शरदस्य प्रथम दिवसे
रानीखेत के लिए
बहुत दूर कुछ शिखर दिखते थे
कमरे की
खिड़की से बाहर
उनसे बहुत पहले एक तिरछी घाटी
उससे पहले कुछ मकान
बिजली के कुछ तार
जाते हुए यहाँ से वहाँ
आपस में उलझी कपड़े टांगने की रस्सियां
कुछ लोग
आपस में बतियाते हुए
और उनसे भी पहले
बाहर देखते ही
दिख जाती थीं सलाखें
उस खिड़की की जिसे मैं सुबह सबसे पहले खोलता था
बन्द करता था रात
सबसे बाद।
मुझे कोई संवाद नहीं दिया गया था
मुझे हिलना भी नहीं था अपनी जगह से
दरअसल मुझे कुछ भी नहीं करना था
उस खूबसूरत दृश्य में
जो सिर्फ मेरी तरफ से दिखता था।
मैं कई दिनों से
कहीं जाने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे पांव हिलते न थे
मैं कई दिनों से
कुछ चीजों की तरतीब देने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे हाथ उठते न थे
मैं कई दिनों से
कुछ बोलने के बारे में सोच रहा था
बल्कि मैं तो बोल भी रहा था पर मेरे शब्दों में
आवाज न थी।
मैं बहुत साहसी होना चाहता था
और बहुत धीर भी
मैं उदार भी होना चाहता था
और बहुत गम्भीर भी
मैं ज्यादा होना चाहता था
और कम भी
मैं ``मैं´´ भी होना चाहता था
और ``हम´´ भी।
शायद ऐसे ही खत्म हो जाता है सफर
हर बार
बहुत घने
भाप भरे जंगल पुकारते हैं हमें
पेड़ों के तने
बहुत चिकने कुछ खुरदुरे भी
पतझर में साथ छोड़ जाने वाली
चतुर-चपल पत्तियां
लम्बी लचीली डगालें
मिट्टी की बहुत पतली चादर तले
रह-रहकर
करवट बदलती है जिन्दगी
अन्त मे
ऐसी ही किसी जगह हमें लाता है प्रेम
हम जहां से कहीं नहीं जाते
वहां से कोई नहीं आता
हमारे पास।
bahut achchi kavita...aur bete ki taswir bhi ...bada pyara hai...itna ki har kisi ko pyar karne ka jee chahe, meri to khair puchho mat...
ReplyDeleteधन्यवाद हरेप्रकाश !
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