ये उर्वर दिन और रात
पल्लवी कपूर को याद
उसका घर कहीँ नहीं था
वह रात में रह सकती थी
डरावने घटाटोप और तमाम दुस्वप्नों के बावजूद
बस सकती थी दिन के उजाले में भी
मूँद कर अपनी आंखें
चुन्धियाती हकीकतों को धता बताती
वह जा सकती थी रात और दिन की हदों से भी बाहर
किसी अनजान दुनिया में
फिर अचानक मुझे पुकारती
लौट आती
उसका ह्रदय काँपता था
मुझसे बात करते
कभी उत्तेजना तो कभी हताशा से
उसके भीतर
हज़ारों मधुमक्खियों का गुंजार था
मानो
किसी गुप्त कोष में संचित शहद को
बचाता हुआ
उसे कुछ नहीं आता था
वैसे थी बहुत होशियार
बेहद कामयाब
बड़ी बड़ी कंपनियों के खाते जांचती
कुशल लेखाकार
लेकिन उसे कुछ नहीं आता था
न बात करना
न बात सुनना
न ग़ुस्सा करना
न ग़ुस्सा सहना
बकौल खुद
प्यार करना भी नहीं आता था उसे
अपने ही मर्म को कुरेदती किसी अभिशापित मुनिकन्या सी
वह जैसे तीन हज़ार बरस पहले के वन में
भटकती थी
मैं उसकी पहुंच से उतना ही बाहर था
जितना कि अमरुद के पेड पर चढ़ी कोई चपल
गिलहरी
उसे इसका कोई गम नहीं था
कहती -- गिलहरियाँ तो देख कर खुश होने को होती हैं
पकड़ कर बांधने को नहीं
मेरे पास कोई दिलासा नहीं था उसके लिए
लेकिन हज़ारों थे उसके पास
और उन्हीं में से एक सबसे खास को चुनकर मेरे लिए
ठीक मेरे जन्मदिन वाले रोज़
एक भयानक सड़क दुर्घटना के बाद
अस्पताल के
बेदाग़
सफ़ेद
स्वप्न हीन बिस्तर पर
छट पटाती
वह चली गयी आख़िरी बार रात और दिन की
सरहदों से बाहर
अब भी मैं जैसे सुन पाता हूँ उसकी पुकार
किसी गहरे आदिम बुखार में
बड़ बडाता
पसीना पसीना
अचानक कहीँ से आकर थाम लेता है
कोई हाथ
गिरते गिरते
स्मृति की अंतहीन खाई में
लौट आता हूँ
फिर फिर रहने को इसी चहल पहल भरी दुनिया में
अगोरता
किसी कर्मशील किसान सा
उसके बाद भी बचे हुए
जीवन के
ये कई कई उर्वर दिन और रात .......
(पल्लवी का २८ की उम्र में १३ दिसंबर को इन्दौर में देहांत हो गया)
बहुत मार्मिक और परेशान करनेवाली कविता....क्या कहें और ..कुछ कहा नहीं जाता
ReplyDeleteBade bhai apne wakai is kavita ke dukh ko mehsus kiya. shukriya.
ReplyDeleteaisi hi smriti hame bechain karti hai, aadmi banati hai. yh kavita bahut touchi hai
ReplyDeleteधन्यवाद हरेप्रकाश
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता
ReplyDeletebehad marm-sparshi
ReplyDelete