Wednesday, October 17, 2007

शिरीष कुमार मौर्य


जीवन-राग
2003-04
अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने ` संगतकार ´ लिखी।
यह कविताओं की एक विनम्र श्रंखला है। इसमें मैं तेरह दिनों तक रोज एक कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा।

आज का राग भीमपलासी
मल्लिकार्जुन मंसूर का गायन सुनकर

छत पर पड़ी हैं
न जाने कितनी चीजें
कपड़े
बडियां
पापड़
अचार
इन्हें धूप की ज़रूरत है
और मुझे इन सबको बचाना है
अपनी देह
और
आत्मा के साथ

बाहर से आती हैं न जाने कितनी आवाजें
कभी फेरीवाले की
तो कभी रद्दीवाले की
पसीने से भीगा एक आदमी पूछता है
किसी का पता
कभी-कभी आने वाला बूढ़ा भिखारी भी
आ धमकता है
आज ही

लेकिन
इस सबके बीच पता नहीं क्यों
मेरे भीतर एक गहरी उदासी है
रेडियो पर
विलिम्बत लय में गाती हुई
ये आवाज़
मानो बहुत दूर से आती है

उधर
हड़बड़ी में नंगे पा¡व
छत पर
बन्दर भगाने दौड़ी जाती है
मेरी पत्नी

इधर
अचानक पहचान जाता हूँ मैं
ये राग भीमपलासी है।

Tuesday, October 16, 2007

येहूदा आमिखाई

आंखों की उदासी और एक सफ़र की तफसील


एक अँधेरी याद है
जिस पर चीनी के बुरे की तरह बिखरा हुआ है
खेलते हुए बच्चों का शोर वहाँ

वहाँ वे चीज़ें हैं
जो दुबारा कभी नहीं बचायेंगी तुम्हें
और वहीँ
मकबरों से ज़्यादा मज़बूत वे दरवाजें हैं

वहाँ एक सुरीली धुन है
जैसी कि काहिरा के मादी में
उन चीजों के वादे के साथ जिन्हें इस वक़्त की खामोशी
नसों के भीतर ही
रोके रहने की कोशिश करती है

और वहाँ एक जगह है
जहाँ तुम दुबारा कभी नहीं लौट सकते
दिन के वक़्त
एक पेड छुपाता है इसे
रात के वक़्त
एक लैंप की रोशनी चमकाती है

मैं इससे ज़्यादा और कुछ भी नहीं कह सकता
मैं इससे ज़्यादा और कुछ भी नहीं जानता

भूलने और खुश होने के लिए
खुश होने और भूलने के लिए
इतना ही बहुत है

बाकी तो सब आंखों की उदासी है
और एक सफ़र की तफसील !

अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य
संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ' धरती जानती है ' में संकलित

Monday, October 15, 2007

अंकुर मिश्र


ये स्मृति है एक अंकुर की जिसे बड़ा पेड बनना था लेकिन अब उसके अंकुराने के कुछ प्रमाण ही शेष हैं। उसके नाम से मुझे, विशाल श्रीवास्तव, हरेप्रकाश उपाध्याय और उमाकांत चौधरी को मिले सम्मान ने हम सभी को युवा कविता में एक मुकाम तक पहुंचाया है। सोचता हूँ काश ये सम्मान न होता, अंकुर खुद होता ...... बहरहाल उसकी ये दो कवितायेँ और एक पेटिंग........

( जन्म 13 जुलाई 1980 - देहान्त 26 अगस्त 2001)

जनम

ईंटों की चट्टानें और उनमें से झांकती खौफनाक खिड़कियाँ
रोज़मर्रा की दहशत
रंडियों की खुली टांगें जो चाहें तो पैदा कर दें धरती, पाताल और
उससे आगे भी

मगर पेड़ों की दरारों में से अब सिर्फ
मकड़े निकल रहे हैं
सूखे पत्तों की नसों को चूस लिया है
दीमकों ने

बारिश, गर्जना, बिजलियां कौंधती
फूलों पर तितलियां

और अंत
और अंत
और मृत्यु

मुझे जन्मना है !


I Don't Want My Paradise Lost

Nobody calls out to me.
I roam around in the wilderness
of patterns on my bed-sheet.
Someone please call out to me
Iam desperate to be born,
and reborn,
and die and re-die
and
be reborn.
I have metamorphosed into
a wheel with many steel rims.
There has to be a speed-breaker.
Someone, there must be someone,
stretch your hand to me.
Call out, for god's sake.
Iwill grasp your hand and take you on a journey
through the stars.
Show me Aladdin's chirag,
show me the flying carpet,
show me the dancing daffodils,
show me the rabbit hole.
I will dig into it,
I will keep digging until I find
Paradise
I don't want my paradise lost

प्रस्तुति - शिरीष कुमार मौर्य

हंस मानूस इंजेंत्सबरजर


खुशी


वह नहीं चाहती
कि मैं उसके बारे में कुछ बोलूं
उसे कागज पर नहीं उतारा जा सकेगा
और न ही
उसके बारे में कोई भविष्यवाणी ही की जा सकती है

वह इस सबसे अधिक कुछ है
लेकिन
मैं उसे जानता हूं
बहुत अच्छी तरह

चाहे स्थिर हो या गतिमान
वह
हर चीज को हिलाकर रख देगी

वह झूठ नहीं बोलेगी
कोहराम मचा देगी

उस अकेली से मैं अपने होने का
मतलब पाता हूं
वह मेरा तर्क है
हालांकि
मुझसे बाबस्ता नहीं है वह

वह अजीब और अडियल है
मैं उसे आसरा देता हूं और छुपाता हूं
किसी कलंक की तरह

वह भगोड़ी है
न तो दूसरों के साथ बांटने के लिए है
और न ही
खुद के पास रखने के लिए

मुझे उससे कुछ नहीं मिला
जो कुछ मेरे पास था
मैंने उसके साथ बांट लिया
लेकिन
वह मुझे छोड़ जायेगी

तब दूसरे आसरा देंगे उसे
विजय की ओर उसकी लम्बी उड़ान में
और अपनी रातों में
छुपायेंगे उसे

विक्रय मशीन

वह उसके छेद में
चार सिक्के डालता है
और अपने लिए
कुछ सिगरेट हासिल कर लेता है

वह हासिल कर लेता है
कैंसर
रंग-भेद
यूनान का राज्य
सत्ताकर
राज्यकर
व्यापारकर वगैरह
और अतिरिक्त मूल्य
मुक्त उद्यम और सकारात्मक विचारधारा

वह हासिल कर लेता है
एक बड़ी-सी लिफ्ट
बड़ा-सा व्यापार
और मनचीती लड़कियां
महान समाज
बड़े-बड़े धमाके
उल्टियाँ हर चीज बड़ी......और बड़ी........और बड़ी

वह हासिल कर लेता है
ज्यादा से ज्यादा
अपने चार सिक्कों के बदले
लेकिन पलभर के लिए
उसकी हासिल की हुई हर चीज
गायब हो जाती है
यहां तक कि सिगरेट भी

वह विक्रय मशीन की ओर देखता है
लेकिन उसे देख नही पाता
तब वह खुद को देखता है और उस एक पल के लिए
वह बिल्कुल
आदमी की तरह लगता है
और फिर जल्द ही
एक चुटकी में
वह पहले-सा हो जाता है!
ये रहीं उसकी सिगरेट

वह गायब हो चुका है- जो एक तेज़ी से बीतता हुआ पल था
-अचानक मिला एक सुख

अब वह गायब हो चुका है
चला गया है
दफन हो गया है उस कबाड़ के नीचे
जो उसे
महज चार सिक्कों के बदले मिला है!

समझदारों का गीत

अब जरूर कुछ किया जाना चाहिए
इतना हम जानते हैं
लेकिन यह बहुत जल्दी है कुछ करने को

लेकिन
अब बहुत देर हो गयी है
काफी कुछ बीत गया है दिन
ओह!
हम जानते हैं

हम जानते हैं
कि हम बहुत अच्छे हैं
और यह भी कि आगे और भी अच्छे होते जायेंगे
लेकिन यह किसी काम का नहीं
हम जानते हैं

हम जानते हैं कि हमें कोसा जायेगा
और अगर ऐसा होता है तो यह हमारी गलती नहीं है
और हम इससे पल्ला झाड़ लेंगे

हो सकता है
कि हमारे लिए अपना मुंह बंद रखना ही अच्छा हो
और यह भी कि हम इस तरह
अपना मुंह बन्द नहीं रख पायेंगे
हम जानते हैं
ओह!
हम जानते हैं

और हम यह भी जानते हैं
कि हम वास्तव में किसी की मदद नहीं कर सकते
और न ही कोई कर सकता है हमारी

और हम जानते हैं
कि हम बहुत प्रतिभावान और बुिद्धमान हैं
और `न होने` और `बेकार होने` में से कोई एक चीज़
चुनने के लिए आजाद हैं

हम जानते हैं
कि हमें इस समस्या का विश्लेषण
बहुत सावधानी से करना है
और यह भी कि हम अपनी चाय में
दो चम्मच चीनी लेते हैं
ओह!
यह सब हम जानते हैं

दमन और उत्पीड़न के बारे में भी
हम सब कुछ जानते हैं
और हम इसके सख्त खिलाफ भी हैं
और यह भी कि सिगरेट फिर गायब हो चुकी है
बाजार से

हम अच्छी तरह जानते हैं
कि देश वाकई दिक्कतों से गुज़र रहा है
और यह कि हमारे अनुमान अकसर बिल्कुल सही उतरते हैं
और यह भी
कि वे किसी काम के नहीं
और यह
कि ये सिर्फ एक बातचीत भर है
ओह!
हम जानते हैं

यह कोई ठीक बात नहीं है
कि चीजों को गिरता हुआ छोड़ दिया जाये
और हम जानते हैं
कि हम उन्हें गिरता हुआ छोड़ने जा रहे हैं

ओह!
हम जानते हैं
कि इस सबमें कुछ भी नया नहीं है
और अद्भुत है जीवन
यह सब कुछ ऐसा ही है
हम इस सबके बारे में
अच्छी तरह जानते है और उस सबके बारे में भी

हम यह भी जानते हैं और वह भी

ओह हम तो सब कुछ जानते हैं!


अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य

शिरीष कुमार मौर्य


जीवन-राग
2003-04
अनोखी सहजता वाले उस हृदय के लिए जिसने ` संगतकार ´ लिखी
यह कविताओं की एक विनम्र श्रंखला है। इसमें मैं तेरह दिनों तक रोज एक राग-एक कविता आपके सम्मुख प्रस्तुत करूंगा। कल मैंने मालकौंस पोस्ट किया था।






आज
का राग - शुद्ध कल्याण

भीमसेन जोशी का गायन सुनकर

ये घर लौटने का समय है
और हर कोई
लौट रहा है
कहीं न कहीं से

धीरे-धीरे लौट रही है रात
दिनभर की थकान का हिसाब मांगती

आकाश में लौट रही है
एक अजीब-सी टिमटिमाहट
तारों की

परिन्दे
पेड़ों पर लौट रहे हैं
दिनभर धूप सेंकने के बाद
पानी में लौट रही हैं
मछुवारों की नावें

दिनपाली के मजदूर लौट रहे हैं
लौट रहा है
बेसब्री से उनकी बाट जोहते परिवारों का
उत्साह

उधर बनिये के चेहरे की चमक भी
लौट रही है
दुकान के बल्ब की थोड़ी-सी चपल रोशनी में

बच्चों में लौट रही है भूख
हालाकि हर परिवार में उसका स्वागत नहीं है
और नींद के लौटने में अभी थोड़ी देर है

दिल में कोहराम मचाती
लौट रही हैं
दिनभर की आवाजें

कहीं लोग लौट रहे हैं तो कहीं उनकी यादें
यह बताती हुई
कि इतना आसान नहीं होता लौट पाना
हर बार

लेकिन
ये सिर्फ क्रिया नहीं एक राग भी है

दुखभरा हो कि सुखभरा
इसे गाया जाता रहेगा
हमेशा
हर कहीं
हर जगह।

Sunday, October 14, 2007

कू सेंग












अब बच्चा


अब बच्चा
कुछ देख रहा है
कुछ सुन रहा है

कुछ सोच रहा है

क्या वह देख रहा है
उस तरह की चीज़ों को जैसी देखी थीं मोहम्मद ने
एक पहाड़ी गुफा में
खुदा के इलहाम के बाद?

क्या वह सुन रहा है
उन आवाज़ों को
जिन्हें नाज़रेथ के जीसस ने
अपने सिर के ऊपर बजते सुना था

जब उसका बपतिस्मा हुआ था
जार्डन के किनारे?

क्या वह खोया है
विचारों में
जैसे शाक्यमुनि खोये थे बोधिवृक्ष के नीचे?

नहीं!
बच्चा इसमें से कुछ भी नहीं
देख

सुन
और सोच रहा है

यह तो देख

सुन
और सोच रहा है
ऐसा कुछ जिसे कोई दूसरा देख

सुन
और सोच नहीं सकता

कुछ ऐसा
कि मानो एक शांत ओर अनोखा आदमी होने के नाते
ये अकेला ही ले आएगा
बहार
इस दुनिया में
सिर्फ अपने ही दम पर

तभी तो
यह मुस्करा रहा है

एक प्यारी-सी मुस्कान !

अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य
पुनश्च द्वारा प्रकाशित काव्यपुस्तिका से

Saturday, October 13, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

शरदस्य प्रथम दिवसे
रानीखेत के लिए

बहुत दूर कुछ शिखर दिखते थे
कमरे की
खिड़की से बाहर
उनसे बहुत पहले एक तिरछी घाटी
उससे पहले कुछ मकान
बिजली के कुछ तार
जाते हुए यहाँ से वहाँ
आपस में उलझी कपड़े टांगने की रस्सियां
कुछ लोग
आपस में बतियाते हुए
और उनसे भी पहले
बाहर देखते ही
दिख जाती थीं सलाखें
उस खिड़की की जिसे मैं सुबह सबसे पहले खोलता था
बन्द करता था रात
सबसे बाद।

मुझे कोई संवाद नहीं दिया गया था
मुझे हिलना भी नहीं था अपनी जगह से
दरअसल मुझे कुछ भी नहीं करना था
उस खूबसूरत दृश्य में
जो सिर्फ मेरी तरफ से दिखता था।

मैं कई दिनों से
कहीं जाने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे पांव हिलते न थे

मैं कई दिनों से
कुछ चीजों की तरतीब देने के बारे में सोच रहा था
पर मेरे हाथ उठते न थे

मैं कई दिनों से
कुछ बोलने के बारे में सोच रहा था
बल्कि मैं तो बोल भी रहा था पर मेरे शब्दों में
आवाज न थी।

मैं बहुत साहसी होना चाहता था
और बहुत धीर भी

मैं उदार भी होना चाहता था
और बहुत गम्भीर भी

मैं ज्यादा होना चाहता था
और कम भी

मैं ``मैं´´ भी होना चाहता था
और ``हम´´ भी।

शायद ऐसे ही खत्म हो जाता है सफर
हर बार

बहुत घने
भाप भरे जंगल पुकारते हैं हमें
पेड़ों के तने
बहुत चिकने कुछ खुरदुरे भी
पतझर में साथ छोड़ जाने वाली
चतुर-चपल पत्तियां
लम्बी लचीली डगालें

मिट्टी की बहुत पतली चादर तले
रह-रहकर
करवट बदलती है जिन्दगी

अन्त मे
ऐसी ही किसी जगह हमें लाता है प्रेम

हम जहां से कहीं नहीं जाते
वहां से कोई नहीं आता
हमारे पास।

Thursday, October 11, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

गैंगमेट वीरबहादुर थापा

बहुत
शानदार है यह नाम
और
थोड़ा अजीब भी
एक ही साथ जिसमें वीर भी है
और बहादुर भी

यहां से आगे तक २२.४ किलोमीटर सड़क
जिन मजदूरों ने बनायी
उनका उत्साही गैंग लीडर रहा होगा ये या कोई उम्रदराज मुखिया
लो.नि.वि. की भाषा
बस इतनी ही समझ आती है मुझे


दूर नेपाल के किन्हीं गांवों से आए मजदूर
उन गांवों से
जहां आज भी मीलों दूर हैं सड़कें
यों वे बनायी जाती रहेंगी हमेशा
लिखे जाते रहेगे कहीं-कहीं पर उन्हें बनाने के बाद
ग़ायब हो जाने वाले
कुछ नाम

१९८४ में कच्ची सड़क पर डामर बिछाने आए वे बांकुरे
अब न जाने कहां गए
पर आज तलक धुंधलाया नहीं उनके अगुआ का
ये नाम

बिना यह जाने
कि किसके लिए और क्यों बनायी जाती हैं
सड़कें
वे बनाते रहेंगे उन्हें
बिना उन पर चले
बिना कुछ कहे

उन सरल हृदय अनपढ़-असभ्यों को नहीं
हमारी सभ्यता को होगी
सड़क की ज़रूरत
बर्बरता की तरफ़ जाने के लिए

और बर्बरों को भी

सभ्यताओं तक आने के लिए


गिद्ध

किसी के भी प्रति उनमें कोई दुर्भावना नहीं थी
वे हत्यारे भी नहीं थे
हालांकि बहुत मजबूत और नुकीली थी उनकी चोंच
पंजे बहुत गठीले ताकतवर
और मीटर भर तक फैले उनके डैने

वे बहुत ऊंची और शान्त उड़ानें भरते थे
धरती पर मंडराती रहती थी उनकी
अपमार्जक छाया

दुनिया भर के दरिन्दों-परिन्दों में उनकी छवि

सबसे घिनौनी थी

किसी को भी डरा सकते थे उनके झुर्रीदार चेहरे
वे रक्त सूंघ सकते थे
नोच सकते थे कितनी ही मोटी खाल
मांस ही नहीं
हडि्डयां तक तोड़कर वे निगल जाते थे

लेकिन
वे कभी बस्तियों में नहीं घुसते थे
नहीं चुराते थे छत पर और आंगन में पड़ी
खाने की चीजें
वे पालतू जानवरों और बच्चों पर कभी नहीं झपटते थे
फिर भी हमारे बड़े
हमें उनके नाम से डराते थे
बचपन की रातों में अपने विशाल डैने फैलाये
वे हमारे सपनों में आते थे

बहुत कम समझा गया उन्हें इस दुनिया में
ठुकराया गया सबसे ज्यादा
जिन्दगी का रोना रोते लोगों के बीच
वे चुपचाप अपना काम करते रहे
धीरे-धीरे सिमटती रही उनकी छाया
बिना किसी को मारे
बिना किसी दुर्भावना के
मृत्यु को भी उत्सव में बदल देने वाली उनकी
वह सहज उपस्थिति
धीरे-धीरे
दुर्लभ होती गयी

हालांकि

उनके बिना भी बढ़ता ही जायेगा जिन्दगी का ये कारवां
लेकिन उसके साथ ही
असहनीय हाती जायेगी
मृत्यु की सड़ांध

हमारी दुनिया से

यह किसी परिन्दे का नहीं
एक साफ-सुथरे भविष्य का
विदा हो जाना है।

ये दोनो कविताएं हंस के 2005 अप्रैल अंक में छप चुकी हैं।

ईरानी कविता - फरूग फरूखजाद

ईश्वर से मुखामुखी

मेरी चमकती आंखों से दूसरी पर भाग जाने कि आतुरता
छीन कर
उन्हें सिखालाओ पर्दा करना
उन चमकीली आंखों से

हे ईश्वर
हे ईश्वर अपनी सूरत दिखलाओ
और बीन लो मेरे ह्रदय से स्वार्थ और पाप के ये कण

मत करो बर्दाश्त एक तुच्छ बांदी का विद्रोह
और दूसरे मे शरण की याचना

सुन लो मेरी गुहार
ओ समर्थ बिरले देवता !

मूल से अनुवाद : राजुला साह
तनाव अंक ९८ से साभार
टीप : अगर इस कविता के शीर्षक का अनुवाद ईश्वर से मुंहजोरी हो तो कैसा लगे ?
अनुनाद

Wednesday, October 10, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

रानीखेत से हिमालय
बेटे से कुछ बात

वे जो दिखते हैं शिखर
नंदघंटा-पंचाचूली-नंदादेवी-त्रिशूल वगैरह
उन पर धूल राख और पानी नहीं
सिर्फ बर्फ गिरती है

अपनी गरिमा में निश्छल सोये-से
वे बहुत बड़े और शांत
दिखते हैं

हमेशा ही बर्फ नहीं गिरती थी
उन पर
एक समय था जब वे थे ही नहीं

जबकि
बहुत कठिन है उनके न होने की कल्पना
अक्षांशों और देशांतरों से भरी
इस दुनिया में

कभी वहां
समुद्र था नमक और मछलियों और एक छूंछे उत्साह से भरा
वहां समुद्र था
और बहुत दूर थी धरती
पक्षी जाते थे कुछ साहसी इस ओर से उस ओर
अपना प्रजनन-चक्र चलाने
समुद्र उन्हें रोक नहीं पाता

फिर एक दौर आया

जब दोनों तरफ की धरती ने
आपस में मिलने का फैसला किया
समुद्र इस फैसले के खिलाफ था
वह उबलने लगा
उसके भीतर कुछ ज्वालामुखी फूटे
उसने पूरा प्रतिरोध किया
धरती पर दूर-दूर तक जा पहुंचा लावा
लेकिन

यह धरती का फैसला था
इस पृथ्वी पर दो-तिहाई होकर भी रोक नहीं सकता था
जिसे समुद्र
आखिर वह भी तो एक छुपी हुई धरती पर था

धरती में भी छुपी हुई कई परतें थीं
प्रेम करते हुए हृदय की तरह
वे हिलने लगीं
दूसरी तरफ़ की धरती की परतों से
भीतर-भीतर मिलने लगीं
उनके हृदय मिलकर बहुत ऊचे उठे
इस तरह हमारे ये विशाल और अनूठे
पहाड़ बने

यह सिर्फ भूगोल या भूगर्भ-विज्ञान है
या कुछ और ?

जब धरती अलग होने का फैसला करती है
तो खाइयां बनती हैं
और जब मिलने का तब बनते हैं पहाड़

बिना किसी से मिले
यों ही इतना ऊचा नहीं उठ सकता कोई
जब ये बने

इन पर भी राख गिरी ज्वालामुखियों की
छाये रहे धूल के बादल
सैकड़ों बरस

फिर गिरा पानी
एक लगातार अनथक बरसात
एक प्रागैतिहासिक धीरज के साथ
ये ठंडे हुए

आज जो चमकते दीखते हैं
उन्होंने भी भोगे हैं
प्रतिशोध
भीतर-भीतर खौले हैं
बर्फ सा जमा हुआ उन पर
युगों का अवसाद है

पक्षी अब भी जाते हैं यहां से वहां
फर्क सिर्फ इतना है
पहले अछोर समुद्र था बीच में
अब

रोककर सहारा देते
पहाड़ हैं!

ये वागर्थ में छप चुकी एक पुरानी कविता है - 2005 की।

Tuesday, October 9, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

ये मेरी नई अनछपी कविताओं में से एक है। हमारे गांवो में देवताओं के थान मुझे बचपन से ही आकृष्ट करते रहे हैं और ग्रामदेवताओं का ये मिथकीय संसार भी ......... इसी विषय पर किंचित भिन्न संदर्भ के साथ मेरी एक कविता `जागर´ पहल- 58 में छपी थी।

ग्रामदेवता

वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर

कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति

सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहां
उन्होंने पार की नदियां

अपनी बांहों के सहारे

खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते

भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ

राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का

और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ

गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं

वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ

वे आज भी लौट आते हैं

दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप

वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?

मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?

Monday, October 8, 2007

टामस ट्रांसट्रोमर

स्मृतियां मुझ पर निगाह रखती हैं

जून की एक सुबह
यह बहुत जल्दी है जागने के लिए और दुबारा सो जाने के
बहुत देर हो चुकी है
मुझे जाना ही होगा

हरियाली के बीच जो पूरी तरह भरी हुई है स्मृतियों से

स्मृतियां -
जो निगाहों से मेरा पीछा करती हैं
वे दिखाई नहीं
घुलमिल जाती हैं अपने पसमंज़र में
गिरगिट की तरह

वे मेरे इतने पास हैं
कि चिडियों की बहरा कर देनेवाली चहचहाहट के बावजूद
मैं सुन सकता हूं
उनकी सांसों की आवाज़।



अनुवाद - शिरीष कुमार मौर्य

येहूदा आमीखाई

प्रेम की स्मृतियाँ

१ - छवि

हम कल्पना नहीं कर सकते
कि कैसे हम जियेंगे एक दूसरे के बिना
ऐसा हमने कहा

और तब से हम रहते हैं इसी एक छवि के भीतर
दिन-ब-दिन
एक दूसरे से दूर , उस मकान से दूर
जहाँ हमने वो शब्द कहे

अब जैसे बेहोशी की दवा के असर में होता है
दरवाजों का बंद होना और खिड़कियों का खुलना
कोई दर्द नहीं

वह तो आता है बाद में ......

२- शर्तें और स्थितियाँ

हम उन बच्चों की तरह थे जो समुद्र से बाहर आना नहीं चाहते
इस तरह नीली रातें आयीं
और फिर काली

हम क्या वापस ला पाए अपने बाक़ी के जीवन के लिए
एक लपट भरा चेहरा?
जलती हुई झाडियों सा, जो ख़त्म नहीं कर सकेगा खुद को
अपने जीवन के अखीर तक

हमने अपने बीच एक अजीब सा बंदोबस्त किया
यदि तुम मेरे पास आती हो तो मैं आऊंगा तुम्हारे पास
अजीब सी शर्तें और स्थितियाँ -
यदि तुम भूल जाती हो मुझे तो मैं तुम्हें भूल जाऊंगा
अजीब से करार और प्यारी सी बातें

बुरी बातें तो हमे करनी थीं हमारे
बाक़ी के जीवन में !

३- वसीयत का खुलना

मैं अभी कमरे में हूँ
अब से दो दिन बाद मैं देखूँगा इसे
केवल बाहर से
तुम्हारे कमरे का वह बंद दरवाज़ा
जहाँ हमने सिर्फ एक दूसरे से प्यार किया
पूरी मनुष्यता से नहीं

और तब हम मुड़ जायेंगें नए जीवन की ओर
मृत्यु की सजग तैयारियों वाले विशिष्ट तौर तरीकों के बीच
जैसे कि बाइबल में मुड़ जाना दीवार की ओर

जिस हवा में हम सांस लेते हैं उसके भी ऊपर जो इश्वर है
जिसने हमें दो आंख और पाँव दिए
उसी ने बनाया दो आत्माएं भी हमें

और वहाँ बहुत दूर
किसी दिन हम खोलेंगे इन दिनों को
जैसे कोई खोलता है वसीयत
मृत्यु के कई बरस बाद !

अनुवाद : शिरीष कुमार मौर्य
संवाद प्रकाशन से आयी पुस्तक 'धरती जानती है' से .......

येहूदा आमीखाई


समुद्र तट पर


निशाँ जो रेत पर मिलते थे
मिट गए
उन्हें बनाने वाले भी मिट गए

अपने न होने की हवा में

कम ज़्यादा बन गया और वह जो ज़्यादा था
बन जाएगा असीम
समुद्र तट की रेत की तरह

मुझे एक लिफाफा मिला
जिसके ऊपर एक पता था और जिसके पीछे भी एक पता था
लेकिन भीतर से वह खाली था
और खामोश
चिट्ठी तो कहीँ और ही पढी गई थी
अपना शरीर छोड़ चुकी आत्मा की तरह

वह एक प्रसन्न धुन
जो फैलती थी रातों को एक विशाल सफ़ेद मकान के भीतर
अब भरी हुई है इच्छाओं से और रेत से
लकड़ी के दो खम्बों के बीच कतार से टंगे
स्नान-वस्त्रों की तरह

जलपक्षी धरती को देख कर चीखते हैं
और लोग शांति को देख कर

ओह मेरे बच्चे - मेरे सिर की वे संतानें
मैंने उन्हें बनाया अपने पूरे शरीर और पूरी आत्मा के साथ
और अब वे सिर्फ मेरे सिर की संतानें हैं

और मैं भी अब अकेला हूँ इस समुद्र तट पर
रेत में कहीँ-कहीँ उगी थरथराते डंठलों वाली खर पतवार की तरह
यह थरथराहट ही इसकी भाषा है
यह थरथराहट ही मेरी भाषा है

हम दोनो के पास एक समान भाषा है !

अनुवाद : शिरीष कुमार मौर्य
संवाद प्रकाशन से आयी पुस्तक 'धरती जानती है' से ....

Sunday, October 7, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

पुरानी हवाएं

चन्द्रकांत देवताले जी को याद करते हुए


मेरे साथ
बहुत पुराने दिनों की हवाएं हैं

मेरे समय में ये बरसों पीछे से आती हैं
और आज भी
उतनी ही हरारत जगाती हैं


मेरे भीतर की धूल को उतना ही उड़ाती हैं

बिखर जाती हैं
बहुत करीने से रखी हुई चीज़ें भी

क्या सचमुच
हवाएं इतनी उम्र पाती हैं?


विज्ञान के बहुश्रुत नियम से उलट
ये जिन्दगी की हवाएं हैं
हमेशा
कम दबाव से अधिक की ओर
जाती हैं!


नाज़िम हिकमत की कविता

इस बार वाया मंगलेश डबराल

स्त्रेस्नाय चौराहा

स्त्रेस्नाय चौराहे का गिरिजाघर बजाता है चार का गजर
हालांकि चौराहा और गिरिजाघर बहुत पहले उजड़ गए हैं

और उनकी जगह अब तान दिया गया है शहर का सबसे बड़ा सिनेमाघर
और वहाँ मैं मिलता हूँ उन्नीस वर्ष के नौजवान खुद से
उसे पहचान लेता हूँ फौरन बिना किसी अचरज के उसका फोटो तक देखे बग़ैर
हम बढाते हैं अपने हाथ लेकिन वे मिल नहीं पाते
चालीस वर्षों के आरपार
असीम समय - आर्कटिक समुद्र

बर्फ गिरने लगी है यहाँ स्त्रेस्नाय चौराहे पर
जिसका नाम अब पुश्किन चौराहा है
काँप रहा हूँ मैं ठिठुर गए हैं मेरे हाथ-पैर
हालांकि मैं पहने हुए हूँ ऊनी मोज़े और फरदार दस्ताने
बल्कि वही है मोजों और दस्तानों के बग़ैर
जूते फटे हुए चीथड़ों में पैर
उसकी जीभ पर एक खट्टे मांसल सेब की तरह है उम्र
अट्ठारह साल की एक किशोरी के पुष्ट स्तनों पर हैं उसके हाथ
उसकी आंखों में मीलों लंबे गीत हैं
और मृत्यु है बस छः फुट
और उसे नहीं मालूम क्या है उसके भविष्य के भीतर
वह तो मैं ही जानता हूँ उसका भविष्य
क्योंकि मैंने जिए हैं वे सभी विश्वास जिन्हें जियेगा वह
मैं उन शहरों में रह चुका हूँ जहाँ रहेगा वह
मैं उन औरतों से कर चुका हूँ प्रेम जिनसे करेगा वह
मैं सो चुका हूँ उन जेलों में जहाँ सोयेगा वह
मैं झेल चुका हूँ उसकी तमाम बीमारियाँ
उसकी तमाम नींदें सो चुका हूँ
देख चुका हूँ उसके तमाम स्वप्न
आखिरकार वह खो देगा सब कुछ
जो मैंने खोया है जीवन भर !

नाज़िम हिकमत - कुछ और कवितायेँ

ये कवितायेँ भीं वाया वीरेन डंगवाल .......

रूबाईयात


जो दुनिया तुमने देखी रूमी, वो असल न थी, न कोई छाया वगैरह
यह सीमाहीन है और अनंत, इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह
और सबसे अच्छी रूबाई जो तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है - सारी आकृतियाँ है परछाईयाँ वगैरह

न चूम सकूं न प्यार कर सकूं तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो रक्त मांस समेत
और तुम्हारा सुर्ख शहद वो
जो निषिद्ध मुझे
तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आंखें सचमुच हैं
और बेताब भंवर जैसा तुम्हारा समर्पण
तुम्हारा गोरापन
मैं छू तक नहीं सकता !

नाज़िम हिकमत की दो कवितायेँ

ये अनुवाद किये है हमारे समय के सबसे बेचैन कवि वीरेन डंगवाल ने .........

तर्क

घोड़ी के सिर जैसे आकार वाला यह देश
सुदूर एशिया से चौकडियाँ भरता आता भूमध्य सागर में पसर जाने को
यह देश हमारा है

ख़ून सनीं कलाईँ भिंचे दांत नंगे पैर
धरती गोया एक बेशकीमती कालीन
यह जहन्नुम
यह स्वर्ग हमारा है

उन दरवाज़ों को बंद कर दो जो पराए हैं
वे दुबारा कभी खुले नहीं
आदमी कि आदमी पर गुलामी ख़त्म हो
यह हमारा तर्क है

रहना एक पेड की तरह अकेला मुक्त
एक वन की तरह भाईचारे में
यह बेताबी हमारी है !

अखरोट का पेड

मैं एक अखरोट का पेड हूँ गुल्हान पार्क में
मेरी पत्तियां चपल हैं चपल जैसे पानी में मछलियाँ
मेरी पत्तियां निखालिस हैं
निखालिस जैसे एक रेशमी रूमाल
उठा लो
पोंछो मेरी गुलाब अपनी आंखों में आंसू एक सौ हज़ार

मेरी पत्तियां मेरे हाथ हैं जो हैं एक सौ हज़ार
मैं तुम्हें छूता हूँ एक सौ हज़ार हाथों से
मैं छूता हूँ इस्ताम्बुल को

मेरी पत्तियां मेरी आंखें हैं, मैं देखता हूँ अचरज से
मैं देखता हूँ तुम्हें एक सौ हज़ार आंखों से, मैं देखता हूँ इस्ताम्बुल को

एक हज़ार दिलों की तरह धड़को
धड़को मेरी पत्तियों

मैं एक अखरोट का पेड हूँ गुल्हान पार्क में
न तुम ये बात जानती हो न पुलिस !

Friday, October 5, 2007

शिरीष कुमार मौर्य

ये उर्वर दिन और रात
पल्लवी कपूर को याद

उसका घर कहीँ नहीं था

वह रात में रह सकती थी
डरावने घटाटोप और तमाम दुस्वप्नों के बावजूद
बस सकती थी दिन के उजाले में भी
मूँद कर अपनी आंखें
चुन्धियाती हकीकतों को धता बताती

वह जा सकती थी रात और दिन की हदों से भी बाहर
किसी अनजान दुनिया में
फिर अचानक मुझे पुकारती
लौट आती

उसका ह्रदय काँपता था
मुझसे बात करते
कभी उत्तेजना तो कभी हताशा से

उसके भीतर
हज़ारों मधुमक्खियों का गुंजार था
मानो
किसी गुप्त कोष में संचित शहद को
बचाता हुआ

उसे कुछ नहीं आता था
वैसे थी बहुत होशियार
बेहद कामयाब
बड़ी बड़ी कंपनियों के खाते जांचती
कुशल लेखाकार

लेकिन उसे कुछ नहीं आता था
न बात करना
न बात सुनना
न ग़ुस्सा करना
न ग़ुस्सा सहना

बकौल खुद
प्यार करना भी नहीं आता था उसे
अपने ही मर्म को कुरेदती किसी अभिशापित मुनिकन्या सी
वह जैसे तीन हज़ार बरस पहले के वन में
भटकती थी

मैं उसकी पहुंच से उतना ही बाहर था
जितना कि अमरुद के पेड पर चढ़ी कोई चपल
गिलहरी

उसे इसका कोई गम नहीं था
कहती -- गिलहरियाँ तो देख कर खुश होने को होती हैं
पकड़ कर बांधने को नहीं

मेरे पास कोई दिलासा नहीं था उसके लिए
लेकिन हज़ारों थे उसके पास

और उन्हीं में से एक सबसे खास को चुनकर मेरे लिए
ठीक मेरे जन्मदिन वाले रोज़
एक भयानक सड़क दुर्घटना के बाद
अस्पताल के
बेदाग़
सफ़ेद
स्वप्न हीन बिस्तर पर
छट पटाती
वह चली गयी आख़िरी बार रात और दिन की
सरहदों से बाहर

अब भी मैं जैसे सुन पाता हूँ उसकी पुकार
किसी गहरे आदिम बुखार में
बड़ बडाता
पसीना पसीना

अचानक कहीँ से आकर थाम लेता है
कोई हाथ

गिरते गिरते
स्मृति की अंतहीन खाई में
लौट आता हूँ
फिर फिर रहने को इसी चहल पहल भरी दुनिया में
अगोरता
किसी कर्मशील किसान सा
उसके बाद भी बचे हुए
जीवन के
ये कई कई उर्वर दिन और रात .......

(पल्लवी का २८ की उम्र में १३ दिसंबर को इन्दौर में देहांत हो गया)

आलोक धन्वा की कविताएं

फोटो: हिंदी समय डाट काम से साभार
नदियां



इछामती और मेघना
महानंदा
रावी और झेलम
गंगा गोदावरी
नर्मदा और घाघरा
नाम लेते हुए भी तकलीफ होती है

उनसे उतनी ही मुलाक़ात होती है
जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं

और उस समय भी दिमाग कितना कम
पास जा पाता है
दिमाग तो भरा रहता है
लुटेरों के बाज़ार के शोर से।
***

बकरियां



अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियां
अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियां तूंग कर वहाँ से
फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में
लौट आतीं

जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
पहाड़ की तीखी चढाई पर भी बकरियों से मुलाक़ात हुई
वे काफी नीचे के गांवों से चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
जैसे जैसे हरियाली नीचे से उजड़ती जाती
गर्मियों में

लेकिन चरवाहे कहीँ नहीं दिखे
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है।
***

Thursday, October 4, 2007

वीरेन डंगवाल की दो कविताएं

कल मैंने वीरेन डंगवाल की एक कविता पोस्ट की थी जिसे बडे भाई आशुतोष जी ने सराहा। आज उसी क्रम में प्रस्तुत हैं कुछ और कवितायेँ......

नैनीताल में दीवाली

ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह

तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूल झड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
***

कुछ कद्दू चमकाए मैंने

कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता टविता लिख दीं तो
हफ्ते भर खुद को प्यार किया

अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ

हाँ जीं हाँ वही कन फटा हूँ हेठा हूँ

टेलीफोन की बगल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपडों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ

जो न होना था वही सब हुवां हुवां
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ

तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोडा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं

हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :

" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है "

अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
*** 

Wednesday, October 3, 2007

वीरेन डंगवाल - नागपुर के रस्‍ते

वीरेन डंगवाल मेरे पसंदीदा कवि हैं। उनकी "नागपुर के रस्ते " यहां पेश है। मेरी पैदायिश भी इसी शहर की है, इसलिये भी ये मेरे दिल के करीब है और मुझे वापस उसी लैंडस्केप में ले जाती है...... 




नागपुर के रस्ते

1


गाडी खडी थी
चल रहा था प्लेटफार्म
गन गनाता बसंत कहीँ पास ही मे था शायद
उसकी दुहाई देती एक श्यामला हरी धोती में
कटि से झूम कर टिकाए बिक्री से बच रहे संतरों का टोकरा
पैसे गिनती सखियों से उल्लसित बतकही भी करती
वह शकुंतला
चलती चली जाती थी खड़े खड़े
चलते हुए प्लेटफार्म पर
तकती पल भर
खिड़की पर बैठे मुझको


2

सुबह कोई गाड़ी हो तो बहुत अच्छा
रात कोई गाड़ी हो तो बहुत अच्छा
चांद कोई गाड़ी हो तो सबसे अच्छा


सुबह कोई गाड़ी होती तो मैं शाम तक पहुंच जाता
रात कोई गाड़ी होती तो मैं सुबह तक पहुंच जाता

चांद कोई गाड़ी होती तो मैं उसकी खिड़की पर ठंडे ठंडे
बैठा देखता अपनी प्यारी पृथ्वी को
कहीँ न कहीँ तो पहुंच ही जाता।
***

आलोक धन्वा

आलोक धन्वा की छोटी कविताएं


मुझे आलोक धन्वा को पढना हमेशा ही अच्छा लगता है। उनकी लम्बी कवितायेँ हमेशा चर्चा के केंद्र में रही हैं और इसके चलते उनकी कुछ बेहद कलात्मक छोटी कविताओं की अनदेखी हुई है । यहाँ प्रस्तुत हैं मेरी पसंद की कुछ छोटी कवितायेँ - कवि के प्रति आभार के साथ ......
***

पहली फिल्म की रोशनी


जिस रात बाँध टूटा
और शहर में पानी घुसा

तुमने खबर तक नहीं ली

जैसे तुम इतनी बड़ी हुई बग़ैर इस शहर के
जहाँ तुम्हारी पहली रेल थी
पहली फिल्म की रोशनी
***

आस्मां जैसी हवाएं

समुद्र
तुम्हारे किनारे शरद के हैं

और तुम स्वयं समुद्र सूर्य और नमक के हो

तुम्हारी आवाज़ आंदोलन और गहराई की है

और हवाएं
जो कई देशों को पार करती हुई
तुम्हारे भीतर पहुंचती हैं
आसमान जैसी

तुम्हें पार करने की इच्छा
अक्सर नहीं होती
भटक जाने का डर बना रहता है !
***

शरद की रातें

शरद की रातें
इतनी हल्की और खुली
जैसे पूरी की पूरी शामें हों सुबह तक

जैसे इन शामों की रातें होंगी
किसी और मौसम में
***

सूर्यास्त के आसमान

उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
उनके उतने रंग
लम्बी सडकों पर शाम
धीरे बहुत धीरे छा रही शाम
होटलों के आसपास
खिली हुई रौशनी
लोगों की भीड़
दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे
उनके कंधे जानी -पह्चानी आवाजें

कभी लिखेंगें कवि इसी देश में
इन्हें भी घटनाओं की तरह!
***

पक्षी और तारे

पक्षी जा रहे हैं और तारे आ रहे हैं

कुछ ही मिनटों पहले
मेरी घिसी हुई पैंट सूर्यास्त से धुल चुकी है

देर तक मेरे सामने जो मैदान है
वह ओझल होता रहा
मेरे चलने से उसकी धूल उठती रही

इतने नम बैंजनी दाने मेरी परछाई में
गिरते बिखरते लगातार
कि जैसे मुझे आना ही नहीं चाहिए था
इस ओर !
*** 

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले हिंदी के उन कवियों में प्रमुख हैं जिन्होंने भारतीय स्त्रियों के संसार को बिना किसी विमर्श विशेष के अपनी कविताओं में अमर कर दिया है । उनकी ऐसी ही कविताओं का एक संचयन अनुनाद ने किया है जो जल्द ही पुस्तक रुप मे प्रकाशित होगा। यहाँ प्रस्तुत है "स्त्री के साथ " नामक उसी संचयन से एक कविता।

बाई दरद ले !

तेरे पास और नसीब में जो नहीं था
और थे जो पत्थर तोड़ने वाले दिन उस सबके बाद
इस वक़्त तेरे बदन में धरती की हलचल है
घास की ज़मीन पर लेटी
तू एक भरी पूरी औरत आंखों को मींच कर
काया को चट्टान क्यों बना रही है

बाई तुझे दरद लेना हैं
जिन्दगी भर पहाड़ ढोए तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए दरद लेना

जल्दी कर होश में आ वरना उसके सिर पर जोर पड़ेगा
पता नहीं कितनी देर बाद रोए या ना भी रोए
फटी आंख से मत देख
भूल जा जोर जबरदस्ती की रात
अँधेरे के हमले को भूल जा बाई

याद कर खेत और पानी का रिश्ता
सब कुछ सहते रहने के बाद भी
कितना दरद लेती है धरती
किस किस हिस्से में कहॉ कहॉ
तभी तो जनम लेती हैं फसलें
नहीं लेती तो सूख जाती सारी हरियाली
कोयला हो जाते जंगल
पत्थर हो जाता कोख तक का पानी

याद मत कर अपने दुखों को
आने को बेचैन है धरती पर जीव
आकाश पाताल में भी अट नहीं सकता
इतना है औरत जात का दुःख
धरती का सारा पानी भी
धो नहीं सकता
इतने हैं आंसुओं के सूखे धब्बे

सीता ने कहा था - फट जा धरती
ना जाने कब से चल रही है ये कहानी
फिर भी रुकी नहीं है दुनिया
बाई दरद ले!
सुन बहते पानी की आवाज़
हाँ ! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियां
सुन ले उसके रोने की आवाज़
जो अभी होने को है
जिंदा हो जायेगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध दो नन्हें होंठों के लिए

बाई! दरद ले
राहु

वह क्या है ?

खुद की मेहनत से पाए अमृत की चाह में
कलम किया हुआ
एक सिर !

देवताओं के इस नए अहद में
उसका नाम
ईराक भी हो सकता है !

शिरीष कुमार मौर्य
एक जुलाई
पत्नी के जन्मदिन पर

किसी पके हुए फल सा
गिरा यह दिन
मेरे सबसे कठिन दिनों में

उस पेड को मेरा सलाम
जिस पर यह फला
सलाम उस मौसम को
उस रोशनी को
और उस नम सुखद अँधेरे को भी
जिसमे यह पका

अभी बाकी हैं इस पर
सबसे मुश्किल वक्तों के निशाँ

मेरी प्यारी !
कैसी कविता है यह जीवन
जिसे मेरे अलावा
बस तू समझती है

तेरे अलावा बस मैं !

शिरीष कुमार मौर्य
येहूदा आमीखाई की कवितायेँ

बम का व्यास

तीस सेंटीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पडता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जो दफनाई गई शहर में
वह रहने वाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीँ की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख्स जो समुन्दर पार किसी देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रह था - समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और मैं अनाथ बच्चों के उस रूदन का ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अंत और बिना ईश्वर का ।

अनुवाद : अशोक पांडे

पिता की बरसी पर

अपने पिता की बरसी पर मैं गया उनके साथियों को देखने
जो दफनाये गए थे उन्हीं के साथ एक कतार में
यही थी उनके जीवन के स्नातक कक्षा

मुझे याद है उनमें से अधिकतर के नाम
जैसे कि पिता को अपने बच्चे को स्कूल से घर लेट हुए याद रहते हैं
उसके दोस्तो के नाम

मेरे पिता अब भी मुझसे प्यार करते हैं और मैं तो हमेशा ही करता हूँ उनसे
इसीलिये मैं कभी रोता नहीं उनके लिए
लेकिन यहाँ इस जगह का मान रखने की खातिर ही सही
मैं ला चुका हूँ थोड़ी सी रुलाई अपनी आंखों में
एक नजदीकी कब्र देख कर - एक बच्चे की कब्र
" हमारा नन्हां योसी जब मरा चार साल का था।

अनुवाद : शिरीष कुमार मौर्य

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