कहन
मैं
कुछ कहता हूँ
तुम बैठो नदी किनारे
जैसे बैठे हैं
पत्थर
मैं बहता हूँ ......
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दोस्तो ये कविता 1992 की है और मुझे इस पर 80 के बाद की पीढ़ी के कविकुलगुरु केदारनाथ सिंह का प्रभाव साफ दिखाई देता है। मैं इस कविता और इस प्रभाव को अपना अतीत मानता हूं और अतीत की ये खुरचन आपके आगे रख रहा हूं। अपनी बेबाक टिप्पणी तो देंगे न ?
मैं जीवित हूं
मैं जीवित हूं
और ये जरूरी खबर किसी अखबार में नहीं
मेरे चेहरे पर छपी है
मैं जीवित हूं
और लगा आया हूं सुबह-सुबह
बाजार का एक चक्कर
मैं भांप आया हूं मौसम और लोगों का मिजाज -
फिलहाल लोगों को काम पर जाने की जल्दी है और मौसम
उनके साथ है
मैं देख आया हूं
कि शहर के सबसे बड़े मंदिर में चल रहा है
अखंड यज्ञ
कि मस्जिद की सबसे ऊंची मीनार से आ रही है
अजान की आवाज
कि शुरू हो चुकी है गुरुद्वारे में
अरदास
देख आया हूं मैं
कि सभी दुकानों में जारी है खरीदफरोख्त
सभी तरह की
नाप आया हूं सड़कें
और हालांकि पुलिस थाना अभी तक सो रहा है
लेकिन शहर में शांति है
जो चीख-चीखकर अपने होने का पता दे रही है
मेरे शहर के लोगो !
मैं जीवित हूं और आज की तारीख में यह सचमुच एक ऐसी बात है
जिसे मैं किसी भी दूसरे आदमी से कह सकता हूं
पूरे यकीन के साथ !