Monday, August 25, 2008

हँसो हँसो जल्दी हँसो - रघुवीर सहाय


आधुनिक हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद के सबसे महत्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर बहुत ख़ास लगने लगे हैं। मैं अधिक कुछ न कहते हुए उनकी एक प्रसिद्ध कविता यहां लगा रहा हूं। आप सभी मित्र अपनी बात कहेंगे तो अच्छा लगेगा।


हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है

हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूंज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहां कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !

3 comments:

  1. आभार इस प्रस्तुति के लिए.

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  2. acchi rachna hai.kintu padhi hui. Bhai,Muktibodh k baad mujhe sahay ji se zyada appealing vijaydev n.saahi aur Kumar Vikal Lagte hain.

    ReplyDelete

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