Wednesday, December 31, 2008

नए साल पर हैराल्ड पिंटर की कविताएँ : चयन और अनुवाद - यादवेन्द्र

यादवेन्द्र जी के नाम और काम से अब हिन्दी जगत खूब परिचित है। दुनिया भर की कविता और साहित्य के बीहड़ में भटकना उनका प्रिय शगल है जिसका रचनात्मक लाभ आप विभिन्न् पत्रिकाओं के अलावा विजय,पंकज पराशर के ब्लॉग और मेरे अनुनाद को भी होता है !
इस बार वे लायें हैं दिवंगत हैराल्ड पिंटर की तीन कविताएँ ...इसके लिए अनुनाद का आभार ....



एक कविता

उधर मत देखो
दुनिया बस फट पड़ने को है
उधर मत ताको
दुनिया बस उड़ेलने को है अपनी सारी चकाचौंध
और ठूंस देने को उतारू है हमें अंधियारी खोह में
जहां हैं कालिख की मोटी दम घोंट देनेवाली परतें
वहां पहुंचकर हम मार डालेंगे एक-दूसरे को
या नष्ट हो जायेंगे खुद ही
या नाचने या फिर क्रंदन करने लगेगे
या निकालेंगे चीखें या गिड़गिड़ायेंगे चूहों जैसे
बस हमें तो लगानी है बोली अपनी ही
एक बार फिर से !

प्रभु बचाए अमरीका को

देखो फिर से निकल पड़े हैं अमरीकी बख्तरबंद परेड करते
जोर जोर से करते आह्लादकारी उद्घोष
पूरी दुनिया को सरपट रौंदते
और प्रशस्ति गाते अमरीका के प्रभु की

नालियां पट गई हैं उन लाशों से जो नहीं चले मिलाकर क़दम
या जिन्होंने मिलाए नहीं स्वर उद्घोष में
या बीच में ही टूट गई लय जिनकी
या भूल गए जो धुन प्रशस्तिगान की

योद्धाओं के हाथों में हैं
बीच से चीरकर रख देनेवाले चाबुक
और सिर तुम्हारा लुढ़का पड़ा है रेत में
गंदा-सा, गड्ढे बनाता सिर
धूल में गंदा निशान छोड़ता हुआ सिर
बाहर निकल आती हैं तुम्हारी आंखें
और चारों ओर फैल जाती है लाशों की संड़ाध
पर मुर्दा हवा में ठहरी हुई है ढीठ -सी
अमरीका के प्रभु की गंध ...

मुलाकात

गहन रात के बीचों बीच
अरसा पहले मर चुके ताकते हैं आस से
नए मृतकों की ओर -
बढ़ाते हैं आगे और क़दम
मंद मंद जागने लगती हैं धड़कने
जब अंक में भरते हैं वे एक दूसरे को
अरसा पहले मर चुके बढ़ाते हैं उनकी ओर क़दम
रोके रुकती नहीं है रुलाई और चूमने को बढ़े होंट
जब मिलते हैं वे फिर से
पहली बार
और आखिरी बार...

Tuesday, December 30, 2008

गीत चतुर्वेदी की कविताएँ ...

नए दौर के कवियों में आपने पहले व्योमेश, तुषार और गिरिराज किराडू को अनुनाद में पढ़ा है। गीत का बहुत ज़रूरी नाम छूट रहा था तो सिर्फ़ इसलिए कि वे ख़ुद अपना ब्लॉग चलाते हैं और वहाँ आप उन्हें पढ़ते ही हैं पर इधर मैं लगातार उन्हें अपने ब्लॉग पर देखना चाह रहा था और अपनी ये इच्छा पूरी कर रहा हूँ। ये सारी कविताएँ पहले भी पढ़ी गई हैं पर ये ऐसी कविताएँ भी हैं जिन्हें बार बार पढ़ा जाना चाहिए !
अनुनाद पर स्वागत है गीत !
मदर इंडिया
(उन दो औरतों के लिए ‍ जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था)

दरवाज़ा खोलते ही झुलस जाएं आप शर्म की गर्मास से
खड़े-खड़े ही गड़ जाएं महीतल, उससे भी नीचे रसातल तक
फोड़ लें अपनी आंखें निकाल फेंके उस नालायक़ दृष्टि को
जो बेहयाई के नक्‍की अंधकार में उलझ-उलझ जाती है
या चुपचाप भीतर से ले आई जाए
कबाट के किसी कोने में फंसी इसी दिन का इंतज़ार करती
किसी पुरानी साबुत साड़ी को जिसे भाभी बहन मां या पत्नी ने
पहनने से नकार दिया हो
और उन्हें दी जाएं जो खड़ी हैं दरवाज़े पर
मांस का वीभत्स लोथड़ा सालिम बिना किसी वस्त्र के
अपनी निर्लज्जता में सकुचाईं
जिन्हें भाभी मां बहन या पत्नी मानने से नकार दिया गया हो

कौन हैं ये दो औरतें जो बग़ल में कोई पोटली दबा बहुधा निर्वस्त्र
भटकती हैं शहर की सड़क पर बाहोश
मुरदार मन से खींचती हैं हमारे समय का चीर
और पूरी जमात को शर्म की आंजुर में डुबो देती हैं
ये चलती हैं सड़क पर तो वे लड़के क्यों नहीं बजाते सीटी
जिनके लिए अभिनेत्रियों को यौवन गदराया है
महिलाएं क्यों ज़मीन फोड़ने लगती हैं
लगातार गालियां देते दुकानदार काउंटर के नीचे झुक कुछ ढूंढ़ने लगते हैं
और वह कौन होता है जो कलेजा ग़र्क़ कर देने वाले इस दलदल पर चल
फिर उन्हें ओढ़ा आता है कोई चादर परदा या दुपट्टे का टुकड़ा

ये पूरी तरह खुली हैं खुलेपन का स्‍वागत करते वक़्त में
ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं
ये कौन-सी महिलाएं हैं जिनके लिए गहना नहीं हया
ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा

ये पहनने को मांगती हैं पहना दो तो उतार फेंकती हैं
कैसा मूडी कि़स्म का है इनका मेटाफिजिक्‍स
इन्हें कोई वास्ता नहीं कपड़ों से
फिर क्यों अचानक किसी के दरवाज़े को कर देती हैं पानी-पानी

ये कहां खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया
इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है
जो मिलता है कम क्यों होता है
लाज का व्यवसाय है मन मैल का मंदिर
इन्हें सड़क पर चलने से रोक दिया जाए
नेहरू चौक पर खड़ा कर दाग़ दिया जाए
पुलिस में दे दें या चकले में पर शहर की सड़क को साफ़ किया जाए

ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर
ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का
ये मदर इंडिया हैं सही नाप लेने वाले दर्जी़ की तलाश में
कौन हैं ये
पता किया जाए.
***
ठगी
वह आदमी कल शिद्दत से याद आया
जिसकी हर बात पर मैं भरोसा कर लेता था
उसने मुस्कराकर कहा
गंजे सिर पर बाल उग सकते हैं
मैंने उसे प्रयोग करने का ख़र्च नज़र किया
( मैं तब से वैज्ञानिक कि़स्म के लोगों से ख़ाइफ़ हूं)
उसने मुहब्बत के किसी मौक़े पर मुझे एक गिलास पानी पिलाया
और उस श्रम का कि़स्सा सुनाया निस्पृहता से
जो उसने वह कुआं खोदने में किया था
जिसमें सैकड़ों गिलास पसीना बह गया था

एक रात वह मेरे घर पहुंचा
और बीवी की बीमारी, बच्चों की स्कूल फीस
महीनों से एक ही कपड़ा पहनने की मजबूरी
और ज़्यादातर सुम रहने वाली एक लड़की की यादों को रोता रहा
वह साथ लाई शराब के कुछ गिलास छकना चाहता था
और बार-बार पूछता
भाभीजी घर पर तो नहीं हैं न

वह जब-जब मेरे दफ़्तर आता
तब-तब मेरा बॉस मुझे बुलाकर पूछता उसके बारे में
उसके हुलिए में पता नहीं क्या था
कि समझदार कि़स्म के लोग उससे दूर हो जाते थे
और मुझे भी दूरियों के फ़ायदे बताते थे

जो लोग उससे पल भर भी बात करते
उसे शातिर ठग कहते

मुझे वह उस बौड़म से ज़्यादा नहीं लगता
जो मासूमियत को बेवक़ूफ़ी समझता हो
जिसे भान नहीं
मासूमियत इसलिए जि़ंदा है
कि ठगी भूखों न मर जाए
***

महज़ रिवायत
(जॉर्ज माइकल के गीतों के लिए)

तुम्हारे साथ कभी नाच नहीं सकता अब
मेरे पैरों में थकान है, थिरकन नहीं
सबसे आसान है स्वांग करना
उसको पकड़ पाना सबसे मुश्किल

कितना बौड़म हूं
यह भी नहीं जानता
आग पर बर्फ़ रखने की कोई क्षमा नहीं
तवे पर छन्न की
छल के बदले क्या मिलता है
आंख चुराना सबसे बड़ी चोरी है

जानने का अवसर सिर्फ़ एक बार आता है
बाक़ी मुलाक़ातें तो महज़ रिवायत हैं
***

अलोना

लिखा जाए
लिखा जाए
इस तरह लिखा जाए
बहुत हो चुका मीठा-मीठा
जो मीठा है उसको नीम लिखा जाए

झूठ एक दर्शन है
किताबों में फिल्मों में कैसेट में सीडी में सिगरेट पान बीड़ी में
चिनाब में दोआब में तांबई शराब में मेरे समय के हिसाब में

जिन दिनों मैं जिया
उसे साफ़-साफ़
बहुत साफ़-साफ़
ख़राब लिखा जाए

चिह्न नहीं बिंब नहीं कोई लघु प्रश्न नहीं
जो कुछ है- चकाचौंध सब कुछ विशाल है

जिसे कहा गया सलोना
उसे रखो जीभ पर
क्या ग़लत होगा उसे
अलोना लिखा जाए
***

Monday, December 29, 2008

और अब मनजीत बावा का जाना ...



1941 में जन्मे मशहूर चित्रकार मनजीत बावा का आज देहांत हो गया। इस तरह मेरे लिए यह देखना-जानना दुखद है कि अनुनाद पर शोक ज्ञापन का यह क्रम जारी है! मनजीत बावा मिथकीय और आधुनिक संसार के बीच लगातार चलते एक सार्थक टकराव उनके जटिल अन्तर्सम्बन्धो के अद्भुत चितेरे थे। उन्हें अनुनाद की श्रद्धांजलि।


Friday, December 26, 2008

हरजीत की ग़ज़लें - अशोक के लिए :2

शोक का एक दिन पूरा हुआ और मैं सिलसिले को वहीँ से उठा रहा हूँ जहाँ से ये टूटा था - यानी अशोक पांडे से ! पहले भी मैंने हरजीत की ग़ज़लें अशोक के नाम लगाई थीं। हरजीत कई उम्रों की दोस्ती के शख्स थे और अशोक से उनकी काफी आत्मीयता रही, इसलिए एक फ़िर यही कर रहा हूँ।

"उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो,
उसकी हस्ती पुराने खज़ानों की है। "

एक
क्या सुनायें कहानियां अपनी
पेड़़ अपने हैं आंधियां अपनी

अब समंदर उदास लगता है
बांध लीं सबने किश्तयां अपनी

तू जो बिछड़ा तो इक मुसिव्वर ने
रह्न रख दी है उंगलियां अपनी

मेरे कमरे में कोई छोड़ गया
चंद यादों की चूड़ियां अपनी

उसके आंगन के नाम भेजी हैं
मैंने लफ्ज़ों की तितलियां अपनी

आंख कहती है अब तो सो जाओ
बोझ लगती है पुतलियां अपनी

दो

उसके पांवों में मिट्टी ढलानों की है
चाह फिर भी उसे आसमानों की है

हर तरफ़ इक अजब शोर बरपा किया
ये ही साजिश यहां बेज़बानों की हैं

कोई आहट, न साया, न किलकारियां
आज कैसी ये हालत मकानों की है

उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो
उसकी हस्ती पुराने खज़ानों की है

आप हमसे मिलें तो ज़मीं पर मिलें
ये तक़ल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है

उसकी नाकामियों पर मुझे नाज़ है
जिसकी कोशिश मुसलसल उड़ानों की है

Thursday, December 25, 2008

आज का एक और शोक ..... हैरॉल्ड पिंटर का जाना !

चिट्ठाजगत पर आकर पता लगा - ब्रिटेन के नाटककार और नोबेल पुरस्कार विजेता हैरॉल्ड पिंटर का 78 साल की उम्र में निधन हो गया है। पिंटर को 2005 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। हैरॉल्ड पिंटर लंबे समय से कैंसर बीमारी से पीड़ित थे। उनके लिखे प्रमुख नाटकों में द बर्थडे पार्टी, द डम्ब वेटर और द होमकमिंग शामिल हैं। अनुनाद यहाँ गहन शोक व्यक्त करने के साथ ही व्योमेश शुक्ल द्वारा अनूदित उनकी एक कविता प्रस्तुत करता है .... यह कविता पहले सबद में छप चुकी है और अब व्योमेश ने इसे अनुनाद के लिए उपलब्ध कराया , इसके लिए आभार !

पिंटर की कविता : मौत
(अनुवाद : व्योमेश शुक्ल)


लाश कहाँ मिली ?
लाश किसे मिली ?
क्या मरी हुई थी लाश जब मिली थी ?
लाश कैसे मिली ?

लाश किसकी थी ?

कौन पिता या बेटी या भाई
या चाचा या बहन या माँ या बेटा
था मृत और परित्यक्त शरीर का ?

क्या लाश मरी हुई थी जब फेकी गई ?
क्या लाश को फेका गया था ?
किन्होंने फेका था इसे ?

लाश नंगी थी कि सफर की पोशाक में ?

तुमने कैसे घोषित किया कि लाश मरी हुई है ?
क्या तुम्हीं ने घोषित किया कि लाश मरी हुई है ?
तुम लाश को इतना बेहतर कैसे जानते थे ?
तुम्हें कैसे पता था कि लाश मरी हुई है ?

क्या तुमने लाश को नहलाया ?
क्या तुमने उसकी दोनों आँखे बन्द की ?
क्या तुमने लाश को दफनाया ?
क्या तुमने उसे उपेक्षित छोड़ दिया ?
क्या तुमने लाश को चूमा ?

सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी वीर राघवाचारी को श्रद्धांजलि

मैनेजर पांडेय(राष्ट्रीय अध्यक्ष) एवं प्रणय कृष्ण(महासचिव) जन संस्कृति मंच की ओर से ज्ञापित शोक प्रस्ताव

सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे। चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया। इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा। ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है।

जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

(आम तौर पर अनुनाद एक पूरे दिन से पहले अपनी पोस्ट नहीं बदलता पर इस शोक प्रस्ताव की खातिर ये नियम अपवाद स्वरुप तोडा गया है ! इस सामग्री को विजय के ब्लॉग से लिया गया है और मुझे नहीं लगता उन्हें इस मित्र से किसी औपचारिक आभार की ज़रूरत होगी ! दिवंगत कवि को अनुनाद की भी श्रद्धांजलि। )

क्रिसमस पर विशेष : अशोक पांडे की कविता - सुनो ईसा !

(यह कविता अशोक के पहले और एकमात्र संकलन "देखता हूँ सपने" से साभार ली जा रही है। इसके लोकार्पण के समय अशोक पच्चीस साल के पूरे हुए थे। अब इस बात को १६ साल गुज़र चुके हैं ! इस प्रकरण के बारे में कुछ और जानने के लिए यहाँ क्लिक करें ! ये एक पुरानी याद है !)

तुमने मानवता को
उसके पापों से मुक्ति दिलाने को
कांटों का ताज पहना था
और स्वीकार किया था
अपनी हथेलियों पर कीलें ठुकवाना
-ऐसा
मैंने अपने बड़ों से सुन रखा था ईसा !

तुम्हारी बात छिड़ती है
तो लोग याद करते हैं
नंगे बदन सलीब से लटके
कमज़ोर एक मासूम आदमी को

बस
अब तुम्हारा
और कोई अर्थ नहीं रह गया है

मेरे ड्राइंगरूम की दीवार पर पालिश की हुई
आबनूसी लकड़ी में तराशे हुए तुम
बड़े दयनीय लग रहे हो
ईसा !

आओ
उतार दूं तुम्हें सलीब से
ज़रा मरहमपट्टी कर दूं
तुम्हारे हाथ-पैरों की

किस कमबख्त मानवता की बात कर रहे हो
बेकार ऐसा करुण भाव
न लाओ आंखों में

आओ उतार दूं तुम्हें
चलो एकाध जाम टकराते हैं
भूल जाओ
कि बाहर सड़कों पर रोता होगा कोई अनाथ बच्चा
या कि
भूख से तड़पती होगी जिन्दगी

आओ
ग़ालिब की ग़ज़ल सुनते हैं
और
नृत्य करते हैं
हाई-फाई म्यूजिक सिस्टम पर बज रही धुन पर
आओ
मेरे कमरे में तुम्हें नहीं सुनाई देगी
कोई करुण पुकार

चलो
अपने हाथ-पैरों में लगा खून साफ़ कर लो
आओ
जिन्दगी जीते हैं ईसा !

Wednesday, December 24, 2008

पंकज चतुर्वेदी की कविताएं

पंकज चतुर्वेदी की कविताएं _ इतना ही कहूंगा कि सहजता प्राण है इनका !

इच्छा

मैंने तुम्हें देखा
और उसी क्षण
तुमसे बातें करने की
बड़ी इच्छा हुई

फिर यह सम्भव नहीं हुआ

फिर याद आया
कि यह तो याद ही नहीं रहा था
कि हमारे समय में
इच्छाओं का बुरा हाल है !
***

कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं

कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं

न यात्रा अच्छी है
न ट्रेन के भीतर की परिस्थिति

लेकिन गाड़ी नंबर
गाड़ी के आने और जाने के समय की सूचना देती
तुम्हारी आवाज़ अच्छी है

कुछ चीज़ें अब भी अच्छी हैं !
***

अखंड मानस पाठ

एक



जिस भी विधि मेरा हित सधे
हित करना भगवान
और जल्द ही
इसी के हित
मैं दास हूं तुम्हारा

`जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा
करहु सो बेगि दास मैं तोरा´

यह था सम्पुट
जो कविता के
बीच से
चीखता था बार-बार
कविता से छिटकी हुई
यातना-सा !

दो

रातभर चलता रहा
अखंड मानस पाठ

सवेरे यह बच रहा एहसास
किस विकट बेसुरेपन से
गाए गए तुलसीदास !
***

Tuesday, December 23, 2008

सितारों के बारे में : सोवियत संघ की स्मृति को - वीरेन डंगवाल

इस पोस्ट को रणधीर सिंह के व्याख्यान वाली मेरी पिछली पोस्ट से जोड़ कर पढ़ा जाएगा, ऐसी अपेक्षा करता हूँ !

एक


टूटते नहीं है सितारे
वे मिट जाते हैं आहिस्ता-आहिस्ता
जबकि उनके छूंछे प्रकाश में
हम गढ़ते होते हैं
अपने सर्वोत्तम स्वप्न

कई लाख वर्ष पहले ही मर चुका था वह नक्षत्र
जिसकी चमक देखकर लगाते आए थे हम
सुबह होने का अनुमान



दो

महान गणितज्ञों की तरह
वे सिर्फ इंगित करते हैं
दिशाओं को
राह नहीं खोजी जा सकती
उनके दिप-दिप प्रकाश में
उस रोशनी में तो नहीं देखा जा सकता
आइने तक में अपना चेहरा
सबसे भले लगते हैं वे
जब हवा और ओस में आभासित होती है
उनकी पत्ते की तरह कांपती हुई आत्मा-
एक किरण मात्र !
भोर, जो विश्व का सर्वाधिक दिव्य प्रकाश है
उसमें अगर सिर्फ हाशिये पर है सितारों की जगह
तो यों ही नहीं



तीन

छांह रात्रि की थी, तारों की नहीं
मगर भरमाता रहा हमें प्यार
वे तो बस मढ़ते थे रात को अपनी चमक से
जैसे अंधकार की सुंदर व्याख्या करते
रिझाने वाले चतुर शब्द



चार

सब कुछ करते हैं सितारे
मैं पैदा हुआ क्योंकि कुछ सितारे ऐसा चाहते थे
मैं मर जाऊंगा
क्योंकि कुछ सितारे ऐसी योजना बना रहे हैं
तब मंगल आया था धरती के कुछ करीब
जब मैंने प्रेम किया
शनि वक्र हुआ
तो मेरा हाथ टूटा
और दिल
मैंने धक्के खाए
रोज़गार पाने के लिए भी ज़रूरी बताया गया
बृहस्पति का ठीक-ठिकाने होना
इस उलझे हुए आसमानी जाल के बाहर
कुछ भी करने की इजाज़त नहीं थी मुझे
पर मैं रहा पुराना
वही, कुटिल खल कामी
कुतरता हुआ
फरिश्तों के बुने हुए उस जाल को
चूहों की-सी अदम्य तल्लीनता से
बढ़ाता हुआ आगे तक
चीन की महान दीवार
जिसे ताकते हैं वे अपने अंतरिक्ष से भी
एक विद्वेष भरी टकटकी में !

***

Monday, December 22, 2008

कई लाख वर्ष पहले ही मर चुका था वह नक्षत्र जिसकी चमक देखकर लगाते आए थे हम सुबह होने का अनुमान


अनुनाद में यह अनिल का दूसरा अनुवाद है जिसे वीरेन डंगवाल की कविता की पंक्तियों का शीर्षक मैंने दिया है। 3 साल पहले बी० एच ० यू० में अनिल से एक मुलाकात हुई थी। उसकी स्मृति मेरे मन में है। यह अनुवाद युवा कवि और आलोचक व्योमेश शुक्ल ने उपलब्ध कराया - उनका आभार, यदि वे लें तो !


-------------------------------------------------------------------------------------
आठ मार्च 2007 को इतिहासबोध पत्रिका इलाहाबाद द्वारा आयोजित संगोष्ठी में दिया गया उद्‍बोधन.
-------------------------------------------------------------------------------------मुझे समाजवाद के भविष्य पर बोलने के लिये कहा गया है. मैं यहाँ जो कुछ भी कहने जा रहा हूँ वह मेरी हालिया ही प्रकाशित पुस्तक ' क्राइसिस आफ सोशलिज्म - नोट्स आन डिफ़ेंस आफ़ ए कमिट्मेंट' पर आधारित होगा और अपने पक्ष में उन्हें विस्तार से स्पष्ट करने के लिये इस पुस्तक में संकलित उद्धरणों को उद्धृत करूँगा. इस प्रश्न को मैं अपने उद्बोधन के चार अलग लेकिन अंतर्संबंधित खंडों में स्पष्ट करने जा रहा हूँ.


छ्ठवें दशक के अंत के मजबूत व विद्रोही दिनों , में पेरिस के छात्रों ने उस हर व्यक्ति जो उन्हे संबोधित करता था, से सवाल किया और कहा कि पहले वह यह बतायें कि " उनके बोलने का प्रस्थान बिंदु क्या है? (अर्थात् आप बोल कहाँ से रहे हैं?) प्रत्येक वक्ता एक विशिष्ट दार्शनिक राजनीतिक जग़ह के केन्द्र से बोलता था तथा इसके लिये उन्होनें सार्वजनिक तौर पर अपने
श्रोताओं का आभार माना. यहाँ यह बताना एकदम उपयुक्त होगा कि मैं मार्क्सवाद के पक्ष में खडे़ होकर बोल रहा हूँ, ऐसा मार्क्सवाद जिसे मैं समझता हूँ. जिस मार्क्सवाद में मुझे खुद के पारंगत होने का कोई मिथ्याभिमान नही है. मैने इसे कई तरीकों से सीखा और न सिर्फ़ मैने इसे अपनि राजनीति अथवा अध्यापक के पेशे के रूप में, बल्कि अपने जीवन और जीने
के तरीके में उपयोगी पाया. यह अंतिम बात सिर्फ औपचारिक उद्बोधन नहीं है. मार्क्स को जानना, अपने जीवन में आपने क्या मूल्य बनाया, इसे कैसे समझा, जीने और दुनिया में कैसा व्यवहार कियाआदि के बारे में अंतर पैदा करता है. जार्ज बर्नाड शा ने कैसे एक बार कहा था कि " निश्चित तौर पर मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि कार्ल मार्क्स ने मुझे एक इंसान बनाया." अतः मार्क्स मेरे लिये महत्वपूर्ण हैं और मुझे लगता है कि अन्य किसी नहीं बल्कि इस कारण से कि आज पहले से भी कहीं ज्यादा वह हम सभी के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं, कि आज हम जिस दिनिया में रह रहे हैं वह पूँजीवादी है. सोवियत संघ के विघटन के बाद यह दुनिया पहले से कहीं ज्यादा पूँजीवादी है, तथा मार्क्स नें किसी और मनुष्य से ज्यादा, तब और अब भी, अपना सारा जीवन इस दुनिया के वास्तविकता की व्याख्या करने में समर्पित किया है तथा उनकी उपलब्धियाँ अभी भी अद्वितीय हैं. एक अर्थ में, समाजवाद के बारे में मैं यहाँ जो कुछ भी बोलने जा रहा हूँ, अपनी बेहतर समझ के साथ, वह ऐतिहासिक रूप से ज़रूरी तथा पूँजीवाद का संभाव्य नकार है.

आज समाजवाद के बारे में कोई विचार विमर्श, कम से कम इसके सभी भविष्य सहित, भूतपूर्व सोवियत संघ में जो कुछ घटित हुआ उसे छोड़कर नहीं हो सकता. हमने यहाँ जो कुछ भी देखा, जैसा कि मैनें अपनी पुस्तक में विस्तार से उल्लेख किया है, वह एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयोग था; जिसका निर्माण किया गया था वह एक शिकायती विकृत समाजवाद था. और एक अंतिम संकट तथा वर्गीय शोषक तंत्र के विरुद्ध वर्गहीन पीढी़ के विध्वंस से उसका पूरी तरह पतन हो गया जो ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा वर्ग विश्‍लेषण की मार्क्सवादी व्याख्या पद्धति के अनुसार पूरी तरह अनुकूल ही है. दूसरे शब्दों में, सोवियत संघ में जो असफल हुआ वह समाजवाद नहीं बल्कि समाजवाद के नाम पर निर्मित एक तंत्र था. इस विशय पर विमर्श करने के लिये मेरे पास यहाँ समय नहीं है. मैं अभी इस बात पर जोर देना चाहुंगा कि समाजवादियों को यह समझने की जरूरत है कि भूतपूर्व सोवियत संघ में ऐसा क्यों और कैसे हुआ? इसके क्रियान्वयन में क्या कुछ घटित हुआ?

निश्चित तौर पर उन समाजवादियों के लिये जो बगैर पूँजीवाद मे भविष्य की इच्छा रखते हैं, यह समझना बेहद जरूरी है कि सोवियत संघ में समाजवाद के रूप में क्या निर्मित हुआ, क्या घटित हुआ तथा क्या असफल हुआ? उन्हें इस असफलता के मूल्य तथा परिणामों के महत्व को समझना चाहिये, वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद, जैसा कि हमने पहले ही बताया है तथा कुछ लोगों के अनुसार, यह सत्तावादी समाजवाद का विध्वंस था. यद्यपि उन्हें वास्तविक आस्तित्वमान पूँजीवाद या तानाशाही/सत्‍तावादी पूँजीवाद के मूल्य तथा परिणामों का भी ध्यान रखना चाहिये जिसने टुकड़ों में पलने के लिए विवश कर
दिया. समाजवादी तथा पूँजीवादी दुनिया के बीच दुनिया के बीच की प्रतिद्वंदिता के रूप में हमारे समय में होने वाले 'समाजवाद के लिये संघर्ष को निश्चित तौर पर गलत ढंग से देखा गया है, जैसे कि १९१७ के बाद के काल के आधिकारिक मार्क्सवाद के साथ हुआ. यह हमेशा से ही कुछ कम या अधिक कई अन्य मोर्चों के साथ एक अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष था. वास्तविक समाजवाद के आस्तित्व वाले देश अपने अंत तक इस संघर्ष का केवल एक मोर्चा थे, जिन्होंने इस संघर्ष की स्थितियों को, नकारात्मक साथ ही साथ सकारात्मक तौर पर मजबूत या प्रभावित किया. लेकिन इन्होंने इसके परिणामों के प्रश्न को निर्धारित या प्रभावित नहीं किया. इन देशों के वर्तमान विध्वंस ने अथवा पूँजीवादी खेमों मे इनकी वापासी ने किसी भी रूप में समाजवाद के भविष्य के सवाल को निर्धारित नहीं किया है, यह संघर्ष अभी भी जारी है और पूँजीवाद के खात्मे तक जारी रहेगा. तथापि इस देशों ने जो स्थापित किआ था वह कई में अंतरराष्ट्रीय वर्ग संघर्ष का महत्वपूर्ण मोर्चा था तथा उनके विध्वंस की माग है कि समाजवादी इनकी स्थितियों/दशाओं को समझें. यदि वे एक विकृत तथा पतित समाजवाद के बोझ को ढोने तथा इसकी कुरूपता और निर्दयता की जवाबदारी की जरूरत नहीं समझते तो इसके विध्वंस की वास्तविक मार्क्सवादी व्याख्या का भार उनके द्वारा अभी भी उठाना है ताकि हमारी जनता सच जान सके तथा भविष्य के संघर्ष के लिये सही सबक सीख सके.इस व्याख्या की जरूरत हमें सिर्फ़ यह सीखने के लिये नही है कि जो कुछ हुआ उसमें क्या सही और क्या गलत है बल्कि इसलिये और भी ज्यादा है क्योंकि हमारी व्याख्या की अनुपस्थिति में, उनकी, दुश्मनों की व्याख्या का प्रचलन जारी रहेगा और वह यह कि 'समाजवाद का पतन हो गया'. इससे भी ज्यादा हमें उनको अपना इतिहास छीन लेने से रोकने की आवश्यकता है. पूँजीवादी विचारकों ने यद्यपि 'समाजवाद के खात्मे ' की घोषणा कर दिया है और उत्तरआधुनिकतावादी तो यहाँ तक कि इतिहास से सीखने की क्षमता से ही इंकार करते हैं, अक्टूबर का चित्रण करने में व्यस्त हैं. जनता की उपलब्धियों के एक
पूरे युग में जो कुछ हुआ वह इतिहास में और कुछ नहीं बल्कि एक मंहगा विचलन था. वास्तव में , आज हमें अपने इतिहास का बचाव या उस पर पुनः दावा करना,सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसके मूल्यांकन करना हमारे लिये अपने आप में
एक क्रांतिकारी प्रोजेक्ट है.

अपने अतीत से हमें हमेशा ही एक दुःखदायी पाठ सीखना चाहिये. वास्तविकता का सामना करना तथा वाम की जरूरी राजनीति और संस्कृति का पुनर्निर्माण करना अतंत आवश्यक है लेकिन इस बारे में बेहतर संतुलन होना भी बराबर जरूरी है.दूसरे शब्दों में यह जानने की भी जरूरत है यह अतीत पूरी तरह से दुःखभरी विरासत नही है.हमें इस मूल्यांकन या आत्मपरीक्षण में नहाने की कठौती से बच्चे को ही बाहर नहीं फेंक देना चाहिये. सोवियत संघ के अनुभवों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन, इतिहास में समाजवाद तथा इसके साथ जुडे़ हुये संपूर्ण कम्युनिस्ट आंदोलन, भले ही इसके द्वारा नेतृत्व अथवा पथप्रदर्शन किया गया हो, के प्रथम प्रयोग के असफलता की पराकाष्ठा स्वभावतः सभी जगह के समाजवादियों के लिये महत्वपूर्ण है, चाहे वह उत्तर हो या दक्षिण. लेकिन विशेषकर जिन्हें इन अनुभवों के अध्यायों से सीखने की जरूरत है वे हैं नेता तथा इससे भी ज्यादा
कम्युनिस्ट पार्टियों के जुझारू कैडर, जिनके लिये सोवियत संघ संदर्भ तथा पहचान का निर्णायक बिंदु था तथा जहाँ बाद के समय में कई विभेद पैदा हो गये थे.पश्चिम में , मार्क्सवाद में ही सोवियत संघ के विघटन तथा इससे जुडी़ समस्याओं के जवाब तलाशने की अनिच्छुक और अक्षम इन अधिकतर पार्टियों ने साधारणतया समाजवादी प्रोजेक्‍ट का परित्याग कर सामजिक जनवादी रास्ता पकड़ लिया है. अन्य जगहों, विशेषकर तीसरे देशों में हलाँकि औपचारिक कम्युनिस्ट बचे रहे लेकिन जो कुछ भी घटित हुआ उससे भ्रमित तथा विमुख होकर रह गये, आधिकारिक मार्क्सवाद की रूढि़यों का उन्मूलन करने में अक्षम रहे.
इन सब का आरोप ख्रुश्चेवी संशोधनवाद, गोर्बाचोव के विश्‍वासघात अथवा अमरीकी साम्राज्यवाद तथा सीआईए की गुप्त कार्ययोजनाओं पर मढ़ते रहे. यहां तक कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट संरचनायें, अथवा चीनी प्रतिरूप के पुराने ढर्रों पर चलने वाले लोग भी कमोबेश इसी सरलीकृत तथा छिछली समझ से परे जाने में असफल रहे. जब तक समाजवाद के विध्वंस तथा इसके संकट को समझा नहीं जाता तथा इस समझ को पूरे सवालों पर पुनर्विचार के लिये नहीं लागू किया जाता,आंदोलन में अतिवामपंथी तथा लंबे समय से मौजूद सुधारवादी ताकतों को वास्तविक रचनात्मक मार्क्सवाद से बदाने का कोई मौका नहीं है. अतीत में मौजूद गतिकी के कारण यह कम्युनिस्ट पार्टियाँ बची रहेंगी लेकिन पुराने नेताओं एवं पहले के संघर्ष व उपलब्धियों से प्राप्त विश्‍वसनीयता के खत्म होते जाने तथा नयी क्रांतिकारी भर्तियों की असफलता से वह सिर्फ़ अवरुद्ध होकर रह जायेंगी अथवा अर्थवादी अभ्यासों के सहारे चलकर चुनावी सुधार तथा यहाँ तक कि वर्तमान पूँजीवादी वैश्‍वीकरण के साथ सामंजस्य करके लगातार नीचे गिरती जायेंगी. मार्क्सवादी लेनिनवादी या माओवादी शक्तियाँ अपनी क्रांतिकारी प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करते हुये भी सीमित क्षेत्र में एक दूसरे से लड़ते झगड़ते तथा अलग थलग पड़ते हुये संकुचित आंदोलन के रूप मे रही
आयेंगी. कम्युनिस्ट नाम के बावजूद यह पार्टियां तथा संरचनायें पुनः मजबूत होने तथा समाजवाद के लिये एक प्रभावी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने का मौका गँवा रही हैं. तीसरी दुनिया के समाजवादियों, जो अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं उन्हें मिलाकर, के लिए सोवियत अनुभव निरपवाद रूप से अतिरिक्‍त महत्व रखता है. क्लासिकल मार्क्सवाद, उन्नत पूँजीवादी देशों तथा अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर समाजवाद के निर्माण के संदर्भ सहित, कुछ सामान्य सिद्धांतों को छोड़कर कम-अधिक रूसी बोल्शेविकों के संपूर्ण बगैर घोषित सीमा क्षेत्रों, अर्थात अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के सबसे उन्नत देशों के निरंतर शत्रुतापूर्ण रुख के बीच किसी पिछडे़ देश में समाजवाद के लिये संघर्ष,में अप्रत्याशित स्थापना यात्रा जैसा ही है.वहाँ कुछ अग्रणी प्रयास हुये.अतः वस्तुगत परिस्थितियों की ताकतें, इस अभूतपूर्व कार्यभार के लिये सिद्धांत तथा व्यवहार की अपर्याप्तताओं के साथ इसके पतन के कारणों सहित सोवियत अनुभव, रूस तथा अन्य गरीब और पिछडे़ देशों के क्रांतिकारियों को
अमूल्य सबक सिखाते हैं. विशेष तौर पर इस नवीन वैश्विक पूँजीवाद के प्रभुत्व के दौर में एक बेहतर, जरूरी समाजवाद के लिये तथा खुद के निर्माण के लिये भी...........

भूतपूर्व सोवियत संघ में जो कुछ भी हुआ वह, मार्क्स के तर्कों के आधार पर, पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे के समाजवादी नकार की संभाव्यता तथा जरूरत के लिए किसी भी रूप में अवैधानिक नही है। और अब समाजवाद लिये संघर्ष सिर्फ़ पहले से कहीं ज्यादा कठिन और जटिल दिशा की ओर मुड़ गया है. समाजवादी शायद इस भ्रम में कभी नहीं रहे कि समाजवाद के लिये होने वाला संघर्ष सरल अथवा तुरंत सफल हो जाने वाले अभियान की तरह है. पहली असफलता के बाद अब यह पहले से कहीं बहुत अधिक कठिन होगा, अगली बार समाजवाद को लंबा चक्करदार रास्ता तय करना होगा. लेकिन इस संदर्भ में निराशा महसूस करने का कोई कारण नही है. पिछले कुछ वर्षों की तुलना मे भौतिक परिस्थितियाँ आज ज्यादा उपयुक्‍त तथा आत्मगत ज़रूरत/दबाव अधिक मजबूत हैं. और समाजवादी उद्देश्यों का प्रभाव क्षेत्र तभी बढ़ सकता है जबकि पूँजीवाद की, खुद से उत्पन्न संकटों का समाधान करने की, असमर्थता बढ़ती जायेगी.......!

यह एक वैधानिक तर्क है कि पाले समाजवाद के लिए आंदोलन बढ़ने के जो कारण थे आज, बल्कि पिछली शताब्दी के प्रारंभ अथवा पहले अन्य किसी समय से ज्यादा, इस सदी के प्रारंभ में और मज़बूत हैं. सामाजिक जीवन के संगठन में पूँजीवाद अभी भी शोषक और पर्यावरणीय विध्वंस का रास्ता है. क्षणिक विजयी पूँजीवाद उन्हीं ढाँचागत दबावों/मजबूरियों के तहत, पहले जैसे ही विध्वंसक परिणामों को उत्पन्न कर संचालित हो रहा है.यह अभी भी संकटों से घिरा हुआ है तथा अपनी अति विशाल/अनोखी उत्पादन क्षमता के बावजूद, मानव समुदाय की ज़रूरतों के लिए, यहाँ तक कि अपने प्रभुत्व की दुनिया में व्यापक आबादी को जीने-खाने तक की सुविधा मुहैया कराने के लिए , अपनी उपलधियों को सौंपने में जन्मजात तौर पर अक्षम है. अपने वर्तमान चरम उत्कर्ष के बावज़ूद, पूँजीवाद शताब्दियों से मौजूद एक भी समस्या का समाधान नहीं कर सका. और उसने समाजवादी इच्छाओं व संघर्षों का आधा-अधूरा ही सही भरण पोषण किया. समाजवाद के विश्‍वव्यापी संक्रमण का तर्क आज भी पहले से कहीं ज़्यादा उपयुक्‍त बना हुआ है.

सोवियत संघ के विघटन ने इस तर्क में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन नही लाया है, सिवाय इसके कि आर्थिक तौर पर शोषक, नैतिक रुप से घृणास्पद तथा पर्यावरण के लिए गैरटिकाऊ चरित्र का पूँजीवाद अब इतिहास के किसी भी समय से ज़्यादा नंगा हुआ है.......

वर्तमान प्रभुत्वशाली पूँजीवाद के विरोध मे समाजवादी विपक्ष के पुनर्निर्माण के लिए आत्मगत स्थितियाँ तथा व्यक्तिगत व जनसंगठन के स्तर पर मौजूद भ्रूणावस्था की वस्तुगत स्थितियाँ आज ज़्यादा आस्तित्वमान हैं.पश्चिम में 'कोई विकल्प नहीं' की खुशफ़हमी अब जा चुकी है. अतीत में इसी तरह की कई घोषणाओं सहित 'इतिहास के अंत' की बचकाना घोषणा मजबूती से अस्वीकृत कर दी गयी है. दीर्घ अवधि में जनता सोचती है कि कल्याणकारी पूँजीवाद प्रतिनिधिक नहीं, बल्कि वह जिस कठोर यथार्थ का अनुभव कर रही है वह प्रतिनिधिक है. लोग पूँजीवाद वास्तव में है क्या इसे कटोरता से सीख रहे हैं. वैश्‍विक पूँजीवाद, वैश्‍वीकरण तथा अमरीका के नये वर्चस्व के विनाशकारी हृदयस्थल में लोग पूँजीवाद, साम्राज्यवाद तथा अपने ही शासकवर्ग की दलाली के बारे में नया पाठ सीख रहे हैं. विकल्प का सवाल फिर एजेंडे में आ गया है तथा यद्यपि दिग्भ्रमित अथवा छितराये तरीके से ही, पूंजीवाद विरोधी संघर्ष दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न तरीकों तथा आकारों में जारी है. ये संघर्ष पिछली शताब्दी का जस का तस दुहराव नहीं चाहते.

हमें बताया गया है कि ''इतिहास अपने आप को नहीं दुहराता'' लेकिन मार्क्स ने कहा है कि 'इतिहास हमसे ज़्यादा कल्पनाशील होता है'. इतिहास निश्चित तौर पर आश्चर्य चकित करता है- और शोषितों तथा दमितों द्वारा क्रांतियां उनमें से एक है......सशस्त्र संघर्ष अथवा व्यापक विद्रोह का उभार ही क्रांतियां नहीं होते, यद्यपि इनकी जरूरत को इंकार नहीं किया जा सकता। यह क्रांति को इतिहास के एक खास क्षण जैसे विंटर पैलेस पर कब्ज़ा या बास्तील के तूफान जैसे एक निश्चित प्रतिबिंब की तरह देखने में कोई मदद नहीं करते। क्रांति,पूंजीवादी लोकतंत्र के शासनकाल में खुद की विशिष्‍ट जटिलताओं के साथ, एक
जटिल प्रक्रिया के रूप में बेहतर ढंग से समझी जा सकती है। और जहां तक हम इसे समझते हैं वह यह कि भविष्‍य की क्रांतियों के व्यवहारिक तथा सैद्धांतिक रूपों के बारे में अनुमान नही लगा सकते। और हम यह आश्‍चर्य जानते हैं कि इतिहास का उतार-चढा़व हमें बीसवीं सदी में ले गया है। और इस बारे में संदेह का कोई आधार नहीं है कि यह और ज़्यादा हमें ले जायेगा। विद्रोह में जनता की आविष्कारिता किसी भी संवेदनशील विद्वान या दार्शनिक की कल्पना के परे रही है और यह जारी रहेगी......

क्रांति अभी पूरी नहीं हुई है. वर्गों के बीच, शोषित और शोषकों के बीच,नये और पुराने सामाजिक ढाँचे के बीच मूलभूत तनाव इसलिए नहीं ख़त्म हो जायेंगे कि सोवियत संघ खतम हो गया और फ़ूकोयामा ने उद्‍घोषणा किया है कि 'इतिहास का अंत' हो गया. बीसवीं सदी की क्रंतियों में गतिशीलता तथा ताकत पैदा करने वाली ताकतें, जिस तरह पहले थीं आज भी है. 'ऐतिहासिक कम्युनिज़्म' के अंत से गरीबी अथवा न्याय के लिए लोगों की तड़प का अंत नहीं हुआ है. तीसरी दुनिया के गरीब तथा वंचित लोग अभी भी बेहतर जीवन की उम्मीद रखते हैं. अतीत या भविष्‍य में क्रांतियों के बारे में किसी अतिउत्साह के बगैर फ़्रेड हालिडे ने अपने हाल ही के अध्ययन में बताया है कि 'सत्ताधारी और धनी लोगों द्वारा अपने खिलाफ नफ़रत तथा इतिहास की क्षमता को पूरी तरह से समझने की लगातार अक्षमता बेहद आश्‍चर्यजनक है'. उन्होंने लिखा है कि "आधुनिक इतिहास में क्रांति का एजेंडा अभी भी हमारे साथ है क्योंकि जो उद्देश्य रखे गये थे वह अभी भी पहुँच से बहुत दूर हैं, यह अभी भी क्रांति को इतिहास के एजेंडे में रखे हुए है. क्रांति अभी भी ध्रुव सत्य है, हमारे समय की अधूरी कहानी-यह कहानी चाहे जिस आकार अथवा रूप मे हो और चाहे जितना भी लंबा समय लगे, यह कहानी पूरी कही जायेगी......यह कहानी पहले भी दुनिया की क्रांतिकारी प्रक्रियाओं में कही गयी है और सोवियत संघ में असफल प्रयोग के फलस्वरूप प्रारंभिक धक्कों के बाद,समाजवाद मनुष्यता की जरूरत तथा संभावित भविष्य के रूप में दुबारा स्थापित हो रहा है. जैसे कि बोलिवियाई अपनी क्रांति की रक्षा के लिए अमरीकन साम्राज्यवादियों तथा इसके स्थानीय सहयोगियों द्वार संसदेतर प्रतिबंधों के षड्‍यंत्र के खिलाफ संघर्ष में मजबूती से डंटे हैं, वेनेजुलियाई '२१वी सदी में समाजवाद' के निर्माण की बात कर रहे हैं तथा क्युबा से प्रेरित
होकर पूरे लैटिन अमरीका में 'गुलाबी' की जगह 'लाल' के आ जाने का खतरा महसूस हो रहा है. नेपाल में जनयुद्ध के लिए लड़ रहे तथा अब लोकतंत्र के युद्ध को जीतने के लिए संघर्षरत माओवादी 'समाजवाद की ओर ले जाने वाले'आत्मनिर्भर विकास की बात कर रहे हैं. पश्चिम में वैश्वीकरण के विरुद्ध संघर्ष और गहरा रहा है जैसा कि 'न्यू यार्कर' ने 'इसे कार्ल मार्क्स की वापसी' लिखा है तथा यूरोप में समाजवाद के नए प्रयोग की बात सुनी जा रही है. कभी भी संकीर्ण वर्गीय प्रोजेक्‍ट में न रहने वाला समाजवाद आज, जैसा कि पहले कभी नहीं था, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में किए गए मार्क्स के दावे के अनुसार 'व्यापक लोगों के हित में व्यापक आंदोलन' के रूप में मजबूती से खडा़ है.

पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ के विघटन ने कई विद्वानों, पत्रकारों,राजनेताओं, तमाम तरह के विचारकों तथा लेखकों को आसान खेल खेलने का खुला मौका दे दिया है. अगर समाजवाद परास्त हो गया तो इसका प्रतिद्वंदी पूंजीवाद जीत गया. योजनाबद्ध समाजवादी अर्थव्यवस्थायें अगर टूट बिखर गईं तो उसका धुर विरोधी, मुक्‍त बाजार आधारित पूंजीवाद जरूर विजयी हुआ है. इस तरह के पूरे अपचयनवादी तथा खतरनाक तथा बिल्कुल ही संदेहपूर्ण तर्क, जो सोवियत संघ में जो कुछ हुआ उसे ही समाजवाद के बराबर मानते हैं तथा इसकी असफलता को पूंजीवाद के विजय से जोड़ते हैं, न सिर्फ़ कमजोर हैं बल्कि
व्यवहारिकता के धरातल पर बिल्कुल गलत हैं. किसी वस्तुगत मूल्यांकन से स्पष्ट है कि पांच सदियों के पुराने आस्तित्व के अंत तक वैश्विक पूंजीवाद आज सबसे पतित व्यवस्था है. इस पतन के प्रमाण, समकालीन पूंजीवादी विश्‍व के प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक पहलू में बिल्कुल आसानी से देखने को मिल रहे हैं. दुनिया में हर जगह बढ़ रही दरिद्रता और दुर्दशा में यह लक्षण
देखे जा सकते हैं, बढ़ती बेरोजगारी दर के आधिकारिक आंकड़ों, गरीबी,बेघरपना तथा भूख में, पश्‍चिमी बुर्जुवा लोकतंत्रों के बडे़ शहरों की नारकीय झोपड़पट्टियों में, भूतपूर्व सोवियत खण्‍डों की फुदकी राजधनियों में शहरी घेट्टों की विशाल बढ़ोत्तरी में तथा दक्षिणी क्षेत्रों में व्यापक तौर पर झोपड़पट्टियों की संकीर्ण गलियों के अचानक ढहाए जाने में; दुनिया की संपूर्ण असमानताओं में, निर्धनों की दरिद्रता में तथा धनी पश्‍चिमी समाजों और गरीब देशों की व्यापक जनता की बदहाली के बीच बढ़ती खाई में; पूंजीवाद द्वारा हर जगह पैदा की गई नैतिक रुप ने असहनीय तथा सामाजिक रूप से गैरजरूरी पीडा़ में, जिसे बोर्दिये ने- ला मिज़रे द मोंद कहा है.........

वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद- जो मार्क्स का समाजवाद नहीं था और जिसकी संभावनायें अभी खुली हुई हैं- शायद असफल हो गगा है. लेकिन वास्तविक आस्तित्वमान पूंजीवाद- जो पूंजीवाद का मात्र एक ही संभावित प्रकार है- निश्‍चित तौर पर जिस तरह से बना था उसी तरह से नहीं सफल हो सका है. किसी भी व्यवहारिक निर्णय में पूंजीवाद हमारे समय में सबसे अधिक पतित है. एक और बात कि, पूंजीवाद उपलब्धियों के आकलन के सर्वाधिक वैधानिक कसौटी की सामाजिक व्यवस्था के रूप में; समाज में उपलब्ध वास्तविक तथा क्षमतावान संसाधनों द्वारा 'रोजगार की संपूर्णता' तथा 'रोजगार की अच्छाई' के संदर्भ में एक संभावना के बतौर पूरी तरह असफल हो चुका है. मानव इतिहास में इसके पहले समाज की उत्पादन संभावना तथा समाज की प्रगति/उपलब्धियों के बीच इतना विशाल अंतर कभी नहीं रहा जितना कि आज के पूंजीवाद के विकास की वर्तमान अवस्था में है. इस बात के साक्ष्य हैं कि तीन सफल औद्योगिक क्रांतियों की असाधारण उत्पादन क्षमता ने मनुष्यता का परित्याग कर दिया है तथा गरीबी और अशिक्षा, मैली कुचली झोपड़पट्टियों तथा पूंजीवादी विश्व के सबसे धनी
देशों के लाखों से ज्यादा परिवारों तथा तीसरी दुनिया के गरीब देशों की परिधि तथा अर्धपरिधि में सिकुडी़ झोपड़ियों में भूख तथा दुर्दशा नें हज़ारों लाखों लोगों के जीवन को व्यर्थ बनाकर छोड़ दिया है. आज हमारे समय में तीसरी दुनिया निश्‍चित तौर पर पूंजीवाद के पतन का प्रतीक है........

जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक'प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्‍चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में,सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में,साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून'नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्‍त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्‍चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं....

सोवियत संघ में जैसा समाजवाद निर्मित किया गया था वह असफल हो गया. अन्य जगहों पर पूंजीवाद भी पतित हो गया है. समाजवाद, जिसको कि हम जानते हैं तथा पूंजीवाद ,जिस तरह आस्तित्वमान है दोनों कि हमारे समय में असफलता
स्पष्‍ट करती है कि पूंजीवाद से समाजवाद/साम्यवाद में संक्रमण के मामले में महायुगीन संक्रमण की समस्या और समाजवाद के भविष्‍य के सवाल को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां पुराना अपनी सकारात्मक संभावनाओं को समेटे है तह्ता नए में जन्म से ही कुछ समस्याएं होगीं. एक दूसरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने लिखा है कि 'पुराना अपनी मौत मर रहा है और नवीन जन्म नहीं ले रहा है; इस अराजक काल में बडे़ विकृत किस्म के लक्षण दिखाई दे रहे हैं'. यह विकृत लक्षण हैं, आज के सभी उन्नत तथा कम उन्नत पूंजीवादी देशों में, पूंजीवादी सभ्यता के किसी गहरे संकट से ज्यादा, आज हमारे समय में पूंजीवाद के अनिवार्य पतन के, कम या आधिक मात्रा में, लक्षण दिखाई दे रहे हैं.......

आज हम जो कुछ देख रहे हैं वह एक युग का अंत है, पूंजीवाद से संक्रमण का युग. एक असमान दुनिया के गठन और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में पूंजीवाद के विस्तार के इन पांच सौ विषम वर्षों में, आर्थिक मजबूती और लाभ कि परिधि तथा अर्धपरिधि के संदर्भ में पूंजीवाद अपने स्थायी अंतर्विरोधों को दबाने में सक्षम था लेकिन यह सब भविष्य में अपनी जीत के लिए स्थितियों को बदतर बनाए बिना नहीं हो सकता था. अब आगे की विस्तार की संभावना के धीरे धीरे खतम होने के साथ ही इस अंतर्विरोधों को पहले जैसे दबाना कठिन है.लोगों के लिए वास्तविक विध्वंसक परिणामों के साथ अधिक आक्रामक हो कर वे जो घोषणाएं कर रहे हैं वह खुद पूंजीवाद के वर्चस्व के युग को दर्शाती हैं. अपने सबसे अच्छे दिनों में भी पूंजीवाद, शुम्पीटर के प्रसिद्ध मुहावरे का प्रयोग करें तो 'रचनात्मक विध्वंस' की एक प्रक्रिया है.जैसे ही पूंजी में बढो़त्तरी होती हैं,प्रतियोगी शक्‍तियों को जीवित रहने के लिए प्रतियोगी होना पड़ता है तथा जो रचनात्मक नहीं हो पाते विध्वंस को अंजाम
देते हैं. बाजार तथा प्रतियोगिता की दुकान में विजेता, पराजितों से प्रतिद्वंदिता करते हैं तथा रचना तथा विध्वंस एक तथा एक समान हो जाते हैं. पराजित, यद्यपि वैयक्‍तिक इकाई या निरपेक्षतः अकुशल नहीं होते. वास्तविक दुनिया में पराजित जनता होती है और कई बार पूंजीपति भी हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर अक्सर श्रमिक लोग ही होते हैं.
'रचनात्मक विध्वंस' का मतलब है- वास्तविक श्रमिकों की बेरोजगारी,समुदायों की निराश्रयता, पर्यावरण का विनाश तथा जनता की शक्‍तिहीनता. पूंजीवाद के रचनात्मक विध्वंस का का विनाशकारी पहलू अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है ऐतिहासिक 'रेजन दि एत्रे' तथा बतौर उत्पादन प्रणाली के पूंजीवाद की न्यायसंगतता एकबारगी खत्म हो गई है तथा अब हम वैधानिक तौर पर यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद अपने समय से ज्यादा, अपनी ऐतिहासिक वैधानिकता के काल से ज्यादा समय तक जीवित है. पूंजीवाद की उपलब्धियां अब पूरी तरह से अतीत की हो चुकी हैं और इसका भविष्य सिर्फ मानवता के विध्वंस का ही वादा करता है. कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष 'या तो व्यापक तौर पर सामाजिक क्रांतिकारी पुनर्स्थापना में या फिर संघर्षरत वर्गों की आपसी बर्बादी से समाप्त होता है. बीसवीं सदी के महान वर्ग
संघर्ष का परिणाम निश्‍चित तौर पर 'समाज की क्रांतिकारी पुनर्स्थापना' नहीं है. मार्क्स और एंगेल्स ने जिसे 'संघर्षरत वर्गों की सामान्य बर्बादी' कहा है वह पहले से ही समाज में हो रही है. अर्थव्यवस्थाएं हर जगह कसाईखाना बन गई हैं; लाचारी, गरीबी, धन की कमीं तथा संसाधनों की विलासितापूर्ण बर्बादी; कानून तथा व्यवस्था के व्यापक विध्वंस,मूर्खतापूर्ण क्षेत्रीयता तथा नस्लीय विवाद, देशों के बीच अथवा देशों के भीतर रोजमर्रा के नए युद्ध, जनसंहारक हथियारों के प्रसार तथा वैश्विक
पैमाने पर आतंकवाद का खतरा, सब कुछ निगल जाने वाले पर्यावरणीय संकट, निकट भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर बहुत वास्तविक संदर्भों में यह सब संघर्षरत वर्गों से ज्यादा 'समान बर्बादी के बिंदु हैं. पूंजीवाद का युग शायद अच्छी तरह से 'मानवता के संपूर्ण उन्मूलन' में ही खत्म हो जैसा कि मार्क्स द्वारा १८४५ में ही संभावना व्यक्‍त की गई थी. जिस परिप्रेक्ष्य को बाद मे रोजा लुक्जमबर्ग ने 'समाजवाद या बर्बरता' नामक उक्‍ति में व्यक्‍त किया. जिस खतरे को हम महसूस कर रहे हैं उसके संदर्भ में रोजा लुक्‍जमबर्ग के कथन को सुधारकर मेस्ज़रोज़ ने कुछ जोड़ते हुए कहा कि 'समाजवाद या बर्बरता', "अगर हम भाग्यवान हैं तो बर्बरता"--पूंजी के विनाशकारी विकास का अंतिम समायोजन मानवता का उन्मूलन है. ऐसी नियति 'मानवता का उन्मूलन' पूंजीवाद के अनियंत्रित धन बटोरने के तर्क में ही अंर्तनिहीत है. यह बिल्कुल ठीक कहा गया है कि पूंजीवाद के बारे में यह सच नही है कि 'इतिहास का अंत' हो गया है, जैसा कि बुर्जुवा विचारक हमें मानने के लिए कहते हैं, बल्कि इसका निरंतर आस्तित्व 'मनुष्‍य के इतिहास का' वास्तव में अंत कर देगा.....पहले जैसा बताया गया है कि, चीजों के विस्तृत दृष्टि को लेकर, वर्तमान समय की पराजय तथा समाजवाद की वापसी उस उतार चढा़व की उपयुक्‍त दृष्टि है जो पूंजीवाद से समाजवाद में महायुगीन संक्रमण से अपरिहार्य तौर पर जुडी़ है......बीसवीं शताब्दी वैश्विक पूंजीवाद द्वारा दुनिया भर में संपूर्ण वर्चस्व के साथ शुरु हुई थी. तब मार्क्सवादी विश्‍लेषण के, और खुद मार्क्स के पूर्वानुमान के मुताबिक बीसवीं सदी में - प्रथम विश्‍वयुद्ध के उपरांत यूरोपीय क्रांति (जिसमें सिर्फ रूस की क्रांति ही कायम रह पाई), द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप में और फिर चीन, कोरिया,क्यूबा, वियतनाम, और हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग एक तिहाई आबादी और परिक्षेत्र में समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं. पूंजीवाद की परिसीमा में समाजवाद जड़ें नहीं जमा सकता था जैसा कि पूंजीवाद ने सामंतवाद के भीतर किया. पूंजीवाद द्वारा प्रदत्‍त भौतिक आधारों पर बेहतर ढंग से निर्मित यह समाज की एकदम एक नई शुरुआत है, लेकिन जिन गरीब तथा पिछडे़ देशों में समाजवाद के निर्माण की ये कोशिशें हुई वहां ये आधार मुश्किल से ही मौजूद थे.. जो सबसे कमजोर तैयारी मे थे यह उनका कार्यभार था फिर भी इन देशों ने इस निर्माण के लिए संघर्ष किया तथा अफ्रीका व अन्य जगहों पर भी मार्क्सवाद व समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध आंदोलनों तथा क्रांतिकारी सत्ताओं
का उदय हुआ. तथा पूंजीवाद तथा क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना के बीच लंबे समय तक जो प्रतिद्वंदिता रही वह अब बंद हो गई तथा उसका अचानक अंत हो गया. पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के बाद, आने वाला भविष्य पूंजीवाद से संबंधित लगने लगा था लेकिन ऐसे परिप्रेक्ष्य सापेक्षतया नए हैं. कई सदियों से यह धारणा बहुत दूर थी कि पूंजीवाद तीसरी सहस्त्राब्दी तक बना रहेगा. लेकिन क्रांति पश्‍चात की प्रतिस्थापनाएं दिखाती हैं कि समाजवाद दूसरी सहस्त्राब्दी मे अंतिम दिनों में ही असफल हो गया. यद्यपि यह पहले दृष्‍टिकोण की समाप्ति नहीं है. समाजवाद का सोवियत प्रयोग असफल हो गया क्यूंकि वस्तुगत तथा आत्मगत दोनों तरह की स्थितियां इसके प्रतिकूल थीं. प्रारंभ में आर्थिक पिछडा़पन, फिर आंतरिक वर्गयुद्ध तथा सशस्‍त्र और निरस्त्र विदेशी हस्तक्षेप तथा वैश्विक पूंजीवाद के निरंतर प्रयासों ने समाजवाद के निर्माण में हर सफलता को बाधा पहुंचाया. इस राह के निर्धारक तत्व, अपर्याप्त तथा अक्सर ही गलत सिद्धांत थे जिन्होंने इस प्रयोग तथा कमजोर राजनीतिक नेतृत्व को दिशा निर्देश अथवा गलत दिशा निर्देश दिया.लेकिन जो जानना सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि जिस के लिए भी प्रयास हुए और जो भी कुछ असफल हुआ वह समाजवाद नहीं था बल्कि समाजवाद निर्माण के लिए पहला गंभीर प्रयास था. समाजवाद तथा साथ ही साथ क्रांति की उपलब्धियों के उद्‍देश्यों का जिन कारणों से जन्म हुआ वह अभी भी पहले से ज्यादा मौजूद हैं. इसे मानने का कोई कारण नही है कि प्रभुत्वशाली पूंजीवाद को हमेशा की ही तरह आश्चर्यचकित कर देने वाली नई क्रांतियां लंबे दिनों तक नहीं होंगी तथा समाजवाद के निर्मान के नए प्रयास नहीं किए जायेंगे. और इस बात को मानने के कई कारण हैं कि अनूकूल परिस्थितियों, ज्यादा समृद्ध सिद्धांत तथा बेहतर राजनीतिक नेतृत्व में भी ऐसे प्रयास सफल नही होगें...... यहां पूंजीवाद के उद्‍भव और विकास पर एक निगाह डालना काफी शिक्षाप्रद होगा. विद्वानों का मत है कि मध्यकाल के दिनों में पूंजीवाद अपनी गलत शुरुआत के बावजूद एक नहीं बल्कि कई घोषणाओं/उम्मीदों को समेटे हुए था.
लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहने की ताकत की कमीं के कारण तथा उस दौरान मुख्यतः सामंती वातावरण के कारण कमजोर तथा विभाजित था. सामंती वातावरण से घिरा, आकार लेता पूंजीवाद आगे बढ़ने में असफल रहा. यह तब तक
नहीं था जब तक कि बाद की सदियों में एक नया संयोग नहीं आया कि फुदकता पूंजीवाद, जिसने अपने पहले के विफल प्रयासों से लाभान्वित होकर जडे़ जमाया तथा अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिए पर्याप्त शक्‍तिशाली बनकर उभरे तथा आगे बढ़ सके, और अंततः यह प्रकट हुआ जैसे कि इग्लैंड तथा अन्य अटालांटिक समाजों में हुआ. एक बार उदीयमान होने के बाद सामंतवाद से संघर्ष लगातार जारी था, एक ऐसा संघर्ष जो प्रभुत्व के लिए दो वास्तविक आस्तित्वमान सामाजिक संरचनाओं के बीच था. यह संघर्ष राज्य सत्‍ता (उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार) तथा अपने हितों तथा विचारों के अनुसार
समाज को संगठित करने के अधिकार के लिए था. इससे भी ज्यादा यह एक ऐसी प्रक्रिया का विस्तार था जिसमें एक नए सामाजिक ढांचे ने वैचारिक तथा आर्थिक दोनों तरह के अविवादित प्रभुत्व के लिए खुद को तैयार करने में पर्याप्त समय लिया. इसीलिए पूंजीवा हमारे समय में वैश्विक वर्चस्व के तंत्र के रूप में उपज सका तथा विकसित हुआ. जब तक कि इसमें छेद करने के लिए समाजवाद ने अपना पहला प्रयत्‍न नहीं किया, एक ऐसा प्रयत्‍न जो अभी असफल हो गया

Saturday, December 20, 2008

एक अदृश्य सत्ता : जान पिल्गर : अनुवाद - अनिल


(हमारे समय में चेतना की धार को कुंद करने वाले शब्दों को उसके सही और वास्तविक मायनों में व्याख्यायित करने वाले प्रख्यात पत्रकार जान पिल्गर ने यह व्याख्यान शिकागो में पिछली जुलाई में दिया था. इस व्याख्यान में जान पिल्गर विस्तार से बताते हैं कि कैसे प्रोपोगेण्डा हमारे जीवन की दिशा को प्रबलता से प्रभावित कर रहा है. इतना ही नहीं प्रोपोगेण्डा आज एक अदृश्य सत्ता का भी प्रतिनिधित्व करता है. हिंदी में प्रोपोगेंडा शब्द के भाव को व्यक्त कर सकने वाला कोई एक निश्चित शब्द मेरी जानकारी में नहीं है. प्रोपोगेंडा शब्द से तात्पर्य है सच्चाई को दबाने के लिए जोर शोर से (कु)प्रचार अभियान - अनुवादक)


इस बातचीत का शीर्षक है अगली बार आजादी, जो मेरी पुस्तक का भी शीर्षक है और यह पुस्तक पत्रकारिता का छद्मवेश धारण कर किए जाने दुष्प्रचार अभियान अर्थात प्रोपोगेंडा की असलियत तथा इससे रोकथाम के बारे में है. अत: मैने सोचा कि आज मुझे पत्रकारिता के बारे में, पत्रकारिता द्वारा युद्ध के बारे में प्रोपोगेंडा और चुप्पी तथा इस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बात करनी चाहिए. जनसंपर्क के तथाकथित जनक एडवर्ड बर्न्स ने एक अदृश्य सरकार के बारे में लिखा है जो हमारे देश में शासन करने वाली वास्तविक सत्ता होती है, वह पत्रकारिता, मीडिया को संबोधित कर रहे थे. यह करीब अस्सी साल पहले की बात है जबकि कार्पोरेट पत्रकारिता की खोज हुए ज्यादा लंबा समय नहीं हुआ था. यह एक इतिहास है जिसके बारे में कुछ पत्रकार बताते हैं या जानते हैं और इसकी शुरुआत कार्पोरेट विज्ञापन के उद्भव से हुई. जब कुछ निगमों ने प्रेस का अधिग्रहण करना शुरु कर दिया तो जिसे कुछ लोग `पेशेवर पत्रकारिता´ कहते हैं, की खोज हुई. बडे़ विज्ञापनदाताओं को आकिर्षत करने के लिए नए कारपोरेट प्रेस को सर्वमान्य, स्थापित सत्ताओं का स्तंभ- वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष तथा संतुलित दिखना था. पत्रकारिता का पहला स्कूल खोला गया और पेशेवर पत्रकारों के बीच उदारवादी निरपेक्षता के मिथकशास्त्रों की घुट्टी पिलाई जाने लगीं. अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को नई मीडिया तथा बडे़ निगमों के साथ जोड़ दिया गया और यह सब, जैसा कि राबर्ट मैक्चेसनी ने कहा है कि यह सब ``पूरी तरह से बकवास´´ है.

जनता जो चीज नहीं जानती थी वह यह कि पेशेवर होने के लिए पत्रकारों को यह आश्वासन देना होता है कि जो समाचार और दृश्टिकोण वे देंगें आधिकारिक स्रोतों से ही संचालित और निर्देशित होंगे और यह आज भी नहीं बदला है. आप किसी भी दिन का न्यूयार्क टाइम्स उठाइए और राजनीतिक खबरों- विदेशी और घरेलू दोनों, के स्रोतों की पडताल करिए, आप पाएंगें कि वे सरकारों तथा अन्य स्थापित स्रोतों से ही निर्देशित हैं.पेशेवर पत्रकारिता का यही मूलभूत सार है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि स्वतंत्र पत्रकारिता इससे कोई अलग थी या इसे छोड दिया जाए लेकिन फिर भी यह इससे बेहतर अपवाद थी. इराक पर आक्रमण में न्यूयार्क टाईम्स की जुडिथ मिलर ने जो भूमिका निभाई है उसके बारे में सोचिए. उसके काम का पर्दाफाश हो गया लेकिन यह सिर्फ झूठ आधारित आक्रमण को प्रोत्साहित करने में शक्तिशाली भूमिका निभाने के बाद ही हो सका. फिर भी मिलर द्वारा आधिकारिक स्रोतों तथा निहित क्षुद्र स्वार्थो का रट्टा लगाना न्यूयार्क टाइम्स के कई अन्य प्रसिद्ध रिपोर्टरों, जैसे रिपोर्टर डब्ल्यू एच लारेंस जिसने अगस्त 1945 में हिरोशिमा पर गिराए गए अणुबमों के वास्तविक प्रभावों को कवर करने में मदद किया था, से कोई अलग नहीं था. `हिरोशिमा की बर्बादी में रेडियोएिक्टविटी नहीं´ इस रिपोर्ट का शीर्षक था और यह झूठ थी.

गौर कीजिए कि कैसे इस अदृश्य सरकार की शक्ति बढती गई. सन 1983 में प्रमुख वैश्विक मीडिया के मालिक/धारक पचास निगमें थीं जिसमें से अधिकतर अमरीकी थे. सन 2000 में गिरकर सिर्फ नौ निगम रह गए. आज तकरीबन पाच ही हैं.रूपर्ट मुडरोक का अनुमान है कि मात्र तीन मीडिया घुड़सवार ही रहेंगे और उसकी कंपनी उनमें से एक होगी. सत्ता का यह केंद्रीकरण संयुक्त राज्य में शायद उसी तरह नहीं है. बीबीसी ने घोषणा किया है कि वह अपने प्रसारण को संयुक्त राज्य में फैला रहा है क्योंकि उसका मानना है कि अमरीकन मौलिक, वस्तुनिष्ठ तथा निरपेक्ष पत्रकारिता चाहते हैं जिसके लिए बीबीसी प्रसिद्ध है. उन्होंने बीबीसी अमरीका प्रारंभ किया है. आपने विज्ञापन देखा ही होगा.

बीबीसी 1922 में, अमरीका में कार्पोरेट प्रेस के शुरु होने के थोडा पहले, शुरू हुआ. इसके संस्थापक जान रीथ थे जिनका मानना था कि निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता पेशेवर होने के मूलभूत सार हैं. उसी साल ब्रिटिश हुकूमत को घेर लिया गया था. श्रमिक संगठनों ने आम हड़ताल का आह्वान किया था तथा टोरियों को डर हो गया कि क्रान्ति होने जा रही है.तब नवीन बीबीसी उनके बचाव में आया. उच्च गोपनीयता में लार्ड रीथ ने टोरी प्रधानमंत्री स्टानले बाल्डविन के लिए यूनियन विरोधी भाषण लिखा और जब तक हड़ताल खत्म नहीं हो गई लेबर नेताओं को अपना पक्ष रखने की अनुमति देने से इंकार करते हुए उन भाषणों को राष्ट्र के नाम प्रसारित करते रहे.

अत: एक उदाहरण/प्रतिरूप स्थापित किया गया. निष्पक्षता एक निश्चित सिद्धांत था( एक ऐसा सिद्धांत जिसे स्थापित सत्ता को खतरा महसूस होते ही बर्खास्त कर दिया गया. और यह सिद्धांत तब से संभाल कर रखा गया है.


बीबीसी समाचार में सामान्यत: दो शब्द भूल (मिस्टेक) और मूर्खतापूर्ण गलती (ब्लंडर) प्रमुखता से इस्तेमाल किए जाते हैं. वह भी ``असफल´´ के साथ जो कम से कम यह दिखाता है कि अगर सुरक्षाविहीन इराक पर जानबूझकर, सुनियोजित, बिना भड़काए, गैरकानूनी आक्रमण सफल हो जाता तो वह बिल्कुल सही होता. जब भी मैं इन शब्दों को सुनता हूं तो न सोचे जा सकने वाले को भी सामान्य करने के बारे में एडवर्ड हरमन के अद्भुत लेख की याद आ जाती है. जिसके लिए मीडिया घिसी पिटी उक्तियों का प्रयोग करता है तथा सोची तक न जा सकने वाली बात को सामान्य बनाने का काम करता है. युद्ध के विनाश को, विशाल आबादी की यातनाओं को, आक्रमण से क्षत विक्षत बच्चों को, उन सब को जिसे मैने देखा है.

शीत युद्ध के दौरान रूसी पत्रकारों के अमरीका भ्रमण पर मेरी एक पसंदीदा रिपोर्ट है. भ्रमण के अंतिम दिनों में उनके मेजबान ने अपनी शेखी बघारने के लिए उनसे कुछ पूछा था. `मैं आपको बताता हूं, प्रवक्ता ने कहा, ``कि सभी अखबारों को पढ़कर तथा रोज ब रोज टेलीविजन देखते हुए हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सभी बडे मुद्दों पर लगभग सभी राय एक जैसी हैं. अपने देश में इन समाचारों को पाने के लिए हम गुलागों में पत्रकार भेजते हैं, हम उनकी उंगलियों के नाखून तक जांचते हैं. यहां आपको वो कुछ नहीं करना पडेगा. इसका भेद क्या है?

गोपनीय क्या है? यह सवाल अक्सर ही समाचार कक्षों, मीडिया अध्ययन के संस्थानों, पत्र पत्रिकाओं में पूछा जाता है. और इस सवाल का जबाव लाखों लोगों की जिंदगी के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है. पिछले साल 24 अगस्त को न्यूयार्क टाइम्स ने अपने संपादकीय में घोषणा किया कि आज जो हम जानते हैं अगर पहले जानते होते तो व्यापक सार्वजनिक विरोध से इराक पर आक्रमण को रोक दिया जाता´. इस परिप्रेक्ष्य में इस आश्चर्यजनक प्रतिपादन का कहना था कि पत्रकारों ने अपना काम न करके, बुश एवं उसके गैंग क झूठ को किसी तरह चुनौती देने तथा उसको उजागर करने के बदले में उसे स्वीकार करते हुए, प्रसारित करते हुए तथा उसकी हां मे हां मिलाकर जनता को धोखा दिया है, छला है. टाईम्स ने जो नहीं कहा वह यह कि उसक पास ही वह समाचार पत्र है और बाकी की मीडिया ने अगर झूठ उजागर किया होता तो आज लाखों लोग जिंदा होते. अभी कई वरिष्ठ स्थापित पत्रकारों का भी यही मानना है. उनमें से कुछ- इस बारे में वे मुझसे बोलते हैं- मात्र कुछ ही सार्वजनिक तौर पर कुछ बोल सकेंगे.

विडंबना की बात है कि जब मैने सर्वसत्तावादी समाजों की रिपोटिंग किया तब यह समझना शुरू किया कि तथाकथित स्वतंत्र समाजों में सेंसरशिप कैसे काम करती है. 1970 के दशक में मैने चेकोस्लोवाकिया पर गुप्त ढंग से फिल्म बना रहा था, तब वहां स्तालिनवादी तानाशाही थी. मैने विद्रोही समूह चार्टर 77 के सदस्यों का साक्षात्कार लिया जिसमें उपन्यासकार ज्देनर उरबनेक भी थे. उन्होंने मुझे बताया कि `एक परिप्रेक्ष्य में, तानाशाही में भी हम, आप पश्चिमी लोगों से ज्यादा भाग्यशाली हैं. हम समाचार पत्रों में जो कुछ भी पढ़ते हैं और टेलीविजन पर जो कुछ भी देखते हैं उसमें किसी पर भी विश्वास नहीं करते, क्यूंकि हम उसके प्रोपोगेंडा के पीछे देखने तथा पंक्तियों के बीच पढ़ना सीख गए हैं. और आपके जैसे ही हम यह जानते हैं कि वास्तविक सच हमेशा दबा दिया जाता है.

वंदना शिवा इसे `दोयम दर्जे का ज्ञान´ कहती हैं. महान आयरिश कारीगर क्लाड कोकबर्न ठीक ही कहते हैं जब वो लिखते हैं कि `जब तक आधिकारिक तौर पर इंकार नहीं किया जाता तब तक कुछ भी नहीं मानना चाहिए´


एक बहुत पुरानी उक्ति है कि युद्ध में `सच´ सबसे पहले घायल होता है. नहीं ऐसा नहीं है. पत्रकारिता सबसे पहले दुघZटनाग्रस्त होती है. जब वियतनाम युद्ध समाप्त हो गया तब `इनकांऊटर´ पत्रिका ने युद्ध को कवर करने वाले प्रसिद्ध संवाददाता राबर्ट इलीगंट का एक आलेख छापा था. `आधुनिक इतिहास में पहली बार हुआ है कि, उन्होंने लिखा, `युद्ध के परिणाम का निर्धारण लड़ाई के मैदान में नहीं बल्कि मुद्रित पन्नों पर, और सबसे ऊपर टेलीविजन के पर्दे पर हुआ´ उन्होंने युद्ध में पराजय के लिए उन पत्रकारों को जिम्मेदार ठहराया जिन्होंने अपनी रिपोटिंग में युद्ध का विरोध किया. राबर्ट इलीगंट का दृष्टिकोण वाशिंगटन के लिए `महाज्ञान की प्राप्ति´ था और अभी भी है. इराक में, पेंटागन ने गडे़ हुए पत्रकारों को खोज निकाला क्योंकि उसका मानना था कि आलोचनात्मक रिपोटिंग ने वियतनाम में उसे हराया था.

बिल्कुल विपरीत ही सच था. सैगन में, युवा रिपोर्टर के रूप में मेरे पहले दिन प्रमुख समाचार पत्रों तथा टेलीविजन कंपनियों के महकमें मे मुझे बुलाया गया. वहां मैने पाया कि दीवार में बोर्ड ट¡गे हुए थे जिनमें कुछ वीभत्स तस्वीरें लगीं हैं. इनमें से अधिकतर वियतनामियों के शरीर थे और कुछ में अमरीकी सैनिक किसी का अंडकोष या कान उमेंठ रहे हैं. एक दफ्तर में एक आदमी की तस्वीर थी जिसे यातना दी जा रही थी. यातना देने वाले आदमी के ऊपर गुब्बारेनुमा कोष्ठक में लिखा था `वह तुम्हें प्रेस से बात करना सिखायेगा´. इनमें से एक भी तस्वीरें कभी भी प्रकाशित नहीं हुईं. मैने पूछा क्यों? तो मुझे बताया गया कि जनता इन्हें कभी स्वीकार नहीं करेगी. और उन्हें प्रकाशित करना वस्तुनिष्ठ या निष्पक्ष नहीं होगा. पहले पहल तो मैनें इस सतही तर्क को स्वीकार कर लिया. मैं खुद भी जर्मनी और जापान के बीच अच्छे युद्ध की कहानियों के बीच पला बढ़ा था, कि एक नैतिक स्नान से एंग्लों अमरीकी दुनिया को सभी पापों से मुक्ति मिल गई थी. लेकिन वियतनाम में जब मैं लंबे समय तक रुका तो मैंने महसूस किया कि हमारे अत्याचार कोई अलग नहीं थे, यह कोई सन्मार्ग से विचलन नहीं था बल्कि युद्ध अपने आप में एक अत्याचार था. यह एक बड़ी बात थी, और यह बिरले (कदाचित) ही समाचार बन पाया. हलांकि सेना की रणनीति तथा उसके प्रभावों के बारे में कुछ बढ़िया पत्रकारों ने सवाल किया था. लेकिन ``आक्रमण´´ शब्द का प्रयोग कभी नहीं किया गया. नीरस शब्द शामिल होना´ (इन्वाल्वड) प्रयोग में किया गया. अमरीका वियतनाम में घिर (फंस गया) है. अपने उद्देश्यों में सुस्पष्ट, एक भयानक दैत्य, जो एशिया के दलदल में फंस गया है, का गल्प निरंतर दोहराया गया. यह डेनियल इल्सबर्ग तथा सेमूर हर्ष जैसे सीटी फूंककर चेतावनी देने वालों पर छोड़ दिया गया जिन्होंने माय लाय नरसंहार को गर्त में पहुंचाया, कि वे घर लौटकर विध्वंसक सच के बारे में बताएं. वियतनाम में 16 मार्च 1968 को जिस दिन माय लाय नरसंहार हुआ था, उस दिन 649 रिपोर्टर मौजूद थे और उनमें से किसी एक ने भी इसकी रिपोटिंZग नहीं किया.

वियतनाम और इराक दोनों जगह, सुविचारित नीतियों तथा तौर तरीकों से नरसंहारों को अंजाम दिया गया. वियतनाम में, लाखों लोगों की जबरन बेदखली तथा निर्बाध गोलाबारी क्षेत्र (फ्री फायर जोन) का निर्माण करके तथा इराक में अमरीकी दबाव के तहत 1990 से ही मध्ययुगीन नाकेबंदी के द्वारा, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के अनुसार, पांच साल से कम के करीब पांच लाख बच्चों को मार दिया गया. वियतनाम और इराक दोनों जगह नागरिकों के खिलाफ सुनियोजित परीक्षण के बतौर प्रतिबंधित औजारों का इस्तेमाल किया गया. एजेंट औरेंज ने वियतनाम में अनुवांशिकी और पर्यावरणीय व्यवस्था को बदल दिया. फौज ने इसे आपरेशन `हेड्स´ कहा. कांग्रेस को जब यह पता चला इसका नाम बदल कर दोस्ताना आपरेशन रैंच हैंड्स रख दिया गया और कुछ भी नहीं बदला. यही ज्यादा ध्यान देने की बात है कि इराक युद्ध में कांग्रेस ने कैसी प्रतिक्रिया जाहिर किया है. डेमोक्रेटों ने इसे थोडा धिक्कारा, इसे दुबारा ब्रांड बनाया और इसका विस्तार किया. वियतनाम युद्ध पर बनने वाली हालीवुड की फिल्में पत्रकारिता का ही एक विस्तार थीं. सोचे तक न जा सकने वाले का सामान्यीकरण. हां, कुछ फिल्में फौज की रणनीति के बारे में आलोचनात्मक रुख लिए हुए थीं लेकिन वे सभी, आक्रमणकारियों की चिंताओं पर अपने आप को केन्द्रित करने के लिए सावधान थीं. इनमें से कुछ शुरुआती कुछ फिल्में अब क्लासिक का दर्जा पा चुकी हैं, इनमें से सबसे पहली है `डीरहंटर´, जिसका संदेश था कि अमरीका पीडित हुआ है, अमरीका को मार पड़ी थी, अमरीकन लड़कों ने प्राच्य बर्बरताओं के खिलाफ अपना बेहतरीन कौशल दिखाया है. इसका संदेश सबसे ज्यादा घातक है क्योंकि डीरहंटर बहुत कुशलतापूर्वक बनाई तथा अभिनीत की गई है. मुझे कहना चाहिए कि यही एक मात्र ऐसी फिल्म है जिसके विरोध में मैं जोर से चीखने के लिए मजबूर हो गया. ओलीवर स्टोन की फिल्म प्लाटून को युद्धविरोधी माना जाता है, और इसमें बतौर मानव वियतनामियों की झलकियां दिखाई हैं लेकिन इसने भी अंतत: यही स्थापित किया कि अमरीकी आक्रमणकारी `शिकार´ बने.

इस आलेख को लिखते बैठते वक्त मैने ग्रीन बैरेट्स का जिक्र करने के बारे में नही सोचा था. जब तक कि अगले दिन मैने पढ़ा कि जान वायन अब तक सबसे प्रभावी फिल्म बनी हुई है. ग्रीन बैरेट्स अभिनीत फिल्म जान वायन मैने मोंटगोमरी अलबामा में 1968 के एक शनिवार की रात में देखा था. (उस वक्त मैं वहां के तत्कालीन कुख्यात गवर्नर जनरल जार्ज वैलेस का साक्षात्कार लेने गया था.) मैं अभी अभी ही वियतनाम से लौटा था और मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह इतनी वाहियात फिल्म है. अत: मैं जोर जोर से हंसने लगा, और हंसता ही गया, हंसता ही गया. और तब तक जब तक कि मेरे चारो ओर के ठंड वातावरण ने मुझे जकड़ नहीं लिया. मेरे सहयोगी, जो दक्षिण में एक उन्मुक्त घुमक्कड़ थे, ने कहा चलो यहां के इस नरक से बाहर निकलें और यहां से नरक जैसे भागें´.

होटल लौटने के रास्ते भर हमारा पीछा किया गया. लेकिन मुझे इसमें संदेह है कि हमारा पीछा करने वाले लोग यह जानते होंगे कि उनके हीरो जान वायन ने झूठ बोला था इसलिए उसने दि्वतीय विश्वयुद्ध की लड़ाई में भाग नहीं लिया था. और फिर वायन के छद्म रोलमाडल ने हजारों अमरीकियों को, जार्ज बुश और डिक चेनी के प्रसिद्ध अपवादों को छोड़कर, मौत के मुंह में धकेल दिया.

पिछले साल, साहित्य का नोबेल पुरस्कार स्वीकार करते हुए नाटककार हेराल्ड पिंटर नें ऐतिहासिक वक्तव्य दिया. उन्होंने पूछा `क्यों´, मैं उन्हें उद्धृत करता हूं, `स्तालिनकालीन रूस में व्यवस्थित बर्बरताएं, व्यापक अत्याचार, स्वतंत्र विचारों का निर्मम दमन पश्चिम में सभी लोगों को अच्छी तरह ज्ञात हो सका जबकि अमरीकी राज्य के अपराध मुश्किल से सतही तौर पर तरह दर्ज हुए हैं और अभी तक प्रमाणित नहीं हो सके हैं. और अभी भी पूरी दुनिया में अनगिनत मनुष्यों की भयावह मौत तथा यातना निरंकुश अमरीकी सत्ता के ही कारण हो रही है. `लेकिन, पिंटर कहते हैं, आप इसे नहीं जानते. यह कभी घटित ही नहीं हुआ. कभी कुछ नही हुआ. यहां तक कि जब सब कुछ हो रहा था तब भी कुछ घटित नहीं हुआ. यह मायने ही नहीं रखता. इसका कोई मतलब नहीं है´. पिंटर के शब्द और ज्यादा आवेगमयी थे. बीबीसी ने ब्रिटेन के सबसे चर्चित नाटककार के इस भाषण को नजरअंदाज कर दिया.

मैने कंबोडिया के बारे में कई वृतचित्रों का निर्माण किया है. इनमें से पहली इयर जीरो: द साइलेंट डेथ आफ कंबोडिया थी. इसमें अमरीकी बमबारी के बारे में विस्तार से बताया गया है जो पोल पोट के उदय का प्रमुख कारक थी. निक्सन और किसिंजर ने जो शुरु किया पोल पोट ने उसका अंत किया. सीआईए की रपटों तक में इस बारे में कोई संदेह नहीं है. इयर जीरो को मैने सार्वजनिक प्रसारण सेवा के लिए प्रस्तावित किया गया था और वाशिंगटन लाया था. सार्वजनिक प्रसारण सेवा के जिन अधिकारियों ने इसे देखा वे भौचक्के रह गए. वे आपस में कुछ फुसफुसाए. उन्होंने मुझे बाहर इंतजार करने को कहा. अंतत: उनमें से एक प्रकट हुआ और कहा हम आपके फिल्म की तारीफ करते हैं. लेकिन संयुक्त राज्य ने पोल पोट के लिए मार्ग प्रशस्त किया यह सुनकर हम हैरान हैं´ मैने कहा `आपको साक्ष्यों पर कोई आपत्ति है?´ और मैने सीआईए के कई दस्तावेजों को उद्धृत किया. `अरे, नहीं´ उसने जबाव दिया. `लेकिन हमने इसे पत्रकारों की निर्णायक समिति के आगे पेश करने को सोचा है´.

अब यह शब्द `पत्रकार न्यायाधीश´ जार्ज आरवेल द्वारा शायद खोज लिया गया है. वास्तव में उन्होंने तीन में से एक पत्रकार को खोजने का प्रबंध कर लिया गया जिसे पोल पोट द्वारा कंबोडिया निमंत्रित किया गया था. और निश्चित तौर पर उसने इस फिल्म को अपना ठेंगा दिखा दिया होगा.सार्वजनिक प्रसारण सेवा से मुझे फिर दुबारा कभी कुछ सुनने को नहीं मिला.इयर जीरो को तकरीबन साठ देशों में प्रसारित किया गया और यह दुनिया भर में देखी जाने वाली डाक्यूमेंट्री में से एक है.संयुक्त राज्य में इसे कभी नहीं दिखाया गया. कंबोडिया पर बनाई गई मेरी 5 फिल्मों में से, एक को न्यूयार्क सार्वजनिक प्रसारण केंद्र के एक स्टेशन डब्ल्यू नेट पर दिखाया गया. मुझे लगता है कि इसे भोर में दिखाया गया था. इस एक मात्र प्रदर्शन के आधार पर, जबकि अधिकांश लोग सो रहे थे, इसे एक पुरस्कार दे दिया गया. क्या अद्भुत विडंबना है. यह एक पुरस्कार की पात्रता थी, श्रोताओं की नहीं.

मेरा मानना है कि हेराल्ड पिंटर का विद्रोही सच था कि उन्होंने फासीवाद और साम्राज्यवाद के बीच संबंध बनाया तथा इतिहास के लिए लड़ाई को व्याख्यायित किया जिसकि शायद कभी रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई. मीडिया युग की यह एक व्यापक चुप्पी है. और प्रोपोगेंडा का यही गुप्त उदगम स्थल है, एक विस्तृत फलक का प्रोपोगेंडा जिससे मैं हमेशा अचंभित हो जाता हूं कि कई अमरीकन उससे कहीं ज्यादा इसे जानते और समझते हैं जितना वे करते हैं. हम एक व्यवस्था के बारे में बात कर रहे हैं, निश्चित तौर पर किसी व्यक्ति के बारे में नहीं. और फिर भी अधिकांश लोग यही सोचते हैं कि समस्या जार्ज बुश और और उसका गैंग है. और हां, बुश और उसके गैंग सबसे प्रमुख हैं, लेकिन इसके पहले जो कुछ हो चुका है ये लोग उसकी चरम सीमा से ज्यादा कुछ नहीं हैं. मेरे जीवन काल में, रिपब्लिकनों की तुलना में उदार डेमोक्रेट द्वारा ज्यादा युद्ध शुरू किए गये हैं. इस सच को नजरअंदाज करना इस बात की गारंटी है कि प्रोपोगेंडा तंत्र तथा युद्ध निर्माण करने वाली व्यवस्था जारी रहेगी. हमारे यहां डेमोक्रेटिक पार्टी की शाखा है जो ब्रिटेन में दस सालों से सरकार चला रही है. ब्लेयर, जो घोषित तौर पर उदारपंथी है, ने ब्रिटेन को आधुनिक युग के किसी भी प्रधानमंत्री से कई बार ज्यादा, युद्ध में झोंका है. हां उसका वर्तमान साझीदार जार्ज बुश है लेकिन बीसवीं सदी के अंत का सबसे हिंसक राष्ट्रपति क्लिन्टन उसकी पहली पसंद था. ब्लेयर का उत्तराधिकारी गार्डन ब्राउन भी क्लिन्टन और बुश का भक्त है. एक दिन ब्राउन ने कहा कि `ब्रिटेन को ब्रिटिश साम्राज्य के लिए माफी मांगने के दिन अब लद गए. हमें उत्सव मनाना चाहिए.

ब्लेयर और क्लिन्टन की ही तरह ब्राउन भी उदारवादी सच को मानता है कि इतिहास के लिए युद्ध को जीता जा चुका है( कि ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में भारत में अकाल भुखमरी से लाखों लोग जो मारे गए हैं उसे भुला दिया जाना चाहिए. जैसे अमरीकी साम्राज्य में जो लाखों लोग मारे जा रहे हैं, उन्हें भुला दिया जाएगा. और ब्लेयर जैसे उसका उत्तराधिकारी भी आश्वस्त है कि पेशेवर पत्रकारिता उसके पक्ष में है, अधिकतर पत्रकार ऐसे विचारधारा के प्रतिनिधिक संरक्षक हैं, भले इसे वे महसूस करें या न करें, जो अपने आपको गैर विचारधारात्मक कहती है, जो अपने आपको प्राकृतिक तौर पर, केन्द्रिय तथा जो आधुनिक जीवन का प्रमुख आधार ठहराती है. यह बहुत ही अच्छा है कि अभी भी हम सबसे शक्तिशाली तथा खतरनाक विचारधारा को जानते हैं जिसका खुले तौर पर अंत हो चुका है. वह है उदारवाद. मैं उदारवाद के गुणों से इंकार नहीं कर रहा हूं, मैं इससे बहुत दूर हूं. हम सभी उसके लाभार्थी हैं. लेकिन अगर हम उसके खतरों से,खुले तौर पर अंत हो चुकी परियोजनाओं से तथा इसके प्रोपोगेंडा की सभी उपभोक्ता शक्तियों से इंकार करते हैं तब हम सच्चे लोकतंत्र के अपने अधिकार से इंकार कर रहे हैं. क्योंकि उदरवाद और सच्चा लोकतंत्र (जनवाद) एक ही नहीं हैं. उदारवाद 19 वीं शताब्दी में अभिजात्य लोगों के संरक्षण से प्रारंभ हुआ था. और जनवाद कभी भी अभिजात्य लोगों के हाथों में नहीं सौपा जा सकता. इसके लिए हमेशा लड़ाई लड़ी गई है. और संघर्ष किया गया है.

युद्ध विरोधी गठबंधन, युनाइटेड फार पीस एंड जस्टिस की एक वरिष्ठ अधिकारी ने अभी हाल में ही कहा, और मैं उन्हें उद्धृत कर रहा हूं, कि `डेमोक्रेटिक यथार्थ की राजनीति का प्रयोग कर रहे हैं´. उनका उदारवादी ऐतिहासिक यथार्थ वियतनाम था. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति जानसन ने वियतनाम से सैन्य दलों की वापसी तभी शुरू किया जबकि डेमोक्रेटिक कांग्रेस ने युद्ध के खिलाफ मतदान प्रारंभ किया. जो हुआ यह नहीं था. वियतनाम से चार साल के लंबे समय के बाद सैनिकों का हटना शुरू हुआ. और इस दौरान संयुक्त राज्य ने वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस में पिछले कई वर्षो में मारे गए लोगों से कहीं ज्यादा लोगों को बमों से मार गिराया. और यही सब इराक में भी हो रहा है. पिछले वर्षो में बमबारी दुगुनी हो गई है. और अभी तक इसकी रिपोर्ट कहीं नहीं आई है. और इस बमबारी की शुरुआत किसने किया? क्लिन्टन ने इसे शुरू किया. 1990 के दशक के दौरान क्लिन्टन ने इराक के उन इलाकों पर बमों की बरसात किया जिसे शिष्ट - नम्र शब्दों में उड़ान रहित क्षेत्र (फ्री फायर जोन) कहा जाता था. इसी काल में उसने इराक की मध्ययुगीन नाकेबंदी किया जिसे ``आर्थिक प्रतिबंध´´ कहा गया, जिसमें, मैने पहले भी जिक्र किया है कि पांच लाख बच्चों की दर्ज मौतों के अलावा लाखों लोगों को मार दिया गया. इनमें से किसी एक भी नरसंहार के बारे में तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया में लगभग कुछ नहीं बताया गया है. पिछले साल जान हापकिंस सार्वजनिक स्वास्थ्य विद्यापीठ नें अपने एक अध्ययन में बताया है कि इराक पर आक्रमण के बाद से छ: लाख पचपन हजार इराकियों की मौत आक्रमण के प्रत्यक्ष परिणामों के कारण हुई हैं. आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि ब्लेयर सरकार इन आंकडों के बारे में जानती थी कि ये विश्वसनीय हैं. इस रिपोर्ट के लेखक लेस राबर्ट ने कहा कि ये आंकडें फोर्डम विश्वविद्यालय द्वारा रुवांडा नरसंहार के बारे में कराए गए अध्ययन के आंकडों के बराबर हैं. राबर्ट के दिल दहला देने वाले रहस्योद्घाटन पर मीडिया मौन बनी रही. एक पूरी पीढ़ी की संगठित हत्या के बारे में क्या कुछ अच्छा हो सकता है, हेराल्ड पिंटर के शब्दों में कहें तो `कुछ हुआ ही नहीं. यह कोई मामला नहीं है´.

अपने आप को वामपंथी कहने वाले कई लोगों ने बुश के अफगानिस्तान पर आक्रमण का समर्थन किया. इस तथ्य को नजर अंदाज कर दिया गया कि सीआईए ने ओसामा बिन लादेन का समर्थन किया था. क्लिन्टन प्रशासन ने तालिबानियों को गुप्त तरीके से प्रोत्साहित किया था, यहां तक कि उन्हें सीआईए में उच्च स्तरीय समझाइश दी गई थी, यह सब संयुक्त राज्य में सामान्यत: अनजान बना हुआ है. अफगानिस्तान में एक तेल पाइपलाईन के निर्माण में बड़ी तेल कंपनी यूनोकल के साथ तालिबानियों ने गुप्त भगीदारी किया था. और क्लिन्टन प्रशासन के एक अधिकारी से कहा गया कि `महिलाओं के साथ तालिबानी खराब व्यवहार कर रहे हैं´ तो उसने कहा कि `हम ऐसे में भी उनके साथ रह रहे हैं.´ इसके स्पष्ट प्रमाण हैं कि बुश ने तालिबान पर हमला करने का जो निर्णय लिया वह 9/11 का परिणाम नहीं था. बल्कि यह दो महीने पहले जुलाई 2001 में ही तय हो चुका था. सार्वजनिक तौर पर यह सब संयुक्त राज्य में सामान्यत: लोगों की जानकारी में नहीं है. जैसे अफगानिस्तान में मारे गए नागरिकों की गणना के बारे में लोगों को कुछ मालूम नहीं है. मेरी जानकारी में, मुख्यधारा मे सिर्फ एक रिपोर्टर, लंदन में गार्डियन के जोनाथन स्टील ने अफगानिस्तान में नागरिकों की मौत की जांच किया है और उनका अनुमान है कि 20000 नागरिक मारे गए हैं और यह तीन साल पहले की बात है.

तथाकथित वाम की गहरी चुप्पी तथा आज्ञानुकूलिता की बड़ी भूमिका के कारण फिलिस्तीन की चिरस्थायी त्रासदी जारी है. हमास को लगातार इजरायल के विध्वंस के लिए तैयार तलवार के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है. आप द न्यूयार्क टाइम्स, एशोसिएट प्रेस, बोस्टन ग्लोब को ही लीजिए. वे सभी इस उक्ति को स्तरीय घोषणा के बतौर इस्तेमाल करते हैं. और जबकि यह गलत है. हमास ने दस साल के लिए युद्ध विराम की घोषणा किया है जिसकी रिपोटिंग लगभग नहीं की गई है. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हमास में पिछले वर्षो में एक ऐतिहासिक विचारधारात्मक परिवर्तन (शिफ्टिन्ग) हुआ है जो, जिसे इजराइल का यथार्थ कहते हैं उसे मान्यता प्रदान करता है, लगभग अज्ञात है. और फिलिस्तीन के विध्वंस के लिए इजरायल जैसी तलवार है वह अकथनीय ही है.

फिलिस्तीन की रिपोटिंग पर ग्लास्गो विश्वविद्यालय द्वारा आंखें खोल देने वाला अध्ययन किया गया है. ब्रिटेन में टी.वी. समाचार देखने वाले युवाओं का उन्होंने साक्षात्कार लिया. 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का सोचना था कि फिलिस्तीनी अवैधानिक ढंग से बसे हुए हैं. डैनी स्चेक्टर के प्रसिद्ध मुहावरे के अनुसार `वे ज्यादा देखते हैं, बहुत कम वे जानते हैं´.

वर्तमान में सबसे भयानक चुप्पी परमाणु शस्त्रों तथा शीत युद्ध की वापसी पर है. रूसी स्पष्टत: समझते हैं कि पूर्वी यूरोप में तथाकथित अमरीकी सुरक्षा ढाल उन्हें नष्ट करने तथा नीचा दिखाने के लिए बनाई गई है. फिर भी यहां पहले पन्नों में यही होता है कि पुतिन एक नया शीत युद्ध प्रारंभ कर रहे हैं. और पूरी तरह से विकसित नई अमरीकी परमाणु व्यवस्था, जिसे भरोसेमंद शस्त्रों की बदली (रेलिएबल वीपन्स रिप्लेसमेंट) कहते हैं, जो लंबे समय से स्थगित महत्वाकांक्षा- —त्रिम युद्ध तथा परमाणु युद्ध के बीच की दूरियों को पाटने के लिए बनाई (डिजाईन) गई है. उसके बारे में चुप्पी है.

इस बीच ईरान को पर निशाना साधा जा रहा है, जिसमें मीडिया लगभग वही भूमिका निभा रहा है जैसी कि इराक पर आक्रमण के पूर्व निभा रहा था. और देखिए कि डेमोक्रेटों के लिए, बराक ओबामा कैसे विदेशी संबंधों के आयोग, वाशिंगटन पर राज्य करने के लिए पुराने उदारवादियों के लिए प्रोपोगेंडा रचने वाले प्रमुख अंग, का स्वर बन गया है. ओबामा लिखता है कि वह सैनिकों की वापसी चाहता है, `हम लंबे समय से प्रतिवादी इरान और सीरिया के खिलाफ सैन्य शक्ति द्वारा आक्रमण नहीं करेंगे. उदारवादी ओबामा से यह सुनिए, ´`पिछली शताब्दी में महान खतरों के क्षण में हमारे नेताओं ने दिखाया कि अमरीका ने अपने कार्यो तथा उदाहरणों द्वारा दुनिया का नेतृत्व किया तथा उ¡चा उठाया, कि हम लाखों लोगों की चहेती आजादी के लिए, उनके क्षेत्र की सीमाओं से आगे जाकर लडे़ और उनके पक्ष में खडे़ हुए´´.

प्रोपोगेडा की यही गांठ है, अगर आप चाहते हैं तो आपको बहका सके, जिसमें उसने हर अमरीकी के जीवन को और हमारे जैसे कईयों को, जो अमरीकी नहीं हैं, लपेटा है. दक्षिण से वाम तक, धर्मनिरपेक्ष से ईश्वर को पूजने वाले तक बहुत कम लोग जो जानते हैं वह यह कि संयुक्त राज्य के प्रशासन ने पचासों सरकारों को उखाड़ फेंका है. और उनमें से अधिकतर लोकतांत्रिक थीं. इस प्रकिया में तीस देशों पर आक्रमण तथा बमबारी की गई जिसमें अनगिनत जानें गईं. बुश का प्रहार बहुत खुला हुआ है, और यह निर्णायक है, लेकिन जिस क्षण हम डेमोक्रेटों के लाखों लोगों द्वारा चहेती आजादी के लिए लड़ने तथा उनके पक्ष में खडे़ होने की बकवाद तथा उनके कुटिल आह्वान स्वीकार करते हैं, इतिहास की लड़ाई में हार जाते हैं, और हम खुद भी मौन हैं.

तो हमें क्या करना चाहिए? जब कभी मैं सभाओं में मैं जाता हूं अक्सर यह सवाल पूछा जाता है, और अपने आप में मजेदार बात ये कि इस सम्मेलन जैसे ज्यादा जानकारी वाली सभाओं में भी यही सवाल पूछा जाता है. मेरा अपना अनुभव है कि तथाकथित तीसरे देशों की जनता शायद ही इस तरह के प्रश्न पूछती है क्योंकि वे जानते हैं कि क्या करना है. और कुछ अपनी स्वतंत्रता तथा अपने जीवन का मूल्य चुकाते है. लेकिन वे जानते हैं कि क्या करना चाहिए. यह एक ऐसा प्रश्न है कि कई डेमोक्रेटिक वामपंथियों को इसका अभी भी जवाब देना है.

अभी भी वास्वविक स्वतंत्र सूचनाएं सभी के लिए प्रमुख शक्ति बनी हुई है. और मेरा मानना है कि हमें इस विश्वास के जाल में नहीं फसना चाहिए कि मीडिया जनता की आवाज है, जनता के लिए बोलती है. यह स्तालिनवादी चेकोस्लोवाकिया में सच नहीं था और संयुक्त राज्य में यह सच नहीं है.

अपने पूरे जीवन भर मैं एक पत्रकार ही रहा हूं. मैं नहीं जानता कि जनता की चेतना कभी भी इतना तेजी से बढ़ी थी जितना कि आज बढ़ रही है. हलांकि इसका आकार तथा इसकी दिशा बहुत स्पष्ट नहीं है. क्योंकि, पहला तो, लोगों में राजनीतिक विकल्पों के बारे में गहरा संदेह है और दूसरा कि डेमोक्रेटिक पार्टी चुनाव में भाग लेने वाले वामपंथियों को पथभ्रष्ट करने तथा उन्हें आपस में विभाजित करने में सफल हो गई है. फिर भी जनता की की बढ़ती आलोचनात्मक जागरुकता ज्यादा महत्वपूर्ण है जबकि आप देख सकते हैं लोग बडे़ पैमाने पर सिद्धांत विहीनता, जीवन जीने के सर्वोत्तम रास्ते के मिथकशास्त्र, को अपना रहे हैं तथा वर्तमान में डर से विनिर्मित स्थितियों में जी रहे हैं.

पिछले साल, न्यूयार्क टाइम्स अपने संपादकीय में स्पष्ट/साफ ढंग से सामने क्यों आया? इसलिए नहीं कि यह बुश के युद्ध का विरोध करता है- ईरान के कवरेज को देखिए. वह संपादकीय एक बमुश्किल स्वीकृति थी कि जनता मीडिया की प्रछन्न भूमिका को समझना शुरू कर रही है तथा लोग `पंक्तियों के बीच´ पढ़ना सीख रहे हैं.

अगर ईरान पर आक्रमण किया गया तो प्रतिक्रिया तथा उथल पुथल का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. राष्ट्रीय सुरक्षा तथा घरेलू सुरक्षा के लिए राष्ट्रपति को मिले दिशानिर्देश, बुश को आपातकाल में ही सरकार सभी पहलुओं की शक्ति देते हैं. यह असंभव नहीं है कि संविधान को ही बर्खास्त कर दिया जाए- सैकडों हजारों तथाकथित आतंकवादियों तथा दुश्मनों का मुकाबला करने तथा उनकी धर पकड़ करने वाले कानूनों को पहले ही किताबों में बंद कर दिया गया है. मुझे लगता है कि जनता इन खतरों को समझ रही है, जिन्होंने 9/11 के बाद लंबा रास्ता तय किया है तथा सद्दाम हुसैन तथा अलकायदा के बीच रिश्तों के प्रोपोगेंडा के बाद तो एक बहुत लंबा रास्ता तय किया है. इसलिए इन्होंने पिछले साल नवंबर में डेमोक्रेट्स लोगों को सिर्फ धोखा खाने के लिए वोट दिया. लेकिन उन्हें सच चाहिए और पत्रकार को सच का एजेंट होना चाहिए, सत्ता का दरबारी नहीं.

मेरा मानना है कि पांचवा स्तंभ संभव है, जनआंदोलन के सहयोगी कारपोरेट मीडिया को खंड खंड करेंगे, जवाब देंगे तथा रास्ता दिखाएंगे. प्रत्येक विश्वविद्यालयों में, मीडिया अध्ययन के हरेक कालेजों में, हर समाचार कक्षों में पत्रकारिता के शिक्षकों, खुद पत्रकारों को वाहियात वस्तुनिष्ठता के नाम पर जारी खून खराबे के दौर में अपनी निभाई जा रही भूमिका के बारे में प्रश्न करने की जरूरत है. खुद मीडिया में इस तरह का आंदोलन एक पेरोस्त्रोइका (खुलेपन) का अग्रदूत होगा जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते. यह सब संभव है. चुप्पी तोड़ी जा सकती हैं.

ब्रिटेन के `राष्ट्रीय पत्रकार संघ´ (नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट) ने एक जबर्दस्त विद्रोह लाया है और इजरायल का बहिष्कार करने का आह्वान किया है. मीडियालेन्स डाट आर्ग नामक वेबसाइट ने अकेले बीबीसी को जिम्मेदार होने को कहा है. संयुक्त राज्य में स्वतंत्र विद्रोही स्पिरिट की वेबसाइटें दुनिया भर में खूब लोकिप्रय हो रही हैं. टाम फीले की इंटरनेशनल क्लीयरिंग हाऊस से लेकर माइक अल्बर्ट की जेडनेट, कांऊटरपंच आनलाइन तथा फेयर के बेहतरीन कार्यो तक, मैं सभी का जिक्र कर सकता हूं. इराक पर सबसे बेहतरीन रिपोटिंग डार जमैल की साहसी पत्रकारिता है तथा जोय वाइिल्डंग जैसे नागरिक पत्रकार जिन्होंने फलूजा शहर से फलूजा की नाकेबंदी की रिपोटिंग की है, वेब पर ही आईं हैं.

वेनेजुएला में, ग्रेग विल्पर्ट की जांच रिपोर्ट अब शावेज को निशाना बनाने के लिए उग्र प्रोपोगेंडा ज्यादा बन गई है, कोई गलती मत कर बैठियेगा, यह वेनेजुएला में बहुमत की अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा है. भ्रष्ट आरसीटीवी की ओर से पश्चिम में वेनेजुएला के खिलाफ अभियान के पीछे का झूठ है. बाकी के हम लोगों के लिए यह एक चुनौती है कि इस विध्वंसक/पथभ्रष्ट जानकारी की गोपनीयता का भंडाफोड़ करें तथा इसे साधारण लोगों के बीच में ले जाएं.

यह सब हमें जल्द ही करना होगा. उदारवादी लोकतंत्र अब कार्पोरेट तानाशाही का आकार ग्रहण कर रहा है. यह एक ऐतिहासिक विचलन (शिफ्ट) है तथा मीडीया को इसके मुखौटे को बिल्कुल अनुमति नहीं देनी चाहिए. बल्कि इसे लोकिप्रय, ज्वलंत मुद्दा बनाकर सीधी कार्यवाही का विषय बनाना चाहिए. महान सचेतक टाम पेन ने चेतावनी दिया था कि अगर अधिकांश लोग सच तथा सच के विचारों से इंकार करने लेगेंगे तो भयंकर तूफानों का दौर होगा, जिसे वह ``शब्दों का बास्तील´´ कहते हैं. अभी वही समय है.



अनुवादक म.गा.अं.हि.वि.वर्धा में जनसंचार विभाग में अध्ययनरत हैं.

Wednesday, December 17, 2008

कू सेंग की कविताएँ

अनुवादक की बात
कोरियाई कवि कू-संग की कविताएँ पहली बार मेरे दोस्त अशोक पांडे को इंटरनेट पर उसकी लगातार यात्राओं के दौरान मिलीं। उसे वो पसन्द आयीं। उसने इनफैंट स्प्लेंडर नाम का एक संकलन डाउनलोड किया लेकिन फिर उसका मन फर्नान्दो पेसोआ, चेस्वावा मीवोष, शिम्बोर्स्का , साइफर्त, नेरूदा, अख़्मातोवा जैसे अधिक चमत्कारी और प्रतिष्ठित नामों में रम गया। मैं खुद उन दिनों हिब्रू कवि येहूदा आमीखाई की कविताओं की ऊबड़खाबड़ धरती पर भटक रहा था और उस बेहद अर्थपूर्ण भटकाव के जादू में लगभग डूबा हुआ था। अशोक ने और मैंने आमीखाई की कविताओं के अनुवाद किए, जिनका संयुक्त रूप से प्रकाशन `संवाद´ ने किया। इस दौरान कू-सेंग कहीं काग़ज़ों के ढेर में गुमनाम रहा। बीच में एक बार मेरा ध्यान उस ओर गया तो चार कविताओं के अनुवाद एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की पत्रिका `कृतिओर´ में छपे भी, लेकिन एक निरन्तर काम नहीं हो पाया। अब किसी हद तक यह हुआ है।
2004 में 85 से अधिक के अत्यन्त सर्जनात्मक जीवन के बाद स्वाभाविक मुत्यु प्राप्त करने वाला यह कवि एक ही साथ काफी सहज और काफी विचित्र भी है। उलटबांसी की शैली में कहें तो इसकी विचित्रता ही इसकी सहजता है और यही सहजता ही मानो विचित्रता भी है। अपनी कहन में यह बहुत सपाट और अभिधात्मक है। इस कवि की मूल काव्यभाषा से मेरा कोई परिचय नहीं है और इसका अंग्रेज़ी अनुवाद पूरी तरह गद्यानुवाद ही हैं, लेकिन उसमें भी अपनी ज़मीन, अपने अस्तित्व और अपने समय से जुडे़ सवालों, विपर्ययों और विडम्बनाओं को समर्पित एक खिलन्दड़ी और अद्भुत काव्यात्मा हर कहीं साफ़ झलकती है और कभी-कभी तो बिजली के जैसी कड़कती भी है। मैंने कोशिश की है कि मैं इन कविताओं को समकालीन हिन्दी कविता की भाषा और शिल्प में ढालने की कोशिश करूं, जिससे पाठकों को इन गद्य-कविताओं से अपनापा महसूस करने में कोई कठिनाई न लगे।
मैं रूपान्तरकार या अनुवादक के तौर पर एक और बात साफ़ करना चाहूंगा कि मेरा ख़ुद का वैचारिक धरातल काफी सजग रूप से जीवन के सभी भीड़ और भटकाव भरे रास्तों पर से हमेशा ही बांएं चलने का रहा है और रहेगा। इस बात का उल्लेख इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि यह कवि अपनी मूल संवेदना में काफी धार्मिक और आध्याित्मक भी है, जिसका एक सतही सबूत इस बात से भी मिलता है कि उसकी कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवादक ब्रदर एंटोनी नाम का एक फ्रा¡सीसी पादरी है। मुझे इन कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगा कि धार्मिक और आध्याित्मक होते हुए भी कू-सेंग अपने इन्हीं जीवन-मूल्यों के पार भी जाता है। वह इनसे जुड़े कई विद्रूप उजागर करता है। वह `अपने ही साथ खेलता´ है और `गीले सपने´ भी देखता है। इस तरह के काव्यप्रसंगों में नैतिकता के धरातल पर खुद के साथ इतनी क्रूरता से पेश आने वाला यह कवि इस रूप में हमारे समक्ष खुद को ठीक से जानने-पहचानने की एक अजीब-सी चुनौती भी रखता है। यह जानना भी रोचक होगा कि वह अपने देश में नर्सरी कक्षाओं से लेकर परास्नातक उपाधियों तक पढ़ाया जाता है। कई शोधार्थी उस पर शोध भी करते हैं। यह उसकी कविता की रेंज है। अपने देश और भाषा में कू-सेंग की लोकप्रियता कल्पना से परे है। भारतीय सन्दर्भ में कहूँ तो बिना हिचक कह सकता हूँ कि एक विशिष्ट सामाजिक अर्थ में उसकी कविताएँ कहीं-कहीं निराला और नागार्जुन जैसा बोध भी कराती हैं। मेरा काम फिलहाल इन कविताओं की समीक्षा करना नहीं है। मैं सिर्फ एक पर्दा उठा रहा हूँ और फिर देखते हैं कि समकालीन हिन्दी कविता के पाठकों को इस अटपटे विदेशी कवि में क्या कुछ नज़र आता है?
हिन्दी में कू-सेंग की कविताओं के अनुवाद का ये निश्चित रूप से पहला प्रयास है। इसे अधूरा ही समझा जाए। अंग्रेज़ी में इंटरनेट पर उपलब्ध उनकी तीन पुस्तकों से चुनकर एक बड़ा कविता-संग्रह बनाने का प्रयास मैं ज़रूर करूंगा लेकिन उससे पहले इन कुछ कविताओं पर पाठकीय प्रतिक्रियाओं की मुझे ज़रूरत होगी।
- शिरीष कुमार मौर्य

नहाना

मेरी एक ही बिटिया है
लगभग तीस साल की - मेरी सबसे छोटी संतान
उसकी भी एक बिटिया है - नवजात
और ये दोनों फि़लहाल हमारे साथ रहती हैं
गो मेरी बिटिया को आराम की ज़रूरत है
प्रसूति के बाद

मेरे बेटों की कोई संतान नहीं!

इस छोटी गुड़िया की
आँखें हैं अपनी दादी की तरह
नाक है अपनी नानी की तरह
कान पिता के जैसे
और हाथ-पांव मां की तरह
और जब नहलाना शुरू करते ही यक-ब-यक
बंद हो जाता है उसका रोना
तब वह बिल्कुल मेरी तरह है!

मेरे परिवार का दावा है - मैं नहाने का इतना शौकीन रहा
कि इसमें कभी एक दिन का भी नागा नहीं किया
बचपन से ही जब कोई अलग बाथरूम नहीं था
हमारे घर में
मुझे हर रात अपने हाथ-पांव धोकर ही बिस्तर में जाने की आदत थी

लेकिन
इन दिनों जब यह बूढ़ा नाना
पीछे मुड़कर देखता है - अपनी पूरी ज़िंदग़ी के पार
तो पाता है कि उसे एक पछतावा है
तमाम साफ़-सुथरी आदतों के बावज़ूद
उसने अपने दिल को साफ़-सुथरा रखने में कोताही की

हालांकि
पछताने से भी साफ हो जाते हैं दिल
लेकिन अब तक
इस कोताही के कारण
बहुत अंदर तक पैठ चुकी है
धूल
चमड़ी फट चुकी है
और एक खुजलीदार चकत्ता बन चुका है
उसके ऊपर
अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि आप इसे कितना रगड़ते-धोते हैं
यह साफ होने से
इनकार कर देता है

इसीलिए
अब इस नाना की यही दिली ख़्वाहिश और उम्मीद है
कि उसकी यह नन्हीं नातिन खूब मज़ा ले नहाने का
लेकिन सीखती जाए
शरीर के साथ-साथ अपने दिल को भी साफ रखना!


अपने ही साथ खेलना

प्राइमरी स्कूल में कदम रखने से थोड़ा पहले
एक दिन
मेरी नातिन ने पूछा मुझसे -`` नाना लोग कहते हैं आप बहुत मशहूर हैं ! ´´
तो फौरन ही पलटकर मैंने पूछा उससे -`` मशहूर होना क्या होता है
तुम जानती हो? ´´
उसने कहा - " नहीं "
मैंने उसे बताया - "यह कोई अच्छी चीज़ नहीं है बेटी ! "

इस साल
वह मिडिल स्कूल की दूसरी कक्षा में है
और मेरी एक कविता भी है उसकी किताब में
मुझे पता लगा
वह सबसे मुझे जानने का दावा करती है
" तो तुमने अब क्या बताया लोगों को
मेरे बारे में? ´´ - इस बाबत मैंने पूछा उससे
" यही कि आप एक साधारण बूढ़े आदमी हैं
लेकिन उस लड़के की तरह
जो अकेले
बस अपने ही साथ खेलता रहता है ! ´´ -- उसने जवाब दिया
मैं बहुत खुश हुआ उसके जवाब से
" बहुत अच्छे बेटी धन्यवाद ! ´´ - मैंने उससे कहा
और फिर मेरा बाक़ी का दिन
काफ़ी मौज से कटा!


पंख

जीवन में पहली बार
जब मैंने लड़खड़ाते हुए चलना शुरू किया
तो पाया
कि मेरे हाथ-पैर मेरे क़ाबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

और अब मैं
सत्तर के आसपास हूं
और एक बार फिर
मेरे हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पाएंगे
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

कभी मैं लपकता था
लड़खड़ाता हुए भी
अपनी मां के बढ़े हुए हाथों की तरफ़
और अब मैं जीता हूं
सांस-दर-सांस
झुका हुआ सहारे के लिए
किन्हीं
अदृश्य हाथों की तरफ़

अब मुझे जो चीज़ चाहिए
वह कोई जेट हवाई जहाज या अंतरिक्ष यान नहीं
बस पंख उगा सकने के सुख की इच्छा है छोटी-सी
उस इल्ली की तरह
जो आखिरकार बदल जाती है एक तितली में
और चल देती है फरिश्तों के साथ
उड़ने और उड़ने और बस उड़ते ही रहने को
मेरे इस बगीचे की-सी पूरी आकाशगंगा में!



सपने

पिछली रात
मुझे एक गीला सपना आया -
मेरी हमबिस्तर थी एक फूल-सी नाजुक नौजवान औरत
जो मेरी पत्नी हरगिज़ नहीं थी
तो इस तरह यह सब बेवफ़ाई जैसा कुछ था
और जागने पर
मुझे अपराध-बोध हुआ

कुछ ही दिन पहले ही
मैंने सपने में देखा कि मैं कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख़ बन गया हूं!
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
यों भी मुझसे अकसर कहते ही रहते हैं मेरे मिलने वाले -
" तुम्हें समाज में एक ऊंची हैसियत पाने की कोिशश करनी चाहिए "
और कभी-कभी
मज़ाक में
मैं भी जवाब दे देता उन्हें-
"हो सकता है कि मैं सी0आई0ए0 प्रमुख बन जाऊं"
लेकिन
यह एक बेहूदी बात है

अब मैं सत्तर का होने को हूं
और इस बात पर यक़ीन करता हूं कि हमारी इन मछली-सी गंधाती
देहों से अलग होने के बाद भी
(जैसे समुद्र तटों पर मिलते हैं सीपियां और शंख)
लहरों से दूर
जारी रहेगा हमारा जीवन
लेकिन
कुल मिलाकर यह सब सपने जैसा ही है -
निरा बचपना !

या फिर
इस बात का संकेत
कि कितनी गहराई तक जड़ें जमा चुके हैं मेरे गुनाह
मेरे भीतर
मुझे हैरानी होगी अगर मैं कभी मुक्त हो पाया
इन फंतासियों से
जागते या सपना देखते हुए !




बूढ़े बच्चे
(कविता से कुछ हटकर)

अपनी पिछली कविता में
मैंने सपने में कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख बन बैटने का जो बखान किया था
उसे मेरे एक मित्र ने
बूढ़े बच्चों के हमारे समूह की एक बैठक में
मुद्दा बना दिया

इस बारे में सबके पास कुछ न कुछ था
कहने को

- ``क्या तुमने बेकसूर जेल जाने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे ही
यह सब लिखा है?´´

- ``प्यारे क्या तुम इतना चुक गए हो कि ऐसी बकवास पर उतर आए?´´

- ``एक कवि और सी0आई0ए0 प्रमुख?
अच्छा विचार है !´´

- ``अगर यह सिर्फ सपना है तब भी निहायत ही बेहूदा है!´´

- ``इसे इस तरह कविता में लिखना - शर्म आनी चाहिए तुम्हें!´´

- `` तथाकथित कवि !
दरअसल यही अंत है तुम्हारा !
तुम भी अब इतना उलझ गए हो?´´

- ``इसका यह मतलब तो नहीं
कि ऐसा संसार असंतोषजनक है?´´

इतनी अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से गुज़रते हुए भी
मैं सिर्फ हंस ही सकता था
उस बच्चे की तरह
जिसे बहुत मज़ा आ रहा है
क्योंकि
एक तरकीब थी जो काम कर गयी
और लोग फंस गए थे उसमें!


Monday, December 15, 2008

प्रभात की कविताएँ


युवा कवि गिरिराज किराडू प्रतिलिपि नाम की एक पत्रिका निकलते हैं , जिसके प्रिंटेड रूप से मै परिचित नहीं पर नेट पर हर कोई इस पत्रिका से परिचित है। इसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कई - कई धाराओं के कई - कई विशिष्ट लेखकों को एक जगह पढ़ा जा सकता है। इस बार के अंक में मुझे प्रभात नाम का ये अद्भुत कवि मिला। इस कवि की दो कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं ...... मूल पत्रिका के प्रति आभार के साथ।




गीला भीगा पुआल

कौन आ रहा है हरे गेंहूओं के कपड़े पहन कर
कौन ला रहा है सरसों के फूलों के झरने
किसने खोला दरवाजा बर्फानी हवाओं का
कैसे चू आये एकाएक रात की आंख से खुशी के आँसू

ओह! शिशिर
तो तुम आ गए

आओ आओ
यहाँ बैठो
त्वचा के बिल्कुल करीब

यहाँ आंगन में लगाओ बिस्तरा
गीला भीगा पुआल

हमसफ़र

मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं
मेरे पिता का एक था

मैं अब गाँव में रहता नहीं
शहर में वहाँ रहता हूँ
जहां मुसलमान नहीं रहते
अब मेरे पास बची हैं स्मृतियां

मेरे बाबा के कई मुसलमान दोस्त थे
करीमा सांईं, मुनीरा सांईं
अशरफ़ चचा, चाची सईदन
बन्नो, रईला

सुदूर बचपन की स्मृतियाँ हैं ये
हमारे घर आना जाना
उठना बैठना था उनका

समाज की बुनावट
कुछ ऐसी होती गई बीते दिनों
बकौल मीना कुमारी
हम सफर कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तनहा-तनहा’

Sunday, December 14, 2008

तुम मेरी आधी रात का सूर्योदय - कुछ प्रेम कविताएँ - चंद्रकांत देवताले

मेरा सौभाग्य है कि मुझे देवताले जी के एक संकलन पर काम करने का मौका मिल रहा है। यह संकलन स्त्रियों से संबंधित कविताओं का है और 2009 में अनुनाद से ही प्रकाशित होगा। फिलहाल आप आनन्द लीजिए इन कुछ अद्भुत कविताओं का ...

कुछ नहीं सिर्फ़ प्रेम
(संत ज्ञानेश्वर के `अमृतानुभव´ के स्मरण सहित जिनकी छाया दो अंशों में है)


एक

कितनी छोटी पड़ जाती दुनिया जब हम होते एक
हमें ढूंढनी पड़ती जगह
और समुद्र तक पुरता नहीं
आकाश से बाहर निकल जाते हम
यह कैसा जादू
इसे ही कहते क्या प्रेम की मुक्ति
अथवा समय के पास चमकता हमारे बीच
रात का सूरज




दो

घर पर हो बाहर सिर्फ़ हम दोनो ही तो
और उस वक़्त भी जब मैं सो जाता हूं अमृत होकर
तुम एकटक देखती रहती हो जागती
क्योंकि तुम ही तो मालकिन
तुम्हारा ही पसारा
मेरा घर-संसार
एक हल्की झपकी भी तुम्हारी बुझा देगी
मेरे दिन-रात

तीन

कभी-कभी कितने एक
कितने एक हम कि गर्भ-गृह के बाहर भी
कभी दो नहीं
इतने पास
इतने कि दिपदिपाते असंख्य आईनों के बीच भी
नहीं देख सकते एक-दूसरे को
कितने वसन्त आए-गए
निदाध
बारिश बेमाप
फिर भी अतृप्त हमारी इच्छा
यद्यपि मृत्यु हमारी मित्र
फिर भी भय सदा !
कहीं हम दो तो नहीं?


चार

तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र
आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
वसन्त का प्रपात
जीवन तुम्हारी धड़कनों से
मैं जुगनू
चमकता
तुम्हारी
अँधेरी
नाभि के पास




पाँच

जब मेरे खून के भीतर तैरता सपना
झाँकने लगता तुम्हारी आंखों से
उसी वक़्त मुझे सुनाई पड़ने लगती
तुम्हारे खून की नदी में पंख मारते हंसों की फड़फड़ाहट

हंसध्वनि की लय पर ठिठक जाता महाकाल
दो जलपाखी गोता लगाते गहरे
और प्रेम की हथेली पर मोती के एक नन्हें बच्चे-सा
चमकने लगता समुद्र

छह

अँधेरा प्रगाढ़ और बंद आँखें
पर मैं देख रहा हूँ तुमको
वसन्त की धूप में फरवरी के समुद्र तट पर नहाते

नींद गहरी और सपना भरपूर
फिर भी सुबह पक्का यक़ीन मैं मिलकर आया तुमसे
गंध तुम्हारी मेरे भीतर
मुझ पर निशान तुमसे मिलने के

अस्तित्वहीन अँधेरा हमेशा खुली आँखें
नींद में सतत जागना
छिन्न-भिन्न सपनों का इन्द्रजाल

सब कुछ सम्भव यदि हासिल कर लें हम महारत
देह से बाहर निकलने की




सात

कौन किसका आखेट
इच्छाएं नोचती इच्छाओं को परस्पर
या हम ही एक-दूसरे का आहार

काल का जख़्म सूरज और दो छायाएं
सुलगते जख़्म के नीचे
जन्म-जीवन-मृत्यु का त्यौहार

या दिन-रात की तरह हम दोनों
बनते रहते मरहम-पट्टी
फिर भी दहकता रहता शाश्वत
प्रेम का घाव

आठ

लपटें लपकती फूल पर
शहद के छत्ते पर झपट्टा मारते मौत के घोड़े

एक दिन एक जब नहीं होकर बह जाएगा समुद्र का झाग
तो बिखर जाएगा एकपन हमारा

फिर बचेगा जो आधा नहीं
एक अकेला रह जाएगा
कभी आधा कभी एक
बचेगा ऐसा जो करेगा क्या?

नौ

जो नहीं है सामने
उसको और कितना ढूंढ रहीं तुम

और मैं भी तो सहेज रहा अपने भीतर
छू तक नहीं सकता जिसको

अग्नि-पिंड हो जाए हवा
उसके पहले का उपाय

तुम यह किनारा
मैं वह किनारा

बीच में बहता रहे अनवरत
प्रेम के समय का जल

दस

कुछ नहीं सिर्फ़ प्रेम

चुपचाप निर्वसन नहाते हुए भी
तुम - अश्लीलता के अंधेरे को तहस-नहस करती तलवार

पेड़ तुममें रोशनी का
तुम्हारे भीतर से उड़कर आसमान पाट देते असंख्य परिन्दे

तुम मेरी आधी रात का सूर्योदय
तुममें मैं आग
फफोले उमचाता शब्द

मुझसे तुम आँख
जिससे हम देखते सपने।
***

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails