समकालीन कविता
ज्ञान जी के लिए सादर
सब ठीक है?
दु:स्वप्नों से घिरा हुआ एक आदमी
घबराकर पूछता है
अपने आप से
अभी तक तो ठीक है !
-कहता हुआ
फिर सो जाता है
अपनी वही उचाट नींद
वहाँ
उसका एक दोस्त है
खून की उल्टियाँ करता हुआ
दो बड़े भाई
सफलता के शिखर पर
खुद से ही हारते हुए
एक बुजुर्ग रिश्तेदार हैं
वहाँ
तमाम दुश्चिंताओं से मुक्त
प्रेम से फारिग
अपने ही बनाए आश्वस्ति के दलदल में
गहरे ध¡से हुए
एक स्त्री है
भीतर ही भीतर विलाप करती
सहेजती हुई
नष्ट होती अपनी दुनिया
नौ साल की एक बच्ची
कुत्ते पालती
और उनके साथ गिलहरियों के पीछे दौड़ती
आती हुई भोर के धुंधले उजास में
खड़े सबसे आखिर में
एक स्नेहिल मगर कड़क सम्पादक भी हैं
वहाँ
कहते हुए - मुझे तुमसे कोईउम्मीद नहीं
अब तुम नहीं लिख पाओगे
समकालीन कविता !
Thursday, February 21, 2008
2 comments:
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यही तो है (?) - आज कबाड़खाना देखा तो लगा आपके शहर में खिड़की दरवाज़े भी शायद खुल गए होंगे (महीने भर से सूचना देख के पक गए [:-)]) - आप बोलिए - सुनने वाले यहाँ भी सुनेंगे - [ पुस्तक मेले से आपकी और पांडे जी की अनूदित धरती जानती है उठाई है - ] साभार/ सस्नेह - मनीष
ReplyDeleteधन्यवाद मनीष जी! अब मेरे खिड़की दरवाजे खुले ही मिलेंगे!
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