Thursday, May 8, 2008

किताबें

दोस्तो ये कविता भी 1992 की है और मुझ पर आजकल अपने अतीत को याद करने की धुन सवार है। उसी क्रम में प्रस्तुत इस कविता में उत्साह और ऊर्जा का वह रूमानी दौर भरपूर मौजूद दिखाई देगा। मेरे लिए तो ये एक बार फिर भूले-बिसरे के नजदीक भर जाना है !

किताबें

सदियों से
लिखी और पढ़ी जाती रही हैं
किताबें

किताबों में आदमी का इतिहास होता है
राजा

रियासतें
और हुकूमतें होती हैं किताबों में
जो पन्नों की तरह
पलटी जा सकती हैं

किताबों में होता है
विज्ञान
जो कभी आदमी के पक्ष में होता है तो कभी
टूटता है
कहर बनकर उस पर

कानून होता है किताबों में जो बनाया
और तोड़ा जाता रहा है

किताबों में होती हैं दुनिया भर की बातें
यहां तक कि किताबों के बारे में भी लिखी जाती हैं
किताबें

कुछ किताबें नहीं होतीं हमारे लिए
देवता वास करते हैं
उनमें
पवित्र किताबें होती हैं वे
फरिश्तासिफत इंसानों के पास

हमारी किताबों में तो बढ़ते हुए कदम होते हैं
उठते हुए हाथ होते हैं
हमारी किताबों में

और उन हाथों में होती हैं
किताबें !

4 comments:

  1. अकेले पन का सहारा होती है किताबे

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  2. अपने पुराने में भी कितने नये हो तुम.
    सच मन है कुछ कहने का पर अटक रहा है, भीतर ही भीतर. अभी इतना ही.

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  3. शिरीष - ९१ - ९२, बड़े उपजाऊ साल रहे होंगे - कच्चापन कहीं नहीं दिखता - बल्कि सहज निर्मल बहता सा है - ईश्वर इस मिजाज को दो चार पाँव और दे - आपका खुदबुदाता अतीत = अनुनाद पढने वालों के "मज्जे" - मज्जे माने सदियों से/ तक लिखी पढी जा रही कविता उठते हाथों की , जीवित साईकल पर घूम आई कविता (मैंने गुरुओं को कम पढा है - जो अच्छा लगता है उस पर नाम नहीं देखता - यह बहुत अच्छी है) और कविता से झांकते पहाड़ [ अशोक पांडे जी की भी पहाड़ पर बड़ी मोहिला कवितायेँ हैं - उन्होंने अपनी किताब ] - पढ़ाते रहें - देर सबेर दस्तक जारी है - साभार - मनीष

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  4. धन्यवाद दोस्तो !
    जोशी जी आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही लम्बी और गुनगुनी होती है - दिल में छपछपी लगाने वाली !
    विजय आपके गले में जो बात अटकी है वो मुझ तक पहुंच रही है भाई! आखिर अनकहनी भी कुछ कहनी है !

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