अनुनाद

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कुमार अम्बुज

कुमार अम्बुज हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में एक हैं। मेरे लिए वे ऐसे अनदेखे-अनमिले-अपरिचित बड़े भाई हैं, जिनकी कविता की मैंने हमेशा ही कद्र की है और मुझे जानने वाले जानते हैं कि ऐसे कवियों की मेरी सूची बहुत लम्बी नहीं है। पहल के नए अंक में कुमार अम्बुज की कुछ शानदार कविताएं पढ़ने को मिली हैं, उन्हीं में से दो आपके लिए यहां प्रस्तुत हैं –

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आकस्मिक मृत्यु



बच्चे सांप-सीढ़ी खेल रहे हैं
जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी मांगेंगे
उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं
वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं
जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं
किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही

अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे
रोना होगा, रोयेंगे
अचानक खिलखिला उठेंगे या ज़िद करेंगे
तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे
और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे
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कहीं भी कोई कस्बा
अभी वसंत नहीं आया है
पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते
लगातार उड़ती धूल वहां कुछ आराम फरमाती है

एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे
जब-तब जम्हाइयां लेती दुकानें
यह बाज़ार है
आगे दो चौराहे
एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था
दूसरी किसी योद्धा की है
नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह

नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो
पोस्ट मास्टर और बैंक मैनेजर के घर का पता चलता-फिरता आदमी भी बता देगा
उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार
जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें
ए0टी0एम0 ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक

आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते
तांगेवालों की यूनियन फेल हुई
ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खांसते-खंखारते
अभी-अभी खतम हुए हैं चुनाव
दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी

गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएं
जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में

चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है
पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें
अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियां हैं
रात के ग्यारह बजने को हैं
आखिरी बस आ चुकी
चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास

पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,
एक किलोमीटर दूर ढाबा
और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।

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