Wednesday, February 27, 2008

शिरीष कुमार मौर्य

एक पुरातन आखेट-कथा
नए वक्त की एक घटना को याद करते

तुम्हारे नीचे पूरी धरती बिछी थी
जिसे तुमने रौंदा
वह सिर्फ़ स्त्री नहीं थी
एक समूचा संसार था फूलों और तितलियों से भरा ]
रिश्तों और संभावनाओं से सजा

जो घुट गयी तुम्हारे हाथों तले
सिर्फ़ एक चीख़ नहीं थी
आर्तनाद था
समूची सृष्टि का

हर बार जो उघड़ा परत दर परत
सिर्फ शरीर नहीं था
इतिहास था
शरीर मात्र का

जिसे तुमने छोड़ा
जाते हुए वापस अपने अभियान से
ज़मीन पर
घास के खुले हुए गट्ठर -सा
उसकी जु़बान पर तुम्हारे थूक का नहीं
उससे उफनती घृणा का स्वाद था

वही स्वाद है
अब मेरी भी ज़ुबान पर !

(ये एक पुरानी कविता है - ९६ के ज़माने की !)

Tuesday, February 26, 2008

लीलाधर जगूड़ी

सबसे पहले ये कविता कबाड़खाना पर अशोक ने लगाई। मैंने इसे पढ़ा और फिर जगूड़ी जी से फोन पर बात हुई। इसे अनुनाद पर लगाने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता !



अध:पतन
इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आंखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊंचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए

जितना मैं निम्नगा* होऊंगा
और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा
उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा
जनसमुद्र के पास

एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊंचाई पा सकूंगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊंचाई

कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है.

***

Monday, February 25, 2008

टामस ट्रांसट्रोमर


अधबना स्वर्ग

हताशा और वेदना स्थगित कर देती हैं
अपने -अपने काम
गिद्ध स्थगित कर देते हैं
अपनी उड़ान

अधीर और उत्सुक रोशनी बह आती है बाहर
यहाँ तक कि प्रेत भी अपना काम छोड़
लेते हैं एक-एक जाम

हमारी तस्वीरें - हिमयुगीन कार्यशालाओं के हमारे वे लाल बनैले पशु
देखते हैं दिन के उजास को
यों हर चीज़ अपने आसपास देखना शुरू कर देती है
धूप में हम चलते हैं
सैकड़ों बार
यहाँ हर आदमी एक अधखुला दरवाज़ा है
उसे हरेक आदमी के लिए बने हरेक कमरे तक ले जाता हुआ
हमारे नीचे है एक अन्तहीन मैदान

और पानी चमकता हुआ पेड़ों के बीच से -
वह झील मानो एक खिड़की है
पृथ्वी के भीतर देखने के वास्ते।

अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य



शिरीष कुमार मौर्य

लैंडस्केप

अपने प्यारे पहाड़ी गाँव `नौगावखाल´ को याद करते

इसे

किसी कैनवास पर नहीं उतारा जा सका

यह वहीं रहा हमेशा

अपनी कुदरती भूल-भुलैया में

कभी धुंधला

तो कभी चमकदार होता हुआ

इसमें से कुछ चीज़ें निकल गयीं

बहुत खामोशी से

कुछ इसमें दाखिल हो गयीं

बहुत चुपचाप

एक बहुत महीन - लगभग अदृश्य-सी

कारीगरी चलती रही इसके साथ

इसके भीतर कितनी ही गर्मियां आयीं

कितनी बरसातें

कितनी ही सर्दियाँ

कभी पत्ते झरे - कभी पत्ते उगे

कभी रास्ते उजड़े - कभी रास्ते बने

यह कमोबेश वैसा ही रहा

इसमें ज़िन्दगी और मौत की लगभग सभी हलचलें थीं

यह उतना शांत उतना निश्चेष्ट कभी नहीं था

लेकिन कमोबेश वैसा ही रहा

यह थोड़ी-बहुत चीज़ों से शुरू हुआ था

और अब विराट था

इसमें से निकलतीं और इसमें भरतीं हवाएं¡

कभी-कभार

मुझमें भी हरारत जगाती थीं
हालांकि

यह कहीं और था

हर बार

मेरे होने की जगह से दूर

मैं इसे सुंदर भी कहता हूं¡

जबकि

किसी के भी लिए बहुत मुश्कि़ल हो सकती है

वहां ज़िन्दगी

मैं इसे याद भी करता हूं¡

और भूल भी जाता हूं¡

कभी-कभार

बिल्कुल अपने होने की ही तरह

लेकिन

इसमें मेरे हिस्से की थोड़ी-सी नगण्य जगह अभी तक खाली है

लोगों के बीच कोई छाया

पगडंडियों के बीच कुछ सिलसिले

झुरमुटों के बीच थोड़े-से रंग शायद मेरे हैं

इसके बनने के इतने बरस बाद भी

कम से कम मेरे लिए तो

यह अब भी अधूरा है

मेरे बिना!


Thursday, February 21, 2008

शिरीष कुमार मौर्य

समकालीन कविता
ज्ञान जी के लिए सादर


सब ठीक है?
दु:स्वप्नों से घिरा हुआ एक आदमी
घबराकर पूछता है
अपने आप से
अभी तक तो ठीक है !

-कहता हुआ
फिर सो जाता है
अपनी वही उचाट नींद

वहाँ
उसका एक दोस्त है
खून की उल्टियाँ करता हुआ
दो बड़े भाई
सफलता के शिखर पर
खुद से ही हारते हुए

एक बुजुर्ग रिश्तेदार हैं
वहाँ
तमाम दुश्चिंताओं से मुक्त
प्रेम से फारिग
अपने ही बनाए आश्वस्ति के दलदल में
गहरे ध¡से हुए


एक स्त्री है
भीतर ही भीतर विलाप करती
सहेजती हुई
नष्ट होती अपनी दुनिया


नौ साल की एक बच्ची
कुत्ते पालती
और उनके साथ गिलहरियों के पीछे दौड़ती


आती हुई भोर के धुंधले उजास में
खड़े सबसे आखिर में
एक स्नेहिल मगर कड़क सम्पादक भी हैं
वहाँ
कहते हुए - मुझे तुमसे कोईउम्मीद नहीं
अब तुम नहीं लिख पाओगे
समकालीन कविता !

जीवन-राग2003-04

अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने ` संगतकार ´ लिखी।यह कविताओं की एक विनम्र श्रंखला है। इसमें मैं तेरह दिनों तक रोज एक कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा।

आज का राग बसन्त

भीमसेन जोशी को सुनकर

इस तरह भी उतरता है बसन्त

धरती पर बेमौसम

बेवक्त


मन के भीतर बदल जाता है सभी कुछ

बाहर भले ही पत्ते झर रहे हों

भीतर कोंपलें फूटती हैं

जाड़ों की लम्बी रातों में

घोसलों में दुबकी चििड़यें आपस में कुछ पूछती हैं

भूरे से हरा हो जाता है

टिड्डों का रंग

इस तरह भी उतरता है बसन्त

जो किसी साजिश में शामिल नहीं

खून में नहीं सने हैं

जिनके हाथ

वे सभी महसूस कर सकते हैं

एक आवाज़ का हाथ पकड़कर

यों बसन्त का आना।

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