको !

लेखन-तिथि : 24 फरवरी 1997

6 comments:

  1. पुराने मीटखोर गुफानिवासी की यह अच्छी कविता पहले भी पढ़ी थी, आज फिर वही आनन्द आया.

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  2. वाह!! शिरीष भाई-बहुत उम्दा कविता का रसपान करवाने के लिए आभार.

    ---------------------

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    -समीर लाल
    -उड़न तश्तरी

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  3. अशोक दा जानता है कि मेरे अतीत और वर्तमान में कितना कम अंतर है।

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  4. शिरीष ,
    मैं भीमबेटका गया हूं भगवत रावत की लंबी कविता 'भीमबेटका' के जरिए आज एक बार इस कविता के जरिए पहुचा.आखिर वहीं तो है अपनी पहचान शिला पर उकेरी-सबकी एक -सी एक जैसी किंतु गुफ़ा से बाहर निकलते ही हमने तेरी-मेरी शुरू कर दी.

    बहुत बढ़िया!

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  5. sunder kavita , peechhe lautna kitna achcha Lagta hai ?

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  6. प्यारे शिरीष,
    बहुत दिनों बाद कबाड़खाने के जरिये तुमसे मुखातिब हूं। पहले तो बेहद अच्छी कविता के लिए बधाई...यूं ही लिखते रहो...तुम्हें पढ़ता रहता हूं... लगातार विकसित होते देख रहा हूं। पर पता नहीं किस उदास घाटी में गिरा पड़ा था चुप साधे...पर अब बोलूंगा..खुलकर।
    तुम्हारे चेहरे पर वही पुराना मासूम भाव देखकर अच्छा लगा..जहूर भाई को मेरा सलाम कहना।

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