Sunday, June 29, 2008

शहरयार

१९३६ में जन्मे शहरयार उर्दू के विख्यात शायर हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता के नाम से उनका एक संकलन भी है , जिस पर उन्हें १९८७ का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है।
ख़्वाब का दर बंद है
मेरे लिए रात ने
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है

फ़राहम - एकत्रित करके देना , मर्हला - पड़ाव , कासा - कटोरा

Tuesday, June 17, 2008

कवितार्थ प्रकाश

कवितार्थ प्रकाश -एक

कुछ भी कहता हो नासा
कम्प्यूटर की स्क्रीन कितनी ही झलमलाए
पर इतना तय है
कि किसी सत्यकल्पित डिज़िटल दुनिया
या फिर सुदूर सितारों से नहीं आएगी कविता
अन्तरिक्ष में नहीं मंडराएगी

आएगी हम जैसे ही आम-जनों से भरी इसी दुनिया से
बार-बार हमसे ही टकराएगी

वह उस टिड्डे के बोझ तले होगी
जिसमें दबकर धीरे से हिलती है घास
वह उस आदमी के आसपास होगी

जो अभी लौटा है सफर से
धूल झाड़ता
और उस औरत की उदग्र साँसों में भी
जिसने
उसका इन्तज़ार किया

वह उस बच्चे में होगी
जिसके भीतर
रक्त से अधिक दूध भरा है

बावजूद इस सबके इतनी कोमल नहीं होगी
वहउसमें राजनीति भी होगी
ज़रूरी नहीं कि जीत ही जाए
लेकिन वह लड़ भी सकेगी

लोग बहुत विनम्र होंगे तो वह बेकार हो जायेगी
ऐसे लोगों की कविता सिर्फ संस्कृति करने के काम आयेगी !

कवितार्थ प्रकाश-दो

काम से घर लौटते
अकसर लगता है
मुझको
कि आज बुखार आने वाला है
और यह कुछ ऐसी ही बात है
जैसे कि लगे दिमाग़ को
कोई कविता आने वाली है

अभी वह आएगा
कनपटी से शुरू होकर घेरता पूरे सिर और फिर पूरे शरीर को
उसे हमेशा ही
एक गर्म आगोश की तलाश होगी
और वह उसे मिल जाएगा

सब कुछ ठीक रहा तो अपना काम कर
कंपाता हुआ मेरे वजूद को
एकाध दिन में गुज़र भी जाएगा

(ऊपर जो कुछ भी मैंने कहा वह तो बुखार के लिए था

कविता के बारे में कहने को हमेशा ही
सब कुछ बाक़ी ही रहा ! )

Saturday, June 14, 2008

जिम कार्बेट पार्क में एक शाम - एक सफ़रनामा

जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक शाम


यही शीर्षोक्त स्थान
जिसे मैं अपनी सुविधा के अनुसार आगे सिर्फ जंगल कहूँगा

मनुष्यों ने नहीं बनाया इसे
हमने तो चिपकाया महज एक नाम और मशहूर कर दिया
दूर परदेस तक

बताती है प्रोजेक्ट टाइगर की एक पुरानी रिपोर्ट
कि भारतीय सैलानी उतनी संख्या में बांधवगढ़, सुन्दरवन या रणथम्भौर नहीं जाते
बाघ देखने
आते हैं जितनी संख्या में यहाँ
इस अंग्रेजनामधारी संरक्षित कानन में

शायद
यह भी नाम का ही प्रताप है !

यूं इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं
इस इलाके में कभी प्रबलप्रतापी जिम कार्बेट
उतने ही बड़े संरक्षणवादी भी थे
जितने कि शिकारी

लेकिन
डर लगता है आज
कि बरसों-बरस बाद इसी तर्ज़ और तर्क पर
एक दिन
अमरीका ही न रख दिया जाए
सारी दुनिया का नाम !

माफ करना मित्रो
फिलहाल हमें दुनिया से क्या काम ?
गूंजते हुए
सन्नाटे वाले इस जंगल में
कितनी ही ध्वनियाँ समाहित हैं जहाँ
सिवा
जिप्सी गाड़ी की हल्की घरघराहट और उत्सुक सैलानियों की
बेहद स्पष्ट फुसफुसाहट के

एक मोड़ पर आ निकलती है
पुँछ उठाए घबरायी-सी कोई नन्हीं मादा काकड़
जिसे आंग्लभाषा में
भारतीय जन बार्किंग डियर कहते हैं
और उसके ठीक पीछे उसका गर्वीला जोड़ीदार भी

घास के चौड़ में इठलाते घूमते हैं नर चीतल
और संख्या में उनसे चौगुनी लेकिन किंचित सकपकायी-सी
उनकी मादाएं

बिना बात एक बड़ी झाड़ी से सींग उलझाए उसे धकियाता जाता है
लगातार बहती लार और सुर्ख आंखों वाला
नर साम्भर

बीच-बीच में अपनी थूथन उठाए
उसांसें भर-भर सूंघते ये सब के सब मानो
टोह लेते हैं हवाओं में
तेज़ी से आते वसन्त की

अचानक ही
खिलखिला भी पड़ती है अपने साथी को छेड़ती
जीवन में पहली बार जंगल देखने आयी
जींसधारी रंगेबालों वाली एक निहायत ही अल्हड़ नवयुवती
तो उसी की उम्र का बेचारा गाइड
होठों पर अंगुली धरे खमोश रहने का इशारा करता
बेहद आकुलता से उसके हुस्न को
अपलक निहारता है!

सब यहाँ बाघ देखने आए हैं
हमारी ही दुनिया की वह खूबसूरत खूंखार और जादुई शै
जो नहीं दिखती फिलहाल तो कहीं भी
उसी के इस इलाके़ में

हमें दिखाई दे जाते हैं रास्ते की धूल में
ताज़ा बने पंजों के निशान
इन्हें देख पाना भी उतना ही रोमांचक है - सोचते हैं हम
लेकिन तभी 100 मीटर की दूरी पर जोरों से हिलने लगती है
हाथी घास
आने लगती हैं घुरघुराती-सी कुछ आवाज़ें

बताया जाता है हमें
कि यह इस अद्भुत मायावी जानवर के जोड़ा बनाने का
समय है

अकस्मात आती है सृष्टि की सबसे स्पष्ट और शाश्वत आवाज़
हम पहचान सकते हैं इसे - पृथ्वी के इतिहास में
न जाने कब से जीवन को सिरजती
अपने होने के एहसास से लरजती
एक वही अनोखी
कभी न दबाई जा सकने वाली
कामातुर आदिम पुकार

वहाँ कांपते -थरथराते दुनिया रचते
दो अनदेखे
अनोखे शरीर हैं
और बिल्कुल दम साधे हम खड़े हैं थोड़ी ही दूर पर

घास के उस घटाटोप में घुसने से साफ मना कर देती है
हमारे आगे चल रही अपने नाम ही-सी `अलबेली´
एक किशोर हथिनी
उस पर बैठा सैलानी जोड़ा अफसोस के साथ महावत को कोसता है
कि निकला जा रहा है
एक खरीदा हुआ पल बाघ को देख सकने का
किसी तरह फुसफुसा कर समझाता है महावत उन्हें
कि यह सब तो कुदरत का कारोबार है और बेहद खूंखार हो सकता है नर बाघ
इसमें इस तरह खलल पड़ने से

मुझे कोई अफसोस नहीं
भले हमने न देखा हो
पर बाघ ने आज ज़रूर हमें देखा है
यों वह रोज़ ही देखता होगा अपने इलाक़े में घुसते
हम जैसे कितने ही दर्शना भिलाषी मनुष्यों को

एक बेहद उथली और उतनी ही उजली नदी को पार करते
धीरे-धीरे लौटते आते हैं हम
जैसे वापस अपने शरीर में

शाम ढलने से पहले हमें निकल आना है
जंगल से और छोड़ देना है उसे सिर्फ बाघ और चारों तरफ फैले
उसके भव्य साम्राज्य के लिए

हमें तो लौटना है वापस
अपनी दुनिया में
जहाँ खूब सारी रोशनी है और उससे भी ज्यादा
भय

अब शायद दुबारा फिर कभी न लौटें हम यहाँ

लेकिन देखा और महसूस किया जो उस ढलती शाम में
वह ज़रूर लौटेगा
जीवन में जहाँ - जहाँ भी हम रहेंगे
वहाँ - वहाँ !

Monday, June 2, 2008

शमशेर बहादुर सिंह की कविता

शिला का ख़ून पीती थी


शिला का  ख़ून  पीती थी
वह जड़
जो कि पत्थर थी स्वयं

सीढियां थी बादलों की झूलती
टहनियों-सी

और वह पक्का चबूतरा
ढाल में चिकना :
सुतल था
आत्मा के कल्पतरु का ?
*** 

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