उसका सपना
सारा दिन काम में खटने के बाद
इस घिरती रात में
प्रेम से बहुत पहले ही कहीं
नींद खड़ी हैं
उसकी आंखों में
कुछ अर्द्धपरिचित सपने हैं
वहाँ
अपने होने की हर सम्भावना को पुख्ता करते हुए
उसके सो जाने के इन्तज़ार में
और उन सपनों की भीड़ में हो न हो
वह ज़रूर मैं ही हूँ -
एक भारी और सांवला बादल
छलाछल जल से भरा
बरस न पाने की मजबूरी में भटकता हुआ
धरती के ऊपर
यूं ही निठल्ला-सा
सपने में इतना कुछ देखा - ईजा-बाबू
भाई-बहन
बरसों की बिछुड़ी सखियाँ
कई सारे नगर-क़स्बे-बस्तियां
दिल्ली
लखनऊ
इलाहाबाद
रामनगर
पिपरिया
नैनीताल
अब सुबह जागते ही पूछेगी
यह बात -
कहाँ थे तुम ?
खड़ी हुई मल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर अकेली घबराई-सी
खोजती तुम्हीं को तो
जाग पड़ी थी मैं अकबकाकर
तीन बजे रात !
ये बिल्कुल नई कविता है .........
वाह - अनुनाद तो है ही है - भारी गूँज भी है - शहरों के नाम भर अलग हैं - वाचाल पाठक [:-)]
ReplyDeleteसबसे पहले आपकी टिप्पणी ही मुझे मिलती है मनीष जी।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यावद !
क्या भैया लगता है नैनीताल के मौसम का असर हो रहा है
ReplyDeletehain g vishal bhaiya thik kah rhe hain g....pyari kvita...
ReplyDeleteधन्यवाद
ReplyDeleteप्यारे हरे
और
विशाल !