अनुनाद

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जिम कार्बेट पार्क में एक शाम – एक सफ़रनामा

जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक शाम


यही शीर्षोक्त स्थान
जिसे मैं अपनी सुविधा के अनुसार आगे सिर्फ जंगल कहूँगा

मनुष्यों ने नहीं बनाया इसे
हमने तो चिपकाया महज एक नाम और मशहूर कर दिया
दूर परदेस तक

बताती है प्रोजेक्ट टाइगर की एक पुरानी रिपोर्ट
कि भारतीय सैलानी उतनी संख्या में बांधवगढ़, सुन्दरवन या रणथम्भौर नहीं जाते
बाघ देखने
आते हैं जितनी संख्या में यहाँ
इस अंग्रेजनामधारी संरक्षित कानन में

शायद
यह भी नाम का ही प्रताप है !

यूं इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं
इस इलाके में कभी प्रबलप्रतापी जिम कार्बेट
उतने ही बड़े संरक्षणवादी भी थे
जितने कि शिकारी

लेकिन
डर लगता है आज
कि बरसों-बरस बाद इसी तर्ज़ और तर्क पर
एक दिन
अमरीका ही न रख दिया जाए
सारी दुनिया का नाम !

माफ करना मित्रो
फिलहाल हमें दुनिया से क्या काम ?
गूंजते हुए
सन्नाटे वाले इस जंगल में
कितनी ही ध्वनियाँ समाहित हैं जहाँ
सिवा
जिप्सी गाड़ी की हल्की घरघराहट और उत्सुक सैलानियों की
बेहद स्पष्ट फुसफुसाहट के

एक मोड़ पर आ निकलती है
पुँछ उठाए घबरायी-सी कोई नन्हीं मादा काकड़
जिसे आंग्लभाषा में
भारतीय जन बार्किंग डियर कहते हैं
और उसके ठीक पीछे उसका गर्वीला जोड़ीदार भी

घास के चौड़ में इठलाते घूमते हैं नर चीतल
और संख्या में उनसे चौगुनी लेकिन किंचित सकपकायी-सी
उनकी मादाएं

बिना बात एक बड़ी झाड़ी से सींग उलझाए उसे धकियाता जाता है
लगातार बहती लार और सुर्ख आंखों वाला
नर साम्भर

बीच-बीच में अपनी थूथन उठाए
उसांसें भर-भर सूंघते ये सब के सब मानो
टोह लेते हैं हवाओं में
तेज़ी से आते वसन्त की

अचानक ही
खिलखिला भी पड़ती है अपने साथी को छेड़ती
जीवन में पहली बार जंगल देखने आयी
जींसधारी रंगेबालों वाली एक निहायत ही अल्हड़ नवयुवती
तो उसी की उम्र का बेचारा गाइड
होठों पर अंगुली धरे खमोश रहने का इशारा करता
बेहद आकुलता से उसके हुस्न को
अपलक निहारता है!

सब यहाँ बाघ देखने आए हैं
हमारी ही दुनिया की वह खूबसूरत खूंखार और जादुई शै
जो नहीं दिखती फिलहाल तो कहीं भी
उसी के इस इलाके़ में

हमें दिखाई दे जाते हैं रास्ते की धूल में
ताज़ा बने पंजों के निशान
इन्हें देख पाना भी उतना ही रोमांचक है – सोचते हैं हम
लेकिन तभी 100 मीटर की दूरी पर जोरों से हिलने लगती है
हाथी घास
आने लगती हैं घुरघुराती-सी कुछ आवाज़ें

बताया जाता है हमें
कि यह इस अद्भुत मायावी जानवर के जोड़ा बनाने का
समय है

अकस्मात आती है सृष्टि की सबसे स्पष्ट और शाश्वत आवाज़
हम पहचान सकते हैं इसे – पृथ्वी के इतिहास में
न जाने कब से जीवन को सिरजती
अपने होने के एहसास से लरजती
एक वही अनोखी
कभी न दबाई जा सकने वाली
कामातुर आदिम पुकार

वहाँ कांपते -थरथराते दुनिया रचते
दो अनदेखे
अनोखे शरीर हैं
और बिल्कुल दम साधे हम खड़े हैं थोड़ी ही दूर पर

घास के उस घटाटोप में घुसने से साफ मना कर देती है
हमारे आगे चल रही अपने नाम ही-सी `अलबेली´
एक किशोर हथिनी
उस पर बैठा सैलानी जोड़ा अफसोस के साथ महावत को कोसता है
कि निकला जा रहा है
एक खरीदा हुआ पल बाघ को देख सकने का
किसी तरह फुसफुसा कर समझाता है महावत उन्हें
कि यह सब तो कुदरत का कारोबार है और बेहद खूंखार हो सकता है नर बाघ
इसमें इस तरह खलल पड़ने से

मुझे कोई अफसोस नहीं
भले हमने न देखा हो
पर बाघ ने आज ज़रूर हमें देखा है
यों वह रोज़ ही देखता होगा अपने इलाक़े में घुसते
हम जैसे कितने ही दर्शना भिलाषी मनुष्यों को

एक बेहद उथली और उतनी ही उजली नदी को पार करते
धीरे-धीरे लौटते आते हैं हम
जैसे वापस अपने शरीर में

शाम ढलने से पहले हमें निकल आना है
जंगल से और छोड़ देना है उसे सिर्फ बाघ और चारों तरफ फैले
उसके भव्य साम्राज्य के लिए

हमें तो लौटना है वापस
अपनी दुनिया में
जहाँ खूब सारी रोशनी है और उससे भी ज्यादा
भय

अब शायद दुबारा फिर कभी न लौटें हम यहाँ

लेकिन देखा और महसूस किया जो उस ढलती शाम में
वह ज़रूर लौटेगा
जीवन में जहाँ – जहाँ भी हम रहेंगे
वहाँ – वहाँ !

0 thoughts on “जिम कार्बेट पार्क में एक शाम – एक सफ़रनामा”

  1. अच्छा रोचक वृतांत है. नाम तो बस एक बार ही आकर्षित कर सकता है, फिर तो काम ही है जो नाम को बनाये रखेगा.

  2. जिम कार्बेट पार्क के विषय में बेहतर काव्य, जिम पर कोई गद्य अवश्य लिखिए शोधपरक और नैनीताल से जुड़ी उनकी स्मृतिया……

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