दोस्तों के डेरे पर एक शाम - एक
बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमारे जीवन में
हमने टटोली अपनी आत्मा
जैसे आटे का ख़ाली कनस्तर
जैसे घी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आखिरी सिक्का
बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमने खंगाला अपना अंतस
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को
और फिर
रात और दिन के बीच छटपटाती
उस थोड़ी-सी
धुंधलाई रोशनी में
हमने पाया
कि बाक़ी था अभी
कनस्तर में थोड़ा-सा आटा
बरतन में छौंकने भर का घी
जे़ब में सिगरेट के लिए पैसा
अभी बाक़ी था
बाक़ी था जीवन।
दोस्तों के डेरे पर एक शाम - दो
बहुत कुछ टूटा हमारे भीतर
और बाहर भी
रिश्ते टूटे
रिश्तों के साथ टूटे दिल
दिलों के साथ देह
इच्छाओं की भीत टूटी
खुशियों का वितान
घर टूटे हमारे
घरों के साथ सपने
सपनों के साथ नींद
बहुत कुछ टूटा जीवन में
जागते हुए काटीं हमने अपनी सबसे काली रातें
पर बचे रहे
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य
बचे रहे
इस दुनियावी उथल-पुथल में
हमेशा के लिए बस गई
हमारी उपस्थिति।
1999
Wednesday, August 13, 2008
9 comments:
यहां तक आए हैं तो कृपया इस पृष्ठ पर अपनी राय से अवश्य अवगत करायें !
जो जी को लगती हो कहें, बस भाषा के न्यूनतम आदर्श का ख़याल रखें। अनुनाद की बेहतरी के लिए सुझाव भी दें और कुछ ग़लत लग रहा हो तो टिप्पणी के स्थान को शिकायत-पेटिका के रूप में इस्तेमाल करने से कभी न हिचकें। हमने टिप्पणी के लिए सभी विकल्प खुले रखे हैं, कोई एकाउंट न होने की स्थिति में अनाम में नीचे अपना नाम और स्थान अवश्य अंकित कर दें।
आपकी प्रतिक्रियाएं हमेशा ही अनुनाद को प्रेरित करती हैं, हम उनके लिए आभारी रहेगे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
दोनों ही कविताऎं बहुत खूब हैं।
ReplyDeleteऔर फिर
रात और दिन के बीच छटपटाती
उस थोड़ी-सी
धुंधलाई रोशनी में
हमने पाया
कि बाक़ी था अभी
कनस्तर में थोड़ा-सा आटा
बरतन में छौंकने भर का घी
उम्मीद जगाती है बहुत कुछ टूटते हुए इस समय में।
जैसे आटे का ख़ाली कनस्तर
ReplyDeleteजैसे घी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आखिरी सिक्का
bahut khoobsurat ....dil ko choo liya jaise.....aapne
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य
well said dost....well said...
शुक्रिया अनुराग जी और विजय भाई !
ReplyDeleteशुक्रिया अनुराग जी और विजय भाई !
ReplyDeleteबहुत ही बढि़या
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा
और क्या कहूं-
'बचे रहे
इस दुनियावी उथल-पुथल में
हमेशा के लिए बस गई
हमारी उपस्थिति।'
मेरी भावना को जैसे यह कविताएँ छू गयीं, सच!
ReplyDeleteदोनों ही बेहतरीन रचनायें..
ReplyDeleteघर टूटे हमारे
ReplyDeleteघरों के साथ सपने
सपनों के साथ नींद
बहुत कुछ टूटा जीवन में
जागते हुए काटीं हमने अपनी सबसे काली रातें
पर बचे रहे
बचे रहे हम
--वाह!!! बेहद गहन!! बहुत उम्दा!
बचे रहे जैसे दर्रे पार कर आई सभ्यता का "अनुनाद"? - साभार - मनीष
ReplyDelete