दोस्तो ये बिना शीर्षक कविता एक बिलकुल नए कवि के पहले प्रेम की कविता है ! आप बताइए कैसी है !
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सपनों पर किसी का जोर नहीं
न तुम्हारा, न मेरा और न ही किसी और का
कुछ भी हो सकता है वहाँ
बर्फ-सी ठंडी आग या जलता हुआ पानी
यह भी हो सकता है कि मैं डालूं अपनी कमीज की जेब में हाथ
और निकाल लूं हरहराता समुद्र - पूरा का पूरा
मैं खोलूं मुट्ठी
और रख् दूं तुम्हारे सामने विराट हिमालय
अब देखो - मैंने देखा है एक सपना
मैं एक छोटा-सा बच्चा लटकाए हुए कंधे पर स्कूल बैग
अपने पिता की अंगुली थामे भाग रहा हूं स्कूल की घंटी के सहारे
भरी हुई क्लास में
सबसे आगे बैंच पर मैं
और
तुम मेरी टीचर
कितनी अजीब-सी घूरती हुई तुम मुझे
और मैं झिझक कर करता हुआ आंखें नीची
मैंने देखा - दो और दो होते हुए पांच
और खरगोश वाली कहानी में बंदर वाली कविता का स्वाद
तुम पढ़ा रही थीं `ए´ फार `एप्पल´
और मुझे सुनाई दिया `प´ से `प्यार´
तुम फटकारती थीं छड़ी
सिहरता था मैं
खीझ कर तुमने उमेठे मेरे कान
सपनों के ढेर सारे जादुई नीले फूलों के बीच ही
मैंने देखा
मेरा ही सपना खेलता हुआ मुझसे
जब बड़े-बड़े अंडों से भरा मेरा परीक्षाफल देते हुए
तुमने कहा मुझसे - `फेल हो गए हो तुम हजारवीं बार´
और इतना कहते समय - मैंने देखा
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आंखों में दमकता हुआ
पृथ्वी भर प्यार
और मुझे महसूस हुआ
कि वहीं कहीं आसपास शहद का छत्ता गुनगुना रहा था
धीमे से
हजार-हजार फूलों के सपनों का गीत !
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