
मैं बहुत व्यक्तिगत होकर यह कहना चाहता हूं कि व्योमेश और गीत चतुर्वेदी, ये दो नौउम्र कवि ऐसे हैं जो कविता यात्रा में मुझे खुद से बहुत आगे-बहुत दूर जाते दिखाई देते हैं। मैं इन दोनों के लेखन से बहुत प्रभावित हूं और इन्हें आगे जाते देखना चाहता हूं। गीत को आप उसके अपने ब्लाग पर पढ़ते रहते हैं, इसलिए यहां सिर्फ व्योमेश की कविता लगा रहा हूं।
(क्योंकि यह एक पुराने शहर में हो रहा है या सभी शहरों में, लेकिन हो रहा है)
या
(क्योंकि यह सभी शहरों में हो रहा है इसलिए इस शहर में भी हो रहा है, यानी हो रहा है)
बाएं से चलने के नियम से ऊबे लोग दाहिने चलने की मुक्ति चाहते हैं बाएं से काफी शिकायत है सबको इस पुराने नियम से होकर वहां नहीं पहुंचा जा सकता जहां पहुंचना अब जरूरी है लोग लगातार एक दूसरे के दाहिने जाते हुए आगे निकलते जा रहे हैं और इस तरह लगातार और दाहिने जा रहे हैं इस तरह सामने से आने वालों के लिए भी अपने बाएं से आना नामुमकिन होता जा रहा है इस दृश्य को देखकर आसानी से यह राय बनाई जा सकती है कि इस देश में दाएं से चलने का नियम है। हो सकता है कि बाएं चलने का नियम कब का खत्म कर दिया गया हो और कुछ लोग अपनी गलतफहमी अकेलेपन और बदगुमानी में यह मानकर चल रहे हों कि बहुसंख्यक जनता आत्मघाती गलती करती हुई दाएं चलती चली जा रही है ऐसे विचित्र उहापोह भरे हुए माहौल का लाभ उठाने के मकसद से ही शायद एकल दिशा मार्ग बनवा दिए गए हैं जिन पर चलते हुए कोई इस गफलत में भी रास्ता तय कर सकता है कि वह अपने बाएं से चल रहा है जबकि वह बिलकुल दाहिने से चल रहा है अगर गौर करें तो पाएंगे कि ट्रैफिक पुलिस भी आपको दाहिने भेजने का इशारा करती रहती है और जिन चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस नहीं है वहां वह दाहिने चलने की स्वछंदता उपलब्ध कराने के लिए नहीं है
शायद एक सर्वग्रासी दाहिनापन आदतों लक्ष्यों पर्यावरणों अमीरों गरीबों में रोग बनकर फैला हुआ है जिसकी वजह से मेरी पृथ्वी साढ़े तेईस डिग्री दाहिने झुक गई है सड़क पर रिक्शा खींच रहा बिहार टैक्सी चला रहा उत्तर प्रदेश और मुम्बई - जो जितनी धूप हो उतना चमचमाने वाली कार है - सब दाहिने की ढलान पर लुढ़कते जा रह हैं नदियों का जल दाहिने बहता हुआ बाढ़ ला रहा है और बाएं अकाल पड़ा हुआ है सबसे कमजोर आदमी को लगता है कि सबसे दाहिने ही शरण है ट्रैफिक जाम की मुश्किल पर ठंडे शरीर ठंडे दिमाग से विचार करने वाले दाहिनेपन की विकरालता और फैलाव को नहीं समझ पा अह हैं
कन्नी काटकर निकल जानेवाली धोखेबाज अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है !
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शीरिष भाई अच्छी रचना है. व्योमेश जी को ज्यादा पढा नहीं पर पढते रहने का मन बना है.
ReplyDeleteव्योमेश जी को पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा. आपका आभार यहाँ प्रस्तुत करने का.
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