Wednesday, May 28, 2008

कहन

दोस्तों ये वो पहली पंक्तियाँ हैं, जिन्हें मैंने १७ की उम्र में लिखा और जिनमें कविता जैसा कुछ लगा। ये पंक्तियाँ उस समय की मेरी सबसे पक्की दोस्त सीमा को संबोधित थीं और मेरी ये एक छोटी सी बात मानने के बाद वही अब मेरी पत्नी भी है ...... तो इस तरह कविता उतनी बड़ी या महत्वपूर्ण नहीं है , जितनी ये अंतर्कथा !

कहन



मैं
कुछ कहता हूँ

तुम बैठो नदी किनारे
जैसे बैठे हैं
पत्थर

मैं बहता हूँ ......
***

Sunday, May 25, 2008

असद ज़ैदी : अनुवाद की भाषा : अशोक पांडे

अनुवाद की भाषा



अनुवाद की भाषा से अच्छी क्या भाषा हो सकती है
वही है एक सफ़ेद परदा
जिस पर मैल की तरह दिखती है हम सबकी कारगुजारी


सारे अपराध मातृभाषाओं में किए जाते हैं
जिनमें हरदम होता रहता है मासूमियत का विमर्श


ऐसे दौर आते हैं जब अनुवाद में ही कुछ बचा रह जाता है
संवेदना को मार रही है
अपनी भाषा में अत्याचार की आवाज़ !


***

अशोक पांडे की संगत में मैंने अनुवाद करने शुरू किए और फलस्वरूप येहूदा आमीखाई का संकलन अस्तित्व में आया " धरती जानती है "..... अशोक के कारण ही विश्व कविता के द्वार मेरे आगे खुले , उसी को समर्पित है असद जी की ये अद्भुत कविता ........

Monday, May 12, 2008

हक़

हक़
उन्हें भी था
जो
मारे गए


और हक़
उन्हें भी है जो मारे जायेंगे


ग़रीबॉ के पास
सिर्फ़
हक़ होता है
चीज़ॉ पर

चीज़ें नहीं !

दोस्तों ये भी एक बहुत पुरानी - बहुत छोटी कविता १९९२ के ज़माने की .......

Friday, May 9, 2008

शोकसभा में

आप सभी को मेरी पुरानी कवितायेँ पसंद आ रही हैं ! इसलिए १९९४ की ये एक और कविता .........

शोकसभा में

यह समय
घनीभूत पीड़ा का है
और झुके हुए सिर
इसकी
गवाही दे रहे हैं

तूफान से पहले की नहीं
तूफान के बाद की शांति है ये

अवसाद के इस क्षण में
शोक मुझको भी है

शोक
उसका नहीं उतना
जो खो गया

शोक उसका
जो खो जायेगा एक दिन
यूं ही सिर झुकाये ...

Thursday, May 8, 2008

किताबें

दोस्तो ये कविता भी 1992 की है और मुझ पर आजकल अपने अतीत को याद करने की धुन सवार है। उसी क्रम में प्रस्तुत इस कविता में उत्साह और ऊर्जा का वह रूमानी दौर भरपूर मौजूद दिखाई देगा। मेरे लिए तो ये एक बार फिर भूले-बिसरे के नजदीक भर जाना है !

किताबें

सदियों से
लिखी और पढ़ी जाती रही हैं
किताबें

किताबों में आदमी का इतिहास होता है
राजा

रियासतें
और हुकूमतें होती हैं किताबों में
जो पन्नों की तरह
पलटी जा सकती हैं

किताबों में होता है
विज्ञान
जो कभी आदमी के पक्ष में होता है तो कभी
टूटता है
कहर बनकर उस पर

कानून होता है किताबों में जो बनाया
और तोड़ा जाता रहा है

किताबों में होती हैं दुनिया भर की बातें
यहां तक कि किताबों के बारे में भी लिखी जाती हैं
किताबें

कुछ किताबें नहीं होतीं हमारे लिए
देवता वास करते हैं
उनमें
पवित्र किताबें होती हैं वे
फरिश्तासिफत इंसानों के पास

हमारी किताबों में तो बढ़ते हुए कदम होते हैं
उठते हुए हाथ होते हैं
हमारी किताबों में

और उन हाथों में होती हैं
किताबें !

Wednesday, May 7, 2008

मैं जीवित हूँ

दोस्तो ये कविता 1992 की है और मुझे इस पर 80 के बाद की पीढ़ी के कविकुलगुरु केदारनाथ सिंह का प्रभाव साफ दिखाई देता है। मैं इस कविता और इस प्रभाव को अपना अतीत मानता हूं और अतीत की ये खुरचन आपके आगे रख रहा हूं। अपनी बेबाक टिप्पणी तो देंगे न ?

मैं जीवित हूं

मैं जीवित हूं

और ये जरूरी खबर किसी अखबार में नहीं

मेरे चेहरे पर छपी है

मैं जीवित हूं

और लगा आया हूं सुबह-सुबह

बाजार का एक चक्कर

मैं भांप आया हूं मौसम और लोगों का मिजाज -

फिलहाल लोगों को काम पर जाने की जल्दी है और मौसम

उनके साथ है

मैं देख आया हूं

कि शहर के सबसे बड़े मंदिर में चल रहा है

अखंड यज्ञ

कि मस्जिद की सबसे ऊंची मीनार से आ रही है

अजान की आवाज

कि शुरू हो चुकी है गुरुद्वारे में

अरदास

देख आया हूं मैं

कि सभी दुकानों में जारी है खरीदफरोख्त

सभी तरह की

नाप आया हूं सड़कें

और हालांकि पुलिस थाना अभी तक सो रहा है

लेकिन शहर में शांति है

जो चीख-चीखकर अपने होने का पता दे रही है

मेरे शहर के लोगो !

मैं जीवित हूं और आज की तारीख में यह सचमुच एक ऐसी बात है

जिसे मैं किसी भी दूसरे आदमी से कह सकता हूं

पूरे यकीन के साथ !

Monday, May 5, 2008

पहाड़

दोस्तो ये दो कविताएं 1991 की हैं और इनका कच्चापन साफ दिखाई देता है- आप इन्हें मेरी निजी और पुरानी डायरी के दो पीले पन्ने समझ सकते हैं। पर पुराने दिनों और पुरानी उम्र को भी याद करना कभी-कभी अच्छा लगता है ! है, ना ?

एक

मैंने कभी नहीं नापी
उसकी ऊंचाई

कभी नहीं किया
आश्चर्य
उसके इतना ऊंचा होने पर

मैं तो सिर्फ उसके ऊपर चढ़ा और उतरा
उतरा और चढ़ा

और इसके सबके बाद
मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं
कि मैं
अब पहाड़ पर रह सकता हूं !



दो

मुझे याद आया
पहाड़ की धार पर बसा वो गांव
जहां
अब मैं नहीं रहता

फिर मुझे याद आए
मौसम के सबसे चमकीले दिन
और ढलानों पर फलते जंगली फलों का उल्लास
जिनका स्वाद
अब भी मेरी जीभ पर है
बिल्कुल मेरी भाषा की तरह

फिर मुझे याद आए लोग
जो कई दिनों से मेरी नींद के आसपास थे
और जिन्हें वक्त रहते पहुंचना था
अपने-अपने घर

फिर मुझे
फिर-फिर याद आया
अपना पहाड़

और मैंने पाया कि वो तो रखा हुआ है
पूरा का पूरा
मेरे दिल पर !

Sunday, May 4, 2008

रघुवीर सहाय

उम्र

जब तुम बच्ची थीं
तो
मैं तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता था

अब तुम रोती हो
तो
देखता हूँ मैं !
***



एक सार्थक कविता अपने पाठक के लिए कितना स्पेस छोड़ती है , इसकी एक बानगी उस्ताद कवि रघुवीर सहाय की इस कविता में देखी जा सकती है ! राजकमल से प्रकाशित ' लोग भूल गए हैं ' से साभार !

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