एक पुरातन आखेट-कथा
नए वक्त की एक घटना को याद करते
तुम्हारे नीचे पूरी धरती बिछी थी
जिसे तुमने रौंदा
वह सिर्फ़ स्त्री नहीं थी
एक समूचा संसार था फूलों और तितलियों से भरा ]
रिश्तों और संभावनाओं से सजा
जो घुट गयी तुम्हारे हाथों तले
सिर्फ़ एक चीख़ नहीं थी
आर्तनाद था
समूची सृष्टि का
हर बार जो उघड़ा परत दर परत
सिर्फ शरीर नहीं था
इतिहास था
शरीर मात्र का
जिसे तुमने छोड़ा
जाते हुए वापस अपने अभियान से
ज़मीन पर
घास के खुले हुए गट्ठर -सा
उसकी जु़बान पर तुम्हारे थूक का नहीं
उससे उफनती घृणा का स्वाद था
वही स्वाद है
अब मेरी भी ज़ुबान पर !
(ये एक पुरानी कविता है - ९६ के ज़माने की !)
अच्छी रचना है।बधाई।
ReplyDeleteजिसे तुमने छोड़ा
जाते हुए वापस अपने अभियान से
ज़मीन पर
घास के खुले हुए गट्ठर -सा
उसकी जु़बान पर तुम्हारे थूक का नहीं
उससे उफनती घृणा का स्वाद था
Apka blog fir shuru hone se kafi achha lag raha hai. apne jitni bhi nayi kavitayen lagayi hai sabhit bahut achhi hai
ReplyDeleteApka blog fir shuru hone se kafi achha lag raha hai. apne jitni bhi nayi kavitayen lagayi hai sabhit bahut achhi hai
ReplyDeleteaapki yh kvita kaee dfa padh chuka hoon...aur yh meri dairy me bhi hai...
ReplyDeleteअरथ अमित अति आखर थोरे।
ReplyDeleteमार्मिक बिम्ब।
सहज शिल्प में आधुनिक आखेट युग का सच।
शिरीष - यहाँ वेदना बहुत है - पढ़ के कुछ डर सा लगा
ReplyDeleteटिप्पणी देने वाले सभी मित्रों को धन्यवाद! इस कविता को लिखना बेहद पीड़ा भरा था.... पढ़ना भी शायद ऐसा ही हो !
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