आप सभी को मेरी पुरानी कवितायेँ पसंद आ रही हैं ! इसलिए १९९४ की ये एक और कविता .........
शोकसभा में
यह समय
घनीभूत पीड़ा का है
और झुके हुए सिर
इसकी
गवाही दे रहे हैं
तूफान से पहले की नहीं
तूफान के बाद की शांति है ये
अवसाद के इस क्षण में
शोक मुझको भी है
शोक
उसका नहीं उतना
जो खो गया
शोक उसका
जो खो जायेगा एक दिन
यूं ही सिर झुकाये ...
क्या बात है, बहुत खूब!!
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
आमीन
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