अनुनाद

अनुनाद

पहाड़

दोस्तो ये दो कविताएं 1991 की हैं और इनका कच्चापन साफ दिखाई देता है- आप इन्हें मेरी निजी और पुरानी डायरी के दो पीले पन्ने समझ सकते हैं। पर पुराने दिनों और पुरानी उम्र को भी याद करना कभी-कभी अच्छा लगता है ! है, ना ?

एक

मैंने कभी नहीं नापी
उसकी ऊंचाई

कभी नहीं किया
आश्चर्य
उसके इतना ऊंचा होने पर

मैं तो सिर्फ उसके ऊपर चढ़ा और उतरा
उतरा और चढ़ा

और इसके सबके बाद
मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं
कि मैं
अब पहाड़ पर रह सकता हूं !



दो

मुझे याद आया
पहाड़ की धार पर बसा वो गांव
जहां
अब मैं नहीं रहता

फिर मुझे याद आए
मौसम के सबसे चमकीले दिन
और ढलानों पर फलते जंगली फलों का उल्लास
जिनका स्वाद
अब भी मेरी जीभ पर है
बिल्कुल मेरी भाषा की तरह

फिर मुझे याद आए लोग
जो कई दिनों से मेरी नींद के आसपास थे
और जिन्हें वक्त रहते पहुंचना था
अपने-अपने घर

फिर मुझे
फिर-फिर याद आया
अपना पहाड़

और मैंने पाया कि वो तो रखा हुआ है
पूरा का पूरा
मेरे दिल पर !

0 thoughts on “पहाड़”

  1. कौन कह रहा है इन्हें कच्चा?? कितनी मौलिकता है इनमें कि दिल को छू गई.

    यही तो कविता है-दिल के बोल शब्दों में-जस के तस.

  2. सुंदर कविताएं। कल रात हमने सोनापानी में आपकी कविता पगडंडियां का बाकायदा सस्वर पाठ किया और लगा कविता का पूरा आनंद लेने के लिए इससे बढ़िया तरीका नहीं है। शानदार कविता।

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