
जीवन-राग
2003-04
अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने ` संगतकार ´ लिखी।
यह कविताओं की एक विनम्र श्रंखला है। इसमें मैं तेरह दिनों तक रोज एक कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा।
आज का राग भीमपलासी
मल्लिकार्जुन मंसूर का गायन सुनकर
छत पर पड़ी हैं
न जाने कितनी चीजें
कपड़े
बडियां
पापड़
अचार
इन्हें धूप की ज़रूरत है
और मुझे इन सबको बचाना है
अपनी देह
और
आत्मा के साथ
बाहर से आती हैं न जाने कितनी आवाजें
कभी फेरीवाले की
तो कभी रद्दीवाले की
पसीने से भीगा एक आदमी पूछता है
किसी का पता
कभी-कभी आने वाला बूढ़ा भिखारी भी
आ धमकता है
आज ही
लेकिन
इस सबके बीच पता नहीं क्यों
मेरे भीतर एक गहरी उदासी है
रेडियो पर
विलिम्बत लय में गाती हुई
ये आवाज़
मानो बहुत दूर से आती है
उधर
हड़बड़ी में नंगे पा¡व
छत पर
बन्दर भगाने दौड़ी जाती है
मेरी पत्नी
इधर
अचानक पहचान जाता हूँ मैं
ये राग भीमपलासी है।
your poem is as good as the raga bhimpalas. it represents the original mood of the raga. good work shirish ji!
ReplyDeleteएक बार फिर धन्यवाद रागिनी
ReplyDeleteबीते इतवार दिल्ली के नेहरू पार्क में किशोरी अमोनकर से राग भीमपलासी से हमें विभोर कर दिया। यह राग मेरे पसंदीदा रागों में एक है और पं. भीमसेन जोशी ने एक बंदिश में इसे गाते हुए जैसे अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल दी है। बंदिश है- `ब्रज में घूम मचाए कान्हा´। काश इस टिप्पणी के साथ मैं उसे यहां चेप पाता तो आप भी आनंद उठाते। वैसी ही सुंदर कविता के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, बिल्कुल अंदर छूती हुई। मुझे रागों की बहुत पहचान नहीं है लेकिन कविता पढ कर जैसे कोई धुन, कोई आलाप अनायास याद आ गया। सुनाते रहो यूं ही नए-नए राग।
ReplyDeleteगौतम बहुत ही प्यारा है। उसकी मुस्कान बिल्कुल गुङिया जैसी है।
ReplyDeleteधन्यवाद आशुतोष भाई और दीपा। हम आजकल रामनगर में हैं !
ReplyDeletebahur sunder sirish bhai
ReplyDeletemain to anpadh aur ragon ke bare me bahut nirakshar hoon par kavita ne bhitar tak chua hai
dil se badhai
bahur sunder sirish bhai
ReplyDeletemain to anpadh aur ragon ke bare me bahut nirakshar hoon par kavita ne bhitar tak chua hai
dil se badhai
Daju tumhare he mukh se phone pe suni thee yeh kavita kabhi aur aaj padhkar wahi lamba lamha yaad aa gaya. Maan man hi man kurh rahi thee ki itti lambi baat! Aur woh bhi jane kya kavita-tavita par! Tab berozgaar tha na...
ReplyDelete...और अचानक से इस कविता के जरिये जैसे मैं भी पहचान गया हूँ भीमपलासी में बाँधे गये सुरों को।
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