Tuesday, September 30, 2008

बेटे के साथ दुनिया

(दो बरस पहले लिखी और वागर्थ में छपी ये कविता मेरी निजी ज़िन्दगी से ताल्लुक रखती है और मुझे अपने पास खींचती है ! कविता जिन महाशय पर है, उनकी फोटू नीचे है ! )


उसे आए अभी पाँच ही बरस हुए हैं
और हम दोनों को बत्तीस
लेकिन हम उतनी नहीं दिखा पाते दुनिया उसे
अकसर वही उठाता है ऊँगली
किसी भी परिचित या अनजान चीज़ की तरफ

कुछ ही समय पहले वह खड़ा हुआ था धरती पर
पहली बार
उसे बेहद कोमल
और जीवन्त चीज़ की तरह इस्तेमाल करता हुआ
डगमगाते चलते थे उसके पाँव
जिन्हें अब वह जमा चुका

हमारी भाषा सीखने से पहले
उसने न जाने कितनी भाषाएँ बोली
हमें कुछ न समझता देख
खीझ कर अकसर ही हाथ-पांवों से समझायी
अपनी बात

वह रोया खूब चीख-चीखकर
और हँसा दुनिया की सबसे बेदाग हँसी
उसे चोट लगी तो दुनिया थम गई
पहली बार स्कूल गया तो हमने किया उसके लौटने तक
जीवन का सबसे लम्बा इन्तज़ार

बिस्तर पर उसे अपने बीच सोता देख पत्नी ने कहा
कई-कई बार - देखो तो
दरअसल हमने किया कितना ख़ूबसूरत प्यार!

हम सोच ही नहीं पाते
कि हम कभी उसके बिना भी थे इस विपुला पृथिवी पर
उसी के साथ तो हमारी दुनिया ने आकार लिया

उसके लिए बेहद जोश से भरे ये दिल
काँपते भी हैं कभी-कभी
आने वाली दुनिया में उसके किन्हीं अनजान
मुश्किल दिनों के बारे में सोचकर

हम शायद कभी रचकर नहीं दे सकेंगे उसे
दुनिया अपने हिसाब की
निरापद और सुकून से भरी
अपने सफ़र तो वही तय करेगा और एक दिन हमारे बाद
अपने साथ
बेहद चुपचाप
हमारी भी दुनिया रचेगा

फ़िलहाल तो बैठा दिखाई देता है
बिलानागा
पिता की पसन्दीदा कुर्सी पर
कुछ गुनगुनाता

घर के उस इकलौते तानाशाह को
अपदस्थ करता हुआ !
०००
२००६

Sunday, September 28, 2008

मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग - मुक्तिबोध को याद करते हुए

( अप्रैल २००७ में मुझ पर एक आफ़त आई और मैंने बदहवासी की हालत में ख़ुद को एम० आर० आई० मशीन में पाया। उस जलती - बुझती सुरंग में मेरे अचेतन जैसे मन में कई ख़याल आते रहे। उन्हें मैंने थोड़ा ठीक होने पर इस कविता में दर्ज़ किया और ये कविता हंस, जनवरी २००८ में प्रकाशित हुई। पता नहीं इसे पारम्परिक रूप में कविता कहा भी जाएगा या नहीं ? )

वहाँ कोई नहीं है
मैं भी नहीं
वह जो पड़ी है देह
हाथ बांधे
दांत भींचे
बाहर से निस्पन्द
भीतर से रह-रहकर सहमती
थूक निगलती
वह मेरी है
लेकिन वहाँ कोई नहीं है

तो फिर मैं कहाँ हूँ ?
क्या वहाँ, जहाँ से आ रही है
नलकूप खोदने वाली मशीन की आवाज़?
अफ़सोस
पानी भी दरअसल यहाँ नहीं है
रक्त है लेकिन बहुत सारा खुदबुदाता-खौलता

लाल रक्त कणिकाओं में सबसे ज़्यादा खलबली है
मेरे शरीर में सिर्फ वही हैं जो लोहे से बनी हैं

होते-होते बीच में अचानक थम जाती है खुदाई
शायद दम लेने और बीड़ी सुलगाने को रुकते हों मजदूर
ठक!
ठक!
ठक!
दरवाज़ा खटखटाता है कोई
मेरे भीतर

सबसे पहले एक खिड़की खुलती है
धीरे से झाँककर देखता हूँ
बाहर
कोई भी नहीं है

सृष्टि में मूलाधार से लेकर ब्रह्मचक्र तक
कोई हलचल नहीं है

मैं दूर ..........
बहुत दूर...
मालवा के मैदानों में भटक रहा हूँ कहीं
अपने हाथों में मेरा लुढ़कता सिर सम्भाले
दो बेहद कोमल
और कांपते हुए हाथ हैं
पुराने ज़माने के किसी घंटाघर से
पुकारती आती रात है

कच्चे धूल भरे रस्ते पर अब भी एक बैलगाड़ी है
तीसरी सहस्त्राब्दी की शुरूआत में भी
झाड़ियों से लटकते हैं
मेहनती
बुनकर
बयाओं के घोसले

तालों में धीरे-धीरे काँपता
सड़ता है
दुर्गन्धित जल

कोई घुग्घू रह-रहकर बोलता है
दूर तक फैले अन्धेरे में एक चिंगारी-सी फूटती है

वह हड़ीला चेहरा कौन है
इतने सन्नाटे में
जो अपनी कविताओं के पन्ने खोलता है

गूंजता है खेतों में
गेंहूँ की बालियों के पककर चटखने का
स्वरहीन
कोलाहल

तभी
न जाने कहाँ से चली आती है दोपहर
आंखों को चुंधियाती
अपार रोशनी में थ्रेशर से निकलते भूसे का
ग़ुबार-सा उमड़ता है

न जाने कैसे
पर
मेरे भीतर का भूगोल बदलता है

सुदूर उत्तर के पहाड़ों में कहीं
निर्जन में छुपे हुए धन-सा एक छलकता हुआ सोता है
पानी भर रही हैं कुछ औरतें
वहाँ
उनमें से एक का पति फ़ौज से छुट्टी पर आया है
नम्बर तोड़कर
सबसे पहले अपनी गागर लगाने को उद्धत
वही तो संसार की सुन्दरतम
स्वकीया
विकल हृदया है

मैं भी खड़ा हूँ वहीं
उसी दृश्य के आसपास आंखों से ओझल
मुझमें से आर-पार जाती हैं
तरंगे
मगर हवाओं का घुसना मना है

सोचता हूँ
अभी कुछ दिन पहले ही खिले थे बुरुंश यहाँ ढाढ़स बंधाते
सुर्ख़ रंगत वाले
सुगंध और रस से भरे
अब वो जगह कितनी ख़ाली है

इन ढेर सारी आख़िरी
अबूझ ध्वनियों
और बेहद अस्थिर ऋतुचक्रों के बीच
टूट गया है एक भ्रम
एक संशय
मगर अभी जारी है !
2007

Friday, September 26, 2008

मालकौंस

कुमार गंधर्व का गायन सुनकर।
मुझे ये राग बहुत पसंद है और मेरे कानों और दिमाग को ये एक विलक्षण मानवीय रहस्यात्मकता का राग लगता है। आप सभी मित्र अपनी बात ज़रूर बताएं !

जीवन-राग श्रृंखला २००३-०४
(अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने "संगतकार" लिखी)

बहुत हौले
बहुत चुपके आराम से गुजरती रात
बिना कोई चोट पहुंचाए
बिना किसी दर्द के
बिना समझ में आए मगर ये मुमकिन न था

बहुत मुमकिन था
कि मुझे खोज लेती नींद
मगर मैं खोज पाता उसे बिना खुद को सपनों में भटकाए
ये मुमकिन न था

बहुत गाढ़ा था अन्धेरा
आंखों की समझ से लगभग बाहर
आवाज थी एक रोशनी
दूर से आती
दूर तक जाती
टिमटिमाती कभी जलती धधक कर
कभी धीमी पड़ जाती

मानो सपने में होता था सभी कुछ
देह में
भीतर तक खिलते थे
इच्छाओं के फूल
इधर-उधर टटोलते कामना भरे हाथों को मिलते थे
अपने जैसे दूसरे हाथ

आधी रात की ताजी भुरभुरी मिट्टी में
खुलते-खुलते रह जाती थी
बरसों से ख़ामोश खड़े
पेड़ों की आंख

धरती तक पहुंचने में चुक गया तारों का उजास
और स्मृतियों का दिल तक पहुंचने में
दिमाग में लेकिन अकेला भटकता था एक खयाल

अभी दूर थी सुबह
लेकिन मुमकिन था सोच पाना उसके बारे में

गर्म और गंधभरे घोंसलों में
ये परिन्दों का
पहली करवट बदलने का समय था

बहुत सारी चीजें थीं
जो अन्धेरे में भी छुप नहीं पाती थीं

छुप नहीं पाता था पानी
जहाँ भी हो
तमाम नदियों और समुद्रों के बीच
उसकी आवाज आती थी

छुप नहीं पाती थी हवा
हर कहीं
एक शरीर से दूसरे शरीर
एक सांस से दूसरी सांस के बीच
उसकी आवाज आती थी

छुप नहीं पाते थे दुख
हर जगह
हताश दिलो और दिमागों के बीच
उनकी आवाज आती थी

छुप नहीं पाती थी रोशनी
हर समय
दूसरी तमाम आवाजों के बीच
उसकी आवाज आती थी

Wednesday, September 24, 2008

शनि

अचानक मिले एक जानकार ने बताया
पिछले साढ़े तीन बरस से वह मेरी राशि में था
अब भी है
किसी करेले-सा मंगल के निकट सानिध्य में
नीम चढ़ा होता हुआ
आगे भी चार बरस रहेगा

फिर उसी ने बताया मेरी राशि का नाम
दुनिया जहान के बारे में मेरी इस अनभिज्ञता पर अचरज करते हुए
उसने बताया पाँच तत्वों से बनी है हमारी देह
इसलिए सौरमंडल से प्रभावित होती है
और यह भी कि
किया जा सकता है
सरसों के तेल के साथ पाँच किलो उड़द के दान से
सुदूर घूमते

परमप्रतापी सूर्यपुत्र शनिदेव
का इलाज

दरअसल मैं इतना अनभिज्ञ भी नहीं था
झाँक ही लेता था
मौके-बेमौके ग्रह नक्षत्रों की आसमानी दुनिया में
जिसकी टिमटिमाती निस्तब्धता
मुझे थाम-थाम लेती थी

क्या कुछ नहीं घटता उस रहस्यलोक में
जिसे हम अन्तरिक्ष कहते हैं
अचानक प्रसिद्धि पाए कवियों सरीखे
चमचमाते
आते धूमकेतु
छोड़ जाते धुंआ छोड़ती पूँछ के
अल्पवजीवी निशान

कहीं से टूटकर आ गिरती
उल्का भी कोई
गड़ती हुई दिल में एक मीठी-सी याद

कभी कोई रोशनी जाती हुई दीखती
बच्चे बहुत उत्तेजित चमकती आंखों से निहारते उसे
शोर मचाते
उन्हीं में से कोई एक सयाना बतलाता
अमरीका के छोड़े उपग्रह हैं यह
कोई कहता हमने भी तो छोड़े हैं कुछ
तो मिलता जवाब
हमारे नहीं चमक सकते इतना
और फिर देखो वह तेज़ भी तो कितना है

अचानक दिख जाती
रात में भटके या फिर शायद शिकार पर निकले
किसी परिन्दे की छाया भी
घुलमिल जाती उसी रहस्यलोक के अ-दृश्यों में कहीं
लेकिन
हमारे वजूद के बहुत पास
हल्के-हल्के आती
पंखों के फड़फड़ाने की आश्वस्तकारी आवाज़

मैं देखता और सुनता चुपचाप
सोचता उन्हीं शनिदेव के बारे में जो
फ़िलहाल
अपना आसमानी राजपाट छोड़
मुझ निकम्मे के घर में थे

पहली बार किसने बनाया होगा
यह विधान
दूर सौरमंडल में घूमते ग्रहों को
अपने पिछवाड़े बाँधने का ?
किसने ये राशियाँ बनाई होंगी
किसने बिठाए होंगे
हमारे प्रारब्ध पर ये पहरेदार ?

दुनिया भर में
अपने हिंसक अतीत से डरे
और भविष्य की घोर अनिश्चितताओं में घिरे
अनगिनत कर्मशील
मनुष्यों ने आख़िर कब सौंप दिया होगा
कुछ चालबाज़ मक्कारों के हाथ
अपने जीवन का कारोबार ?

मत हार!
मत हार!
कहते हैं फुसफुसाते कुछ दोस्त-यार

उनकी मद्धम होती आवाज़ों में
अपनी आवाज़ मिला
यह एक अदना-सा कवि
इस महादेश की पिसती हुई जनता के
इन भविष्यवक्ता
कर्णधारों से इतना ही कह सकता है -

कि बच्चों की किताबों में
किसी प्यारे रंगीन खिलौने-सा लगता
सौरमंडल का सबसे खूबसूरत
यह ग्रह
क्या उसकी इस तथाकथित राशि में
उम्र भर रह सकता है?

2006
( वागर्थ में प्रकाशित )

Monday, September 22, 2008

काला-सफ़ेद टी. वी.

ढलते दिन की
बहुत भीड़ भरी सड़क पर
खड़खड़ाती साइकिल के कैरियर से बंधा
वह आ रहा था चुपचाप
एक काला-सफ़ेद टी. वी.
नौंवे दशक की भारतीय आधुनिकता के ज़माने से निकल कर
इक्कीसवीं सदी की चौखट पार के इस युग में
जिसे कुछेक बेहद जानकार जन
उत्तरोत्तर आधुनिकता कहते हैं

मैं देख सकता था सुधरने आ रहा था वह
कई सारे गांवों को अपनी परिधि पर धारे एक इतने बड़े
रंगीनियों से बजबजाते शहर में
जहां पैसे के अलावा
और कुछ भी काला-सफ़ेद नहीं था

हस्बे-मामूल मुझे सोचना ही था उस घर के बारे में
जहां से वह आया था
जो ले आया था उसे थके क़दम चलता वह शायद
उसका मालिक ही था

और कितने लोग होंगे वहां
उनमें से कुछ तो इसे देखते ही जवान हुए होंगे
कुछ बच्चे होंगे सुबह उठकर बासी रोटी मांगते
कुछ किशोर अपने समकालीन अपराधी समय में
गहरे धंस जाने के बारे में सोचते हुए
काम में खटी कुछ बेवक़्त बूढ़ी स्त्रियां
कुछ होंगी लड़कियां भी
यों भले लोगों के घर वे होती ही हैं
आने वाली बोझिल दुनिया से
बाख़बर
इस बुद्धू बक्से मे दीखती काली-सफ़ेद दुनिया
फिर भी लुभाती होगी उन्हें
जगाती होगी कुछ सपने
उनके भीतर भी मरोड़ कर उठता होगा वैभव उस लोक का
जिसमें वे कभी नहीं बसेंगी
उनके हिस्से में तो होगी वही अधकपारी
अलसुब्ह उठ कर
रात के छूटे बरतन मांजते समय की
और जो कभी न हो सकेगा अपना
एक हूक
उसकी भी

इस प्राचीन काले-सफे़द टी. वी. से निकल कर आ सकता है
एक समूचा सोप-ओपेरा परदे के बाहर के जीवन का

फ़िलहाल तो सुधरने जा रहा यह लौट भी सकेगा वापस
इसका मुझे विश्वास नहीं
सुधारने वाला भी पहले तो हंसेगा एक विद्रूप हंसी
और फिर
दो-चार सौ में बेच देने की सलाह देगा
एक दिन इसी साइकिल पर जाता दिखे शायद किस्तों पर लिया कोई
रंगीन टी. वी.

कौन है जो बदल देता है चीज़ों को और लोगों को भी
समय ?
विचार ?
या फिर बाज़ार ?
गो एक विचार ही तो है वह भी !

कहना चाहता हूं मैं
कि यह किसी इतिहास का अन्त नहीं
और न ही किसी समाज का
समय में बहुत आगे कहीं किसी मोड़ पर
कभी न कभी
बताएगा कोई
कि यह किसी कविता का भी अन्त नहीं

दरअसल
शुरूआत है किसी दूसरी समयावधि में
जीवन की चिर-उलझी उसी
पेचीदा गुत्थी की
ज़रूरी हैं जिसके लिए इतने विशेषण
और अमर है कविता
जिसकी बदौलत
भीतर ही भीतर धुंआती
और सुलगती !
000
2007

Sunday, September 21, 2008

हम जिन्हें भूल रहे हैं....गिरधर राठी की कविताएं


1 अगस्त 1944 को पिपरिया, म0प्र0 में जन्मे गिरधर राठी अस्सी के दशक में हिंदी के सम्मानित कवि माने जाते रहे हैं। उनके आलोचक भी कम नहीं थे, पर उनका होना भी राठी के अस्तित्व का पुख़्ता प्रमाण था। उन्होंने काफ़ी अनुवाद भी किया, जिसमें हिंदी से अंग्रेज़ी अनुवाद भी शामिल है। चीन यात्रा पर उनका सुंदर गद्य भी मुझे याद आ रहा है। शानी के बाद गिरधर राठी ने कई साल साहित्य अकादमी की पत्रिका `समकालीन हिंदी साहित्य´ का सफल सम्पादन किया। सम्पादक रहते भी उनकी लोकप्रियता बरकरार रही, लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद वे धीरे-धीरे साहित्य से अनुपस्थित रहने लगे। मैं यहां महज उनकी अनुपस्थिति का उल्लेख कर रहा हूं, उसके कारणों की तलाश नहीं। प्रसंगवश बता दूं कि गिरधर राठी का और मेरा गृहनगर एक ही है, पर हमारा कभी कोई सम्पर्क आपस में नहीं रहा है। यहां तक कि हर उम्र में वे मेरे पसन्दीदा तीन-चार कवियों में भी कभी शामिल नहीं रहे, लेकिन कुछ बात है कि उनकी कविताएं याद आती हैं। इसी याद और सम्मान के साथ फिलहाल प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं।


अनुनाद उनके हमेशा रचनात्मक-सृजनात्मक होने-रहने की कामना करता है!
***

उखड़ी हुई नींद
सच वह कम न था
नींद उखड़ी जिससे
न ही यह कम है -
उखड़ी हुई नींद
जो अब सपना नहीं बुन सकती

अंधेरे में
या रोशनी जलाकर
जो भी अहसास है
सच वह भी कम नहीं है

पर नींद वह क्या नींद
जो बुन न सके सपने !
कैसी वह भाषा
जो कह न सके -
देखो !
*** 


ठोसलैंड की सैर
कुछ ठोस मुद्दों पर कुछ ठोस रोशनी गिरी
हवाई सवालों को
हवाई जवाब ले उड़े

काल्पनिक सिर
अब ठोस हाथों में था

कुछ ठोस `निचुड़ा´

ठोस चीज़ों पर ठोस
सोचना था

ग़नीमत थी कि हवा अनहद ठोस नहीं थी
और हम सब जो थे सांस ले सकते थे
आंख को भी थोड़ी राहत थी-
ठोस रही, इधर-उधर घूम सकी।

भूख क़तई ठोस थी
उस पर दिल्लगी बुरी होती
हल्की-फुल्की दिल्लगी खासकर बुरी

वह ठोस खाती रही
मछली की मछली को आदमी की आदमी को
आदमी की भूख मछली और आदमी दोनों को

सिलसिला कुछ इतना ठोस
कि पूरे प्रवास में
कुछ और न हो पाता

मगर ठोस पेट ने ठोस `ना´ कर दी

सैर यह अलहदा थी
फिर भी अवशेष थे

प्रस्ताव - ठोस - आया ।

ठोस किस्म का ठोस प्रस्ताव था
ठोस प्रेम करना था, करना भी ठोस
ठोस वह लड़की, ठोस ही लड़का

प्रिय ठोस पाठक,
आंखों को सांसों को राहत थी
मगर शब्द -
वे इतने ठोस थे
कि ठोस कान के परदे
कुछ ठोस टुकड़ों में बिखर गए।

सनद रहे!
हम नहीं लौटे
लौटना ठोस अगर होगा
तो लौटेंगे।
***


कायाकल्प

फिर क्या हो जाता है
कि क्लास-रूम बन जाता है काफ़ी-हाउस
घर मछली बाज़ार?

कोई नहीं सुनता किसी की
मगर खुश-खुश
फेंकते रहते हैं मुस्कानें
चुप्पी पर,
या फिर जड़ देते नग़ीने !

करिश्मे अजीबोग़रीब -
और किसी का हाथ नज़र भी नहीं आता -
पहलू बदलते ही
जार्ज पंचम हो जाते हैं जवाहर लाल !
***


उनींदे की लोरी
सांप सुनें अपनी फुफकार और सो जाएं
चींटियां बसा लें घर बार और सो जाएं
गुरखे कर जाएं ख़बरदार और सो जाएं

*** 

Friday, September 19, 2008

एकालाप


तुम भूलने लगे हो
कि कितने लोगों चीज़ों और हलचलों से भरी है
दुनिया
उम्र अभी चौंतीस ही है तुम्हारी
बावजूद इसके
तुम व्यस्त रहने लगे हो
अक्सर
किसी खुफ़िया एकालाप में

लगता है
तुम दुनिया में नहीं किसी रंगमंच पर हो
और कुछ ही देर में शुरू होने वाला है
तुम्हारा अभिनय
जिसमें कोई दूसरा पात्र नहीं है
और न ही ज़्यादा संवाद

पता नहीं
अपनी उस विशिष्ट अकुलाहट भरी
भारी
भरभराती आवाज़ में
त्रासदी अदा करोगे तुम
या करोगे
कोई प्रहसन

तुम्हारे भीतर एक जाल है धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं
तुम्हारे दिमाग तक रक्त पहुंचाना
इसलिए
तुम कभी बेहद उत्तेजित तो कभी गहरे अवसाद में रहते हो

तुम भूल गए हो
कि कितना वेतन मिलता है तुम्हें
और उसके बदले कितना किया जाना चाहिए
काम

तुम्हें लगता है
वापस लौट गए हो बारह बरस पहले की
अपनी उसी गर्म और उमस भरी
उर्वर दुनिया में
जहाँ कभी इस छोर से उस छोर तक
नौकरी खोजते भटका करते थे तुम

सपने में दिखती छायाओं -से
अब तुम्हें दिखने लगे हैं
अपने जन
किसी तरह रोटी कमाते
काम पर जाते
भीतर ही भीतर रोते- सुलगते
किसी बड़े समर की तैयारी में
जीवन की कई छोटी-छोटी लड़ाईयां हार जाते
वे अपने जन
जिनसे तुम दूर होते जा रहे थे
लफ्ज़-दर-लफ्ज़

कहो कैसे हो शिरीष
अब तो कहो ?
जबकि भूला हुआ है वह सभी कुछ
जिसे तुम भूल जाना चाहते थे
अपने होशो -हवास में

अब
अगर तुम अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देगी
सबसे बुरे समय की मुसलसल पास आती पदचाप

अब तुम्हारा बोलना
कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण और मंतव्यों भरा होगा !
०००
2007

Wednesday, September 17, 2008

मनमोहन की कविताएँ








शर्मनाक समय


कैसा शर्मनाक समय है
जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज़्यादा उसकी स्मृति
उपस्थित रहती है
और उस स्मृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता
या कभी कोई मिलता है
अपने साथ ख़ुद से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए !
***

उसकी थकान


यह उस स्त्री की थकान थी
कि वह हंस कर रह जाती थी
जबकि वे समझते थे
कि अंततः उसने उन्हें क्षमा कर दिया !
***

Sunday, September 14, 2008

उसका लौटना


मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार

उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता

जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ

तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान

महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह

जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती

हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?

वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में

पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी

पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर

कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ

पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता

एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया

खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?

हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ

मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !

ये कविता पहले " कबाड़खाना" और फ़िर "संडे पोस्ट" में छप चुकी है।

Thursday, September 11, 2008

वीरेन डंगवाल की कविताएँ

चारबाग़ स्टेशन : प्लेटफारम नं. 7

'तुम झूटे ओ'
यही कह रही बार-बार प्लेटफारम की वह बावली
'शुद्ध पेयजल' के नलके से एक अदॄश्य बर्तन में पानी भरते हुए.
घंटे भर से टोंटी को छोड़ा नहीं है उसने
क्या वह सचमुच मुझसे कह रही थी
या सचमुच लगातार बहते हुए उस नल से?
'शोषिता और व्याभिचारिता'
जैसे मैल की एक परत लिपी हुई है
उसके वजूद पर.
वह भी पैदा हुई थी एक स्त्री के पेट से
उसका भी घर होना था
अभी तो अपना कण्टर बजाता
शकल से ही मुश्टण्ड
एक दूध वाला
जा रहा है उसकी तरफ़
चेहरे पर शराब भरी फुसलाहट लिए.
***

मक्खियां उड़ रहीं
अंतिम फ़रवरी की धूप में
चारबाग़ लखनऊ के प्लेटफ़ार्म नं. सात पर बेशुमार मक्खियां
हवा में अभिनीत होते एक विलक्षण समूह नृत्य में तल्लीन.
सर्दियों ने बहुत सताया उन्हें
उनके अल्पपारदर्शी डैनों की सूक्ष्म तंत्रिकाओं में
निस्तब्ध जमी रही ठण्ढ
अब जाकर आया है उनकी मुक्ति का अस्थाई पर्व
और उनका भी
जो महीनों बाद बिना गले-ठिठुरे
अपने से दूने आकार के रासायनिक टाट के
सफ़ेद थैले लेकर
लाइनों के बीच के मल और पार की हरी दूब को लांघते हुए
बटोर रहे कांच-प्लास्टिक की ख़ाली बोतलें
थैलियां-गत्ते- काग़ज़ और पन्नियां.
मक्खियों के साथ इन आबाल-वृद्ध नर-नारियों का
एक अत्यन्त घनिष्ठ किंवा रहस्यपूर्ण रिश्ता है
जो दरअसल रहस्य नहीं भी है.
***

प्लेटफ़ार्म नं. सात है यह, उत्तर रेलवे की सारी उपेक्षित
रेलगाड़ियों का कटरा
एक आत्मीय हिकारत के साथ 'गदहा लाइन'
नाम दिया है इसे
कुलियों, रेल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों
और चारबाग़ के उचक्के एवम निरीह
दोनों प्रकार के स्थाई नागरिकों ने.

किंतु रहो हे!
रसज्ञों के हृदय को विचलित कर देने वाली
यह घिसी-पिटी घृणास्पद दृश्यावली अवांछित है
जबकि उतरा है सुमधुर वसन्त
अवध की बच रही घनी अमराइयों में
और दशहरी की सद्यःप्रस्फुटित
आम्रमंजरियों की सुगंध में
घोली जा रहीं
मादक, तीव्रगंधा आधुनिकतम कीटनाशी दवाएं
कृषि साधन सहकारी समिति से
कर्ज़ में लेकर
सो रहो-रहो अवधेश्वरी कण्टर बजने दो!

वसन्त यदि समग्र है
तो ये पुष्पवल्लिकाएं उन
कीट-फतंगों के लिए भी
जिनके नाम केवल नकलची वनस्पतिशास्त्रियों को पता हैं
अथवा उनके देशज संस्करण
अध्यवसायी भूमिहीन कृषि कार्यकर्ताओं को

थोड़ा उन वानर यूथों के लिए भी यह वसन्त
जिन्होंने काफ़ी तंग किया
नागरजनों को कटु हेमन्त में
जब किंचित आहार भी एक असीम अनुकम्पा था
जहां से भी वह मिले उस की.
और नरम गन्ने, पके कदलीफलगुच्छ, अथवा अनान्नास का
रसपान करने को आतुर
हाथियों के उन गठे हुए समूहों के लिए भी यह,
जिन में से एकाध को खेद लिया जाना था
बांस की कोंपलों से ढंके उस गहरे खड्ड में
झिलमिलाती लालटेनों और ब्रह्मपुत्र जैसे विस्तीर्ण-लहराते भटियाली गान गाते
अंधेरे में खेदा लगाने वालों के करुण कंठ-स्वरों की पृष्ठभूमि में:
'ये कहां भेज दिया तूने, हे मांss'

सदा ही अपने तर्कों के प्रतिकूल जाता है यह वसन्त
यही उसका जटिल सौन्दर्य है
वह सदा हमें समूह से विलग करने वाले
फ़रेब लालच और पराजयों के कातर
आर्तनाद से सचेत करता है
और कुछ उधर ही को धकेलता भी है.
***

प्लेटफ़ार्म नं. सात है यह
उत्तर रेलवे की सारी उपेक्षित रेलगाड़ियों का कटरा
मेलें, राजधानियां, शताब्दियां चूमती हुई जा रहीं
नवाबों की सरज़मीन लखनऊ की
बुर्जियों मीनारों महापुरुष प्रतिमाओं और
अहर्निश विलास निद्रा में डूबे उन महापुरुषों को भी
जिनमें कोई वाणी का जादूगर कानून का महारथी
कोई चापलूसों का सिकन्दर
जीवनी लेखक
कोई आंकड़ों का उस्ताद
भू-माफ़िया ड्रग-तस्कर भूतपर्व बन्दूकबाज़
किसी ने जीवन ही समर्पित कर दिया कथक के लिए
तो कोई अक्षत यौवना किशोरियों और उम्दा ज़र्दा-पानमसाला का शौकीन
कोई क़्त्लो-ग़ारत में ऐसा निष्णात
कि अपनी भंगेड़ी मुस्कराहट के साथ
कुच देते-बांटते भी
आहिस्ता से जानें ले लेता है.

अंधेरा नहीं है
कोई जुलूस भी नहीं
एक विशालकाय स्टेडियम है मधुमास भरा
और सुसज्जित दर्शकदीर्घा में बैठे
प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी मुदित भाव से देख रहे
मैदान में लठ्ठम-लठ्ठा होती
कंगलों की टोलियों को

'शायर हो मत चुपके रहो
इस चुप में जानें जाती हैं' कहते थे उस्ताद
मीर तक़ी मीर
सो चारबाग़ स्टेशन की गदहा लाइन पर
मन ही मन यही दोहराते
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं
बरेली मुग़लसराय पसिंजर की
जो अनिश्चितकालीन विलम्ब से है।
***

पेप्पोर रद्दी पेप्पोर

पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी
एक फ़रियाद है एक फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से
***

Tuesday, September 9, 2008

मेरी सौवीं पोस्ट ...

ये मेरे ब्लॉग पर सौवीं पोस्ट है और मैं इस अवसर पर कुमार गन्धर्व की सम्मोहक आवाज़ और गायकी में कबीर का एक मशहूर भजन प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन दोनों महापुरुषों को अनुनाद का सलाम।

Saturday, September 6, 2008

एक प्रागैतिहासिक कविता - भीमबेटका के भित्ति-चित्रों को देखकर



पसीने की
एक आदिम गंध आती है
मुझसे
एक पाषाणकालीन गुफा में
खुदा मिलता है
मेरा चेहरा

हज़ारों साल पुराने
कैल्शियम और फास्फोरस का
संग्रहालय बन जाती हैं
मेरी अस्थियां
भाषा के कुछ आदिम संकेत
मेरे रक्त तैरते

हज़ारों साल पुरना
एक बनैला पशु पीछा करता है मेरा

मैं शिकार को जाता हूं
और लाता हूं ढेर-सा गोश्त
जिसका स्वाद
मेरी स्मृतियों में बस जाता है

मैं उकेरता हूं
भित्तियों पर जीवन
अंकित हो जाता हूं मैं
अपने समय के साथ हमेशा के लिए
इन पत्थरों पर

हज़ारों साल बाद
मुझको होता है विस्मय
अरे, यह मैं हूं !
और मेरे रंग हैं यह
यह मेरा इतिहास
अपने ही हाथों
कभी मैंने लिखा था
इसको !

लेखन-तिथि : 24 फरवरी 1997

Wednesday, September 3, 2008

ये दुनिया रंग-बिरंगी - कवि कुमार विकल के जाने पर

(इस कविता को वेणुगोपाल के लिए भी मेरी एक श्रद्धांजलि मानें , जो कुमार विकल के समानधर्मा कवि थे।)

सभी कुछ रंगीन था जब तुम गए
और इन रंगों का हिसाब रखते पृथ्वी के चारों ओर
बहुत तेज़ी से घूम रहे थे इंसानी इदारे

तुम्हारी मौत उतनी रंगीन नहीं थी
और उस दिन अख़बारों में बहुत कम जगह बची थी
वे भी अब रंगीन हो चले थे
पैदा हो चुका था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
हालांकि
ख़बरों के लिए उसने गली-गली घूमना शुरू नहीं किया था
सबसे तेज होने में अभी कुछ देर थी

पीने की चीज़ों में तुमने शायद शरबतों के नाम सुने हों
वे सब भी रंगीन थे
अब तो ख़ैर दिखते ही नहीं ठंडी बोतलों के घटाटोप में

मेरे सपने तो होने ही थे रंगीन
चौबीस-पच्चीस की उम्र में
मैंने पढ़ीं तुम्हारी कवितायें
और यह भी कि कवि से ज़्यादा
तुम्हारा
शराबी होना मशहूर था

मैंने देखा
मेरी उम्र वाले लड़कों की तरह तुम भी दुनिया की
ख़ाली जगहों में
अपने रंग भर रहे थे
और हमारे रंग दुनिया के रंगों में इज़ाफ़ा कर रहे थे

अपने सबसे चमकीले दिनों की धूप में मैंने तुम्हें ढूंढा
जिसके लिए मेरे पास था तुम्हारी कविताओं का
एक आधा-अधूरा इलाक़ा
और धूप तो हम दोनों ही पर बराबर पड़ती थी
वो इलाके़-इलाक़े में भेद नहीं करती थी

मेरे भी बन चले थे बहुत सारे साथी
उन दिनों तुम्हारी तरह मैं भी
मुक्ति की वह अकेली राह अपना चुका था
ये अलग बात है
कि इस राह पर तुम मुझसे बहुत आगे खड़े थे
बहुत कठिन हो चली थी दुनिया
तुम्हारे लिए
और मैं तो अभी आँखें ही खोल रहा था

मैंने तुम्हें वक़्त और दुनिया के साथ
खुद से भी लड़ते देखा था
कविताओं में ही सही
लेकिन बहुत कुछ अटपटा करते देखा था

ओ मेरे पुरखे बुरा मत मानना
पर मुझे लगता है
कि बहुत रंग-बिरंगी थी ये दुनिया
तुम्हारे भी वास्ते
इसे तुमने खुद ही चुना था
और ये हक़ीक़त तुम भी जानते थे
जी रहे थे इन्हीं रंगों के बीच
इन्हीं की बातें करते थे और इन्हीं से भाग जाना चाहते थे

ओ मेरे पुरखे!
आख़िर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से पहले तुम दुनिया को
सिर्फ़ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे

और भी बहुत कुछ होता है ज़िन्दगी में
उदासियों के अलावा उदासियों से बेहतर
बताने को
लेकिन अब तुम कुछ भी नहीं बता पाओगे
इस सबके बारे में अब तो बतायेंगीं सिर्फ तुम्हारी कवितायें

जिन्हें
अपनी घोर असमर्थता में भी इतना सामर्थ्य दे गए हो तुम
कि जब भी
रंगों के बारे में सोचें हम और उन्हें कहीं भरना चाहें
तो हर जगह झिलमिलाते दिखें तुम्हारे भी रंग
और हमें तुम्हारी याद आए।

000
कुमार विकल के आधार प्रकाशन से छपे अंतिम कविता संकलन का नाम है -
निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूं !

Tuesday, September 2, 2008

कुमार विकल - आओ पहल करें (ज्ञानरंजन को सम्बोधित )

( हमारे कबाड़खाने से ये फोटो, उनकी, जिन्हें ये कविता संबोधित है .... इसे विश्व पुस्तक मेले में खेंचा गया )


जब से तुम्हारी दाढ़ी में
सफेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऐसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
जिन्दगी की शाम से डर खाने लगे हो
और दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज़ रहने लगे हो
लेकिन, सुनो ज्ञान !
हमारे पास जिन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाक़ी है
जो एक सघन फेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऐसा आंगन बन जाए
जहां प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान !
तुम एक ऐसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज़ नहीं हो सकता
तुम्हारे दोस्त
पड़ोसी
सुनयना भाभी
तुम्हारे बच्चे
या अपने आप को हिंदी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल

कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्या में
अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि
वह अब भी
धूप का पक्षधर है

प्रिय ज्ञान !
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफेद बालों को भूल जाएं
और एक ऐसी पहल करें
कि जीवन-संध्याएं
दोपहर बन जाएं !
(कुमार विकल का २३ फरवरी १९९७ में निधन हो गया, लेकिन उनकी कवितायें विरासत बनकर हमारे साथ हैं और हमेशा रहेंगी। इधर सूचना मिली है कि वेणुगोपाल नहीं रहे। उनकी याद के साथ उनके समानधर्मा कवि कुमार विकल की यह पोस्ट लगाई जा रही है। अगली पोस्ट के रूप में मैं कुमार विकल को संबोधित अपनी एक कविता ब्लॉग पर लगाऊंगा, जो २ साल पहले "इरावती" में प्रकाशित हुई थी और कुछ दोस्तों को अब भी उसकी याद है। )

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