
जीवन-राग
2003-04
अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने ` संगतकार ´ लिखी।
यह कविताओं की एक विनम्र श्रंखला है। इसमें मैं तेरह दिनों तक रोज एक कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा।
आज का राग भीमपलासी
मल्लिकार्जुन मंसूर का गायन सुनकर
छत पर पड़ी हैं
न जाने कितनी चीजें
कपड़े
बडियां
पापड़
अचार
इन्हें धूप की ज़रूरत है
और मुझे इन सबको बचाना है
अपनी देह
और
आत्मा के साथ
बाहर से आती हैं न जाने कितनी आवाजें
कभी फेरीवाले की
तो कभी रद्दीवाले की
पसीने से भीगा एक आदमी पूछता है
किसी का पता
कभी-कभी आने वाला बूढ़ा भिखारी भी
आ धमकता है
आज ही
लेकिन
इस सबके बीच पता नहीं क्यों
मेरे भीतर एक गहरी उदासी है
रेडियो पर
विलिम्बत लय में गाती हुई
ये आवाज़
मानो बहुत दूर से आती है
उधर
हड़बड़ी में नंगे पा¡व
छत पर
बन्दर भगाने दौड़ी जाती है
मेरी पत्नी
इधर
अचानक पहचान जाता हूँ मैं
ये राग भीमपलासी है।