Friday, August 29, 2008

विष्णु खरे की लम्बी कविता - हर शहर में एक बदनाम औरत होती है


(यह थमा हुआ वीडियो विजुअल 2004 के अंकुर मिश्र स्मृति सम्मान समारोह से)
 


'' कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है '' - रघुवीर सहाय


हर शहर में एक बदनाम औरत होती है

कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में
वह कुंआरी ही रही आयी है
या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था
और उसके तथाकथित पति ने उसे
या उसने उसको कब क्यों और कहां छोड़ा
और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही
वह सही-सही उसका कौन है
यदि उसको संतान हुई तो उन्हें लेकर भी
स्थिति अनिश्चित बनी रहती है

हर शहर में एक बदनाम औरत होती है

नहीं वह उस तरह की बदनाम औरतों में नहीं आती
वरना वह इस तरह उल्लेखनीय न होती
अकसर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है
उसका अपना निवास या फ्लैट जैसा कुछ रहता है
वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है
जिसमें ब्यूटी सैलून नृत्य-संगीत स्कूल रेडियो टीवी एन जी ओ से लेकर
राजनीतिक तक कुछ भी हो सकता है
बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है
या थी लेकिन इतनी अब भी कम वांछनीय नहीं है

जबकि सच तो यह है कि जो वह वाकई होती है उसके लिए
सुंदर या खूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं
आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या
सैक्सी वालप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण
उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं
अकसर तो उसे ऐसे नामों से पुकारा जाता है
जो सार्वजनिक रूप से लिए भी नहीं जा सकते
लेकिन बेशक वह जादूगरनियों और टोनहियों सरीखी
बल्कि उनसे अधिक मारक और रहस्यमय
किसी अलग औरत-ज़ात कर तरह होती है
उसे देखकर एक साथ सम्मोहन और आतंक पैदा होते है।

वह एक ऐसा वृत्तान्त ऐसी किंवदंती होती है
जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संविर्द्धत करता चलता है
सब आधिकारिक रूप से जानते हैं कि वह किस-किस से लगी थी
या किस-किस को उसने फांसा था
सबको पता रहता है कि इन दिनों कौन लोग उसे चला रहे हैं
कई तो अगल-बगल देख कर शनाख्त तक कर डालते हैं
कि देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं
उन उनकी उतरन और जूठन है वह
स्वाभाविक है कि यह जानकारियां सबसे ज्यादा और प्रामाणिक
उन दुनियादार अधेड़ों या बुजुर्ग गृहस्थों के पास होती हैं
जो बाक़ी सब युवतियों स्त्रियों को साधिकार बिटिया बहन भाभी कहते हैं
सिर्फ़ शहर की उस बदनाम औरत को उसके नाम से पुकारते हैं
और वह भी मजबूरन
और उसकी संतान हुई तो कभी उसके मामा नाना या चाचा नहीं बनते

उस बदनाम औरत के विषय में अकसर इतने लोग बातें करते हैं
खुद उससे इतने लोग अकसर बातें करते या करना चाहते हैं
उसके पूर्व या वर्तमान प्रेमियों से इतने लोग इतना जानना चाहते हैं
उसके साथ इतने लोग संयोगवश दिखना चाहते हैं
उसे इतनी जगहों पर उत्कंठा और उम्मीद से बुलाया जाता है
कि यह निष्कर्ष अपरिहार्य है कि उसका वजूद और मौजूदगी
किसी अजीब खला को भरने के लिए दुर्निवार हैं
जो औरतें बदनाम नहीं हैं उनका आकर्षक दुस्वप्न
और उनके उन मर्दों के सपनों का विकार है वह बदनाम औरत
जो अपनी पत्नियों को अपने साथ सोई देखकर
उन्हें और अपने को कोसते हैं
सोचते हैं यहां कभी वह औरत क्यों नहीं हो सकती थी
उसके सफल कहे जानेवाले कथित प्रेमियों के बारे में सोचते हैं
कि ऐसी सस्ती औरत ही स्वीकार कर पाती होगी इतने घटिया लोगों को
फिर सोचते हैं सब झूट बोलते हैं कमीने शेखीबाज़
ऐसी चालू औरत ऐसों को हाथ तक नहीं रखने देती
आशंका और आश्वस्ति के बीच वे अपनी सोती पत्नियों को देखते
उसके सद्गुणों से द्रवित बाधामुक्त होते हैं

अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा
कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुंच पातीं
निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी
न उन्हें ज्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा
वे मंझोले ड्रांइगरूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही
पहुंच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में
जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़हीन और मुहज्जब होती हैं

ऐसी बदनाम औरत को अलग-अलग वक्तों पर
जिनके साथ वाबस्ता बताया जाता है
क्या वाकई वह उनसे प्रेम जैसा कुछ करती थीं और वे उससे?
क्या उन्होंने इससे फ़ायदा उठाया
या वह भी उतने ही नुक़सान में रहीं ?
क्या, जैसा कि एक खास रूमानियत के तहत माना जाता है ,
उसे किसी आदर्श संबंध की तलाश है?
या कि उसे िफ़तरतन हर छठे महीने एक नया मर्द चाहिए
या वह अपनी बनावट में के उन संवेगों से संचालित है
जिन्हें वह भी नहीं समझती?

कुछ कह नहीं सकते
ऐसी किसी औरत से कभी किसी ने अंतरंग साक्षात्कार नहीं लिए हैं
न उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है
और स्वयं अपने बारे में उसने अब तक कुछ कहा नहीं है
उसे हंसते तो अकसर सुना गया है
लेकिन रोते हुए कभी नहीं देखा गया

यह तो हो नहीं सकता कि उस बदनाम औरत को
धीरे-धीरे अपनी शक्तियों का पता न चलता हो
और इसका कि लोग उससे कितनी नफ़रत करते हैं
लेकिन कितनी शिद्दत से वे वह सब चाहते हैं
जो वह कथित रूप से कुछ ही को देती आयी है
बदनाम औरत जानती होगी कि वह जहां जाती है
अपने आसपास को स्थाई ही सही लेकिन कितना बदल देती है
कभी-कभी सार्वजनिक या एकांत उसका अपमान होता होगा
शायद वह भी किसी को तिरस्कृत करती हो
फ़ाहशा कहलाने का जोखिम उठाकर
घर और दफ्तर में उसे घिनौने और डारावने फोन आते होंगे
अश्लील चिटि्ठयों की वह आदी हो चुकी होगी
रात में उसके बरामदे के आगे से फिब्तयां कसी जाती होंगी
खिड़कियों के शीशे पत्थरों से टूटते होंगे
यदि वह रिपोर्ट दर्ज़ करवाने जाती भी होगी
तो हर वर्दीवाला उसकी तरफ़ देखकर मुस्कराता होगा

जो औरतें बदनाम नहीं हैं
उनका अपनी इस बदनाम हमज़ात के बारे में क्या सोच है
इसका मर्दों को शायद ही कभी सही पता चले
क्योंकि औरतें मर्दों से अकसर वही कहती हैं
जिसे वे आश्वस्त सुनना चाहते हैं
लेकिन ऐसा लगता है कि औरतें कभी किसी औरत से
उतनी नफ़रत नहीं करतीं जितनी मर्दों से कर सकती हैं
और बेशक उतनी नफ़रत तो वे वैसी बदनाम औरतों से भी कर नहीं सकतीं
जितनी मर्द उससे या सामान्यत: औरतों से कर पाते हैं
अगर हर फुर्सत में एक नई औरत को हासिल करना अधिकांश मर्दों की चरम फंतासी है
तो बदनाम औरत भी यह क्यों न सोचे
कि अलग-अलग या एक ही वक्फ़े में कई मर्दों की सोहबत भी
एक शग़ल एक खेल एक लीला है
और कौन कह सकता है कि उसमें सिर्फ़ वहीं गंवाती है
संभव है कि औरतों में ही इसे लेकर मतभेद हों
लेकिन यदि मर्द औरत का इस्तेमाल कर सकता है
तो बदले में औरत उसका इस्तेमाल क्यों न करे
और आखिरी बात तो यह
कि यदि मर्द को हर दूसरे दिन एक नया जिस्म चाहिए
तो औरत वह बदनाम हो नेकबख़्त
वैसा ही चाहे तो यह उसका हक़ कैसे नहीं?

शहर की ऐसी बदनाम औरत
यदि वाकई भयभीत और शोकार्त होती होगी
तो शायद उस क्षण की कल्पना कर
जब एक दिन वह अपनी संतान का अपमान जानेगी या देखेगी
या उसे अचानक बदला हुआ पाएगी
उसकी आंखों में पढ़ेगी वह उदासी और हिकारत
देखेगी उसका दमकता चेहरा अचानक बुझा हुआ
समझ जाएगी कि उसके बारे में सही और ग़लत सब जान लिया गया है
कोई कैिफ़यत नहीं देगी वह शायद
सिर्फ़ इंतज़ार करेगी कि उसकी अपनी कोख से बना हृदय तो उसे जाने
और यदि वैसा न भी हुआ
तो वह रहम या समझ की भीख नहीं मांगेगी
सबको तज देगी अपने अगम्य अकेलेपन को नहीं तजती
शहर की वह बदनाम औरत

ऐसी औरत के आख्यान खुद उससे कहीं सर्वव्याप्त रहते हैं
वह कब छोड़कर चली जाती है शहर
और किस वास्ते किसके साथ यह मालूम नहीं पड़ता
फिर भी उसे जहां-तहां एकाकी या युग्म में देखे जाने के दावे किए जाते हैं
ऐसी औरत की देह के
सामान्य या अस्वाभाविक अवसान का कभी कोई समाचार नहीं मिलता
कभी-कभी अचानक किसी नामालूम रेल्वे स्टेशन या रास्ता पार करती भीड़
या दोपहर के सूने बाज़ार में अकेली वह वाकई दिखती है अपनी ही रूह जैसी
उसकी उम्र के बावजूद उसकी बड़ी-बड़ी आंखों उसकी तमकनत से
अब भी एक सिहरन दौड़ जाती है
उसकी निगाहें किसी को पहचानती नहीं लगतीं
और लोगों और चीज़ों के आर-पार कुछ देखती लगती हैं
शायद वह खोजती हो या तसव्वुर करती हो अपने ही उस रूप का
स्वायत्त छूटकर जो न जाने कहां किसमें विलीन हो चुका ले चुका अवतार
शायद उसी या किसी और शहर की अगली बदनाम औरत बनकर !
***

Wednesday, August 27, 2008

प्रदीपचन्द्र पांडे की कविताएं

प्रदीपचन्द्र पांडे की ये बड़ी अर्थच्छवियों से घिरी छोटी-छोटी कविताएं एक 56 पृष्ठीय पतले-दुबले संकलन के रूप में मुझे एक पारिवारिक मित्र और प्रदीप की रिश्तेदार श्रीमती गीता पांडे ने पढ़ने के लिए दीं।
इस संकलन को 1994 में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल के सहयोग छापा गया और इसकी संक्षिप्त-सी भूमिका हमारे समय के सुपरिचित लेखक श्री लीलाधर मंडलोई ने लिखी है।
इन कविताओं से गुज़रते हुए मुझे लगा यह कवि सम्भावनाओं की सभी कसौटियों पर बिलकुल खरा उतरता है। लेकिन यह जानना भी उतना ही दुखद है कि इतनी बड़ी सम्भावनाओं वाला ये कवि अब कभी कुछ नहीं लिखेगा। कोई दस बरस पहले म0प्र0 के छतरपुर शहर में उनका देहांत हो गया।

मां की नींद

बंदूक की गोली से भी
ऊंची भरी उड़ान
पक्षी ने

देर तक
उड़ता रहा आसमान में
सुनता रहा बादलों को
देखता रहा
चमकती बिजलियां

उस समय
घूम रही थी पृथ्वी
घूम रहा था समय
ठीक उसी समय टूटी
बूढ़ी मां की नींद

क्यों टूटी
बूढ़ी मां की नींद?

उसका हरापन

सूखी लकड़ी
दिन-रात
पड़ी रही पानी में
फिर भी
हरी नहीं हुई
गल गई

धीरे-धीरे
पानी के ऊपर
तैरने लगा
उसका हरापन !

सोलहवीं मोमबत्ती

सोलहवीं मोमबत्ती
के होते हैं
पंख

वह फूंकने से बुझती नहीं
उड़ने लगती है

जहां-जहां टपकती हैं
उसकी बूंदें
वहां कुछ जलता नहीं
सिंकता-सा है

और सुरक्षित रहता है
सब कुछ
बूंद के नीचे !

उसकी आंखों में

काली लड़की के पास
काला कुछ नहीं

वह करती है
रंगों से बहुत प्यार
बर्दाश्त नहीं कर पाती लेकिन
आकाश का
ज्यादा नीला होना
पृथ्वी का ज्यादा हरा होना
बादलों का ज्यादा काला होना

उसके कैनवास में हैं
नपे-तुले रंग
रंगों के संतुलन पर उसकी आंखों में
टिका है इंद्रधनुष !

अहमद फ़राज़

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिन्दारे - मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो - रहे - दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किसको बतायेंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे खफ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते - गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते -जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिले - ख़ुशफ़हम को तुझसे हैं उमीदें
यह आखिरी शम'एं भी बुझाने के लिए आ

Monday, August 25, 2008

हँसो हँसो जल्दी हँसो - रघुवीर सहाय


आधुनिक हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद के सबसे महत्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर बहुत ख़ास लगने लगे हैं। मैं अधिक कुछ न कहते हुए उनकी एक प्रसिद्ध कविता यहां लगा रहा हूं। आप सभी मित्र अपनी बात कहेंगे तो अच्छा लगेगा।


हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है

हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूंज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहां कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !

Saturday, August 23, 2008

अनिल त्रिपाठी


पहली मार्च इकहत्तर को उ0प्र0 के एक निहायत छोटे गांव में जन्मे और फिर जे0एन0यू0 में दीक्षित अनिल त्रिपाठी को आलोचना के लिए `देवीशंकर अवस्थी सम्मान´ मिल चुका है।
वे कविताएं भी खूब लिखते हैं और उनका एक कविता संकलन `एक स्त्री का रोज़नामचा´ नाम से छपा और चर्चित हुआ है। अनिल की कविताओं में साफ़ दिखता है कि उन्होंने त्रिलोचन के ``कविता में वाक्य पूरा करने´´ के निर्णय को पूरी तरह अपनाया है। वे समकालीन हिंदी साहित्य की दुनिया का एक सुपरिचित नाम हैं। पहल के नए अंक में उनकी कुछ कविताएं छपी हैं, उन्हीं में से एक कविता आपके पढ़ने को !
इस समय बुलन्दशहर ज़िले के एक छोटे कस्बे में हिंदी के प्राध्यापक हैं।

एक क्षण भी भारी है

जब खूब बोझिल हो रात
तारे धरती पर उतर आने को तैयार हों
तब यह मुश्किल वक्त है
उन लोगो के लिए
जिनके जीवन में रोशनी की कोई लौ नहीं है

घर दुआर छोड़ पैदल
हज़ारों मील की यात्रा के बावजूद
सिर्फ कोरा आश्वासन
यह सब क्या है?
इस इतने बड़े लोकतंत्र में

गांधी की राह पर चलकर
आंदोलन के अब क्या कोई मायने नहीं?

यह वक्त ही बिकाऊ है
धरती जड़ ज़मीन सपने सभी तो
यहां तक कि भूख पर पहरेदारी बिठा
हसरतों का बैनामा हो चुका है
हंसी के आपातक्षण भी आखिर अब कहां बचे हैं?

किसने खरीद लिया है यह सब
मज़बूर किसने किया है?
चलनी में पानी पीने के लिए

पेड़ों को दुख है कि वे चल नहीं सकते
नहीं है उनके पास कोई उपाय
आरों से अपना सीना चाक करवाने के अलावा

वह दिन दूर नहीं जब
तुम्हें पड़ेगा प्राणवायु का टोटा
और तुम किसी बोतल में खरीदोगे उसे आज के पानी की तरह
तब समझ में आएगा विस्थापन का दर्द !

सेंसेक्स का गणित धरा रह जाएगा तब
क्योंकि पैसा नहीं है पानी और हवा का विकल्प
पानी, हवा और अनाज जीवन है
और जीवन जाहिर है टाटा की लखटकिया कार से
ज्यादा महत्वपूर्ण है

इसलिए दोस्तो ..... ऐसे में
जब गति हो तेज़
तब असावधानी का एक क्षण भी
भारी है समूची धरती पर !

कुमार अम्बुज

कुमार अम्बुज हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों में एक हैं। मेरे लिए वे ऐसे अनदेखे-अनमिले-अपरिचित बड़े भाई हैं, जिनकी कविता की मैंने हमेशा ही कद्र की है और मुझे जानने वाले जानते हैं कि ऐसे कवियों की मेरी सूची बहुत लम्बी नहीं है। पहल के नए अंक में कुमार अम्बुज की कुछ शानदार कविताएं पढ़ने को मिली हैं, उन्हीं में से दो आपके लिए यहां प्रस्तुत हैं -
***


आकस्मिक मृत्यु



बच्चे सांप-सीढ़ी खेल रहे हैं
जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी मांगेंगे
उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं
वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं
जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं
किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही

अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे
रोना होगा, रोयेंगे
अचानक खिलखिला उठेंगे या ज़िद करेंगे
तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे
और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे
***



कहीं भी कोई कस्बा
अभी वसंत नहीं आया है
पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते
लगातार उड़ती धूल वहां कुछ आराम फरमाती है

एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे
जब-तब जम्हाइयां लेती दुकानें
यह बाज़ार है
आगे दो चौराहे
एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था
दूसरी किसी योद्धा की है
नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह

नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो
पोस्ट मास्टर और बैंक मैनेजर के घर का पता चलता-फिरता आदमी भी बता देगा
उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार
जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें
ए0टी0एम0 ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक

आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते
तांगेवालों की यूनियन फेल हुई
ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खांसते-खंखारते
अभी-अभी खतम हुए हैं चुनाव
दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी

गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएं
जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में

चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है
पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें
अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियां हैं
रात के ग्यारह बजने को हैं
आखिरी बस आ चुकी
चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास

पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,
एक किलोमीटर दूर ढाबा
और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।

***

Friday, August 22, 2008

चंद्रकांत देवताले की कविता

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही


अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोये हैं उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए
दुस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शांत मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे

सोये हुए बच्चे तो नन्हें फ़रिश्ते ही होते हैं
और सोयी हुयी स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशाँ

अगर नींद नहीं आ रही तो
हंसो थोड़ा , झाँकों शब्दों के भीतर
खून की जांच करो अपने -

कहीं ठंडा तो नहीं हुआ ?
***

Monday, August 18, 2008

सपने में एक औरत से बातचीत - विमल कुमार

विमल कुमार, मेरा अनुमान है कि कुमार अम्बुज और देवीप्रसाद मिश्र की पीढ़ी के कवि हैं। मैं उन्हें उनके संकलन `सपने में एक औरत से बातचीत´ से जानता हूं और पसंद भी करता हूं। यह भी सूच्य है कि इस पुस्तक का ब्लर्ब असद जैदी ने लिखा है। कुछ समय पहले जाना कि उन्होंने तो कोई `चोर-पुराण´ लिख डाला है। मैं इस कविता को यहां लगाकर उन्हें उनके काव्य-सामर्थ्य की याद कराना चाहता हूं - यानी कि `क्या चुपि साध रहा बलवाना!´
***

पहले दरवाजा खटखटाया उस औरत ने
सपने में

सपने में
कमरे में घुसते हुए बोली कैसे हैं मेरे बच्चे
अब तो हो गए होंगे काफी बड़े
शादी के लायक
स्कूल - कालेज जाते हैं कि नहीं?

मैं उस औरत से क्या कहूं
कैसे कहूं
कि उसकी मंझली लडत्रकी भाग गई ड्राइवर के साथ
कैसे कहूं
कि उनके नाम कट गए
और पिता ने गंवा दिए
जुए और शराब में तुम्हारे जेवरात

सपने में उस औरत को मैंने कहा
तुम बैठो तो सही
कैसी हो तुम कुछ सुनाओ
सपने में वह औरत बोली बैठना क्या?
थोड़ी देर के लिए आयी थी चलती हूं
तुम बेहद चुप हो
कुछ बताते नहीं?
तुम्हारी मेज पर कैसे हैं ये बिखरे हुए कागज
बक्से में क्या रखा है तुमने
कमरे में कुछ अजीब-सी गंध है
अच्छा तुम्हारी नौकरी का क्या हुआ
क्या कर रहे हो आजकल?

मैं उस औरत को क्या बताऊं
जो दस साल पैदल चलकर सपने में आयी आज
पहले वह पड़ोस में रहती थी
करती थी कुछ कामकाज
एक दिन अचानक उसके बच्चे रोने लगे दहाड़े मारकर
पति को काटो तो खून नहीं
मैं उस औरत को क्या कहूं
सपने में मैंने सोचा
सपने में ही कहा
अपना तो चलता ही रहता है कुछ न कुछ
चाय बनाता हूं थोड़ी देर ठहरो
फिर सपने में उस औरत ने पूछा
अच्छा बताओ शहर में क्या हो रहा है
तुम लोग कुछ करते वरते हो पहले की तरह या नहीं?
सपने में वह औरत बैठी रही बातें करती रही तरह-तरह की
सुनाती रही अपने अनुभव

वह सपने से जाने लगी उठकर
इसी बीच सपना खत्म हुआ
कि उसके बच्चे आए दौड़े दौड़े मेरे पास
मां का स्वास्थ्य कैसा है : मंझली ने पूछा
फूट-फूटकर रोने लगी छुटकी
कई दिनों से मां अब नहीं दिखती सपने में
बड़की यह कह गंभीर हो गई
ताड़-सी लम्बी और जवान बड़की की गंभीरता को देखकर
मैं सोचने लगा
अगली बार वह औरत फिर कभी आएगी सपने में
पूछेगी इस तरह के ढेर सवाल
तो मैं क्या कहूंगा
कौन-सा झूट चुनकर इस बार पहले रखना होगा
!
*** 

Friday, August 15, 2008

किरीट मंदरियाल की कविताएं


किरीट मेरे लिए व्यक्ति से ज़्यादा एक व्यक्तित्व हैं। उन्हें अपने अनुभव अभी प्राप्त करने हैं। वे अपने पहाड़ी गांव से नस-नाल आबद्ध हैं और बोलते-बतियाते उनके भीतर पहाड़ जैसे जी उठता है।

यहां उनकी कुछ कविताएं दी जा रही हैं, जो दरअसल उनके ठेठ भौगोलिक परिवेश से भिन्न कुछ भीतरी और निजी संघर्षों के छोटे-मोटे आख्यान-प्रत्याख्यान भर हैं। उनकी उम्र का नयापन या कहिए कि कच्चापन, आपको इनमें दिखेगा, जो मेरे हिसाब से इन कविताओं को एक भोला-भाला स्वर प्रदान करता है। हमारे सबसे ख़राब और ख़तरनाक समय में भी इन कविताओं में बसी उम्मीद भले बचकानी कही जाए पर लुभा भी बहुत रही है। बाक़ी आप बताइए !



इस महान सदी के आरम्भ में
इस
महान सदी के आरम्भ में
आम आदमी के लिए
शोकगीत लिखने वाले
कवियों से
मैं परिचित नहीं

मैं परिचित नहीं
अंत की घोषणा करने वाले
विद्वानों से
साहित्य के गढ़ और मठ कविता के
मेरी पहुंच से बाहर हैं

कम
बहुत ही कम और सीमित है
मेरा परिचय
और अपनी इस सीमा से बंधा मैं
खुश हूँ बहुत

खुश हूं
कि जहां रहता है आदमी
अपनी पूरी मुश्किलों और संघर्षों के साथ
मैं भी रहता हूं वहीं
और सुरक्षित है मेरी कविता भी
जीवन के उन्हीं
छोटे-बड़े दुखों और सुखों में
कहीं !
***


हम तुम मिलेंगे

हम-तुम मिलेंगे
इसी को शायद कहते हैं उम्मीद
सपना इसी को कहते हैं
इसी को शायद कहते हैं खुशी

तो एक उम्मीद को करने के लिए पूरा
साकार करने के लिए एक स्वप्न
पाने के लिए खुशी
हम-तुम मिलेंगे

मिलेंगे और देखेंगे तब
दुनिया
जो ज्यादा खूबसूरत होगी !
***




'क' से बनती है 'कोशिश'
और 'कामयाबी' भी
'क' न होता तो क्या कहलाती 'कविता' ?

क्या होता फिर प्रश्नों का
कैसे कहते फिर हम यह सब -
क्यों ?
कब ?
कैसे ?
क्या ?
कहां ?

*** 

Wednesday, August 13, 2008

दोस्तों के डेरे पर एक शाम - दो कवितायें

दोस्तों के डेरे पर एक शाम - एक

बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमारे जीवन में
हमने टटोली अपनी आत्मा

जैसे आटे का ख़ाली कनस्तर
जैसे घी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आखिरी सिक्का

बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमने खंगाला अपना अंतस

जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को

और फिर
रात और दिन के बीच छटपटाती
उस थोड़ी-सी
धुंधलाई रोशनी में
हमने पाया
कि बाक़ी था अभी
कनस्तर में थोड़ा-सा आटा
बरतन में छौंकने भर का घी

जे़ब में सिगरेट के लिए पैसा
अभी बाक़ी था

बाक़ी था जीवन।


दोस्तों के डेरे पर एक शाम - दो

बहुत कुछ टूटा हमारे भीतर
और बाहर भी

रिश्ते टूटे
रिश्तों के साथ टूटे दिल
दिलों के साथ देह

इच्छाओं की भीत टूटी
खुशियों का वितान

घर टूटे हमारे
घरों के साथ सपने
सपनों के साथ नींद

बहुत कुछ टूटा जीवन में
जागते हुए काटीं हमने अपनी सबसे काली रातें
पर बचे रहे

बचे रहे हम

जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य

बचे रहे
इस दुनियावी उथल-पुथल में
हमेशा के लिए बस गई
हमारी उपस्थिति।
1999

Wednesday, August 6, 2008

उजाड़ में संग्रहालय - चंद्रकांत देवताले

पुराने उम्रदराज़ दरख्तों से छिटकती छालें
कब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं


अतीत चौकड़ी भरते घायल हिरन की तरह
मुझमें से होते भविष्य में छलाँग लगाता है



मैं उजाड़ में एक संग्रहालय हूँ


हिरन की खाल और एक शाही वाद्य को
चमका रही है उतरती हुयी धूप

पुरानी तस्वीरें मुझ पर तोप की तरह तनी है।


भूख की छायायों और चीखों के टुकडों को दबोच कर
नरभक्षी शेर की तरह सजा -धजा बैठा है जीवित इतिहास



कल सुबह स्वतंत्रता दिवस का झंडा फहराने के बाद
जो कुछ भी कहा जायेगा
उसे बर्दाश्त करने की ताक़त मिले सबको
मैं शायद कुछ ऐसा ही बुदबुदा रहा हूँ !
*** 

Sunday, August 3, 2008

नरेश सक्सेना की कविताएं


एक अद्वितीय तत्व हमें नरेश सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है और वह है मानव और प्रकृति के बीच लगभग संपूर्ण तादात्म्य - और यहां प्रकृति से अभिप्राय किसी रूमानी, ऐंद्रिक शरण्य नहीं बल्कि पृथ्वी सहित सारे ब्रह्मांड का है, वे सारी वस्तुएं हैं, जिनसे मानव निर्मित होता है और वे भी जिन्हें वह निर्मित करता है 
- विष्णु खरे

1939 में जन्में वरिष्ठ कवि नरेश जी का अब तक एक ही संकलन `समुद्र पर हो रही है बारिश´ नाम से छपा है, जो अब अप्राप्य बताया जाता है।



जूते

जिन्होंने खुद नहीं की अपनी यात्राएं
दूसरों की यात्रा के साधन ही बने रहे
एक जूते का जीवन जिया
जिन्होंने
यात्रा के बाद उन्हें छोड़ दिया गया घर के बाहर।
***

रात भर

रात भर चलती रहती हैं रेलें
ट्रक ढोते हैं माल रात भर
कारखाने चलते हैं
कामगार रहते हैं बेहोश
होशमंद करवटें बदलते हैं रात भर
अपराधी सोते हैं
अपराधों का कोई सम्बन्ध अब अंधेरे से नहीं रहा
सुबह सभी दफतर खुलते हैं अपराध के।
***


कौवे-एक


हमारे शहर के कौवे केंचुए खाते हैं
आपके शहर के क्या खाते हैं

कोई थाली नहीं सजाता कौंवों के लिए
न दूध भरी कटोरी रखता है मुंडेर पर
रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं
सोने से चोंच मढ़ाने वाला गीत एक गीत है तो सही
लेकिन होता अक्सर यह है
कि वे मार कर टांग दिए जाते हैं शहर में
शगुन के लिए

वे झपट्टा मारते हैं और ले जाते हैं अपना हिस्सा
रोते रह जाते हैं बच्चे
चीखती रह जाती हैं औरतें
बूढ़े दूर तक जाते हैं उन्हें खदड़ते और बड़बड़ाते

कोई नहीं बताता कौवों को
कि वे आखिर किसलिए पैदा हुए संसार में !
***

कौवे - दो

बत्तखों से कम कर्कश
और कोयलों से कम चालाक बल्कि भोले माने जाते कौवे
बशर्ते वे किसी और रंग के होते
मगर वे काले होते हैं बस यहीं से होती है उनके दुखों की शुरूआत
गोरी जातियों से पराजित हमारा अतीत
कौवों का पीछा नहीं छोड़ता
एक दिन एक मरे हुए कौवे को घेरकर

जब वे बैठे रहे और अंधेरा होने तक कांव-कांव करते रहे
तब समझ में आया
कि यह तो उनके निरंतर शोक की आवाज़ है
जिसे हम संगीत की तरह सुनना चाहते हैं

निरंतर धिक्कार और तिरस्कार के बावजूद
बस्तियां छोड़कर नहीं जाते
अपने भर्राए गलों से न जाने क्या कहते रहते हैं !
*** 

Saturday, August 2, 2008

हरजीत सिंह की ग़ज़लें, अशोक के लिए !


एक

फूल सभी जब नींद में गुम है , महके अब पुरवाई क्या
इतने दिनों में याद जो तेरी, आई भी तो आई क्या

मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा दिन तन्हा रातें तनहा
सब कुछ तन्हा तन्हा सा है, इतनी भी तन्हाई क्या

खिंचते चले आते हैं सफीने देख के उसके रंगों को
तुमने एक गुमनाम इमारत साहिल पर बनवाई क्या

सारे परिंदे सारे पत्ते जब शाखों को छोड़ गए
उस मौसम में याद से तेरी हमने राहत पाई क्या

कांच पे जब भी धूल जमी, हमने तेरा नाम लिखा
कागज़ पर ही ख़त लिखने की तुमने रस्म बनाई क्या

आ अब उस मंजिल पर पहुंचें जिस मंजिल के बाद हमें
छू न सके दुनिया की बातें , शोहरत क्या रुसवाई क्या

दो

उसके पांवों की मिटटी ढलानों की है
चाह फ़िर भी उसे आसमानों की है

हर तरफ़ एक अजब शोर बरपा किया
ये ही साजिश यहाँ बेज़ुबानों की है

कोई आहट न, न साया, न किलकारियां
आज कैसी ये हालत मकानों की है

उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो
उसकी हस्ती पुराने ख़जानों की है

आप हमसे मिलें तो ज़मीं पर मिलें
ये तक़ल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है

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