सविनय निवेदन
सविनय निवेदन
उनसे
अलग-अलग रहने की जिनकी आदत है
और ज़माने भर से जिन्हें शिकायत है
कृपया
वे ख़ुद को जीवन से जोडें !
सविनय निवेदन
उनसे भी
जो रोज़ थोड़ा-थोड़ा ढहते हैं
और हमेशा चुप रहते हैं
वे कृपया कुछ बोलें !
और सविनय निवेदन
उनसे
जो खरी खरी कहने में शरमाते हैं
जिनके असली चेहरे शब्दों के पीछे
छुप जाते हैं
वे कृपया कविता को छोडें !
ये कविता २००४ में छपे मेरे कविता संग्रह से ........
Wednesday, March 5, 2008
2 comments:
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बहुत खूब - शिरीष जी - खरा खरा - लेकिन गुरुवर ये बताएं कि अगर असली चेहरे शब्दों के पीछे छुप जाते हैं तो लिखने वाली कलम लिखना क्यों छोड़े ? देखने वाली नज़र क्यों न देखना छोड़े ? [ कविता पढने से भी तो कविता बनती है कि नहीं ?] - rgds - manish
ReplyDeletekya bat hainge...dil ki kahi aapne...maine pahle bhi padhi thi g...lge rhiye g...
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