Friday, July 18, 2008

मंगलेश डबराल - आयोजन



हमारे समय के बड़े कवि मंगलेश डबराल की इस कविता में मैं समकालीन कविता की कई हकीकतें एक साथ देख पाता हूं। दोस्तो आप बताएं आपका क्या खयाल है?


आयोजन

इन दिनों हर कोई जल्दी में है
लोग थोडी थोडी देर के लिए झलकते हैं अकेले पीते हुए
धुंधले आकारों जैसे वे एक - दूसरे की तरफ़ आते हैं
उनके हाथ में होता है वही अकेलेपन का गिलास
अचानक मिलने की प्रसन्नता इतने दिन न मिलने का आश्चर्य
एक दिन दूर से जाते दिखे किसी मित्र का ज़िक्र
संकट के इस दौर में बढ़ते जाते हैं खाने - पीने के आयोजन
धीमी रौशनी में छतों और दीवारों पर परछाइयां लम्बी होती जाती हैं
इससे पहले कि यह शानदार दावत
एक सस्ती-सी चिल्लाती हुई जगह में बदल जाए
इससे पहले कि खुशी सिगरेट की तरह खत्म हो
हमें चल देना चाहिए वापस इसी भीड़ में

महान मित्रताएं भी एक समय तक चलीं
अब खाली कमरे में मेज पर एक गिलास रखा है
मित्रता के मार्मिक वर्णन से भरी किताब खुली पड़ी है
कि जब अंतत: वे जुदा होने को हुए
तो देर तक कांपता रहा उनका अस्तित्व
उसके बाद वैसी मित्रता संभव नहीं हुई !

***

3 comments:

  1. बढिया रचना है।
    कृपया ब्लोग पर ध्यान दे दीख नही रहा।

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  2. कैसा शर्मनाक समय है
    जीवित मित्र मिलता है
    तो उससे ज्यादा उसकी स्मृति
    उपस्थित रहती है
    और स्मृति के प्रति
    बची-खुची कृतज्ञता
    -कवि मनमोहन

    ReplyDelete

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