
एक अद्वितीय तत्व हमें नरेश सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है और वह है मानव और प्रकृति के बीच लगभग संपूर्ण तादात्म्य - और यहां प्रकृति से अभिप्राय किसी रूमानी, ऐंद्रिक शरण्य नहीं बल्कि पृथ्वी सहित सारे ब्रह्मांड का है, वे सारी वस्तुएं हैं, जिनसे मानव निर्मित होता है और वे भी जिन्हें वह निर्मित करता है
- विष्णु खरे
1939 में जन्में वरिष्ठ कवि नरेश जी का अब तक एक ही संकलन `समुद्र पर हो रही है बारिश´ नाम से छपा है, जो अब अप्राप्य बताया जाता है।
जूते
जिन्होंने खुद नहीं की अपनी यात्राएं
दूसरों की यात्रा के साधन ही बने रहे
एक जूते का जीवन जिया
जिन्होंने
यात्रा के बाद उन्हें छोड़ दिया गया घर के बाहर।
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रात भर
रात भर चलती रहती हैं रेलें
ट्रक ढोते हैं माल रात भर
कारखाने चलते हैं
कामगार रहते हैं बेहोश
होशमंद करवटें बदलते हैं रात भर
अपराधी सोते हैं
अपराधों का कोई सम्बन्ध अब अंधेरे से नहीं रहा
सुबह सभी दफतर खुलते हैं अपराध के।
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कौवे-एक
हमारे शहर के कौवे केंचुए खाते हैं
आपके शहर के क्या खाते हैं
कोई थाली नहीं सजाता कौंवों के लिए
न दूध भरी कटोरी रखता है मुंडेर पर
रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं
सोने से चोंच मढ़ाने वाला गीत एक गीत है तो सही
लेकिन होता अक्सर यह है
कि वे मार कर टांग दिए जाते हैं शहर में
शगुन के लिए
वे झपट्टा मारते हैं और ले जाते हैं अपना हिस्सा
रोते रह जाते हैं बच्चे
चीखती रह जाती हैं औरतें
बूढ़े दूर तक जाते हैं उन्हें खदड़ते और बड़बड़ाते
कोई नहीं बताता कौवों को
कि वे आखिर किसलिए पैदा हुए संसार में !
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कौवे - दो
बत्तखों से कम कर्कश
और कोयलों से कम चालाक बल्कि भोले माने जाते कौवे
बशर्ते वे किसी और रंग के होते
मगर वे काले होते हैं बस यहीं से होती है उनके दुखों की शुरूआत
गोरी जातियों से पराजित हमारा अतीत
कौवों का पीछा नहीं छोड़ता
एक दिन एक मरे हुए कौवे को घेरकर
जब वे बैठे रहे और अंधेरा होने तक कांव-कांव करते रहे
तब समझ में आया
कि यह तो उनके निरंतर शोक की आवाज़ है
जिसे हम संगीत की तरह सुनना चाहते हैं
निरंतर धिक्कार और तिरस्कार के बावजूद
बस्तियां छोड़कर नहीं जाते
अपने भर्राए गलों से न जाने क्या कहते रहते हैं !
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अच्छी कविता के लए बहुत बधाई ...
ReplyDeleteब्लॉग्स के नये साथियों मे आपका स्वागत है
चलिए परिचय की एक कविता भेज रहा हूँ देखिएगा
चाहता हूँ ........
एक ताजी गंध भर दूँ
इन हवाओं में.....
तोड़ लूँ
इस आम्र वन के
ये अनूठे बौर
पके महुए
आज मुट्ठी में
भरूं कुछ और
दूँ सुना
कोई सुवासित श्लोक फ़िर
मन की सभाओं में
आज प्राणों में उतारूँ
एक उजला गीत
भावनाओं में बिखेरूं
चित्रमय संगीत
खिलखिलाते फूल वाले
छंद भर दूँ
मृत हवाओं मैं .....................
आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया कॅया इंतज़ार करूँगा
डॉ उदय 'मणि ' कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
umkaushik@gmail.com
094142-60806
684 महावीर नगर ईई
कोटा, राजस्थान
नरेश जी की इतनी बेहतरीन रचनायें पढवाने का आभार..
ReplyDelete***राजीव रंजन प्रसाद
नरेश सक्सेना मुझे हमारे समय के सबसे अद्वितीय कवि लगते हैं । सुबह सुबह उन्हें पढ़कर मन को ऐसा सुकून मिला जिसका कोई सानी नहीं है । अगर 'समुद्र पर हो रही है बारिश' से और कविताएं पढ़ने मिल जाएं तो खुद को खुशनसीब समझें ।
ReplyDeleteभई बहुत उम्दा!
ReplyDeleteक्या कहने - दुखों की शुरुआत के रंग - क्या बात -खालिस - साभार - मनीष
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