Thursday, July 31, 2008

अदम गोंडवी की ग़ज़लें


बिवाई पड़े पांवों में चमरौंधा जूता , मैली - सी धोती और मैला ही कुरता , हल की मूठ थाम -थाम सख्त और खुरदुरे पड़ चुके हाथ और कंधे पर अंगोछा , यह खाका ठेठ हिन्दुस्तानी का नहीं , जनकवि अदम गोंडवी का भी है , जो पेशे से किसान हैं। दिल्ली की चकाचौंध से सैकडों कोस दूर , गोंडा के आटा - परसपुर गाँव में खेती करके जीवन गुजारने वाले इस ' जनता के आदमी' की ग़ज़लें और नज़्में समकालीन हिन्दी साहित्य और निज़ाम के सामने एक चुनौती की तरह दरपेश है। यहाँ उनके कलाम में देखें अपना और हिन्दुस्तानी सर्वहारा का जूझता और झुलसता चेहरा
 - सुरेश सलिल


एक

ज़ुल्‍फ़ - अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब

इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब
डाल पर मजहब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए
डूबना आसान है आंखों के सागर में जनाब
***


दो


जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में
गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में
*** 

Friday, July 25, 2008

अफ़ज़ाल अहमद का "एक पागल कुत्ते का नौहा"


(जीवन स्थितियों का इतना गहरा अवसाद, रचना के अनुभव में निहित तनाव की इतनी आवेगपूर्ण लय, इतना ताजगी भरा चाक्षुक बिंब विधान और पैराबल्स, काव्यात्मक तर्क का ऐसा ढांचा और इसके साथ कवि मिजाज में एक खास तरह की बेपरवाहीए अनौपचारिकता और बोहेमियनपन - मेरे मन में यह इच्छा जागी कि क्यों न इन कविताओं को हिंदी के समकालीन साहित्य संसार के सामने लाया जाए ! - विजय कुमार, पहल -45)
एक मज़दूर की हैसियत से
मैंने ज़हर की बोरी
स्टेशन से गोदाम तक उठाई
मेरी पीठ हमेशा के लिए नीली हो गई

एक शरीफ़ आदमी की हैसियत से
मैंने अपनी पीठ को सफ़ेद रंगवा लिया

एक किसान की हैसियत से मैंने एक एकड़ ज़मीन जोती
मेरी पीठ हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई

एक शरीफ़ आदमी की हैसियत से मैंने
अपनी रीढ़ की हड्डी निकलवा कर अपनी पीठ
सीधी करवा ली

एक उस्ताद की हैसियत से मुझे
खरिया मिटटी से बनाया गया

एक शरीफ़ आदमी की हैसियत से
ब्लैक बोर्ड से

एक गोरकन की हैसियत से
मुझे लाश से बनाया गया
एक शरीफ़ आदमी की हैसियत से
मरहूम की रूह से

एक शायर की हैसियत से मैंने
एक पागल कुत्ते का नौहा लिखा

एक शरीफ़ आदमी की हैसियत से
उसे पढ़ कर मर गया !
--------------------------------------
गोरकन - कब्र खोदने वाला
नौहा - एक तरह का शोकगीत
--------------------------------------
फोटो - कबाड़खाने से

अजेय की कविताएं



अजेय हिमाचल के सुदूर इलाके लाहौल में रहने वाले नौजवान कवि हैं। उनकी कवितायें पहल जैसी पत्रिकाओं में छपी हैं। अनुनाद उन्हें अपने साथ पा कर खुश है !

एक नदी उपभोग के लिए हमें चाहिए

एक नदी
उस में कूद जाने के लिए
एक नदी
उसमें तैरने के लिए
एक नदी
उसमें डूब जाने के लिए।

एक नदी हम सोचें
अपने आकाश और उसकी सूखती हवा के लिए
एक नदी हम खोजें
अपनी धरती
और उसकी तपती मिट्टी के लिए
एक नदी हम पोसें
अपनी ज़िन्दगी
और उसमें गायब हरियाली के लिए।

एक नदी एक मुश्त, अभी
एक चिलचिलाते समय के लिए
और पीते रहें उसे किश्तों में
आहिस्ता - आहिस्ता।
***

कहीं यह आखिरी कविता न हो

दोस्तो, ध्यान से सुनना
आप्त वचनों की तरह
शुद्ध हृदय से बोल रहा हूँ
आखिरी बार।

तमाम जनतांत्रिक माहौल और उदारवादी अहसासों के बावजूद
पता नहीं क्यों डर रहा हूँ
कि इसके बाद कोई कविता नहीं लिखी जाएगी
कि इस के बाद जो कुछ भी लिखा जाएगा
वह होगा
आवेदन
जहाँ तय रहेगा पहले से एक प्रपत्र
तय रहेगीं विवरणों की सीमाएं
छोटे-छोटे कॉलमों में आप केवल `हाँ ´ या `नहीं´ लिख सकेंगे
बड़ी हद `लागू नहीं´ लिख लीजिए
टीप के लिए नहीं बने होंगे हाशिए ।

अथवा होंगी
याचिकाएँ जिन्हें दायर करने के लिए आपकी एक हैसियत चाहिए
और कोई अधिसूचना या
तयशुदा कानूनी शब्दावली में कोई अध्यादेश
जिसे फौरी तौर पर पढ़ने से
लगे कि सचमुच ही जनहित में जारी किया गया है!

इसके बाद कुछ लिखा जाएगा
तो हलफनामे और अनुबंध लिखे जायेंगे
और भनक भी नहीं लगेगी
कि आपने अपने इन हाथों से अपनी कौन सी
ज़रूरी ताकतें रहन लिख दीं!

इसीलिए दोस्तों ध्यान से सुनना
बड़ी मेहनत से लिख रहा हूँ
अपने नाखून छील कर
अपनी ही पीठ पर
गोद रहा हूँ ये तल्ख तेज़ाबी अक्षर।

तुम ध्यान दोगे अगर
तो मेरी दहकती पीठ पर ठंडक उतर आएगी
दूना-चौगुना रक्त दौड़ेगा धमनियों में
स्वस्थ मज्जा से मेरी खोखली रीढ़ भर जाएगी
तुम्हारी सामूहिक उर्जा से आविष्ठ होगा
मेरा स्नायुतंत्र
तन कर सीधी खड़ी हो जाएगी मेरी संक्रमित देह
मौसम की मनमर्जि़यों के खिलाफ
चमकेंगे नए हरूफ मेरी बेचैन छाती पर

यही मौका है, दोस्तो ध्यान से सुनना
तन्मय होकर
कहीं यह आखिरी कविता न हो !
*** 

Wednesday, July 23, 2008

बनारस से निकला हुआ आदमी .... यात्रा वृत्तान्त

दोस्तों ये लम्बी कविता पहल ८३ में छप कर चर्चित या विवादित रही(हिन्दी में दोनों का अर्थ एक ही है शायद)। मैं पहली बार अपने ब्लॉग पर कोई आवाज़ चिपका रहा हूँ इसलिए किसी बड़े कवि की कविता इस्तेमाल न करते हुए ख़ुद पर इस प्रयोग को आजमा रहा हूँ ! मेरा स्वर बहुत अटपटा अजीब सा सुनाई देता है , बाक़ी आप बताइए कि कैसा लगा ?
अवधि : १६ मिनट २४ सेकेण्ड



Tuesday, July 22, 2008

व्योमेश शुक्ल - लेकिन यानी इसलिए


मैं बहुत व्यक्तिगत होकर यह कहना चाहता हूं कि व्योमेश और गीत चतुर्वेदी, ये दो नौउम्र कवि ऐसे हैं जो कविता यात्रा में मुझे खुद से बहुत आगे-बहुत दूर जाते दिखाई देते हैं। मैं इन दोनों के लेखन से बहुत प्रभावित हूं और इन्हें आगे जाते देखना चाहता हूं। गीत को आप उसके अपने ब्लाग पर पढ़ते रहते हैं, इसलिए यहां सिर्फ व्योमेश की कविता लगा रहा हूं।

(क्योंकि यह एक पुराने शहर में हो रहा है या सभी शहरों में, लेकिन हो रहा है) 
या 
(क्योंकि यह सभी शहरों में हो रहा है इसलिए इस शहर में भी हो रहा है, यानी हो रहा है)


बाएं से चलने के नियम से ऊबे लोग दाहिने चलने की मुक्ति चाहते हैं बाएं से काफी शिकायत है सबको इस पुराने नियम से होकर वहां नहीं पहुंचा जा सकता जहां पहुंचना अब जरूरी है लोग लगातार एक दूसरे के दाहिने जाते हुए आगे निकलते जा रहे हैं और इस तरह लगातार और दाहिने जा रहे हैं इस तरह सामने से आने वालों के लिए भी अपने बाएं से आना नामुमकिन होता जा रहा है इस दृश्य को देखकर आसानी से यह राय बनाई जा सकती है कि इस देश में दाएं से चलने का नियम है। हो सकता है कि बाएं चलने का नियम कब का खत्म कर दिया गया हो और कुछ लोग अपनी गलतफहमी अकेलेपन और बदगुमानी में यह मानकर चल रहे हों कि बहुसंख्यक जनता आत्मघाती गलती करती हुई दाएं चलती चली जा रही है ऐसे विचित्र उहापोह भरे हुए माहौल का लाभ उठाने के मकसद से ही शायद एकल दिशा मार्ग बनवा दिए गए हैं जिन पर चलते हुए कोई इस गफलत में भी रास्ता तय कर सकता है कि वह अपने बाएं से चल रहा है जबकि वह बिलकुल दाहिने से चल रहा है अगर गौर करें तो पाएंगे कि ट्रैफिक पुलिस भी आपको दाहिने भेजने का इशारा करती रहती है और जिन चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस नहीं है वहां वह दाहिने चलने की स्वछंदता उपलब्ध कराने के लिए नहीं है



शायद एक सर्वग्रासी दाहिनापन आदतों लक्ष्यों पर्यावरणों अमीरों गरीबों में रोग बनकर फैला हुआ है जिसकी वजह से मेरी पृथ्वी साढ़े तेईस डिग्री दाहिने झुक गई है सड़क पर रिक्शा खींच रहा बिहार टैक्सी चला रहा उत्तर प्रदेश और मुम्बई - जो जितनी धूप हो उतना चमचमाने वाली कार है - सब दाहिने की ढलान पर लुढ़कते जा रह हैं नदियों का जल दाहिने बहता हुआ बाढ़ ला रहा है और बाएं अकाल पड़ा हुआ है सबसे कमजोर आदमी को लगता है कि सबसे दाहिने ही शरण है ट्रैफिक जाम की मुश्किल पर ठंडे शरीर ठंडे दिमाग से विचार करने वाले दाहिनेपन की विकरालता और फैलाव को नहीं समझ पा अह हैं


कन्नी काटकर निकल जानेवाली धोखेबाज अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है !
*** 

Monday, July 21, 2008

पंकज चतुर्वेदी की " हिंदी "


2४ अगस्त १९७१ को इटावा में जन्मे पंकज नई पीढी के प्रतिष्ठित आलोचक और कवि हैं - और भरपूर हैं ! उन्होंने इन दो लेखकीय रूपों को एक ही व्यक्तित्व में सम्भव करने का चमत्कार कर दिखाया है। आइये मैं पढ़वाता हूँ उनकी एक विलक्षण कविता -

" हिंदी "

डिप्टी साहब आए
सबकी हाजिरी की जांच की
केवल रजनीकांत नहीं थे

कोई बता सकता है -
क्यों नहीं आए रजनीकांत ?

रजनी के जिगरी दोस्त हैं भूरा -
रजिस्टर के मुताबिक अनंतराम -
वही बता सकते हैं , साहब !

भूरा कुछ सहमते - से बोले :
रजनीकांत दिक़ हैं

डिप्टी साहब ने कहा :
क्या कहते हो ?
साहब , उई उछरौ - बूड़ौ हैं

इसका क्या मतलब है ?

भूरा ने स्पष्ट किया :
उनका जिव नागा है

डिप्टी साहब कुछ नहीं समझ पाये
भूरा ने फ़िर कोशिश की :
रजनी का चोला
कहे में नहीं है

इस पर साहब झुंझला गए :
यह कौन - सी भाषा है ?

एक बुजुर्ग मुलाजिम ने कहा :
हिंदी है हुज़ूर
इससे निहुरकर मिलना चाहिए !
***

Friday, July 18, 2008

मंगलेश डबराल - आयोजन



हमारे समय के बड़े कवि मंगलेश डबराल की इस कविता में मैं समकालीन कविता की कई हकीकतें एक साथ देख पाता हूं। दोस्तो आप बताएं आपका क्या खयाल है?


आयोजन

इन दिनों हर कोई जल्दी में है
लोग थोडी थोडी देर के लिए झलकते हैं अकेले पीते हुए
धुंधले आकारों जैसे वे एक - दूसरे की तरफ़ आते हैं
उनके हाथ में होता है वही अकेलेपन का गिलास
अचानक मिलने की प्रसन्नता इतने दिन न मिलने का आश्चर्य
एक दिन दूर से जाते दिखे किसी मित्र का ज़िक्र
संकट के इस दौर में बढ़ते जाते हैं खाने - पीने के आयोजन
धीमी रौशनी में छतों और दीवारों पर परछाइयां लम्बी होती जाती हैं
इससे पहले कि यह शानदार दावत
एक सस्ती-सी चिल्लाती हुई जगह में बदल जाए
इससे पहले कि खुशी सिगरेट की तरह खत्म हो
हमें चल देना चाहिए वापस इसी भीड़ में

महान मित्रताएं भी एक समय तक चलीं
अब खाली कमरे में मेज पर एक गिलास रखा है
मित्रता के मार्मिक वर्णन से भरी किताब खुली पड़ी है
कि जब अंतत: वे जुदा होने को हुए
तो देर तक कांपता रहा उनका अस्तित्व
उसके बाद वैसी मित्रता संभव नहीं हुई !

***

Wednesday, July 16, 2008

असद ज़ैदी की कविता

मुझसे साफ़ करने को कहा जाएगा

मुझसे साफ़ करने को कहा जाएगा
कूड़ा जो मैं फैला रहा हूँ

मेरी स्मृति इसी कूड़े में इच्छाशक्ति गई कूड़े में
भूल गया क्या था मेरा सामान कूड़ा याद रहा
ये जो अफ़सोस भरा सर लिए मैं जाता हूँ
जल्दी ही कहा जाएगा इसे फेंको
जीवन को जियो जीवन की तरह

मुझसे कहा जाएगा बेफ़िक्र हो जाओ
यह नहीं कहा जाएगा लोगों की फ़िक्र करो ताकि
वे तुम्हारी फ़िक्र करें

और एक सुबह नींद से उठ कर
मैं आज़ाद हो जाऊंगा
शरीर से छूटे पसीने की तरह आज़ाद !
*** 

Sunday, July 13, 2008

वीरेन डंगवाल की लम्बी कविता - रामसिंह

४ दिन पहले मैं पौडी के सुदूर गाँव की यात्रा पर था और पता नहीं क्यों मुझे वीरेन दा की ये कविता याद आती रही। मेरे साथ आप भी पढिये इसे। कोई २८ साल पुरानी ये कविता आज भी उतनी ही ओजस्वी और असरदार है !


रामसिंह 


दो रात और तीन दिन का सफर तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गंदी जरसी उतारकर कलफदार वरदी पहन लो
रम की बोतलों को हिफाजत से रख लो रामसिंह
वक्त खराब है खुश होओ, तनो, बस में बैठो , घर चलो !
तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है
रामसिंह पहाड़ होते थे अच्छे मौके के मुताबिक कत्थई-सफेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ खुशी होती थी
तुम कंटोप पहनकर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में गड़ी हुई दौलत की तरह गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप मरा करता था लाम पर अंगरेज बहादुर की खिदमत करता
मां सारी रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हुई मां होती थी
पिता लाम पर कटा करते थे
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हुई
मोटर में बैठकर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ
- - -
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बंदूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगली हो?
किसका उठा हुआ हाथ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफीस दस्ताना?
जिन्दा चीज में उतरती हुई किसके चाकू की धार ?
कौन हैं वे, कौन ?
जो हर समय आदमी का नया इलाज ढूंढते रहते हैं?
जो बच्चों की नींद में डर की तरह दाखिल होते हैं?
जो रोज रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं?
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं?
वे माहिर लोग लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं
पहले वे तुम्हे कायदे से बंदूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह, बदमाश पुतले इन्हें गोली मार दो, इन्हें संगीन भोंक दो, इन्हें ... इन्हें.... इन्हें
तुम पर खुश होते हैं - तुम्हें बख्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बांधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वरदी, चमकदार जूते और उन्हें चमकाने की पालिश देते हैं
खेलने के लिए बंदूक और नंगी तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इस सबके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हुई लड़कियों से बचपन में सीखे गए
गीत ले लेते हैं
सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है
- - -
बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएंगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर अटका है तुम्हारा गांव
इसलिए चलो, अब जरा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कंधे से लटका ट्रांजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हां, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ, डरो नहीं,
गुस्सा नहीं करो, तनो
ठीक है अब जरा आंखें बंद करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य का पत्ते की तरह कांपना
हवा का आसमान फड़फड़ाना
गायों का नदियों की तरह रंभाते हुए भागना
बर्फ के खिलाफ लोगों और पेड़ों का इकट्ठा होना
अच्छी खबर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले जख्म की तरह पेट
देवदार पर लगे खुश्बूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रामांच
और अपनी मां का कलपना याद करो

याद करो कि वह किसका खून होता है जो उतर आता है तुम्हारी आंखों में
गोली चलाने से पहले हर बार?
कहां की होती है वह मिट्टी जो हर रोज साफ करने के बावजूद
तुम्हारे भारी बूटों के तलवे में चिपक जाती है?
कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफरत से आंख उठाकर तुम्हें देखते हैं
आंखें मूंदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो !
***

Thursday, July 3, 2008

विद्वेष

आप
उसे महसूस कर सकते हैं
बातों की
धूप - छाँव में
चेहरे पर वह कुछ अलग तरह की रेखाएं
बनाता है

पहली निगाह में दिखाई भले न दे
पर धीरे - धीरे
समझ में आता है

अचानक ही जन्म नहीं लेता वह
ह्रदय में पलता है
सरीसृपों के अंडे -सा

फूटता है
वांछित गर्माहट और नमी पा कर

मादा मगरमच्छ की तरह
हमेशा तैयार मिलते हैं
उसे
संभालकर मुंह में दबाये
जीवन के प्रवाह तक
पहुंचाने वाले !

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