Sunday, April 13, 2008

हाथों की व्याख्या

मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरे हाथ हैं
इन हाथों की
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़

कुछ चीज़ें चींटियों की तरह चल कर आती हैं
हाथ इंतजार में थक जाते हैं

कुछ चीज़ें तेज़ी से उड़ती हुयी ऊपर से गुज़र जाती हैं
हाथ देखते रह जाते हैं

मैंने देख कर सारी रफ्तारॅ देख ली है ज़माने की रफ्तार
मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरी आँखे हैं
इन आंखों की

ये आँखे सब कुछ देखने को तैयार हैं
देखिये ये आँखे देख रही हैं - समय का चक्का घूम रहा है
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़

मैं व्याख्या करता हूँ देखिये ये मेरा गला है
मैं यहाँ से बोलना चाहता हूँ
पर यह गला बहुत डरता है अपने ही हाथों से !

" बहनें तथा अन्य कवितायेँ " से

3 comments:

  1. यह गला बहुत डरता है अपने ही हाथों से ! अच्छी कविता ।

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  2. शिरीष - आराम से पढने पर यह कविता कल्पना को बड़े अलग अलग सिरों से एक साथ खोलती है, डर को भी और लाचारी को भी, द्रोह को और तकलीफ़ को - एक सवाल - क्या ये कविता किसी और दिवंगत कवि के ऊपर भी तो नहीं लिखी गई है ? - खासकर "आवाज़" से परेशान ?] - मनीष

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  3. मनीष जी आपने कविता को खूब समझा है !

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